पादप एवं पर्यावरण

बाढ़ी आवत देखि करि, तरुवर डोलन लाग।
हम्म कटे की कुछ नहीं, पंखेरू घर भाग।।


प्रदूषित संसार समस्त मानव जाति को विनाश की ओर ले जा रहा है। अब तो स्थिति इतनी विकृत एवं भयावनी हो गई है कि सन् 2010 में ही छह-छह ज्वालामुखी विस्फोट तथा भांति-भांति की सुनामी, अर्थात् जल-प्रलय ने धरा तले, अवलांत सागर तले जो प्रदूषित वस्तु तथा विषैले तत्व पड़े हुए थे, ये समस्त प्राणियों के नगरों तथा ग्रामों में फैलकर... जीवन को विषाक्त करते जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि मनुष्य की जीवनशक्ति इन विषैले तत्वों से क्षीण, जर्जर तथा मरणोन्मुख, भीषण से अनजान रोगों से महाकाल या अकाल मृत्यु को आमंत्रण दे रही है।

आज से छह सौ वर्ष पूर्व महाकवि कबीर ने वृक्षों के काटने पर उपरोक्त दोहा कहा था। वृक्ष बढ़ई लोगों द्वारा काटे जाने पर तरुवृंदों में हलचल होने लगती है। तरु वृंद आपदा आने पर वे परस्पर विपत्ति का संकेत कर देते हैं, बेचारे कटते वृक्ष अपनी छाया में जिन पक्षियों को आश्रय देते हैं, उन वृक्षों के कटने से पंछी बेसहारा हो जाएंगे। ये वृक्ष धरा पर पहले आए, इनके कारण प्राणियों को प्राणवायु मिलने लगी। वृक्षों में पीपल की पूजा भी इसीलिए होती है कि वह सबसे अधिक ओषजन- प्राणवायु प्रदान करता है और कार्बन डाइऑक्साइड का शोषण करता है।

विभिन्न विद्वानों ने पर्यावरण को पारिभाषित किया है, ‘स्पष्ट है कि किसी भी वस्तु के संपूर्ण कार्बनिक और अकार्बनिक वातावरण से आपसी उत्पन्न संबंध को पर्यावरण कहते हैं।’ तथा दोनों के असंतुलन को प्रदूषण कहते हैं।

पृथ्वी पर समस्त सजीव भौतिक वातावरण एवं उद्विकासीय प्रक्रिया से परस्पर संबंधित एवं संपृक् हैं। एक प्राणी दूसरे को भोजन प्रदान कर सकता है अथवा उपयोगी या हानिकारक हो सकता है। भोजन एवं आवास, अस्तित्व एवं जीवन के लिए परस्पर संघर्ष एवं सशक्त का अशक्त की जीवनलीला समाप्त करना- मत्स्य न्याय कहलाता है।

सशक्त, बलशाली जीवित रह सकते हैं, अशक्त, निर्बल समाप्त हो जाते हैं। मनुष्य एक ऐसा प्राणी है, जो जीवनयापन के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर रहता है, परंतु बुद्धिजीवी होने के कारण तथा सर्वथा निर्बल होने के बावजूद वह प्राकृतिक संसाधनों का स्वामी बन गया।

सामान्य जीवन में हम देखते हैं कि गाय का बछड़ा, मां के चाटने पर जन्म के घंटे भर के भीतर खड़ा हो जाता है, मां का दूध पीकर उछलने-कूदने लगता है, किंतु मानव-शिशु महीनों मां-बाप के सहारे बिस्तर पर पड़ा रहता है।

पशुओं में प्रतिक्षण-जीविका एवं जीवन के लिए संघर्ष करना पड़ता है, वहीं मनुष्य ने अपने लिए सब सुविधाएं जुटा ली हैं। इतना ही नहीं उसने इन संसाधनों का स्वच्छंदतापूर्वक, अंधाधुंध दोहन एवं दुरुपयोग करना आरंभ कर दिया, परिणामतः प्राकृतिक संसाधन एवं जीवधारियों के बीच संतुलन बिगड़ गया और सभ्य मनुष्य की इस घोर उपेक्षा तथा दुरुपयोग के कारण जो गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई... वह है प्रदूषित पर्यावरण।

प्रदूषित संसार समस्त मानव जाति को विनाश की ओर ले जा रहा है। अब तो स्थिति इतनी विकृत एवं भयावनी हो गई है कि सन् 2010 में ही छह-छह ज्वालामुखी विस्फोट तथा भांति-भांति की सुनामी, अर्थात् जल-प्रलय ने धरा तले, अवलांत सागर तले जो प्रदूषित वस्तु तथा विषैले तत्व पड़े हुए थे, ये समस्त प्राणियों के नगरों तथा ग्रामों में फैलकर... जीवन को विषाक्त करते जा रहे हैं।

ऐसा लगता है कि मनुष्य की जीवनशक्ति इन विषैले तत्वों से क्षीण, जर्जर तथा मरणोन्मुख, भीषण से अनजान रोगों से महाकाल या अकाल मृत्यु को आमंत्रण दे रही है। महाकवि प्रसाद ने महाकाव्य कामायनी का प्रारंभ सत्तर वर्ष पूर्व... जल प्रलय से किया था, वह दृश्य देखिए-

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर
बैठ शिला की शीतल छांह
एक पुरुष भीगे नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह।


ये मनुष्यों के पूर्वज मनु हैं तो दूसरे अमर ऋषि, महाकवि मुनि मृकुंड पुत्र मार्कंडेय को परस्पर परब्रह्म ने जल प्रलय का दृश्य दिखाया था-

करारवृंदे ने पदारवृदंम्
मुखारविंदे न विनियेशयंतम्।
वटस्य पत्रस्य पुटेशयानम्
बालं मुंकुंद शिरसा नमामि।।


हाहाकार करते पारावर की लहरों के ऊपर शिशु के रूप में महाप्रभु वट के विशाल पत्र पर पैर के अंगूठे को मुस्कराते हुए मुंह में लिए हुए हैं... प्रभु के शिशु रूप को देख मार्कंडेय प्रणाम कर रहे हैं।

विचारकों के अनुसार प्राकृतिक संसाधन के निम्न प्रकार हो सकते हैं-

1. वन संसाधन,
2. खनिज संसाधन,
3. ऊर्जा संसाधन तथा
4. भूमि या मृदा संसाधन।
इनमें प्रथम वन-संपदा का विशेष महत्व है। वन-संपदा के कारण अनेक आर्थिक समस्याओं का समाधान होता है- ईंधन, कोयला, वनौषधि, तेल, जड़ी-बूटी, लाख, गोंद, रबर, कागज, चंदन, इमारती लकड़ी, फर्नीचर या उपस्कर, सिगरेट के लिए कागज, बीड़ी के लिए तेंदु पत्ते तथा पशु-पक्षी, अन्य प्राणियों का आवास तथा उनसे मनुष्य को लाभ मिलता है। विशाल भारत में लगभग 750 लाख हेक्टेयर वन प्रदेश, अर्थात् 22.8 प्रतिशत भूमि में वन प्रदेश फैला है। हमारे छत्तीसगढ़ राज्य में भी 22 हजार करोड़ डॉलर की वन-संपदा है। प्राचीन नाम- दंडकारव्य या दंडकवन, जो आतंकियों से आक्रांत है, अभिशप्त है क्यों? ये नक्सली लुटेरे कीमती सागौन, साजा, सरई काटकर नदी द्वारा आंध्र प्रदेश ले जाकर बेचते हैं... और वन बालाओं का अपहरण, हत्या करके पर्यावरण ही नहीं शांति, अमन-चैन के दुश्मन बने हुए हैं।

अरण्य का प्राकृतिक संतुलन विकृत होता जा रहा है। पुराणों के अनुसार महासागर मे डूबी धरती का उद्धार, वाराह अवतार में, प्रभु ने किया था और महाराजा पृथु ने नगर ग्राम के नियोजित रूप की व्यवस्था की थी, इसीलिए यह पृथ्वी कहलाई। उसी पौराणिक परिकल्पना एवं परंपरानुसार प्राणियों के चार प्रकार होते हैं- 1. अंडज, 2. पिंडज, 3. स्वेदज तथा 4. उद्भिज्ज। पंछी, खग, सर्प, मछली आदि अंडों से उत्पन्न होते हैं, अतः ये अंडज हैं तथा मनुष्य, पशु आदि पिंड बनाकर मां की कोख से उत्पन्न होते हैं, अतः पिंडज तथा गंदगी, स्वेद, नाबदान, मल-मूत्र से कीड़े-मकोड़े पैदा होते हैं, अतः स्वेदज तथा धरती की कोख से वृक्ष, लता, पौधे, वनस्पति, द्रुम उत्पन्न होते हैं, इसलिए ये उद्भिज्ज कहलाते हैं। ये पादप हैं ये पैर अर्थात् जड़ों से पानी पीते हैं, अतः पादप कहलाते हैं। फल-फूल से लदे वृक्ष-द्रुम हैं तो सर्वथा औषधि का गुण लिए पौधे-वनस्पति कहलाते हैं।

प्राचीन ऋषि मुनि अरण्य मे साधना, तपस्या, चिंतन-मनन, स्वाध्याय, अध्यापन करते विश्वविद्यालयों के कुलपति होते थे। प्राचीन अनेक ग्रंथ श्रीमद्भगद् गीता के सिवाय आरण्यक हैं और अपनी संस्कृति भी आरण्यक है।

भावावेश में कवि धरती को माता कहकर पुकारता है-

माता-भूमिः पुत्रोSहं पृथिव्याः।
अर्थात् पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका दुलारा पुत्र हूं। हमारी देवियां भी शैलजा, जलजा, भूमिजा हैं। धरा इसलिए भी मां है, क्योंकि वे परात्पर प्रभु की पत्नी हैं। प्रातः उठते ही हम धरती को प्रणाम कर कहते हैं-

समुद्र वसने देवि, पर्वत स्तन मंडले।
विष्णु पत्नि! नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व में।।


कितनी भव्य कल्पना है, यही छायावाद की मूल धारणा है।

आइए पादपों का संक्षिप्त विवरण देखें- ये पादप प्रकृति को स्वच्छ, पवित्र, स्वस्थ, सुंदर बनाते हैं। वन जीवन का बड़ा अंश है। इन पादपों मे प्राणवत्ता, प्राणशक्ति, परहित प्रवृत्ति, पावन-पवन, सुगंधित समीर, सौरभ तथा वायुमंडल में निरोग बनाने की विशेषता होती है, शायद इसीलिये प्राचीनकाल में व्यक्ति वयोवृद्ध होते ही वानप्रस्थ, आश्रम में प्रवेश करता था। आज भी उत्तराखंड की तीर्थ-यात्रा में हवा का एक झोंका थकावट दूर कर यात्री को तरोताजा कर देता है।

प्राचीन साहित्य में महाकवि साहित्य को स्वांतः सुखाय के साथ बहुजन हिताय अर्थात् एक पंथ दो काज समझकर सृजन करते थे। वनस्पति के विवरण से बिहारी-सतसई, कबीर की साखी, दोहे, कृषि संस्कृति के लोकसाहित्य तथा ऋषि संस्कृति के श्लोक साहित्य में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, इसीलिए वैद्यों को कविराज भी कहते थे। लोकसाहित्य में कमल कंद के रूप में पहेली बुझौवल देखिए-

बांभन रहय अकादसी, बंभनिन रहय तीजा।
एक चरित्तर मैं, देखेंय, कांदा ऊपर बीजा।।


गहरे तालाब में, पंक में धंसे ढेंस या कमलकंद से ही कमल पुष्प जल के ऊपर आकर खिलते हैं, इसीलिए उपवास में फलाहार के रूप में कमलकंद खाना वर्जित है। भयानक रोग यक्ष्मा की यह अचूक औषधि है तथा श्वेत कमल, अरुण कमल, नीलकमल, शतदल कमल, सहस्रदल कमल तथा स्थल कमल, ब्रह्मकमल से कमल-गट्टा, मृणा तथा लक्ष्मी पूजा के लिए कमल अनिवार्यतः वांछनीय है, यहां तक कि इसी पुष्प की कली पूजा के लिए मान्य है तथा शेष किसी फूल की कली चढ़ाना वर्जित है, कच्चा नारियल वर्जित है, परंतु मूर्खों की दवा धन्वंतरि के पास भी नहीं है। एक विदेशी हकीम ने भारत के आयुर्वेद की ख्याति की परीक्षा लेने एक यात्री को भेजा भारत के प्रसिद्ध वैद्य के पास दुबला-पतला, रोगी यात्री पहुंचा। कविराज ने पूछा, ‘हकीम साहब ने कुछ कहा था’ उसने कहा। ये कोरा कागज दिया था और कहा था- रात किसी इमली के पेड़ के तले सोते हुए जाना। तो वैद्य ने उत्तर दिया जाओ, रात किसी पीपल के तले सोना, यह पीपल रात को भी प्राणवायु छोड़ता है।

महाकवि कबीर ने मधुमेह की औषधि बताई है-

बलिहारी गुरु आपकी, प्रनवऊं बारंबार।
मानुष से देवता किय, करत न लागी बार।।


ये बलिहारी-वनेला पौधा है, चार दिन भोर में खाने से भयानक मधुमेह एकदम आधा हो जाता है।

साहित्य में पुष्प धन्वा के तरकश (तुणीर) में पांच फूलों के बाण हैं- अशोक, अरविंद, आम्रमंजरी, नीलोत्पल, नवमल्लिका। टाटा कैंसर चिकित्सालय के अनुसार कैंसर की विशिष्ट औषधि-श्यामा तुलसी का रस है तो हल्दी चेहरे की झाई एवं सांवलापन दूर करने के लिए विवाह के पूर्व हरिद्रागात्र लगाने की प्रथा आज भी चली आ रही है।

बिहारी का दोहा है-

मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाईं परै, स्याम हरित द्युति होय।।


राधा, हल्दी का नाम है। विक्को कंपनी इसी हल्दी से लाखों की आमदनी कर रही है।

मैं विनोद में कहता हूं कि साहित्यकार को मूंगफली-भूमिफली के समान होना चाहिए, फूल ऊपर, फिर फली के रूप में धरा के भीतर, यानी आदर्शोन्मुख यथार्थवाद, दृष्टि आकाश आदर्श की ओर और चरण धरती पर यथार्थ को छोड़ना नहीं है। अथवा संसार में कमल पुष्प के समान रहना चाहिए। कर्दम-पंक में उत्पन्न पंकज, पंक, कीचड़ से ऊपर निर्लिप्त रहता है, यही एक आदर्श जीवन है। गद्दी नशीन राजनेताओं पर करारा व्यंग्य का स्वाद लीजिए-

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।


तो नीति का उदाहरण, पादप के द्वारा ही तथा द्विप भी साथ है- लक्ष्मी कैसे आती है? लक्ष्मी चुपके से आती है, जैसे नारियल के डाभ में पानी भर जाता है और लक्ष्मी जाती है- जैसे हाथी मल में निकला कपित्थ फल... ऊपर से ज्यों-का-त्यों... किंतु भीतर खोखला... लक्ष्मी का आगमन या गमन... दोनों दबे पैरों, लक्ष्मी चंचला जो है। लताएं, जैसे अमर बेल, गिलोय, लौकी, कुम्हड़े, अपराजिता, विष्णुकांता प्रायः परोपजीवी हैं... अमरबेल तो नंगी, लुच्ची दोनों है, किंतु गिलोय दिव्य औषधि है तो चकबड़... सूर्योदय, सूर्यास्त के साथ जागता-सोता है। घड़ी मिला लीजिए, कमलिनी और कुमुदिनी भी सूरज और चंदा के साथा वफाई निभा रही हैं तो कबीर अस्थिर यौवन की तुलना पलाश से करना नहीं भूलते-

कबरी कहा गरब्बियो, इस जोबव की आस।
टेसू फूले दिवस दस, खंखर भये पलास।।


उधर सुआ किस प्रकार झूठी मृगतृष्णा में दुःखी होता है-

सेमर सुअना सेइया, दुई ढेंढी की आस।
ढेंढी फूटी चटाक दै सुअना चला निरास।।


तो गोपिकाएं कृष्ण के वियोग में मधुवन को कोस रही हैं-

मधुवन तुम कत रहत हरे।

तो केले पर प्रसिद्ध वक्रोक्ति अलंकार प्रचलित है-

रंभा झूमत ही कहा, केहिकारण इहिखेत।
तुमसे केते हैहै गए, अऊ हैहैं इहिं खेत।।


यह केला भी अजीबोगरीब पादप है- फूल, फल, कच्चे-पके सब देता है, परंतु दंतकाष्ठ (मुखारी) के लिए एक सींक नहीं देता। वहीं शंखपुष्पी, श्वेतवसना लाजवंती, लजीली नववधु है तो हरित, श्वेत दूर्वा, गणपति, प्रिया और श्यामा तुलसी-शालिग्राम प्रिया है। गुरुनानक स्वयं वामन थे, किंतु ज्ञान में विराट थे। अपनी लघुता पर उन्होंने कहा है-

नानक नन्हें होइ रहो, जैसे नन्हीं दूब।
लता-वृक्ष सब जरि जायं, दूब खूब की खूब।।


बिल्वपत्र, शमी पत्र- सदाशिव पर चढ़ना जरूरी है तो श्रेष्ठ औषधि भी हैं। पीपल के पत्ते बकरी के लिए खाद्य तो हैं, पर कबीर ने इसी बहाने उपदेश दिया है-

बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।
जो बकरी को खात है, ताकी कौन हवाल?


घर में ईशान कोण में बिल्व वृक्ष सर्वथा वास्तुशास्त्र के अनुसार शुभ होता है, वहीं कंटीले पौधे-कैक्टस, बेर, थूहर, आंगन में वर्जित हैं। लोग कहते हैं-

बोये पेड़ बबूल का, आम कहां से होय?

मनुष्य, पेड़, पशुओं में वर्णसंकर कम खतरनाक नहीं होते, किंतु राजनीति में भ्रष्ट राजनेता ज्यादा खतरनाक होते हैं। लाखों टन धान सड़ाकर प्रदूषण तो फैलाते हैं और मदिरा बनाने वाली विदेशी कंपनियों को बेचकर स्विस बैंक में, विदेशी बैंकों में काला धन जमा करते हैं। 63-64 वर्ष में गोदाम न बनाना क्या है? राजमहल, ताजमहल बन रहे हैं, परंतु गोदाम क्यों नहीं? ये जमाखोर, नोट नहीं खाएंगे.. पेट तो अन्न से भरेगा, परंतु केशव कही न जाए, कहा कहिए? ...तो पारिजात एक ऐसा पादप है कि जिसके पत्ते मधुमेह को ठीक करते हैं तो फूल धरती पर गिरने के बाद भी भगवान को चढ़ाए जाते हैं। शेफाली, प्रभात की धीमी बयार में चुपके से टपक पड़ती है और भीनी सुगंध देती रहती है।

वनस्पति जगत् में कई अनुपम, अद्भुत पादप हैं- सामान्यतः ग्राम के चारों ओर अमराई, ताल-तलैया का निर्माण-ग्रामीण परंपरा और प्रथा है... इसीलिए वृक्ष विवाह, तालाब विवाह, वृषोत्सर्ग मठोत्सर्ग... कृषि प्रधान देश की कृषि-संस्कृति की विशेषता है। अमलतास, अशोक, आम, कदंब, देवदार, ताड़, तुलसी, नारियल, नीम, पलाश, पीपल, बबूल, बरगद, अक्षय वट, शिरीष, शीशम, सरो, सहजन, सागौन, साल, हरसिंगार, पारिजात, पाटल, मंदार, कर्णिकार, वन-उपवन की शोभा हैं।

आज पॉलीथिन, प्रदूषण को दुगना कर रहा है और हमारी सरकार इसे रोक नहीं पा रही है। वहीं छोटे से भूटान में पॉलीथिन का प्रवेश भी वर्जित है। प्रदूषण का प्रकोप इतना है कि जीवाणु, कीटाणु की गिनती संभव नहीं। शुद्ध पानी दुर्लभ है, बोतल बंद पानी का प्रचलन इसका प्रमाण है। पर्यावरण प्रदूषित है... इसके सामान्य लक्षण हैं- दुर्गंध, खाज, खुजली, जूं, खटमल, काक्रोच (तिलचट्टा), मच्छर, चींटे, माहो, भांति-भाति के कीड़े-घुन, दीमक, पिस्सू, टिड्डे, पतंगा, ऊर्णनाभ, बिच्छू, सांप, ततैया, छिपकली, सरट (गिरगिट) अंधा सांप, घोंघा, गंदे पानी में (शंबूक), सड़े मांस में चील, कौए, गिद्ध, बगुले, सियार ...फफूंद, कालिमा...कटु स्वाद, मुंह में लेते ही वमन की उत्प्रेरणा, श्वसन-प्रश्वसन में कष्ट, नाक की नाली बरसाती नाली बन जाती है। छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े खाने मेंढक आते हैं, मेंढक खाने सांप आते हैं और बदबू से बीमारी फैलती है, प्रदूषण-पर्यावरण पृथ्वी के सभी प्राणियों के लिए घातक है, मारक है। पर्यावरण को परिशुद्ध प्राकृतिक रखना है तो वन-उपवन, सरिता, सरोवर, खेत-खलिहान को, आस-पास को स्वच्छ, निर्मल रखना नागरिकों का प्रथम तथा सर्वोच्च कर्तव्य है, अन्न के उत्पादन के लिए अनेक वर्जित, विषैली, विदेशी दवाएं सबसे ज्यादा खतरनाक हैं, परंतु भ्रष्ट सरकार ने आंख-कान दोनों मूंद लिए हैं और इधर अव्यवस्था की लाश पर मक्खियां भिनभिना रही हैं। रात, घुप्प अंधेरे में घिरी है। लगता है, जैसे किसी ने चांद चुरा लिया है।

अंधेरा धूप को धमका रहा है...
और हम चुप्प हैं।
चुना था गांव के वट-वृक्ष का रक्षक उसे
वह कुल्हाड़ी लेकर आ रहा है-
और हम चुप हैं।।


एक बात कहूं-
तुम्हारी फाइल मे शहर का मौसम गुलाबी है।
तुम्हारा आंकड़ा झूठा है, दावा किताबी है।।


एक साहित्यकार का सपना है-
चंदा में जुन्हैया हो, सूरज में तेज हो, बादलों में पानी, पानी में शीतलता-स्वच्छता हो, वनस्पति में वनलक्ष्मी हो, वनवासी में वनोत्सर्ग हो, खेतधानी हो, फूलों में सुगंध हो, तरुणों में तेजस्विता हो, कवी-कलाकारों मे करुणा हो, वैज्ञानिकों में ज्ञान हो, संतों में सत्य हो, नारियों में कुलीनता हो, राजनेता में जनहित का उल्लास हो तो जीवन में सदैव मधुमास हो।

शिवमंदिर के पास,
विद्यानगर, बिलासपुर (छ.ग.)

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Post By: Shivendra
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