पाबंदी के मायने

हापुस आमभूमंडलीकरण के समर्थकों ने क्या सोचा था कि आगे चलकर वह फायदे के बजाय घाटे में बदल जाएगा। अपनी चीजों को दुनिया में कहीं बेचना तो दूर, घरेलू बाजारों में भी उनकी वाजिब कीमतें मिलना दुश्वार हो जाएंगी।

स्वाद और खूश्बू के लिहाज से भारतीय आम की एक मशहूर किस्म हापुस यानी अल्फांसों के साथ इधर जो कुछ हुआ है, उससे भूमंडलीकरण का वही नकारात्मक चेहरा उभर कर सामने आया है, जिसकी ढकी-छिपी चर्चा अपने देश में अक्सर होती रही है।

हापुस आम, जो आम बेचे जाने के पारंपरिक तरीके यानी वजन या सैकड़ा के भाव से नही बल्कि दर्जन के भाव बिकता है और एक दर्जन की कीमत हाल तक स्थानीय बाजारों मे भी 800 रुपए तक थी। इधर पहली मई की यूरोपीय संघ द्वारा इस पर पाबंदी आयद करने के फैसले के बाद 350-400 रुपए प्रति दर्जन तक आ चुकी है।

यूरोपीय देश ब्रिटेन ही नहीं, दुबई और अन्य मध्य एशियाई देशों में इसकी मांग घटी है और देखा देखी जापान ने इसके आयात पर रोक लगा दी है। महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के जिन इलाकों से हापुस की खेपें नवीं मुंबई के वाशी स्थित कृषि उत्पाद बाजार समिति में विदेश भेजने के वास्ते उतरती हैं, वहा इससे लदे ट्रकों की कतारें लग गई हैं।

करेला, बैंगन, चिचिंडा और अरबी नामक चार सब्जियों सहित हापुस पर यूरोपीय संघ द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने से कोंकण के आम किसान और व्यापारी हताशा और चिंता में है।

मसला अकेले यूरोपीय सघ का नहीं है, जो भारत से आने वाले फल-सब्जियों की स्वच्छता को यूरोपीय मानकों की कसौटी पर खरा उतरने की शर्त रख रहा है। अमेरिकी, मध्य एशियाई देश, जापान, सिंगापुर, न्यूजीलैंड जैसे देश भी यहां से पहुंचने वाले खाद्यान्नो में ऐसी साफ-सफाई चाहते हैं।

अमेरिका की शर्त है कि हापुस और अन्य फल-सब्जियों को न्यूक्लियर रेडिएशन से उपचारित किया जाए। भारत में यह व्यवस्था में महाराष्ट्र के केवल लासनगांव में उपलब्ध है, जहां देश की सबसे बड़ी प्याज की मंडी है। जापान और मध्य एशियाई देश चाहते हैं कि उन्हें भेजे जाने वाले फल-सब्जियों को गर्म पानी और गर्म वाष्प से उपचारित किया जाए।

यूरोपीय संघ का कहना है कि फल-मक्खियों जैसे परजीवियों का ब्रिटेन पहुंचने का मतलब है कि वहां की सलाद, खीरे, टमाटर वगैरह के सालाना पैदावार को नुकसान पहुंचना। ब्रिटेन में फलों-सब्जियों की जांच करने वाले विभाग का कहना है कि गैर यूरोपीय कीट अगर एक बार वहां की आबो हवा मे रच-बस गए, तो उनसे छुटकारा पाना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए बेहतर है कि उन्हें अपने साथ लाने वाले फल-सब्जियों की खेप की आमद ही रोक दी जाए।

हापुस का निर्यात थमने से आम के देसी उपभोक्ताओं को तो लाभ होगा, लेकिन इसकी भारी कीमत हापुस के किसानों-व्यापारियों और विदेशी मुद्रा भंडार को चुकानी पड़ सकती है। अंदाजा है कि पाबंदी के चंद दिनों में ही महाराष्ट्र-कर्नाटक के किसानों और व्यापारियों को सौ करोड़ रुपए की चपत लग चुकी है। नुकसान सिर्फ भारत का नहीं है। यूरोप में भी भारत से अल्फांसो और आम की अन्य किस्में मंगा कर बाजार में बेचने वाले व्यापारियों के हित भी इससे प्रभावित हो रहे हैं।

मिसाल के तौर पर ब्रिटेन में सालाना आयातित करीब उनतीस लाख किलो भारतीय आमों का बाजार बासठ करोड़ रुपए का है। उधर, पाबंदी से हर दिन ब्रिटेन के लाखो खुदरा विक्रेताओं को भी नुकसान हो रहा है। भारत से सभी प्रकार के फलों का पैंसठ हजार टन के करीब सालाना निर्यात होता है, इसमें सबसे ज्यादा योगदान आम का ही है। इसका कारण यह है कि दुनिया में आम की कुल पैदावार का चालीस फीसद भारत में ही होता है।

ऐतराज सही या गलत है, इसकी कोई जांच अपने देश में तब भी नहीं कराई गई, जब ये खेपे वापस लौट आईं। इससे लगता है कि सरकार को और हमारी कंपनियों को अपने नागरिकों की सेहत की कोई फ़िक्र नहीं है। आखिर जो चीज ब्रितानी या अमेरिकी नागरिक को नुकसान पहुंचा सकती है, वह भारतीयों का हाजमा भला कैसे दुरुस्त रखने में कामयाब हो सकती है। हापुस आम के परजीवी कीट अगर ब्रिटेन में इंसानी सेहत और खेती की बलि ले सकते हैं, तो इनका कुछ असर तो हमारे स्वास्थ्य और फसल पर पड़ रहा होगा।

किसानों और व्यापारियों को हो रहे नुकसान के मोर्चे पर घिरी भारत सरकार ने हालांकि, इस पाबंदी को नाजायज बताने और इस मामले को विश्व व्यापार संगठन के पास ले जाने की चेतावनी भी दी है, लेकिन इसका कोई असर होगा, इसकी संभावना कम है।

मुद्दा यह है कि जिस समझौते की बारीकियो को जाने बगैर सरकार हामी भर चुकी है, वह हमारे लिए गलफांस बन चुकी है। इस समझौते के तहत भारत ने यूरो गैप (यूरोपीय गुड एग्रीकल्चर प्रैक्टिसेज) नामक एक जरूरी संधि को मंजूरी दे रखी है, जिसमें साफ उल्लेख है कि भारत जैसे गर्म मुल्क को अपना कोई सामान ठंडी प्रकृति वाले यूरोपीय-अमेरिकी देशों में भेजने से पहले कड़े कृषि मानकों का पालन सुनिश्चित करना होगा। लेकिन तापमान मे व्यापक अंतर के कारण ऐसे कृषि मानकों का पालन पूरी तरह संभव नहीं हो पाता है।

विशेषज्ञ बताते हैं कि अगर भारत ने विश्व व्यापार संगठन समझौता मानने की जल्दबाजी न दिखाई होती और इसकी शर्तों में अपनी जलवायु और भौगोलिक दशकों के अनुकूल परिवर्तन कराने पर जोर दिया होता तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता। मुद्दा यह है कि तापमान और जलवायु में अंतर के आधार पर अमेरिका-यूरोप भेजे जाने वाले फल-सब्जियों के परीक्षण और प्रमाणन की मद मे भारत कुछ छूटें हासिल कर सकता है। पर अफसोस कि ऐसा नहीं हो सका।

अब चिड़िया चुग गई खेत वाले अंदाज में भारत सरकार दावा कर रही है कि उसने निर्यात योग्य खाने-पीने की सभी चीजों की जांच-परख और प्रमाणीकरण के वास्ते भरोसेमंद प्रयोगशाला की व्यवस्था की है। उसका दावा यह भी है कि इस प्रयोगशाला द्वारा प्रमाणपत्र जारी करने की प्रक्रिया को यूरोपीय संघ, अमेरिका और अन्य देश मानते हैं। लेकिन सवाल है कि क्या हापुस के मामले में इस प्रमाणीकरण का सहारा लिया गया था?

वैसे आज जो हड़कंप हापुस पर है, कुछ वैसे ही नजारे भारतीय आयुर्वेदिक औषधियों की खेपो में कीटनाशकों को लेकर पहले भी देखा जा चुका है। यूरोपीय-अमेरिकी देशों की नाराजगी के बाद दवाओं की खेप वापस मंगाई गई। क्या साफी और क्या च्यवनप्राश, जिन औषधियों को देश में खून साफ करने और प्रतिरोधक क्षमता में इजाफे के दावे के साथ धड़ल्ले से बेचा जाता है, उनके बारे में अमेरिका और कनाडा वगैरह ने कहा कि इनमें वे हानिकारक तत्व ज्यादा है।

ऐतराज सही या गलत है, इसकी कोई जांच अपने देश में तब भी नहीं कराई गई, जब ये खेपे वापस लौट आईं। इससे लगता है कि सरकार को और हमारी कंपनियों को अपने नागरिकों की सेहत की कोई फ़िक्र नहीं है। आखिर जो चीज ब्रितानी या अमेरिकी नागरिक को नुकसान पहुंचा सकती है, वह भारतीयों का हाजमा भला कैसे दुरुस्त रखने में कामयाब हो सकती है।

हापुस आम के परजीवी कीट अगर ब्रिटेन में इंसानी सेहत और खेती की बलि ले सकते हैं, तो इनका कुछ असर तो हमारे स्वास्थ्य और फसल पर पड़ रहा होगा। अपने व्यापार को हो रहे नुकसान का हंगामा खड़ा करने और मामले को विश्व व्यापार समझौते में उठाने से पहले क्या जरूरी नहीं है कि भारत सरकार उन आपत्तियों की जमीनी हकीकत जाने और अपने नागरिकों की जेब और सेहत के प्रति भी अपना थोड़ा फर्ज निभाए।

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