ओजोन परत का नाश एक सच्चाई है और पृथ्वी पर होने वाले इसके दुष्प्रभाव सचमुच चिन्ता का विषय हैं। वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद की दो राष्ट्रीय प्रयोगशालाएँ ओजोन परत का नाश करने वाले सीएफसी रसायन समूहों के विकल्प ढूँढने के विश्वव्यापी अभियान में शामिल हो गई हैं। लेखक के अनुसार इस समस्या का हल ऐसी नवीन एवं सुरक्षित प्रौद्योगिकी अपनाकर ही निकाला जा सकता है जो वायुमंडल के लिए हितकर हो। यद्यपि विकास और उन्नति की अवधारणा आज नवीन प्रौद्योगिकी और ऐसे उत्पादों से निकटता से जुड़ी हुई है जो जीवन को बेहतर, अधिक सुरक्षित और जीने योग्य बनाते हैं और इसमें भी सन्देह नहीं है कि कृषि, स्वास्थ्य की देखरेख, संचार एवं मनोरंजन आदि कई क्षेत्रों में यह बात सच साबित हुई है। परन्तु अनेक ऐसे उदाहरण भी हैं जहाँ तथाकथित हैं जहाँ तथाकथित हानिरहित एवं उपयोगी कहे जाने वाले उत्पाद भी लम्बे समय में वातावरण एवं मानव स्वास्थ्य के लिए अतिशय हानिकारक सिद्ध हुए हैं।
अंटार्कटिका क्षेत्र में ओजोन छिद्र की उपस्थिति इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि एक समय पूर्णतः निष्क्रिय एवं इसी कारण सुरक्षित माने जाने वाले कुछ रसायन-समूह अंततः मनुष्य के लिए कितने विनाशकारी साबित हुए हैं। ये रसायन समूह जिन्हें क्लोरोफ्लूरोकार्बन (सीएफसी) के नाम से जाना जाता है, वायुमंडल की ऊपरी सतह में विद्यामान ओजोन की क्षति और ‘ओजोन छिद्र’ की उत्पत्ति के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी माने गए हैं।
ओजोन एक ऐसी गैस है जो ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं से बनी है जबकि साधारण ऑक्सीजन दो परमाणुओं से बनी होती है। ओजोन वायुमंडल की एक सूक्ष्म परत है जो समुद्री सतह से 60 कि.मी. की ऊँचाई तक विविध सान्द्रता में पाई जाती है। ओजोन की अधिकतम सान्द्रता पृथ्वी की सतह से 20 से 50 कि.मी. की ऊँचाई पर क्षोभ मंडल और समताप मंडल के बीच पाई जाती है।
ओजोन की सर्वाधिक मात्रा 20 से 25 कि.मी. की ऊँचाई पर पाई जाती है। परन्तु यहाँ भी एक लाख अणुओं में से एक अणु ही ओजोन का होता है। वास्तव में समस्त वायुमंडल में ओजोन की कुल मात्रा इतनी कम है कि यदि उसे पृथ्वी पर लाकर भूमंडल पर बराबर फैला दिया जाए तो उसकी परत केवल 3 मि.मी. की होगी।
तथापि ओजोन की यह पतली-सी परत धरती पर जीवन की सुरक्षा के लिए अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि यह सूर्य के हानिकारक पराबैंगनी प्रकाश को पृथ्वी पर पहुँचने से रोकती है। 280 से 320 नेनोमीटर की तरंगदैर्ध्य वाले सूर्य के अतिशय हानिकारक पराबैंगनी प्रकाश (पराबैंगनी-बी प्रकाश) को यह ओजोन परत प्रभावी ढंग से रोकती है।
यह ओजोन कवच न हा तो परिणाम मनुष्य के लिए घातक होंगे। पराबैंगनी-बी विकिरण जीवित पदार्थों के क्षय में सक्षम है और मानव चमड़ी पर इसके आधिक्य से कैंसर हो सकता है। अतः यदि मनुष्य धूप का आनंद लेते रहना चाहता है तो ओजोन परत को बचाए रखना अत्यन्त आवश्यक है।
क्लोरोफ्लूरोकार्बन अथवा सीएफसी प्रकृति में स्वयं विद्यमान नहीं होते ये क्लोरीन, फ्लोरीन एवं कार्बन के मनुष्य निर्मित रसायनसमूह हैं जिनकी खोज 1920 के दशक के उत्तरार्द्ध में हुई थी। एक दशक के भीतर ही रेफ्रिजेरेटरों में अमोनिया के स्थान पर कूलिंग के लिए इनका इस्तेमाल किया जाने लगा यद्यपि 1960 तक इनका प्रयोग सीमित मात्रा में ही किया गया।
तत्पश्चात इनका उत्पादन विशेषकर यूरोप और अमेरिका में एकाएक बढ़ा और इनका विविध रूपों में इस्तेमाल होने लगा यथा प्लास्टिक इन्सुलेटिंग फोम में, ब्लोइंग एजेंट के रूप में, एरोसोल स्प्रे में, प्रोपेलेंट के रूप में और इलेक्ट्रानिक मशीनरी की सफाई के सोल्वेंट में। साथ ही रेफ्रिजरेटरों और एयरकंडीशनरों में भी इनका इस्तेमाल जारी रहा। सीएफसी के इस व्यापक उपयोग का प्रमुख कारण था इसकी निष्क्रियता एवं स्थिरता। इनके असीमित उपयोग के घातक दुष्परिणामों की तब कल्पना तक नहीं की जा सकती थी।
सर्वप्रथम 1973 में दो अमेरिकी वैज्ञानिकों ने सीएफसी की ओजोन-क्षरण क्षमता की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया और तत्पश्चात 1978 में अमेरिका और कई अन्य यूरोपियन देशों में सीएफसी आधारित वायुविलयों (एरोसोलस) पर प्रतिबंध लगा दिया गया। तथापि इसके वास्तविक खतरों का पता वर्ष 1984 में चला जब एक ब्रिटिश अंटार्कटिक अनुसंधान दल ने दक्षिणी बर्फ सतह के ऊपरी क्षेत्र में ओजोन परत के क्षय की सूचना दी।
सर्वेक्षण से पता चला कि अंटार्कटिका क्षेत्र के ऊपर एक छोटे भाग में ओजोन परत 30 प्रतिशत नष्ट हो चुकी है जिसके कारण धरती के इस सुरक्षा कवच में एक ‘छिद्र’ बन गया है। उसी दौरान ली गई सेटेलाइट आकृतियों से भी इस तथ्य की पुष्टि हुई। वर्ष 1987 आते-आते अंटार्कटिका पर ओजोन की परत 50 प्रतिशत तक नष्ट हो चुकी थी जिससे खतरे की घंटी बजना स्वाभाविक था। इस दिशा में कुछ करने का समय आ पहुँचा था।
वर्ष 1988 तक सीएफसी को ओजोन क्षय के प्रमुख कारक के रूप में पहचान लिया गया था परन्तु उनका इस्तेमाल रोकने से पहले यह जानना आवश्यक था कि वे ओजोन को क्षति किस प्रकार पहुँचा रहे हैं। वैज्ञानिक इस बात से हैरान थे कि सीएफसी जैसे निष्क्रिय एवं स्थिर रसायन समूह ओजोन से प्रतिक्रिया कर उसे नष्ट कर रहे हैं।
धीरे-धीरे बात स्पष्ट हुई और कारण समझ में आने लगा। पता यह चला कि इन रसायनों के वही गुण जो उन्हें पृथ्वी पर उपयोगी बनाते हैं, वातावरण में पहुँचने के बाद एक समस्या बन जाते हैं। अपनी तुलनात्मक वाष्पशीलनता के कारण सीएफसी वातावरणीय वायुमंडल में शीघ्र प्रवेश कर जाते हैं एवं सल्फरडाई-ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड एवं हाइड्रोकार्बन जैसे अन्य रसायनों की तरह फोटोडिसोसिएशन, ऑक्सीडेशन आदि पद्धतियों से इन्हें वातावरण से अलग नहीं किया जा सकता।
परिणामतः एक बार वातावरण में प्रवेश कर लेने के बाद ये 150 वर्ष तक भी वहाँ बने रह सकते हैं। इस अवधि में वे किसी प्रकार वातावरण की निचली सतह से उठकर 25 से 40 कि.मी. की ऊँचाई वाले समताप मंडल में प्रवेश कर जाते हैं और यहीं उनकी ओजोन क्षरण प्रक्रिया प्रारम्भ होती है।
प्राथमिक चरण में पराबैंगनी विकिरण से सीएफसी के क्लोरीन अणु पृथक हो जाते हैं और अत्यन्त क्रियाशील ये स्वतंत्र क्लोरीन अणु ओजोन पर आक्रमण कर क्लोरीन-मोनो-ऑक्साइड नामक पदार्थ पैदा करते हैं। यह क्लोरीन-मोनो-ऑक्साइड फिर अनेक प्रतिक्रियाओं की शृंखला से गुजरता हुआ बहुत से स्वतंत्र क्लोरीन परमाणुओं को विमुक्त कर देता है जो ओजोन परत का विनाश करते हैं और यह प्रक्रिया जारी रहती है।
इस क्लोरीन परमाणु की ओजोन क्षरण क्षमता इतनी अधिक है कि निचले वातावरण में पहुँचकर नष्ट होने के पूर्व इसका एक परमाणु ओजोन के एक लाख अणुओं को नष्ट कर डालता है।
ओजोन छिद्र के अंटार्कटिका क्षेत्र में होने का एक अन्य तर्क भी है जो शीत ऋतु में इस बर्फीले महाद्वीप के ऊपर होने वाली मौसमी गतिविधियों से सम्बन्ध रखता है। शीत ऋतु में चलने वाली तेज पश्चिमी हवाएँ अंटार्कटिका के ऊपर एक जलावर्त-सा बना देती हैं जिससे उसके भीतर की वायु पृथक हो जाती है।
उत्तर की अपेक्षाकृत गर्म हवाओं के सम्पर्क में न आ पाने के कारण इस जलावर्त के भीतर तापमान गिरता जाता है और इससे 25 कि.मी. की ऊँचाई पर समताप मंडलीय बादल बनने लगते हैं। ये बादल दो कार्य करते हैं: एक तो ये उन बर्फकणों को पैदा करते हैं जिनकी सतह पर बाद की रासायनिक प्रतिक्रिया होती है और दूसरे ये नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स को रोक लेते हैं और उन्हें क्लोरीन-मोनो-ऑक्साइड से प्रतिक्रिया नहीं करने देते।
बसन्त ऋतु में सूर्य का प्रकाश तेज होने पर ये बर्फकणों की सतह पर प्रतिक्रिया करके ओजोननाशक क्लोरीन परमाणुओं को मुक्त कर देते हैं। अक्तूबर आने तक अंटार्कटिका के ऊपरी भाग में बना यह जलावर्त टूटने लगता है और ओजोन का स्तर कुछ निश्चित ऊँचाइयों पर एकाएक कम हो जाता है।
इस समय विश्व भर में ओजोन परत को क्षति पहुँचाने वाले सीएफसी रसायनों का विकल्प खोजने के लिए शोध किए जा रहे हैं। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार मांट्रियल समझौते के तहत प्रतिबन्धित 20 सीएफसी रसायनों में से भारत सात का उत्पादन तथा इस्तेमाल करता है। इस समझौते के तहत विकासशील देशों को ओजोन-संगत तकनीक के विकास के लिए अन्तरराष्ट्रीय ऋण उपलब्ध कराने की भी व्यवस्था की गई है और इस दिशा में भारत में शुरुआत भी हो चुकी है।यद्यपि ओजोन क्षरण सर्वप्रथम अंटार्कटिका के ऊपर देखा गया परन्तु तत्पश्चात आर्कटिक तथा शीतोष्ण अक्षांश के ऊपर भी ओजोन स्तर घटने की सूचना मिली और नासा (नेशनल एरोनौटिक स्पेस एजेंसी) के उच्च वायुमंडलीय रिसर्च सेटेलाइट द्वारा प्राप्त आँकड़ों से इसका कारण विदित हुआ।
पता चला कि ओजोन के विनाश के लिए अंटार्कटिका के ऊपरी जलावर्त में उपस्थित बर्फकण ही उत्तरदायी नहीं है बल्कि अन्यत्र भी कुछ दूसरे कण इस विश्वव्यापी ओजोन-नाशक रासायनिक प्रक्रिया को बढ़ावा दे रहे हैं। साथ ही यह भी सुझाव दिया गया कि प्रमुख ज्वालामुखियों जैसे वर्ष 1982 एवं वर्ष 1991 में क्रमशः मैक्सिको और फिलिपीन्स में ‘एल चिचोन- और ‘माउन्ट पिनाटिबो’ ज्वालामुखियों द्वारा वायुमंडल में विमुक्त सलफ्यूरिक एसिड के प्राकृतिक वायुविलय गैर-ध्रुवीय क्षेत्रों में ओजो नाश का कारण हो सकते हैं।
यह जानकारी काफी आश्चर्यजनक थी क्योंकि ओजोन का क्षय गर्मियों में हुआ जिस समय इस क्षय की सम्भावना सबसे कम थी। साथ ही यह चौंकाने वाली बात भी थी क्योंकि इसका अर्थ था कि गैर-ध्रुवीय क्षेत्रों के पौधों, जानवरों एवं मनुष्यों पर पराबैंगनी-बी विकिरण के दुष्प्रभावों का खतरा बढ़ गया है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार यह जानकारी आने वाले तूफान की पूर्व सूचना मात्र थी।
ओजोन का नाश अब एक तथ्य के रूप में जाना जा चुका है और मानव पर होने वाले दुष्प्रभावों को लेकर वास्तविक चिन्ता है। हमारे ग्रह पर जीवन के लिए इसका क्या महत्व है? इस सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ कहना अभी कठिन है क्योंकि यद्यपि ओजोननाशक रासायनिक प्रक्रिया के बारे में काफी जानकारी प्राप्त हो चुकी है, पराबैंगनी विकिरण से जीवित पदार्थों पर होने वाले दुष्प्रभाव अभी पूरी तरह विदित नहीं हैं।
अनुसंधानकर्ताओं ने कुछ समय से ही मनुष्यों, पौधों और जलीय पारिस्थितिकी पर होने वाले ओजोन क्षति के प्रभावों पर ध्यान केन्द्रित किया है। मनुष्यों पर होने वाले कुछ दुष्परिणाम तो विदित थे ही। उदाहरण के लिए यह ज्ञात था कि पराबैंगनी विकिरण मनुष्य की रोगरोधी क्षमता को नष्ट करते हैं और मोतियाबिंद तथा चमड़ी का कैंसर आदि रोगों में वृद्धि करते हैं। दो सौ से अधिक पौध प्रजातियों में से दो-तिहाई जो मुख्यतः फली, मटर और बंदगोभी की विभिन्न जातियों से संबद्ध हैं, इससे प्रभावित पाई गई हैं।
पराबैंगनी विकिरण के दुष्प्रभाव इन पौधों में पत्ती का आकार छोटा होने, बढ़वार रुकने, बीज की गुणवत्ता घटने और खरपतवार, रोग और कीटों के खतरों में वृद्धि के रूप में सामने आए हैं। अंटार्कटिका के समुद्री जल में हुए एक वैज्ञानिक अध्ययन से पता चला है कि पराबैंगनी विकिरण की अधिकता शैवाल उत्पादन को 6 से 12 प्रतिशत तक कम कर देती है। साथ ही यह जलीय लार्वा और अन्य जीवों को भी क्षति पहुँचाती है।
लम्बे समय में इस क्षति के परिणाम घातक हो सकते हैं। उदाहरणार्थ अंटार्कटिका के जल में फाइटोप्लेंक्टन (पादम-जीव) के उत्पादन में कमी झींगे से मिलते-जुलते क्रिल नामक जन्तु को, जो अंटार्कटिक खाद्य शृंखला की निम्नतम कड़ी है, प्रभावित कर सकती है जिससे धीरे-धीरे मछलियाँ एवं समुद्री जानवर जैसे सील और ह्वेल मछली, जो भोजनार्थ क्रिल पर निर्भर हैं, प्रभावित हो सकते हैं। अभी तो यह सब मात्र एक अनुमान है। ओजोन छिद्र से होने वाले वास्तविक खतरों का पता चलना अभी शुरू ही हुआ है और आज जो ज्ञात है, हो सकता है वह भी पूर्ण तथ्य न हो।
ओजोन परत के विनाश के विश्वव्यापी खतरे की समस्या का हल निकालने हेतु सितम्बर, 1987 में कनाडा के मांट्रियल शहर में हुई 47 राष्ट्रों की एक बैठक में विचार किया गया और मांट्रियल प्रोटोकाल नामक एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इस समझौते में एक निश्चित समय के भीतर ओजोन-नाशक रसायनों का इस्तेमाल रोकने की बात कही गई और ओजोन-नाशक द्रव्यों के दो अलग-अलग समूहों की पहचान की गई जिनमें पहला था क्लोरोफ्लूरोकार्बन अथवा सीएफसी, और दूसरा था हेलन्स (अग्निशमन में प्रयुक्त)।
प्रोटोकॉल में उन देशों को भी जो हस्ताक्षरकर्ता नहीं थे, सीएफसी के इस्तेमाल और उत्पादन पर प्रतिबंध लगाने पर विचार किया गया और इस उद्देश्य से सदस्य देशों से इन देशों को होने वाले सीएफसी के आयात-निर्यात पर रोक लगाने का निर्णय लिया गया।
मांट्रियल समझौते में अगले 15 वर्षों के भीतर सीएफसी के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का लक्ष्य रखा गया है। समझोते के तहत विकसित देशों को सीएफसी का उत्पादन और प्रयोग सन 2000 तक बंद करने को कहा गया है जबकि विकासशील देशों को इसके लिए सन 2010 तक का समय दिया गया है।
इस समय विश्व भर में ओजोन परत को क्षति पहुँचाने वाले सीएफसी रसायनों का विकल्प खोजने के लिए शोध किए जा रहे हैं। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार मांट्रियल समझौते के तहत प्रतिबन्धित 20 सीएफसी रसायनों में से भारत सात का उत्पादन तथा इस्तेमाल करता है। इस समझौते के तहत विकासशील देशों को ओजोन-संगत तकनीक के विकास के लिए अन्तरराष्ट्रीय ऋण उपलब्ध कराने की भी व्यवस्था की गई है और इस दिशा में भारत में शुरुआत भी हो चुकी है।
वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद की दो राष्ट्रीय प्रयोगशालाएँ-राष्ट्रीय रसायन प्रयोगशाला, पूरा तथा भारतीय रासायनिक तकनीक संस्थान, हैदराबाद इस दिशा में प्रयासरत हैं तथा यहाँ सीएफसी के दो विकल्प, एचसीएफसी-22 तथा एचसीएफसी-134 विकसित भी किए जा चुके हैं।
लेकिन सीएफसी के सुरक्षित विकल्पों का उत्पादन ही पर्याप्त नहीं है। साथ ही कम्प्रेसर तकनीक को बदलना भी जरूरी है लेकिन यह कार्य रातों-रात नहीं किया जा सकता। इसलिए यदि मांट्रियल समझौते में निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचना है तो सीएफसी का विकल्प विकसित करने के साथ-साथ नए कम्प्रेसरों का विकास भी करना होगा।
वैकल्पिक हाइड्रो-क्लोरोफ्लूरोकार्बन यानी एचसीएफसी भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं माने जा रहे हैं वैज्ञानिकों के अनुसार इनसे भी ओजोन परत को क्षति पहुँचती है यद्यपि यह क्षति सीएफसी की अपेक्षा कम है। वास्तव में वर्ष 1992 में मांट्रियल समझौते के कोपेनहेगन सत्र में एचसीएफसी पर भी रोक लगाने का प्रस्ताव रखा गया था।
इस समझौते में एचसीएफसी का प्रयोग कम करने के लिए पाँच चरण निर्धारित किए गए हैं जिनकी शुरुआत सन 2004 से की जानी है। एचसीएफसी पर पूरी तरह रोक लगाने का समय सन 2030 निर्धारित किया गया है। साथ ही रेफ्रिजरेशन तकनीक के ऐसे विकल्प खोजने के प्रयास जारी हैं जिनमें ताप निष्कासन माध्यम के रूप में किसी निष्क्रिय गैस का प्रयोग किया जा सके। एक अन्य तकनीक थर्मो-अकाउस्टिक रेफ्रिजरेशन पद्धति है जिसमें कूलिंग के लिए ध्वनि तरंगों तथा निष्क्रिय गैसों का सम्मिलित प्रयोग किया जाता है।
ओजोन की समस्या तकनीकी के बेरोकटोक एवं गलत प्रयोग से खड़ी हुई है तथापि इसका समाधान भी ऐसी नई तथा अपेक्षाकृत बेहतर तकनीक तथा उत्पादों में निहित है जो पृथ्वी के वातावरण को क्षति न पहुँचाएँ।
(लेखक ‘साइन्स रिपोर्टर’ के सम्पादक हैं।)
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अंटार्कटिका क्षेत्र में ओजोन छिद्र की उपस्थिति इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि एक समय पूर्णतः निष्क्रिय एवं इसी कारण सुरक्षित माने जाने वाले कुछ रसायन-समूह अंततः मनुष्य के लिए कितने विनाशकारी साबित हुए हैं। ये रसायन समूह जिन्हें क्लोरोफ्लूरोकार्बन (सीएफसी) के नाम से जाना जाता है, वायुमंडल की ऊपरी सतह में विद्यामान ओजोन की क्षति और ‘ओजोन छिद्र’ की उत्पत्ति के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी माने गए हैं।
ओजोन परत
ओजोन एक ऐसी गैस है जो ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं से बनी है जबकि साधारण ऑक्सीजन दो परमाणुओं से बनी होती है। ओजोन वायुमंडल की एक सूक्ष्म परत है जो समुद्री सतह से 60 कि.मी. की ऊँचाई तक विविध सान्द्रता में पाई जाती है। ओजोन की अधिकतम सान्द्रता पृथ्वी की सतह से 20 से 50 कि.मी. की ऊँचाई पर क्षोभ मंडल और समताप मंडल के बीच पाई जाती है।
ओजोन की सर्वाधिक मात्रा 20 से 25 कि.मी. की ऊँचाई पर पाई जाती है। परन्तु यहाँ भी एक लाख अणुओं में से एक अणु ही ओजोन का होता है। वास्तव में समस्त वायुमंडल में ओजोन की कुल मात्रा इतनी कम है कि यदि उसे पृथ्वी पर लाकर भूमंडल पर बराबर फैला दिया जाए तो उसकी परत केवल 3 मि.मी. की होगी।
तथापि ओजोन की यह पतली-सी परत धरती पर जीवन की सुरक्षा के लिए अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि यह सूर्य के हानिकारक पराबैंगनी प्रकाश को पृथ्वी पर पहुँचने से रोकती है। 280 से 320 नेनोमीटर की तरंगदैर्ध्य वाले सूर्य के अतिशय हानिकारक पराबैंगनी प्रकाश (पराबैंगनी-बी प्रकाश) को यह ओजोन परत प्रभावी ढंग से रोकती है।
यह ओजोन कवच न हा तो परिणाम मनुष्य के लिए घातक होंगे। पराबैंगनी-बी विकिरण जीवित पदार्थों के क्षय में सक्षम है और मानव चमड़ी पर इसके आधिक्य से कैंसर हो सकता है। अतः यदि मनुष्य धूप का आनंद लेते रहना चाहता है तो ओजोन परत को बचाए रखना अत्यन्त आवश्यक है।
क्लोरोफ्लूरोकार्बन
क्लोरोफ्लूरोकार्बन अथवा सीएफसी प्रकृति में स्वयं विद्यमान नहीं होते ये क्लोरीन, फ्लोरीन एवं कार्बन के मनुष्य निर्मित रसायनसमूह हैं जिनकी खोज 1920 के दशक के उत्तरार्द्ध में हुई थी। एक दशक के भीतर ही रेफ्रिजेरेटरों में अमोनिया के स्थान पर कूलिंग के लिए इनका इस्तेमाल किया जाने लगा यद्यपि 1960 तक इनका प्रयोग सीमित मात्रा में ही किया गया।
तत्पश्चात इनका उत्पादन विशेषकर यूरोप और अमेरिका में एकाएक बढ़ा और इनका विविध रूपों में इस्तेमाल होने लगा यथा प्लास्टिक इन्सुलेटिंग फोम में, ब्लोइंग एजेंट के रूप में, एरोसोल स्प्रे में, प्रोपेलेंट के रूप में और इलेक्ट्रानिक मशीनरी की सफाई के सोल्वेंट में। साथ ही रेफ्रिजरेटरों और एयरकंडीशनरों में भी इनका इस्तेमाल जारी रहा। सीएफसी के इस व्यापक उपयोग का प्रमुख कारण था इसकी निष्क्रियता एवं स्थिरता। इनके असीमित उपयोग के घातक दुष्परिणामों की तब कल्पना तक नहीं की जा सकती थी।
सर्वप्रथम 1973 में दो अमेरिकी वैज्ञानिकों ने सीएफसी की ओजोन-क्षरण क्षमता की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया और तत्पश्चात 1978 में अमेरिका और कई अन्य यूरोपियन देशों में सीएफसी आधारित वायुविलयों (एरोसोलस) पर प्रतिबंध लगा दिया गया। तथापि इसके वास्तविक खतरों का पता वर्ष 1984 में चला जब एक ब्रिटिश अंटार्कटिक अनुसंधान दल ने दक्षिणी बर्फ सतह के ऊपरी क्षेत्र में ओजोन परत के क्षय की सूचना दी।
सर्वेक्षण से पता चला कि अंटार्कटिका क्षेत्र के ऊपर एक छोटे भाग में ओजोन परत 30 प्रतिशत नष्ट हो चुकी है जिसके कारण धरती के इस सुरक्षा कवच में एक ‘छिद्र’ बन गया है। उसी दौरान ली गई सेटेलाइट आकृतियों से भी इस तथ्य की पुष्टि हुई। वर्ष 1987 आते-आते अंटार्कटिका पर ओजोन की परत 50 प्रतिशत तक नष्ट हो चुकी थी जिससे खतरे की घंटी बजना स्वाभाविक था। इस दिशा में कुछ करने का समय आ पहुँचा था।
विनाशक कड़ी
वर्ष 1988 तक सीएफसी को ओजोन क्षय के प्रमुख कारक के रूप में पहचान लिया गया था परन्तु उनका इस्तेमाल रोकने से पहले यह जानना आवश्यक था कि वे ओजोन को क्षति किस प्रकार पहुँचा रहे हैं। वैज्ञानिक इस बात से हैरान थे कि सीएफसी जैसे निष्क्रिय एवं स्थिर रसायन समूह ओजोन से प्रतिक्रिया कर उसे नष्ट कर रहे हैं।
धीरे-धीरे बात स्पष्ट हुई और कारण समझ में आने लगा। पता यह चला कि इन रसायनों के वही गुण जो उन्हें पृथ्वी पर उपयोगी बनाते हैं, वातावरण में पहुँचने के बाद एक समस्या बन जाते हैं। अपनी तुलनात्मक वाष्पशीलनता के कारण सीएफसी वातावरणीय वायुमंडल में शीघ्र प्रवेश कर जाते हैं एवं सल्फरडाई-ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड एवं हाइड्रोकार्बन जैसे अन्य रसायनों की तरह फोटोडिसोसिएशन, ऑक्सीडेशन आदि पद्धतियों से इन्हें वातावरण से अलग नहीं किया जा सकता।
परिणामतः एक बार वातावरण में प्रवेश कर लेने के बाद ये 150 वर्ष तक भी वहाँ बने रह सकते हैं। इस अवधि में वे किसी प्रकार वातावरण की निचली सतह से उठकर 25 से 40 कि.मी. की ऊँचाई वाले समताप मंडल में प्रवेश कर जाते हैं और यहीं उनकी ओजोन क्षरण प्रक्रिया प्रारम्भ होती है।
प्राथमिक चरण में पराबैंगनी विकिरण से सीएफसी के क्लोरीन अणु पृथक हो जाते हैं और अत्यन्त क्रियाशील ये स्वतंत्र क्लोरीन अणु ओजोन पर आक्रमण कर क्लोरीन-मोनो-ऑक्साइड नामक पदार्थ पैदा करते हैं। यह क्लोरीन-मोनो-ऑक्साइड फिर अनेक प्रतिक्रियाओं की शृंखला से गुजरता हुआ बहुत से स्वतंत्र क्लोरीन परमाणुओं को विमुक्त कर देता है जो ओजोन परत का विनाश करते हैं और यह प्रक्रिया जारी रहती है।
इस क्लोरीन परमाणु की ओजोन क्षरण क्षमता इतनी अधिक है कि निचले वातावरण में पहुँचकर नष्ट होने के पूर्व इसका एक परमाणु ओजोन के एक लाख अणुओं को नष्ट कर डालता है।
ओजोन छिद्र के अंटार्कटिका क्षेत्र में होने का एक अन्य तर्क भी है जो शीत ऋतु में इस बर्फीले महाद्वीप के ऊपर होने वाली मौसमी गतिविधियों से सम्बन्ध रखता है। शीत ऋतु में चलने वाली तेज पश्चिमी हवाएँ अंटार्कटिका के ऊपर एक जलावर्त-सा बना देती हैं जिससे उसके भीतर की वायु पृथक हो जाती है।
उत्तर की अपेक्षाकृत गर्म हवाओं के सम्पर्क में न आ पाने के कारण इस जलावर्त के भीतर तापमान गिरता जाता है और इससे 25 कि.मी. की ऊँचाई पर समताप मंडलीय बादल बनने लगते हैं। ये बादल दो कार्य करते हैं: एक तो ये उन बर्फकणों को पैदा करते हैं जिनकी सतह पर बाद की रासायनिक प्रतिक्रिया होती है और दूसरे ये नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स को रोक लेते हैं और उन्हें क्लोरीन-मोनो-ऑक्साइड से प्रतिक्रिया नहीं करने देते।
बसन्त ऋतु में सूर्य का प्रकाश तेज होने पर ये बर्फकणों की सतह पर प्रतिक्रिया करके ओजोननाशक क्लोरीन परमाणुओं को मुक्त कर देते हैं। अक्तूबर आने तक अंटार्कटिका के ऊपरी भाग में बना यह जलावर्त टूटने लगता है और ओजोन का स्तर कुछ निश्चित ऊँचाइयों पर एकाएक कम हो जाता है।
इस समय विश्व भर में ओजोन परत को क्षति पहुँचाने वाले सीएफसी रसायनों का विकल्प खोजने के लिए शोध किए जा रहे हैं। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार मांट्रियल समझौते के तहत प्रतिबन्धित 20 सीएफसी रसायनों में से भारत सात का उत्पादन तथा इस्तेमाल करता है। इस समझौते के तहत विकासशील देशों को ओजोन-संगत तकनीक के विकास के लिए अन्तरराष्ट्रीय ऋण उपलब्ध कराने की भी व्यवस्था की गई है और इस दिशा में भारत में शुरुआत भी हो चुकी है।यद्यपि ओजोन क्षरण सर्वप्रथम अंटार्कटिका के ऊपर देखा गया परन्तु तत्पश्चात आर्कटिक तथा शीतोष्ण अक्षांश के ऊपर भी ओजोन स्तर घटने की सूचना मिली और नासा (नेशनल एरोनौटिक स्पेस एजेंसी) के उच्च वायुमंडलीय रिसर्च सेटेलाइट द्वारा प्राप्त आँकड़ों से इसका कारण विदित हुआ।
पता चला कि ओजोन के विनाश के लिए अंटार्कटिका के ऊपरी जलावर्त में उपस्थित बर्फकण ही उत्तरदायी नहीं है बल्कि अन्यत्र भी कुछ दूसरे कण इस विश्वव्यापी ओजोन-नाशक रासायनिक प्रक्रिया को बढ़ावा दे रहे हैं। साथ ही यह भी सुझाव दिया गया कि प्रमुख ज्वालामुखियों जैसे वर्ष 1982 एवं वर्ष 1991 में क्रमशः मैक्सिको और फिलिपीन्स में ‘एल चिचोन- और ‘माउन्ट पिनाटिबो’ ज्वालामुखियों द्वारा वायुमंडल में विमुक्त सलफ्यूरिक एसिड के प्राकृतिक वायुविलय गैर-ध्रुवीय क्षेत्रों में ओजो नाश का कारण हो सकते हैं।
यह जानकारी काफी आश्चर्यजनक थी क्योंकि ओजोन का क्षय गर्मियों में हुआ जिस समय इस क्षय की सम्भावना सबसे कम थी। साथ ही यह चौंकाने वाली बात भी थी क्योंकि इसका अर्थ था कि गैर-ध्रुवीय क्षेत्रों के पौधों, जानवरों एवं मनुष्यों पर पराबैंगनी-बी विकिरण के दुष्प्रभावों का खतरा बढ़ गया है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार यह जानकारी आने वाले तूफान की पूर्व सूचना मात्र थी।
जीवन को खतरा
ओजोन का नाश अब एक तथ्य के रूप में जाना जा चुका है और मानव पर होने वाले दुष्प्रभावों को लेकर वास्तविक चिन्ता है। हमारे ग्रह पर जीवन के लिए इसका क्या महत्व है? इस सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ कहना अभी कठिन है क्योंकि यद्यपि ओजोननाशक रासायनिक प्रक्रिया के बारे में काफी जानकारी प्राप्त हो चुकी है, पराबैंगनी विकिरण से जीवित पदार्थों पर होने वाले दुष्प्रभाव अभी पूरी तरह विदित नहीं हैं।
अनुसंधानकर्ताओं ने कुछ समय से ही मनुष्यों, पौधों और जलीय पारिस्थितिकी पर होने वाले ओजोन क्षति के प्रभावों पर ध्यान केन्द्रित किया है। मनुष्यों पर होने वाले कुछ दुष्परिणाम तो विदित थे ही। उदाहरण के लिए यह ज्ञात था कि पराबैंगनी विकिरण मनुष्य की रोगरोधी क्षमता को नष्ट करते हैं और मोतियाबिंद तथा चमड़ी का कैंसर आदि रोगों में वृद्धि करते हैं। दो सौ से अधिक पौध प्रजातियों में से दो-तिहाई जो मुख्यतः फली, मटर और बंदगोभी की विभिन्न जातियों से संबद्ध हैं, इससे प्रभावित पाई गई हैं।
पराबैंगनी विकिरण के दुष्प्रभाव इन पौधों में पत्ती का आकार छोटा होने, बढ़वार रुकने, बीज की गुणवत्ता घटने और खरपतवार, रोग और कीटों के खतरों में वृद्धि के रूप में सामने आए हैं। अंटार्कटिका के समुद्री जल में हुए एक वैज्ञानिक अध्ययन से पता चला है कि पराबैंगनी विकिरण की अधिकता शैवाल उत्पादन को 6 से 12 प्रतिशत तक कम कर देती है। साथ ही यह जलीय लार्वा और अन्य जीवों को भी क्षति पहुँचाती है।
लम्बे समय में इस क्षति के परिणाम घातक हो सकते हैं। उदाहरणार्थ अंटार्कटिका के जल में फाइटोप्लेंक्टन (पादम-जीव) के उत्पादन में कमी झींगे से मिलते-जुलते क्रिल नामक जन्तु को, जो अंटार्कटिक खाद्य शृंखला की निम्नतम कड़ी है, प्रभावित कर सकती है जिससे धीरे-धीरे मछलियाँ एवं समुद्री जानवर जैसे सील और ह्वेल मछली, जो भोजनार्थ क्रिल पर निर्भर हैं, प्रभावित हो सकते हैं। अभी तो यह सब मात्र एक अनुमान है। ओजोन छिद्र से होने वाले वास्तविक खतरों का पता चलना अभी शुरू ही हुआ है और आज जो ज्ञात है, हो सकता है वह भी पूर्ण तथ्य न हो।
मांट्रियल प्रोटोकाल
ओजोन परत के विनाश के विश्वव्यापी खतरे की समस्या का हल निकालने हेतु सितम्बर, 1987 में कनाडा के मांट्रियल शहर में हुई 47 राष्ट्रों की एक बैठक में विचार किया गया और मांट्रियल प्रोटोकाल नामक एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इस समझौते में एक निश्चित समय के भीतर ओजोन-नाशक रसायनों का इस्तेमाल रोकने की बात कही गई और ओजोन-नाशक द्रव्यों के दो अलग-अलग समूहों की पहचान की गई जिनमें पहला था क्लोरोफ्लूरोकार्बन अथवा सीएफसी, और दूसरा था हेलन्स (अग्निशमन में प्रयुक्त)।
प्रोटोकॉल में उन देशों को भी जो हस्ताक्षरकर्ता नहीं थे, सीएफसी के इस्तेमाल और उत्पादन पर प्रतिबंध लगाने पर विचार किया गया और इस उद्देश्य से सदस्य देशों से इन देशों को होने वाले सीएफसी के आयात-निर्यात पर रोक लगाने का निर्णय लिया गया।
मांट्रियल समझौते में अगले 15 वर्षों के भीतर सीएफसी के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का लक्ष्य रखा गया है। समझोते के तहत विकसित देशों को सीएफसी का उत्पादन और प्रयोग सन 2000 तक बंद करने को कहा गया है जबकि विकासशील देशों को इसके लिए सन 2010 तक का समय दिया गया है।
इस समय विश्व भर में ओजोन परत को क्षति पहुँचाने वाले सीएफसी रसायनों का विकल्प खोजने के लिए शोध किए जा रहे हैं। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार मांट्रियल समझौते के तहत प्रतिबन्धित 20 सीएफसी रसायनों में से भारत सात का उत्पादन तथा इस्तेमाल करता है। इस समझौते के तहत विकासशील देशों को ओजोन-संगत तकनीक के विकास के लिए अन्तरराष्ट्रीय ऋण उपलब्ध कराने की भी व्यवस्था की गई है और इस दिशा में भारत में शुरुआत भी हो चुकी है।
वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद की दो राष्ट्रीय प्रयोगशालाएँ-राष्ट्रीय रसायन प्रयोगशाला, पूरा तथा भारतीय रासायनिक तकनीक संस्थान, हैदराबाद इस दिशा में प्रयासरत हैं तथा यहाँ सीएफसी के दो विकल्प, एचसीएफसी-22 तथा एचसीएफसी-134 विकसित भी किए जा चुके हैं।
लेकिन सीएफसी के सुरक्षित विकल्पों का उत्पादन ही पर्याप्त नहीं है। साथ ही कम्प्रेसर तकनीक को बदलना भी जरूरी है लेकिन यह कार्य रातों-रात नहीं किया जा सकता। इसलिए यदि मांट्रियल समझौते में निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचना है तो सीएफसी का विकल्प विकसित करने के साथ-साथ नए कम्प्रेसरों का विकास भी करना होगा।
वैकल्पिक हाइड्रो-क्लोरोफ्लूरोकार्बन यानी एचसीएफसी भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं माने जा रहे हैं वैज्ञानिकों के अनुसार इनसे भी ओजोन परत को क्षति पहुँचती है यद्यपि यह क्षति सीएफसी की अपेक्षा कम है। वास्तव में वर्ष 1992 में मांट्रियल समझौते के कोपेनहेगन सत्र में एचसीएफसी पर भी रोक लगाने का प्रस्ताव रखा गया था।
इस समझौते में एचसीएफसी का प्रयोग कम करने के लिए पाँच चरण निर्धारित किए गए हैं जिनकी शुरुआत सन 2004 से की जानी है। एचसीएफसी पर पूरी तरह रोक लगाने का समय सन 2030 निर्धारित किया गया है। साथ ही रेफ्रिजरेशन तकनीक के ऐसे विकल्प खोजने के प्रयास जारी हैं जिनमें ताप निष्कासन माध्यम के रूप में किसी निष्क्रिय गैस का प्रयोग किया जा सके। एक अन्य तकनीक थर्मो-अकाउस्टिक रेफ्रिजरेशन पद्धति है जिसमें कूलिंग के लिए ध्वनि तरंगों तथा निष्क्रिय गैसों का सम्मिलित प्रयोग किया जाता है।
ओजोन की समस्या तकनीकी के बेरोकटोक एवं गलत प्रयोग से खड़ी हुई है तथापि इसका समाधान भी ऐसी नई तथा अपेक्षाकृत बेहतर तकनीक तथा उत्पादों में निहित है जो पृथ्वी के वातावरण को क्षति न पहुँचाएँ।
(लेखक ‘साइन्स रिपोर्टर’ के सम्पादक हैं।)
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