कटिबंधीय कृषि में नाइट्रस ऑक्साइड

कटिबंधीय कृषि में नाइट्रस ऑक्साइड
कटिबंधीय कृषि में नाइट्रस ऑक्साइड

इस बात के कई सारे प्रमाण मौजूद हैं कि खेती में रासायनिक उर्वरकों के उपयोग से वायुमंडल में बड़ी मात्रा में नाइट्रस ऑक्साइड छोड़ी जा रही है। नाइट्रस ऑक्साइड की चर्चा हमारे सरोकार का विषय इसलिए बनी क्योंकि यह एक ग्रीनहाउस गैस है और मानवजनित ग्रीनहाउस प्रभाव का 6% है। समताप मंडल (स्ट्रेटोस्फियर) की ओजोन परत को क्षीण करने में इसका प्रमुख हाथ है।

उर्वरक आधारित खेती मानवजनित नाइट्रस ऑक्साइड का सबसे बड़ा स्रोत है। सन 1980 से 1994 के बीच विश्व कृषि में नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन 15 प्रतिशत की दर से बढ़ा है। उष्णकटिबंधीय देशों में अनुकूल नमी, तापमान तथा काफी मात्रा में नाइट्रोजन युक्त उर्वरक का उपयोग बड़ी मात्रा में नाइट्स ऑक्साइड के उत्सर्जन का कारण होता है। एक अनुमान के मुताबिक शीतोष्ण देशों की मिट्टी की तुलना में गर्म कटिबंधीय देशों की कृषि भूमि दुगनी नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जित करती है। इसीलिए उष्णकटिबंधीय देशों में नाइट्रस ऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने का उपाय खोजना जरूरी हो गया है।

कृषि भूमि से नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन रोकने के कई तरीके सामने आए हैं, जैसे:

  1.  फसल की मांग के हिसाब से नाइट्रोजन की मात्रा तय करना,
  2. खेत में सिंचाई निकासी और जुताई को अनुकूलतम रखना.
  3. उन्नत उर्वरीकरण तकनीक अपनाना,
  4. नाइट्रोजन के चक्रीकरण को सख्ती से बनाए रखना।

उपर्युक्त उपायों से कृषिभूमि से उत्सर्जित होने वाली कुल नाइट्रोजन को 20 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। उम्मीद यह भी है कि इन उपायों से फसल की उत्पादकता में भी वृद्धि होगी।

मैदानी स्थितियों में कई रणनीतियों का उपयोग किया जा सकता है। ये रणनीतियां हैं:

  1. फसल की मांग के अनुसार उर्वरक छिड़कना
  2. भूमि में नाइट्रोजन खनिज के जमाव को सीमित करने के उद्देश्य से भूमि को अधिक समय तक पड़ती नहीं रहने देना,
  3.  भूमि के सूखने और पुनः गीली होने के चक्र को कम करना,
  4.  बारिश से पहले जुताई 

हालांकि उपर्युक्त उपायों को उष्णकटिबंधीय देशों में व्यवहार में लाना संदिग्ध है क्योंकि ये उपाय वर्षा आधारित कृषि पर लागू नहीं होते हैं। जबकि अधिकांश उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में वर्षा आधारित कृषि ही प्रचलित है। गौरतलब है कि विश्व का दो तिहाई उत्पादन इन्हीं क्षेत्रों में होता है।

उर्वरक का उपयोग मिट्टी की नमी के स्तर के अनुसार होना चाहिए। वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में यह बारिश की मात्रा द्वारा निर्धारित होता है। इसलिए उवर्रक बिखेरने वाले तरीके में उपज की मांग के हिसाब से उर्वरीकरण करना बहुत मुश्किल होता है। इसके अलावा उर्वरकों के बार-बार उपयोग से अतिरिक्त श्रम लागत लगती है, जिसका फायदा फसल की बढ़ी हुई पैदावार के रूप में दिखाई देना चाहिए।

वर्षा आधारित कृषि में जमीन के पड़ती पड़ी रहने का समय वर्षा पर निर्भर करता है। बारिश आने के बाद ही फसल के लिए जुताई होती है। इसलिए हम जमीन के पड़ती पड़े रहने के समय को मनमाने ढंग से नहीं बदल सकते। जमीन के सूखने व पुनः गीले होने का चक्र भी वर्षा के साथ जमीन के तर होने से बंधा है, और इस पर मनुष्य का बस नहीं चलता । वर्षा पूर्व खेत में जुताई करना मुश्किल काम है क्योंकि जमीन कड़ी रहती है और उसमें पपोटे पड़ जाते हैं। खास तौर से चिकनी जमीन पर ।

अन्य विकल्प है जमीन व पौधों के परीक्षण से उवर्रक की जरूरत निर्धारित करना या विभिन्न मौसमों के हिसाब से उवर्रकों का इस्तेमाल करना। लेकिन इन उपायों की सफलता भी सुनिश्चित नहीं है क्योंकि सभी जगह जमीन की उर्वरता एक- सी नहीं रहती। इसलिए अगर उर्वरकों की जरूरत को एकदम सटीक ढंग से जानना है तो तमाम जगहों पर व्यापक रूप में मिट्टी / पौधों का परीक्षण किया जाना चाहिए।

उर्वरक को नियंत्रित मात्रा में छोड़ना, यूरिया व नाइट्रोजनीकरण अवरोधकों का उपयोग और उर्वरकों को जमीन के नीचे रखना ताकि नाइट्रस ऑक्साइड के उत्सर्जन पर नियंत्रण किया जा सके आदि खाद डालने की उन्नत तकनीकें हैं। हालांकि उच्च लागत व श्रम की अत्यधिक जरूरत के चलते ये उपाय आर्थिक दृष्टि से काफी महंगे पड़ते हैं। उस पर अधिकांश उष्णकटिबंधीय देशों की गरीबी लोगों को महंगे उपाय व उन्नत तकनीक अपनाने नहीं देती। यूरिया नाइट्रीकरण अवरोधकों का इस्तेमाल पर्यावरण सुरक्षा के लिहाज़ से उपयुक्त नहीं है ।

इसके अलावा कृषि भूमि पर फसल या पेड़- पौधों के बचे हुए अवशिष्ट के प्रबंधन की भी सिफारिश की गई है। उष्णकटिबंधीय कृषि में इस उपाय को अपनाया गया ताकि

  1.  मिट्टी की नमी बनी रहे.
  2.  खरपतवार पर नियंत्रण हो,
  3.  मिट्टी के कार्बनिक पदार्थों को बढ़ाने में मदद मिले
  4. पोषक तत्वों का दक्ष उपयोग हो और उनकी बर्बादी  कम से कम हो।

नीम (एज़ाडिराक्टा इंडिका एल.) और करंज (पाँगामिया ग्लाबा वॅट.) जैसी पादप प्रजातियों में नाइट्रीकरण अवरोधक व जैवनाशक यौगिक (जैसे पॉलीफीनोल) प्राकृतिक रूप में मौजूद रहते हैं। ये नाइट्रीकरण को रोकने व अन्य नाइट्रोजन रूपांतरण का काम करते हैं। उदाहरण के लिए नीम व करंज के बीज का अर्क नाइट्रीकरण को 60 से 70 प्रतिशत तक कम कर देता है। करंज के बीज से निकलने वाला करंजिन नाइट्रीकरण को धीमा कर चावल की उपज 50 प्रतिशत तथा चावल के दाने में प्रोटीन की मात्रा 15 प्रतिशत तक बढ़ा सकता है। इस प्रकार के तत्वों का समावेश उष्णकटिबंधीय देशों की उर्वरक तकनीक को सस्ता करने के लिए किया जाता है।

उष्णकटिबंधीय देशों में भूमि की सतह को पलवार से ढककर रखने से भी नाइट्स ऑक्साइड का उत्सर्जन कम किया जा सकता है। ये पलवार गैस के बाहर निकलने में अवरोधक का काम करते हैं जिससे नाइट्रस ऑक्साइड लम्बे समय तक जमीन में दबी रहती है। इससे नाइट्रस ऑक्साइड विघटित होकर पूरी तरह से नाइट्रोजन में परिवर्तित हो जाती है पलवार की नमी में नाइट्रस ऑक्साइड के घुलने और उससे होने वाले जैविक व रासायनिक विघटन भी इन्हीं उपायों का नतीजा है।
यदि 2005 के सम्भावित अनाज के संकट का सामना हमें सफलतापूर्वक करना है तो स्पष्टतया हमारी प्राथमिकता अनाज का उत्पादन बढ़ाना ही रहेगी। इस परिप्रेक्ष्य में कार्बनिक सामग्री के पुनर्चक्रीकरण की अतिशीघ्र जरूरत है, ताकि उष्णकटिबंधों में भूमि में कार्बनिक पदार्थों का लगातार कम होना रोका जा सके। कार्बनिक पदार्थों के चक्रीकरण से सम्बंधित नाइट्स ऑक्साइड कम करने का तरीका अधिक व्यावहारिक, जमीनी तथा तुरन्त अमल में लाया जा सकने वाला है। यदि हम पादप प्रबंधन को इस हद तक कर पाए कि फसल उत्पादन बेहतर और टिकाऊ हो साथ ही नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन भी कम हो, तो यह उष्णकटिबंधीय कृषि के लिए आर्थिक और पर्यावरणीय रूप से सबसे बेहतर विकल्प होगा।
स्रोत- फीचर्स, सितम्बर 2001
 

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Post By: Shivendra
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