ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव जब अपना तीसरा नेत्र खोलते हैं तो तवा मच जाती है। नेपाल में भूकंप की तस्वीरें देखकर तो यही लगता कि शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया है। पशुपतिनाथ शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोला और देखते ही देखते पूरा इलाका मानो शान बन गया। नेपाल में दसों हज़ार लोगों के मरने की आशंका हजारों लोग जख्मी है। मौत के इस सन्नाटे की पूरी दुनिया में है। लोग खौफ में हैं, दहशत में हैं और जीने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। भगवान शिव अकेले और सन्नाटे में रहना पसंद करते हैं। इसीलिए वे हिमालय पर रहते थे और फैलाश पर्वत पर स्थाई निवास बनाये थे। ऐसा लगता है हमने उनको है तपस्या भंग कर दी है। उनकी तपस्या में खलल डाला है इंसान ने जब उनको खुली तो प्रकृति के साथ हो अन्याय को देखकर के क्रोधित हुए और ने अपनी तीसरी आंख खोल दी। जिससे चारों ओर सिर्फ मौत से सीत दिखाई दे रही है। इंसान से ऐसी फोन सी गलती हुई कि शिव ने रुष्ट होकर ऐसा तांडव नृत्य किया। इस पर हमें आज विचार करने की जरूरत है।
अगर आप नेपाल की राजधानी काठमांडू पहले गए हो तो आज उसे पहचानना आपको मुश्किल हो जाएगा। सन् 1992 में बना भी मंजिला ऐतिहासिक धरहरा टावर , जिसकी आठवीं मंजिल पर चढ़कर हम पूरे काठमांडू को देखते थे वो मलबे में बदल गया है। काठ की खूबसूरत स्थापत्य कला और मंदिरों के लिए दुनियाभर में मशहूर काठमांडू नष्ट हो चुका है। काठमांडू का काष्टमंडप जिसे गोरखनाथ मंदिर कहा जाता है वह खत्म हो गया है। काठमांडू का नाम भी इसी से पड़ा था काठमांडू काष्टमंड से ही बना है। काठमांडू में यूनेस्को द्वारा वर्ल्ड हेरिटेज स्क्वेयर नष्ट किया गया दरवार स्क्वेयर नष्ट हो चुका है। नेपाल में राजशाही के प्रतीक चिन्हों में से एक काठमांडू के दरवार चौक का चेहरा बदल गया है। शाही भवन के सामने स्थित इस इलाके में कई महत्वपूर्ण मंदिर प्रतिमाएं, फव्वारे सब खत्म हो गए हैं। जनकपुर का नौलखा मंदिर और राम-जानको विवाह मंडप को मी नुकसान पहुंचा है। भारत में भी उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, आरखंड, सिक्किम, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, चंडीगढ़, राजस्थान, गुजरात: सहित कई राज्य इसकी चपेट में आ गए हैं। ऐसा लग रहा है कि संसार अब महाविनाश की और बढ़ रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रकृति हमसे बदला ले रही है।
यह तो सच है कि इंसान गलती कर रहा है। वह गलती करता है लेकिन उसे मानता नहीं है। उसे अपनी गलती पर पछतावा भी नहीं होता इंसान ही तो है जिसने पहाड़ों का सीना छेदकर सुरंगे बनाई, जंगल काट दिये नदियों के रास्ते मोड़ दिए गंगा का पानी पीने लायक नहीं छोड़ा धरती पर बेतरतीय इमारते खड़ी कर दी। मानव ने अपने को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए प्रकृति से खिलवाड़ किया। इंसान ने नदियों पहाड़ी तथा जंगलों पर अतिक्रमण किया। इंसान ने सोचा कि इस मनमानी को कोई देख तो रहा नहीं है। बस, उसकी यह सबसे बड़ी भूल थी जो आज यह दुर्दिन देखने को मिला। केदारनाथ हादसे के वक्त भी बांध दी जाने वाली नदियों ने मनुष्य को अपनी ताकत का एहसास कराया था लेकिन हम फिर भी नहीं चेते जिन नदियों को हम मृतप्राय समझ बैठे थे, उन्होंने साबित कर दिया कि संकट उन पर नहीं हम पर है। वे हमें नेस्तनाबूत कर देंगी। इंसान कितना भी शक्तिशाली हो जाए लेकिन भगवान के सामने वह हमेशा शक्तिहीन ही रहेगा। हिमालय की गोद में वसा नेपाल फिर हिल गया। इसके साथ ही भारत भी पिघल गया। नेपाल में कहर ढाने वाले भूकंप ने प्रकृति के सामने मनुष्य को एक बार फिर असहाय कर दिया है। मनुष्य के लिए भूकंप का अनुमान लगाना अभी भी टेढ़ी खीर है। पलों में सारा शहर खंडहर में बदल गया और हम देखते रह गये लोग चिल्लाते रहे और धरती हिलती रही नेपाल में धरती मां की गोद में उसके ही लाडले सदा के लिए सो गये। वैज्ञानिक असहाय से वह तांडव नृत्य देखते रहे। ये भी क्या करते मजदूर थे वे बस इतना बता सकते थे कि भूकंप की आशंका वाले इलाके कौन से हैं? उनके पास ऐसा कोई यंत्र नहीं हैं जो धरती के कंपन को रोक सके। हिमालय चट्टान की तरह खड़ा रहा और लोगों के आंसू गिरते रहे। नेपाल को तवाही देख सभी का दिल पिघल गया। जिसका जख्म बढ़ता ही जा रहा है।
जोखिम भरा देश
नेपाल उन देशों में से है जहां भूकंप का जोखिम सबसे ज्यादा है। इसका एक बड़ा कारण उसका हिमालय क्षेत्र में स्थित होना है। इसी पर्वतीय क्षेत्र में भारत का भी एक बड़ा हिस्सा है। इसीलिये भूकंप आने पर नेपाल के साथ भारत भी हिल जाता है। नेपाल के साथ भारत का अच्छा खासा इलाका भूकंप के लिहाज से जोखिम भरा है। हिमालय के भीषण भूकंप ने फिर साबित कर दिया कि प्राकृतिक आपदा की अनदेखी करना कितना खतरनाक है भूकंपशास्त्री अनेक मौकों पर हिमालय में ऊंची तीव्रता वाले भूकंप की भविष्यवाणी करते रहे हैं। फिर भी हम हर साल भीषण भूकंपों से पैदा होने वाले विनाश को झेलते रहे हैं। नेपाल जो आज झेल रहा है कभी हमें भी यह कष्ट सहना पड़ेगा। हम अभी भी इसके प्रति सचेत नहीं हैं। हिमालयी इलाकों में अभी भी विकास के नाम पर तेजी से निर्माण कार्य हो रहे हैं। हमारे देश में भी थोड़े-थोड़े अंतराल में भूकंप की पुनरावृत्ति होती रहती है। आपदा प्रबंधन विभाग ने हमें पहले ही बताया था कि हिमालय की तलहटी में काफी अलग ढंग की ढांचागत संरचनाएं मिली हैं। इस जमीन के भीतर भारी मात्रा में ऊर्जा का भंडार है। एक न एक दिन यह ऊर्जा हमारे महाविनाश का कारण बनेगी जब यह झटके से बाहर निकलने का प्रयास करेगी तो नेपाल- उत्तराखंड समेत हिमालय भी हिल जाएगा। हैरानी तो इस बात की है कि हम इन संकटों से बचाव का कोई ठोस जतन अभी भी नहीं कर रहे हैं। हम क्षति हो जाने के बाद की स्थितियों से जूझते हैं। उसमें हमारी ज्यादा दिलचस्पी है लेकिन क्षति हो ही न इसके लिए सचेत नहीं हैं भूकंप से बचाव की तैयारियों का आलम यह है कि गुजरात और उत्तराकाशी जैसे अनुभवों के बाद भी भूकंपरोधी इमारते नहीं बन रही है।विकास के नारे बुलंद हैं। अनगिनत विशाल और ऊंची इमारते लगातार बन रही हैं। प्रश्न यह है कि क्या इनमें भूकंप सहने की क्षमता है? इस सवाल का जवाब हमारे पास नहीं है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम विकास के नाम पर विनाश का रास्ता बना रहे हो। इस पर सभी को गंभीरता से सोचना होगा।
खतरे में है दिल्ली
दिल्ली सिस्मिक जोन-4 में आती है इसलिए भूकंप की आशंका यहां ज्यादा है। दिल्ली की दुविधा यह भी है कि वह हिमालय के निकट है। अतः इसे धरती के भीतर की प्लेटों में होने वाली किसी हलचल का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। दूसरी तरफ मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और बेंगलुरु जैसे शहर सिस्मिक जोन-3 की श्रेणी में आते हैं। भूगर्भ विशेषज्ञों ने भारत के करीब 50 प्रतिशत भू-भाग को भूकंप संभावित क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया है। दिल्ली को भूकंप के साथ-साथ कमजोर इमारतों से भी खतरा है। दिल्ली की 70-80 प्रतिशत इमारते भूकंप का औसत से बड़ा झटका झेलने के लिहाज से डिज़ाइन ही नहीं की गई हैं। पिछले कई दशकों के दौरान यमुना नदी के पूर्वी और पश्चिमी तट पर बनती गई इमारते खास तौर पर बहुत ज्यादा खतरनाक है क्योंकि अधिकांश के बनने के पहले मिट्टी की पकड़ की जांच नहीं की गई है। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ समय पहले आदेश दिया था कि ऐसी सभी इमारते जिनमें 100 या उससे अधिक लोग रहते हैं, उनके ऊपर भूकंप रहित होने वाली किसी एक श्रेणी का साफ उल्लेख होना चाहिए। लेकिन ऐसा किसी भी इमारत पर नहीं किया गया है। दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र की एक बड़ी समस्या आबादी का घनत्व भी है। करीब डेढ़ करोड़ वाली राजधानी दिल्ली में लाखों इमारतें दशकों पुरानी हैं और तमाम मोहल्ले एक-दूसरे से सटे हुए बने हैं। भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार दिल्ली और उत्तर भारत में छोटे-छोटे झटके या आफ्टर शॉक्स तो आते ही रहेंगे लेकिन जो बड़ा भूकंप होता है उसकी वापसी कई सालों बाद जरूर होती है। यह सभी के लिए एक चिंता का विषय हैं, क्योंकि इतनी जल्दी सब कुछ नहीं बदल जाएगा। वैसे अभी भी दिल्ली से थोड़ी दूर स्थित पानीपत इलाके के पास भूगर्भ में फॉल्ट लाइन मौजूद है जिसके चलते भूकंप की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। यहां सवाल यह है कि ऐसे भूकंपों से निपटने के लिए हम कितना तैयार हैं। फिर भी पहले की तुलना में अब भारत ऐसी किसी आपदा से बेहतर निपट सकता है भूकंप की आशकाएं सिर्फ अनुमान के आधार पर होती हैं। अगर हम लातूर में आ चुके भूकंप को ध्यान में रखें तो निश्चित तौर पर दिल्ली में कई भवन असुरक्षित हैं लेकिन बहुत सी जगह ऐसी हैं जो सुरक्षित भी हैं। यहां सबसे अहम बात यह है कि हर नागरिक ऐसे खतरे को लेकर सजग रहे और सरकार प्रयास करे कि नियमों का उल्लंघन कतई न हो।
अभी जवान है हिमालय
हिमालय क्षेत्र में टेक्टोनिक प्लेटों की हलचल ने जो विनाशकारी भूकंप पैदा किया, उसकी तबाही जाज पूरे नेपाल के साथ-साथ बिहार, यूपी और पश्चिम बंगाल की भी एक बड़ी आबादी को झेलनी पड़ी है। हिमालय भी इन्हीं टेक्टोनिक हलचलों से पैदा हुआ है। इसी के बल पर भारत एशिया का हिस्सा बना है। वैज्ञानिक बड़े लगन से इन भूगर्भीय हलचलों का अध्ययन करते रहे हैं और उनसे रोमांचक निष्कर्ष भी निकालते रहे हैं। इसमें एक रोमांचक बात यह है कि भारत का एशिया से जुड़ना उतनी पुरानी बात नहीं है, जितनी अब तक मानी जा रही थी अब तक भूगर्भ वैज्ञानिक मानते थे कि अफ्रीका से कटकर उत्तर की तरफ बढ़ता भारत पांच करोड़ साल पहले एशिया से टकराया और इसका हिस्सा बन गया हिमालय पर्वत श्रृंखला कुछ और नहीं, धरती पर इसी टक्कर से पड़ी सिलवट है। एक नया अध्ययन बताता है कि यह टक्कर पांच नहीं बल्कि चार करोड़ साल पहले हुई थी। अब चूंकि टक्कर की तारीख करीब एक करोड़ साल आगे खिसक गई है, इसलिए बड़े भारत का आकार भी छोटा हो गया है वैज्ञानिक कहते हैं कि उत्तर को तरफ भारत के बढ़ने की गति सलाना 10 सेंटीमीटर से भी अधिक थी। इस हिसाब से एक करोड़ साल के अंतर का मतलब हुआ आकार में करीब 1000 किलोमीटर की कमी। इसलिए अभी जो भारत है वह पहले काफी बड़ा था। एक ताजे अध्ययन के मुताबिक भारत करीब पांच करोड़ साल पहले द्वीपों के एक समूह से जुड़ा, फिर इसके करीब एक करोड़ साल बाद हुई दूसरी टक्कर में वह यूरेशियाई महाद्वीप का हिस्सा बना
खिसक गया काठमांडू
अभी नेपाल में आए भूकंप ने सिर्फ तबाही ही नहीं मचाई है, बल्कि राजधानी काठमांडू को अपनी जगह से खिसका भी दिया है। भारत का भी कुछ हिस्सा नेपाल में चला गया है। हालांकि हिमालय की ऊंचाई जस की तस है। काठमांडू दस फुट अर्थात् करीब तीन मीटर दक्षिण की ओर खिसक गया है। भूकंप आने के बाद धरती से जो ध्वनि तरंगे गुजरती हैं उनका आकलन करने पर पता चला कि काठमांडू अपनी जगह से हट गया है। धरती के नीचे कई टेक्टोनिक प्लेटें मौजूद हैं जो लगातार हरकत में हैं ये धीरे-धीरे हिलती रहती हैं जिसे हम महसूस नहीं कर पाते हैं। यही प्रक्रिया हिमालय की रचना के लिए जिम्मेदार है। वैज्ञानिकों का कहना है. कि हिमालय की ऊंचाई हर साल चार सेंटीमीटर बढ़ रही है। हालांकि नेपाल में आये भूकंप से हिमालय की ऊँचाई पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। नेपाल के नीचे दो तरह की टेक्टोनिक प्लेटें हैं। जिसमें इंडियन प्लेट उत्तर की ओर खिसकते हुए यूरेशियन फीट पर दबाव बनाती है। इस कारण हर साल जमीन दो सेंटीमीटर से भी ज्यादा खिसक जाती है। काठमांडु के नीचे 150 किलोमीटर लंबा और 50 किलोमीटर चौड़ा ऐसा क्षेत्र है जहां ये प्लेटें सालों से आपस में संघर्ष कर रही हैं। इन प्लेटों की ऊपरी सतह पर दबाव इतना ज्यादा बन गया कि वे नीचे की ओर खिसक गयी जिसका नतीजा भूकंप के रूप में देखा गया। काठमांडू आधा मीटर ऊपर की ओर उठा तो उसका उत्तरी हिस्सा उतना ही नीचे धंस गया। इसी कारण हिमालय की ऊंचाई पर कोई असर नहीं पड़ा।
और भी आएंगे भूकंप
ऐसा अनुमान है कि दुनिया को भूकंप से जल्द छुटकारा नहीं मिलने वाला है। अभी और भी खतरनाक भूकंप के झटके हमें लगेंगे हिमालय में अब तक का सबसे भीषण भूकंप वर्ष 1950 में असम में दर्ज किया गया था। उस समय जमीन करीब तीस मीटर तक खिसक गयी थी। इसी तरह वर्ष 2011 में जो जापान के तोहुकु में भूकंप आया था उसमें समुद्र की सतह के नीचे 50 मीटर तक प्लेट खिसक गई थी दुनिया भर के वैज्ञानिक इस समय नेपाल के भूकंप और हिमालय के नीचे टेक्टोनिक प्लेटों पर नज़र रखे हुए हैं। लेकिन सभी इस बात से सहमत है कि. आने वाले समय में इस इलाके में और भी कई भीषण भूकंप आ सकते हैं। ये भूकंप कब आएंगे इसका पूर्वानुमान लगाना मुश्किल है। हालांकि दो भूकंपों के बीच का अंतराल कमी 23 तो कभी 273 साल रहा है। जिस जगह भी भूकंप आता है, हर बार उसके आस-पास की जगह अस्थिर हो जाती है और फिर वहीं से अगले भूकंप का रास्ता बनने लगता है। हम जान लें, भूकंप कभी मी बताकर नहीं आएगा हमें अपनी गलतियों को सुधारने का मौका यह नहीं देगा इसलिए हमें नेपाल की तबाही से सीख लेनी होगी। भूगर्भ वैज्ञानिकों का कहना है कि भारतीय उपमहाद्वीप शेष एशिया की ओर हर साल दो सेंटीमीटर की दर से बढ़ रहा है। दूसरी तरफ हिमालयी क्षेत्र का भीतरी भूभाग कुल 15 सेंटीमीटर से ज्यादा का दबाव सहन नहीं कर सकता। इस दबाव के कारण चट्टानों के अंदर घनीभूत ऊर्जा धरती को फाड़ने को तैयार है। वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि हिमालय क्षेत्र में करीव नौ की तीव्रता का भूकंप कभी भी आ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो हमारे सारे विकास के नारे विनाश में तब्दील हो जाएंगे। इसलिए विकास के साथ विनाश को भी रोकने का नारा बुलंद होना चाहिए।
नेपाल दुनिया का सबसे ज्यादा भूकंप संभावित क्षेत्र है। यहां इतने भूकंप क्यों आते हैं इसे भी हमें समझना होगा। दरअसल इस क्षेत्र में पृथ्वी की इंडियन प्लेट यूरेशियन प्लेट के नीचे दबती जा रही है। इस कारण हिमालय ऊपर उठता जा रहा है। प्रत्येक वर्ष करीब पांच सेंटीमीटर इंडियन प्लेट यूरेशियन प्लेट के नीचे दबती जा रही है। इससे
हर साल हिमालय पांच मिलीमीटर ऊपर उठता जा रहा है। यहां की चट्टानों के ढांचे में ये तनाव पैदा हो जाता जब ये तनाव चट्टानों की बर्दाश्त के बाहर हो जाता है तो ये भूकंप आते हैं। आज भी वैज्ञानिक ये अंदाजा नहीं लगा सकते कि दुनिया में कब, कहां और कितनी तीव्रता वाला भूकंप आएगा लेकिन वैज्ञानिक यह जरूर कह रहे हैं कि हिमालयी क्षेत्र में बड़ा भूकंप कभी भी आ सकता है। इसलिए भारत को भी पहले से तैयार रहना होगा विज्ञान इतना आगे जा रहा है लेकिन विडंबना यह है कि अभी भी हम इस क्षेत्र में बहुत पीछे हैं। इस दिशा में नये शोध की आवश्यकता है जिससे भूकंप जाने की पहले से ही सूचना दी जा सके। वैसे वैज्ञानिक ऐसे तरीके की तलाश में हैं जिससे भूकंप के आने की संभावना का पता लगाया जा सके, लेकिन अभी तक इसमें कोई भी कामयाबी नहीं मिली है। हिमालय पर्वत श्रृंखला के बीच नेपाल पड़ता है। यहीं पर दुनिया की सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट है। इस क्षेत्र में काफी उर्वर घाटियां हैं दुनिया की सबसे ऊँची 14 पहाड़ी चोटियों में से आठ यहीं पर स्थित हैं इसलिए भी नेपाल पर भूकंप का खतरा ज्यादा है। नेपाल की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा हिंदुस्तान में स्थाई प्रवासी के रूप में रहता है।
खाड़ी देशों तथा विदेशों में जो लाखों की संख्या में नेपाली बसे हैं, वहां काम कर रहे हैं, उनका आवागमन भारत के द्वार से ही होता रहा है। हाल ही के वर्षों में काठमांडू से पाकिस्तान, खाड़ी के देशों, चीन, जापान, सिंगापुर, थाईलैंड के लिए सीधी विमान सुविधा सुलभ हो चुकी है लेकिन इसका लाभ सभी को नहीं मिल सका है। यहाँ बात शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर भी लागू होती है। इसी कारण नेपाल दूसरे देशों पर निर्भर रहा है। अब तो संपन्न घर के बच्चे पढ़ाई के लिए अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया, जापान या थाईलैंड जाने लगे हैं। लेकिन जो गरीब तपके के लोग हैं उनके लिए तो भारत ही सहारा है इसी से तो कुछ देश भारत के प्रभाव को नेपाल में कमजोर करना चाहते हैं। आर्थिक विकास के बहाने जो वित्तीय या तकनीकी सहायता ज्वार की तरह नेपाल में बहकर आती रही है। उसने निश्चय ही सामाजिक विषमता को दर्दनाक बनाया है। नेपाल दुनिया का सबसे गरीब देश भी है। यहां की करीब एक चौथाई आबादी गरीब है नेपाल की 80 फीसदी से ज्यादा आवादी कृषि पर निर्भर है। यहां की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 656 अमरीकी डॉलर है। ऐसे में इस प्राकृतिक आपदा ने उसे और पीछे धकेल दिया है। नेपाल में जन-धन की जैसी हानि हुई है उसे देखते हुए उसकी जितनी सहायता की जाए कम है इस देश की ऐतिहासिक इमारतों को भी अच्छी खासी क्षति पहुंची है। पहले से तमाम समस्याओं से जूझ रहे नेपाल को इस त्रासदी से उबरना आसान नहीं होगा मोदी सरकार ने जिस तरह से मदद के लिए हाथ बढ़ाया है यह वास्तव में सराहनीय है। ऐसे में सभी राजनीतिक पार्टियों को बिना मेद-भाव के खुले दिल से नेपाल की मदद करने की आवश्यकता है, क्योंकि नेपाल हमारा एक अच्छा पड़ोसी देश भी है। इसकी सहायता करना हमारा धर्म है।
भविष्यवाणी है नामुमकिन
भूकंप का पूर्वानुमान लगाना संभव है? क्या वैज्ञानिकों को यह मालूम हो सकता है कि कब और कहां भूकंप जा सकता है? दरअसल विज्ञान की तमाम आधुनिकताओं के बाद भी यह संभव नहीं है भूकंप आने के बाद उसके असर के दायरे में ये बताना संभव है कि भूकंप के झटके कहाँ तथा कितने सेकंड बाद आ रहे हैं। सोशल मीडिया में भूकंप आने के बारे में लगाए जा रहे कयास और टिप्पणियां बेबुनियाद और वैज्ञानिक तौर पर अतार्किक हैं। भूकंप विशेषज्ञ बताते हैं कि भूकंप के केंद्र में तो नहीं, लेकिन उसके दायरे में आने वाले इलाकों में कुछ सेकंड पहले वैज्ञानिक तौर पर यह बताया जा सकता है कि वहां भूकंप आने वाला है। यह समय बेहद कम होता है। यही वजह हैं कि इसको लेकर पहले से ही कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। भारत में तो यह भी संभव नहीं है लेकिन जापान में कुछ सेकंड पहले भूकंप का पता लग जाता है। ऐसे में बुलेट ट्रेन और परमाणु संयंत्रों को काम करने से रोक दिया जाता है।
कुछ सेकंड पहले भी भूकंप का पता कैसे लग सकता है, इसकी भी जानकारी सभी को होनी चाहिए। जब भी कोई भूकंप आता है तो दो तरह की वेव निकलती हैं। एक प्राइमरी वेव है और दूसरी सेकंडरी वेव है प्राइमरी वेव औसतन 6 किलोमीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से चलती है। जबकि सेकंडरी वेव औसतन 4 किलोमीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से चलती है। इस अंतर के चलते प्रत्येक 100 किलोमीटर में 8 सेकंड का अंतर हो जाता है अर्थात् भूकंप केंद्र से 100 किलोमीटर की दूरी पर 8 सेकंड पहले पता चल सकता है कि भूकंप आने वाला है इतने कम समय में कुछ भी नहीं किया जा सकता। अतः भूकंप के बारे में भविष्यवाणी करना नामुमकिन है जापान और ताइवान जैसे देशों में इस तकनीक का इस्तेमाल होता है जिससे नुकसान काफी कम होता है। जापान में ऐसे भी बहुत भूकंप आते रहे. हैं। इसलिए वहां सभी मकान भूकंपरोधी बनाए जाते हैं। अब जहां भूकंप आने से नुकसान नहीं होता। लेकिन वहीं भारत में लोग अभी भी इसके प्रति सचेत नहीं है। दरअसल भूकंप से लोग नहीं मरते, बल्कि उसके कारण मकान और पेड़ आदि गिरने से लोगों की मृत्यु होती है। हां, ऐसा माना जाता है कि भूकंप आने की जानकारी चूहे, सांप और कुत्ते को पहले से हो जाती है। चूहे और सांप ज्यादातर पृथ्वी के अंदर ही रहते हैं इसलिए उनको भूकंप देव का असर पहले ही हो जाता है। भूकंप के समय ये कुछ अलग ढंग का व्यवहार करने लगते हैं। कुत्ते को भांपने की क्षमता ज्यादा होती है इसलिए उसे भी पहले ही एहसास हो जाता है कि भूकंप आने वाला है।
ऊंचा हो रहा एवरेस्ट
भूकंप के बाद नेपाल की राजधानी काठमांडू की तस्वीर ही बदल गई है। वहां केवल खंडहर ही दिखाई दे रहे हैं। यूनेस्को विश्व धरोहर की सूची में शामिल 'दरबार स्क्वायर मलबे में तब्दील हो चुका है यहां का मशहूर 'धरहरा टावर' धराशायी हो गया है। नेपाल में अक्सर भूकंप आते रहते हैं। यह दुनिया के सबसे सक्रिय भूकंप क्षेत्र में आता है। इसे समझने के लिए हिमालय की संरचना और पृथ्वी के अंदर की हलचल के बारे में जानना जरूरी है। हिमालय दरअसल भारतीय टेक्टोनिक प्लेट के यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेट (मध्य एशिचाई) के नीचे दबते जाने के कारण बना है। पृथ्वी की सतह की वे दो बड़ी प्लेट करीब चार से पांच सेंटीमीटर प्रति वर्ष की गति से एक दूसरे की ओर जा रही हैं। इन प्लेटों की गति के कारण पैदा होने वाले भूकंप की वजह से ही एवरेस्ट और इसके साथ के पहाड़ ऊंचे होते जा रहे हैं। हिमालय के पहाड़ हर साल करीब पांच मिलीमीटर ऊपर उठते जा रहे हैं। जिससे भारतीय प्लेट के ऊपर हिमालय का दबाव बढ़ रहा है। दरअसल इस तरह के दो या तीन फाल्ट हैं। ऐसा अनुमान है कि इन्हीं में से किसी प्लेट के खिसकने से यह ताजा भूकंप आया है कोई भी बड़ा भूकंप आता है तो शुरुआत में नुकसान कम नज़र आता है लेकिन बाद में यह बड़ी तेजी से बढ़ता जाता है।
नेपाल के लिए तो भूकंप का डर हमेशा बना रहेगा, क्योंकि यह हिमालय की गोद में बसा है तबाही सिर्फ इसलिए नहीं हुई कि भूकंप की तीव्रता बड़ी थी। यह रिक्टर स्केल पर 7.9 थी। बल्कि चिंता इस बात की है कि इस भूकंप का केंद्र बहुत उथला था। करीब 10 से 15 किलोमीटर नीचे इसका केंद्र था। इस कारण सतह पर कंपन और ज्यादा महसूस हुआ हर विनाशकारी भूकंप के बाद 10-20 हल्के झटके और आते हैं लेकिन उनकी तीव्रता कम होती जाती है। इसे आफ्टर शॉक कहते हैं यहां हमें यह जानना जरूरी है कि रिक्टर स्केल पर तीव्रता में प्रत्येक अंक की कमी का मतलब है, बड़े भूकंप से 30 फीसदी कम ऊर्जा मुक्त होना । नेपाल में कई ऐसी इमारतें थी जो बहुत ही पुरानी थीं जब इमारतें पहले से ही जर्जर होती हैं तो एक छोटे से झटके भी उसे जमीदोज कर देती हैं। इसलिए नेपाल की जितनी भी पुरानी इमारतें थीं सभी धराशायी हो गई।
सतर्कता ही है बचाव
नेपाल गरीब देश हैं यहां की अधिकांश आबादी ऐसे घरों में रह रही है, जो किसी भी भूकंप के लिए बहुत ज्यादा खतरनाक है। भूस्खलन की आशंका भी यहां ज्यादा है। पहले भी कई ऐसे मूस्खलन हुए हैं जिनमें लोगों की जानें गई हैं। ऐसा अनुमान है कि इस पहाड़ी क्षेत्र में कई गांव मुख्य आबादी से कट गये हैं या ऊपर से गिरने वाले पत्थरों या कीचड़ में दफन हो गये हैं। हिमालय क्षेत्र पर नज़र डालें. तो पता चलता है कि वर्ष 1934 में बिहार में 8.1 तीव्रता का भूकंप आया था। इसी तरह वर्ष 1905 में 7.5 तीव्रता का भूकंप कांगड़ा में आया और वर्ष 2005 में 7.6 तीव्रता का भूकंप कश्मीर में आया था। इसमें बाद के दो भूकंप काफी विनाशकारी थे, जिसमें करीब 1,00,000 लोग मारे गए थे और दसों लाख लोग बेघर हो गए थे। इस बार भी बिहार सबसे ज्यादा प्रभावित रहा है। इसका मुख्य कारण है भूकंप से बचाव की जानकारी का अभाव इसलिए कभी भी भूकंप का झटका आने लगे तो लोगों को घरों से बाहर खुले स्थान में चले जाना चाहिए। मकानों को मजबूत बनाना चाहिए जिससे वे भूकंप के बड़े झटक सह सके धरती के अंदर ज्यादा निर्माण कार्य न करें अगर हम भूकंप के समय सतर्क रहेंगे तो भारी नुकसान से बचा जा सकता है। इंसान यह न भूले कि वह सर्वशक्तिमान नहीं है। मनुष्य का शरीर पंचतत्व से मिलकर बना है। मानव ने उस शक्ति को न सिर्फ चुनौती दी बल्कि उसके खिलाफ काम करना भी शुरू कर दिया। उसने प्रकृति के तमाम कानून तोड़े तमाम चेतावनियों को नज़रअंदाज़ किया। एक नई कुदरत की रचना करने की कोशिश की। इंसान ने पहाड़ों को खोखला कर दिया, जंगलों का सफाया कर दिया, नदियों का पानी रोक दिया। ऐसे में आखिरकार इंसान को उसकी इस गलती का सिला तो मिलेगा ही न आज प्रकृति हमें ऐसा दर्द दे रही है जिसको नापने के लिए मेरे पास कोई यंत्र नहीं है। ऐसे दर्द को नापने के लिए विज्ञान के पास भी कोई यंत्र नहीं है। तभी तो हम लाचार हैं ऐसे मातम को सहने के लिए।
फ्रैंकिंग से भी कापेगी धरती
फ्रैंकिंग का अर्थ होता है जमीन में दबी चट्टानों को तोड़कर वहां से तेल या गैस निकालना वैज्ञानिकों ने इसे गंभीर माना है आजकल फ्रैंकिंग तेजी से हो रही है। फ्रैंकिंग से भूकंप आ सकता है ऐसा वैज्ञानिकों का मानना है। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत जमीन के भीतर सैकड़ों मीटर की गहराई में दबी चट्टानों को तोड़ा जाता है यह लाखों लीटर पानी, बालू और हज़ारों लीटर रसायनों की मदद से किया जाता भारी दबाव के साथ जब ये मिश्रण सुराख के जरिये पृथ्वी के भीतर डाले जाते हैं तो चट्टानें दरकने लगती हैं दरार और वहां पहुंचे कैमिकल से चट्टानों के भीतर दबी गैसें और वहां मौजूद तेल निकलने लगता है। फ्रैंकिंग के कारण पर्यावरण पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है फ्रैंकिंग में इस्तेमाल होने वाले घातक रसायनों से भूजल दूषित हो जाता है। जिसको हम पीकर बीमार हो जाते हैं। इस समय फ्रैंकिंग अमरीका, जर्मनी, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया सहित संसार के 16 देशों में तेजी से हो रहा है। पर्यावरण प्रेमी इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं। दरअसल, फ्रैंकिंग पानी को दूषित तो कर ही रहा है साथ ही ऐसे पानी को वाटर ट्रीटमेंट प्लांट भी साफ नहीं कर सकता। फ्रैंकिंग के खिलाफ एक और मजबूत वैज्ञानिक तर्क सामने आ रहा है कि इसकी वजह से भूकंप भी आ रहा है। इसकी पुष्टी अमरीकी सिस्मोलॉजिकल सोसाइटी के वैज्ञानिकों ने की है। वर्ष 2014 में अमरीका में फ्रैंकिंग से संबंध रखने वाला सबसे ताकतवर भूकंप आया। ओहायो राज्य के पोलैंड करने में आए उस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर तीन आंकी गई थी। भूकंप वैज्ञानिकों को पता चला कि उस भूकंप का सीधा संबंध इलाके में हो रही फ्रैंकिंग से था यह अकेला मामला नहीं है, कई अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों ने एक से तीन रिक्टर पैमाने वाले 77 भूकंप दर्ज किए। सिस्मोलॉजिकल सोसायटी का दावा है कि इन भूकंपों का संबंध इलाके में हो रही फ्रैंकिंग से है। वैज्ञानिकों के मुताबिक उच्च दबाव से जमीन में तरल डालने की वजह से पुराने घाव हरे हो रहे हैं। कई चट्टानों के पुराने फॉल्ट फिर से सक्रिय हो रहे हैं। इसी वजह से भूकंप आ रहे हैं। ड्रिलिंग बंद करते ही भूकंपीय गतिविधियां तेजी से खत्म होने लगती हैं। इस दावे के बाद ओहायों राज्य ने एक रेगुलेटरी सिस्टम बना दिया है। ये सिस्टम ड्रिल वाले इलाकों में आ रहे भूकंपों पर नज़र रखेगा। जैसे ही फ्रैंकिंग वाले किसी इलाके में एक रिक्टर पैमाने का भूकंप आएगा, मामले की जांच की जाएगी, अगर इसकी तीव्रता दो हुई तो फ्रैंकिंग बंद कर दी जाएगी।
यही प्रक्रिया भारत में भी होनी चाहिए। दरअसल, हमने आपदा आने के बाद की तैयारी काफी कर ली है। जैसे एनडीआरएफ (राष्ट्रीय आपदा मोचन बल) की मजबूत टीम हमारे पास है, जी पड़ोसी देशों तक मदद पहुंचाने में सक्षम है। लेकिन आपदा आने से पहले की तैयारी पर हमें अब भी काम करना होगा। भूकंप आने के बाद नेपाल में जान-माल के व्यापक नुकसान की वजह शायद यही है कि वहां भी अन्य विकासशील देशों की तरह आपदा-पूर्व प्रबंधन पर ज्यादा काम नहीं हुआ है। चूंकि वह हिमालय का क्षेत्र है, इसलिए यहां भूकंप के झटके आएंगे ही ऐसे में भूकंप से लड़ने की तैयारी महत्वपूर्ण होती है, जिस पर काफी काम किया जाना बाकी है। हमें समझना होगा कि भूकंपरोधी मकान के लिए मकान का एक यूनिट के रूप में बनना जरूरी है। यानी वह ऐसा ढांचा हो, जिसमें लचक हो यह कुछ-कुछ मानव शरीर जैसा है, जो लचक होने की वजह से ही धक्के आदि को सहता है। मकान में लचक तभी आती है, जब बिल्डिंग कोड का हम पालन करें। लचक इसलिए भी जरूरी है कि भूकंप के समय बहुमंजिली इमारतों में भूतल की तुलना में ऊपरी मंजिलों में ज्यादा हलचल होती है इसलिए उस इमारत को ऐसा जरूर बनाना चाहिए कि धरती के दो या तीन डिग्री घूमने पर भी उसे नुकसान न हो। यह बिल्डिंग कोड राष्ट्रीय आपदा मोचन वल और नागरिक सुरक्षा की वेबसाइट पर मौजूद है सरकारी एजेंसी तो इसे लागू करती हैं, मगर निजी तौर पर होने वाले निर्माण कार्यों में इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है हमारी राजधानी दिल्ली भूकंप के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्रों में गिनी जाती है, इसलिए बेतरतीय हो रहे निर्माण कार्य वहां नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसके लिए सभी को सतर्कता से काम लेना चाहिए और भूकंपरोधी नई तकनीक का रास्ता निकालना चाहिए।
संपर्क सूत्र श्री विजन कुमार पाण्डेय, आर. बी. विला, एच-159, एल्फा-2, ग्रेटर नोएडा, गोतम बुद्ध नगर (उ.प्र.) मो09450438017 (ई-मेलः vijanlamnaraundey@gmail.com)
स्रोत :- वैज्ञान प्रगति जुलाई 2015
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