जुलाई में जब देश का मंत्रिपरिषद परमाणु दयित्व विधेयक के प्रावधानों पर विचार कर रहा था तो एक तयशुदा मसौदे पर लोगों की राय जानने की औपचारिकता निभाई जा रही थी, ये लेख तब लिखा गया था | अब यह विधेयक क़ानून बन चुका है और इसमें मुआवजा राशि में मामूली बढ़ोत्तरी के अलावा ज़्यादातर बातें शुरुआती मसौदे वाली ही रखी गई हैं.:
भोपाल गैस-कांड पीड़ितों को इतने सालों में इंसान के दुख और खून के रंग के साथ-साथ इस व्यवस्था के कसाईपन की भी पहचान हो गयी है। इसीलिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर खुद के लिए इंसाफ मांगने के साथ-साथ वे प्रस्तावित परमाणु उपादेयता विधेयक (न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल) पर भी सरकार से जवाब मांग रहे हैं। जुलेखा भी उन 35 भोपाल-पीड़ितों में से हैं, जिन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय से इस विधेयक पर सूचना मांगी है। उनका कहना है कि हम यह जानना चाहते हैं कि इस बिल में उन बातों का ध्यान रखा गया है, जिनकी भोपाल में अनदेखी हुई। इस प्रस्तावित कानून में मिल रहा मुआवजा तो उतने से भी कम है, जितना 25 साल पहले भोपाल में दिया गया, जबकि परमाणु भट्ठियों में होनेवाली दुर्घटना भोपाल से कई गुना भयावह होगी।
दरअसल, पिछले महीने भोपाल पर आये कोर्ट के फैसले और इस सिलसिले में इस मुद्दे पर फिर से घूमी मीडिया की नजर ने ही परमाणु उपादेयता विधेयक को भी व्यापक चर्चा का विषय बना दिया है, वरना इस कानून के पारित होने में कुछ तकनीकी कदम ही बाकी थे। संसद में विपक्ष लगभग अस्तित्वहीन है और सपा-राजद जैसे दलों की मजबूरी है कि शुरुआती शोरगुल के बाद अंततः कांग्रेस के साथ जाएं। लेकिन हाल में इस मुद्दे पर हलचल में आये मीडिया और आंदोलनकारियों के दबाव में सरकार ने इस विवादास्पद विधेयक को विज्ञान और तकनीक मामलों से जुड़ी संसद की स्टैंडिंग कमेटी के हवाले कर दिया है। इस समिति ने अब तक विशेषज्ञों और नागरिक संगठनों से बात की है और हाल में आम जनता को अपने सुझाव भेजने के लिए 15 दिन का नोटिस दिया है।
परमाणु उपादेयता विधेयक पर उठ रही चिंताएं बिलकुल वाजिब हैं। सरकार की पूंजीपरस्ती का पता इसी बात से चलता है कि इस बिल की आम जानकारी सरकार के माध्यम से नहीं, बल्कि औद्योगिक हितों की रक्षक FICCI (Federation of Indian Chambers of Commerce and Industries) की मार्फत हुई जब पिछले नवंबर में पता चला कि FICCI सरकार द्वारा लाये जा रहे इस बिल की समीक्षा कर रही है। अभी भी, इस बिल के पक्ष में सरकार का मूल तर्क यही है कि इस कानून के तहत मुआवजे का ज्यादा बोझ पड़ने पर निवेशकर्त्ता परमाणु क्षेत्र में पैसा लगाने से पीछे हट जाएंगे। वैसे, इस बिल में प्रस्तावित मुआवजा राशि के साथ-साथ अन्य कई मुद्दे हैं, जिन पर बात होना जरूरी है। बिल के विवादास्पद पहलुओं का एक संक्षिप्त विवरण कुछ इस प्रकार है –
यह बिल परमाणु-बिजली जैसे संवेदनशील क्षेत्र में प्राइवेट कंपनियों के बतौर ’ऑपरेटर’ प्रवेश के लिए दरवाजे खोलता है, जिनकी प्राथमिकता सुरक्षा नहीं पैसा कमाना होता है। बिल में ’ऑपरेटर’ के लिए और सरकार के लिए देय अलग-अलग मुआवजा राशियों का प्रावधान है, इससे साफ है कि ’ऑपरेटर’ सरकार से अलग एक इकाई होगी – जाहिर है यह देसी या विदेशी निजी कंपनियां ही होंगी। हकीकत यह है कि परमाणु बिजली-उद्योग की संवेदनशीलता को देखते हुए खुद अमेरिका और युरोप के देशों में सरकार ही ’ऑपरेटर’ होती है और भारत में भी अब तक ऐसा ही चलता आया है।
इस बिल में दुर्घटना की स्थिति में पीड़ितों को दिये जानेवाले मुआवजे की अधिकतम सीमा तय कर दी गयी है जो किसी भी कानूनी और इंसानी लिहाज से आपत्तिजनक है। ’ऑपरेटर’ के लिए यह राशि अधिकतम 500 करोड़ रुपये है और उससे ऊपर की 300 SDR (460 मीलियन डॉलर या लगभग 2100 करोड़ रुपये) तक की राशि सरकार देगी। यह कुल राशि भी 1989 में भोपाल के मामले में यूनियन कार्बाइड द्वारा दिये गये 470 मीलियन डॉलर से भी कम है। इससे अधिक मुआवजे की स्थिति में प्रस्तावित बिल में CSC (Convention on Supplimentary Compensation) से 300 SDR की अतिरिक्त राशि के लिए अनुरोध करने का जिक्र किया गया है। CSC में परमाणु-दुर्घटनाओं से निपटने के लिए एक साझा अंतर्राष्ट्रीय कोश की व्यवस्था है, लेकिन खुद CSC का कोश इस बात पर निर्भर करता है कि इसमें कितने देश शामिल होते हैं और स्वेच्छा से कितनी राशि जमा करते हैं। खुद भारत और अमेरिका समेत कई महत्त्वपूर्ण देश CSC का हिस्सा नहीं हैं और CSC के अस्तित्व और इसके आर्थिक स्वास्थ्य पर गंभीर शंकाएं हैं। ऐसे में, CSC से मुआवजा दिलवाने की बात कोरी लफ्फाजी है।
'ऑपरेटर’ के लिए तय 500 करोड़ रुपये को भी अनुच्छेद 6(2) में स्थिति के अनुसार 100 करोड़ रुपये तक कम करने का प्रावधान है, जो असल में एक घिनौना मजाक है। अमेरिका में निर्धारित मुआवजा राशि 10 अरब डॉलर है, जिसके परमाणु उद्योग की विभिन्न कंपनियों के एक साझा फंड से दिये जाने का प्रावधान है।
परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के लिए मशीनें, ईंधन अथवा तकनीक की आपूर्त्ति करने वाले ’सप्लायर’ द्वारा दिये जाने वाले मुआवजे का तभी प्रावधान है, जब ’ऑपरेटर’ और ’सप्लायर’ के बीच उस खास संयंत्र को लेकर हुए इकरारनामे में इस बात का जिक्र हो (अनुच्छेद 17 – a, b और c)। जाहिर है, ऐसे में सभी विदेशी ’सप्लायर’ इस बिल की जद से बाहर हैं और ’ऑपरेटर’ से अपने अनुबंधों में वे मुआवजे से मुक्त रहना पसंद करेंगे। साथ ही, ’सप्लायर’ की मुआवजा राशि ’ऑपरेटर’ से कम ही होगी। इस प्रकार, असल में विदेशी या देशी ’सप्लायर’ उस 500 करोड़ रुपये के प्रति भी जवाबदेह नहीं हैं, जिस पर पूरी बहस चल रही है। इस बिल में ’सप्लायर’ की जवाबदेही को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।
प्रस्तावित विधेयक किसी प्राकृतिक दुर्घटना अथवा आतंकवादी हमले की स्थिति में मुआवजे से मुकर जाता है (अनुच्छेद 5 – ii और ii)। यह औद्योगिक जिम्मेवारी के न्यूनतम सिद्धांतों से पीछे हटना है।
अध्याय 3 के अनुच्छेद 9(2) में दावा आयोग (Claims Commission) के गठन, उसकी जिम्मेवारियों और अधिकारों पर विस्तार से चर्चा की गयी है। इस दावा आयोग में सिर्फ सेवानिवृत्त जजों और सरकारी अफसरशाहों को शामिल करने का प्रावधान है, जबकि दावा आयोग समेत पूरे मुआवजा प्रणाली के हरेक स्तर पर स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों को अनिवार्यतः शामिल किया जाना चाहिए जिससे मुआवजा तय करने की प्रक्रिया पीड़ित-केंद्रित हो पाये।
अनुच्छेद 18 में यह प्रावधान है कि पीड़ित अपने मुआवजे की मांग दुर्घटना के दस साल के अंदर ही कर सकते हैं। यह प्रावधान पूरी तरह हटाया जाना चाहिए क्योंकि रेडिएशन-जनित बीमारियां सामने आने में अधिकतर लंबा समय लेती हैं और इनके लक्षण अगली पीढ़ी में भी दिख सकते हैं। इसी अनुच्छेद के अगले पैरा में यह कहा गया है कि अगर दुर्घटना किसी चोरी अथवा गायब हुए उपकरण से होती है, तो यह अवधि उस चोरी की तारीख से गिनी जाएगी। मतलब, अगर कंपनी यह साबित कर दे कि दुर्घटना किसी बीस साल पहले चोरी हुए उपकरण से हुई थी, तो उसे कोई मुआवजा नहीं देना पड़ेगा !
अनुच्छेद 35 में यह प्रावधान है कि दावा आयोग के फैसलों पर देश की कोई दूसरी स्थानीय या उच्च-स्तरीय अदालत में पुनर्विचार नहीं किया जा सकेगा। यह प्राकृतिक न्याय के आधारभूत नियमों का उल्लंघन है। इस अनुच्छेद को पूरी तरह हटाया जाना चाहिए।
अनुच्छेद 39(1) के अंतर्गत मुआवजा राशि देने से मुकरने वाले व्यक्ति को अधिकतम 5 साल की सजा अथवा आर्थिक-दंड का प्रावधान है। हजारों लोगों पर आयी विभीषिका की जिम्मेवारी के मद्देनजर यह सजा बहुत कम है।
अनुच्छेद 40(1) के अनुसार अगर कंपनी का उच्च-स्तरीय अधिकारी यह साबित कर दे कि दुर्घटना उसकी जानकारी के बगैर हुई तो उसे कोई सजा नहीं होगी। यह औद्योगिक जिम्मेवारी के स्थापित मानदंडों के बिल्कुल खिलाफ है।
अनुच्छेद 47 के अंतर्गत केंद्र सरकार के अधिकारियों को सजा से बाहर रखा गया है, यह सर्वथा नाजायज है और इससे समस्याओं की अनदेखी को ही बढ़ावा मिलेगा।
अनुच्छेद 49(1) के दूसरे पैरा में यह जिक्र है कि इस विधेयक के कानून बनने के तीन साल के बाद इसमें कोई संशोधन नहीं किया जा सकेगा। यह निहायत बेतुकी और खतरनाक बात है। जब देश का हर कानून जरूरत के मुताबिक संशोधित किया जा सकता है तो यह कानून क्यों नहीं?
इन अनुच्छेदों के अतिरिक्त इस विधेयक की प्रस्तावना में परमाणु-दुर्घटनाओं की स्थिति में होने वाले पर्यावरणीय नुकसान की भी चर्चा है लेकिन विधेयक के प्रावधानों में इसका कोई जिक्र नहीं किया गया है – पर्यावरणीय नुकसान की क्षतिपूर्ति कैसे की जाएगी, पंचायत अथवा किन संस्थाओं के माध्यम से पर्यावरणीय मुआवजे की राशि सुनिश्चित की जाएगी।
जाहिर है, वर्तमान स्वरूप में यह बिल भोपाल से कई गुना बड़े विध्वंसों को न्यौता देता है। सिर्फ अमेरिकी कंपनियों को नहीं बल्कि हाल में भारत से परमाणु समझौता करने वाली फ्रांसीसी, कनैडियन और रूसी कंपनियों और देसी औद्योगिक घरानों को भी इस बिल में संयंत्रों की सुरक्षा व्यवस्था की अनदेखी करने की पूरी छूट है और दुर्घटना की स्थिति में यह गारंटी है कि मुआवजा कंपनियां नहीं बल्कि सरकार के पैसे से दिया जाएगा जो कि अंततः खुद जनता का पैसा है। ऐसी स्थिति में, इस बिल के वर्तमान स्वरूप का विरोध हमारी सुरक्षा, अस्तित्व और आने वाली नस्लों के प्रति हमारी जिम्मेदारी का सवाल है।
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