अनुवाद - संजय तिवारी
पहली जून की वह तपती दोपहरी थी। राजस्थान के सबसे गर्म जिलों में शामिल बाड़मेर में पारा 40 डिग्री के पार था। तिस पर रोजाना छह से आठ घंटे की बिजली कटौती। नये कोटरा में सब तपती गर्मी की मार झेल रहे थे लेकिन कुछ लोग ऐसे थे जिन्हें बाड़मेर में भी यह गर्मी परेशान नहीं कर रही थी। बाड़मेर के इस इलाके में मंगनियरों के घर दूसरे घरों के मुकाबले ज्यादा ठंडे थे। ऐसा नहीं था कि इन घरों में कूलर या पंखा लगा था। घरों की ठंडक के पीछे का राज घरों की डिजाइन में ही छिपा था। एक जैसे दिखने वाले इन 65 घरों को कुछ इस तरह से डिजाइन किया गया था कि वो गर्मी में ठंडे और सर्दी में अंदर से गर्म रहते हैं।
बाढ़ ने बदल दिया जीवन
करीब एक दशक पहले 2006 में बाड़मेर के लिये वह बारिश कहर बनकर आयी थी। सूखे बाड़मेर में कम पानी बरसना हैरान नहीं करता, लेकिन इस साल हैरान किया अचानक आयी बाढ़ ने। छह सालों से सूखे की मार झेल रहे बाड़मेर पर इंद्रदेव कुछ इस कदर मेहरबान हुए कि सबकुछ बह गया। इंद्रदेव की यह मेहरबानी ही यहाँ के गाँवों के लिये मुसीबत बन गयी। पाँच गाँव बिल्कुल बाढ़ में बह गये। घर तबाह हो गये, खेत खलिहान सब कुछ बाढ़ की भेंट चढ़ गये। आंकड़े बताते हैं कि 103 से ज्यादा लोग मारे गये और तीस करोड़ के कीमत की फसल बर्बाद हो गयी। देखते ही देखते 47 हजार लोग सड़क पर आ गये। सरकार का आंकड़ा बताता है कि जिस बाड़मेर में सालाना औसत 200 मिलीमीटर बारिश होती है उस बाड़मेर में सिर्फ तीन दिनों के भीतर 577 मिलीमीटर बारिश हुई। रेगिस्तान में चारों तरफ पानी ही पानी तैर रहा था। कहीं-कहीं जमीन से 25 फुट ऊपर पानी बह रहा था।
जलेला गाँव उन्हीं पाँच गाँवों में से एक गाँव था जो बाढ़ में तबाह हुआ था। जलेला मूल रूप से मंगनियर गायकों का गाँव है। 16 अगस्त की उस रात को याद करते हुए लोकगायक दयाम खान बताते हैं “उस रात मैंने अपना सबकुछ खो दिया। मेरा हारमोनियम, मेरे पुरस्कार सब उस बाढ़ में बह गये।” इस अचानक आयी बाढ़ ने करीब 5200 घरों को तबाह कर दिया था। ये सभी घर कच्ची मिट्टी के बनाये गये थे। बाढ़ आयी तो जीवन बचाने के लिये लोग ऊँचे टीलों की तरफ चले गये। यहाँ ज्यादातर लोग गरीब हैं और इनमें से किसी की हालत ऐसी नहीं थी कि अपने बर्बाद घर को दोबारा से बना सकें। छोटी मोटी खेती, लोक गायकी और एक दो पशुओं के भरोसे ही सारा जीवन चलता है।
जिन लोगों के घर तबाह हुए उनमें एक जमुना देवी भी हैं। जमुना देवी का तीस साल का नौजवान बेटा बाढ़ में बह गया, पाँच बीघे की खेती बर्बाद हो गयी और घर भी तबाह हो गया। जमुना देवी बताती हैं “बाढ़ के समय हम अपने पति के साथ ऊँचे टीले की ओर चले गये थे। करीब एक पखवाड़े तक हम वहीं रहे। बाढ़ का पानी उतरा तो हम लौटकर आये लेकिन अब हमारे रहने के लिये यहाँ कोई घर नहीं था। हमने उधार लेकर एक अस्थाई घर बनाया लेकिन अस्थाई घरों में जिन्दगी कहाँ सुरक्षित रहती है? फिर वही डर सताता कि कहीं वैसी ही प्रलय फिर से आ गयी तो क्या होगा?”
बाड़मेर आश्रय योजना
ऐसे ही वक्त में बाड़मेर वासियों के पास सहायता पहुँची जिसने उनके जीवन को बदल दिया। दिल्ली स्थित गैर सरकारी संस्था सीड्स ने निर्णय लिया कि वह बाढ़ प्रभावित लोगों के लिये नया घर बनाकर देगी। जिला प्रशासन की मदद से सीड्स ने 300 घर बनाकर दिये भी हैं। सीड्स की सीईओ शिवांगी छावड़ा कहती हैं कि “गरीब परिवारों के लिये अब संकट और बढ़ गया था। अब अगर कभी ऐसी बाढ़ आती है तो यह पहले से ज्यादा तबाही लेकर आयेगी। लिहाजा, हमने तय किया कि हम ऐसा घर बनाकर देंगे जो पर्यावरण की चुनौतियों का अधिकतम मुकाबला कर सके।”
ये घर किसे दिये जाएँ ये भी एक चुनौती थी, इसलिए ऐसे लोगों का चयन करते समय इस बात का ध्यान रखा गया कि उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति कैसी है। गरीब, विधवाओं और विकलांगों को प्राथमिकता दी गयी। जलेला में नये आवास बनाने के लिये जिला प्रशासन ने जमीन मुहैया करा दी और इस नये आवास को नाम दिया गया ‘नया कोटरा’। सरकारी दस्तावेज में इसे बाड़मेर आश्रय योजना के रूप में चिन्हित किया गया। लेकिन सीड्स ने सिर्फ नया कोटरा में नयी कोटरी ही नहीं बनायी बल्कि इनके आस-पास पानी की पक्की व्यवस्था भी की। सीमेन्ट कंक्रीट के भूमिगत टांका बनवाये गये जिनमें से एक टांका में औसत 32000 लीटर पानी सुरक्षित रखा जा सकता है।
बाड़मेर आश्रय योजना का खाका खींचने में करीब दो महीने का वक्त लगा। नये घरों की योजना बनाते समय सब तरह की बातों का ध्यान रखा गया। स्थानीय लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों को ध्यान में रखकर डिजाइन तैयार किया गया। सिर्फ पर्यावरण की चुनौतियों को ही नहीं बल्कि निर्माण में लगने वाली सामग्री का भी ध्यान रखा गया कि निर्माण ऐसा होना चाहिए कि ज्यादातर कच्चा माल आस-पास में ही मिल जाए। दो महीने की योजना के बाद अगले चार महीनों में निर्माण कार्य पूरा कर दिया गया। इस तरह छह महीने के भीतर ये तीन सौ घर बनकर तैयार कर दिये जिसमें 1 करोड़ 88 लाख 21 हजार रुपये की लागत आयी। हर घर को बनाने पर करीब चालीस हजार रुपये की लागत आयी और 18 से 20 दिन का समय लगा। सीड्स की इस योजना को यूरोपीयन कम्युनिटी ह्यूमनटेरियन और क्रिश्चियन एड ने मदद की बाकी स्थानीय स्तर पर योजना बनाने से लेकर उसे पूरा करने का काम सीड्स ने किया।
राज्य सरकार और जिला प्रशासन ने भी इस परियोजना को पूरी मदद की। बाड़मेर सीमावर्ती जिला है जहाँ आना जाना सामान्य नहीं है। ऐसे में जिला प्रशासन ने ब्लॉक अधिकारियों के जरिए हर संभव मदद की और बाड़मेर आश्रय योजना को पूरा करने में पूरी मदद की। इसके अलावा जो जाति बिरादरी की समस्याएँ थीं उससे निपटने में भी जिला प्रशासन ने संस्था को सहयोग किया जिसकी वजह से यह परियोजना तय समय पर पूरी हो सकी।
फिर भी सबकुछ इतना आसान नहीं था। मात्र चार महीने के भीतर पंद्रह गाँवों में तीन सौ घरों का निर्माण इतना आसान काम नहीं था। सबसे बड़ी समस्या थी निर्माण सामग्री का उन जगहों पर पहुँचाना जहाँ कि घरों का निर्माण होना था। ज्यादातर गाँवों में जहाँ लोग रहते थे वो रेत के टीलों पर थे। वहाँ तक निर्माण सामग्री ले जाना ही सबसे बड़ी समस्या थी। फिर समाज की संरचना और जातिगत व्यवस्थाओं के कारण भी समस्याएँ आयीं। लेकिन इन चुनौतियों से निपटते हुए योजना तय समय पर पूरी हुई और लोगों को आवास भी आवंटित कर दिये गये।
अनूठी डिजाइन
नये कोटरा में जो नयी कोटरी बनायी गयी थी उसका डिजाइन सबसे अनूठा है। ये घर एक सिलिंडर के आकार के बनाये गये हैं। सीड्स के इंजीनियर मिहिर जोशी बताते हैं कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि भविष्य में जब कभी बाढ़ आये तो पानी इन घरों के चारों से आसानी से निकल जाए। ऐसा होने पर घर के मूल ढाँचे को कम से कम नुकसान होगा। इसके अलावा निर्माण में स्थानीय मिट्टी से बनी ईंटों का ही प्रयोग किया गया। जो निर्माण किया गया उसमें 60 से 70 फीसदी मिट्टी की ईंटें, 5 प्रतिशत सीमेन्ट और 25 प्रतिशत सिल्ट का इस्तेमाल किया गया। ईंटों का निर्माण वहीं किया गया जहाँ निर्माण हो रहा था। इसके लिये स्थानीय कारीगरों की मदद ही ली गयी। निर्माण को और अधिक मजबूती देने के लिये ईंट पर ईंट रखकर चिनाई करने की बजाय ईंटों को आपस में इंटरलॉक कर दिया गया।
घरों की नींव को कम से कम चार फुट गहरा रखा गया और घर की सबसे कमजोर कड़ी खिड़कियों के आस-पास विशेष ध्यान रखा गया कि वो मजबूत रहें। ईंटों को इस तरह से चिनाई की गयी कि घर के भीतर ज्यादा देर तक ठंडक रहे। छतों का निर्माण स्थानीय सनिया घास और बांस से किया गया। इस प्रकार की छत के कारण सर्दियों में घर गर्म रहते हैं और गर्मियों में घरों के भीतर ठंडक रहती है। एक और बात का बहुत बारीकी से ध्यान रखा गया कि घर का दरवाजा घर के भीतर की तरफ खुले या फिर बाहर की तरफ। इंजीनियरों ने अनुभव किया कि भूकम्प जैसी अचानक आयी आपदा में घर के दरवाजे ही सबसे पहली बाधा बनते हैं। अगर घर के दरवाजे बाहर की तरफ खुलते हों तो तत्काल बाहर निकलने में ज्यादा मदद मिलती है इसलिए बाड़मेर के इन घरों में दरवाजे बाहर की तरफ लगाये गये ताकि ऐसी किसी आपदा में ये लोग तुरंत बाहर निकल सकें।
बाड़मेर आश्रय योजना में भले ही बाहरी मदद और इंजीनियरिंग का बहुत बड़ा योगदान रहा हो लेकिन स्थानीय लोगों को भी इस निर्माण प्रक्रिया में शामिल किया गया। इसके लिये एक विलेज डवलपमेन्ट कमेटी गठित की गयी और इस कमेटी के माध्यम से स्थानीय लोगों को इस पूरी निर्माण प्रक्रिया में सम्मिलित किया गया ताकि उन्हें भी यह महसूस हो कि यह जो कुछ हो रहा है उनके लिये ही हो रहा है और उसके मालिक वही हैं। सीड्स की सीईओ छावड़ा कहती हैं कि जो भी निर्णय लिया गया उसमें गाँव वालों को शामिल करके लिया गया। स्थानीय राजमिस्त्री को निर्माण के लिये ट्रेनिंग भी दी गयी। ऐसे ही एक राजमिस्त्री रेवत सिंह बताते हैं कि ज्यादातर परिवारों ने ही मजदूरी का काम किया और इसमें महिलाएँ सबसे आगे थीं।
जलवायु परिवर्तन की दस्तक
स्थानीय बाड़मेर के निवासी ये महसूस करने लगे हैं कि गर्मी और बारिश दोनों में बदलाव हो रहा है। एक दो दशक पहले तक बाड़मेर में या तो बिल्कुल बारिश नहीं होती थी या फिर बहुत कम बारिश होती थी लेकिन अब इसमें धीरे-धीरे बढ़ोत्तरी हो रही है। अब बाड़मेर में कम समय से औसत से अधिक बारिश होने लगी है। इसी तरह गर्मी के सीजन में बढ़ोत्तरी दिखाई दे रही है। अब न सिर्फ पारा चढ़ रहा है बल्कि गर्मी का समय भी बढ़ रहा है। राज्य का मौसम विभाग भी स्थानीय लोगों की बात से अपनी सहमति दिखाता है। मौसम विभाग के आंकड़े बता रहे हैं कि बाड़मेर में गर्मी और बारिश दोनो बढ़ रही है। जलवायु परिवर्तन पर बनी राजस्थान की राज्य कमेटी का कहना है कि बारिश और गर्मी का पैटर्न परिवर्तित हो रहा है। अधिक वर्षा की संभावना इलाके में बढ़ रही है। अनुमान है कि 2035 तक राज्य में तापमान में 1.8 से 2.1 डिग्री की बढ़ोत्तरी होगी। इसमें भी न्यूनतम तापमान की बढ़ोत्तरी अधिकतम तापमान से ज्यादा होगी। इसका नतीजा यह होगा की राजस्थान के कई इलाकों में रोजाना की बारिश में 20 से 30 मिलीमीटर की बढ़ोत्तरी होगी।
जाहिर है, पर्यावरण में हो रहे ऐसे बदलावों के बीच सीड्स की यह आश्रय परियोजना बाड़मेर में भविष्य की बुनियाद है। लेकिन दुख की बात ये है कि आज भी ऐसे घरों को लेकर सामान्य जन में कोई खास रुचि नहीं है। वो इसे गरीबों का घर समझते हैं। राजमिस्त्री रेवत सिंह कहते हैं कि आजकल लोगों में मार्बल फ्लोरिंग वाले घरों का फैशन है। सब शहरों की तर्ज पर अपना घर बनाना चाहते हैं। शायद यही कारण है कि सीड्स की यह परियोजना पूरी होने के बाद भी बहुत कम लोगों ने इन घरों की तर्ज पर अपना घर बनाने की पहल की। स्थानीय निवासी दुर्गेश सिंह कहते हैं कि नये जमाने के घर दिखने में ज्यादा सुंदर होते हैं। लेकिन दुर्गेश सिंह जैसे लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जिस वातावरण में वो रह रहे हैं उसमें से नये जमाने के घर न तो टिकाऊ हैं और न ही आपदा की स्थिति में सुरक्षित। राजमिस्त्री रेवत सिंह कहते हैं कि लोग नये जमाने के घर तो बना रहे हैं लेकिन इन नये जमाने के घरों की नींव बहुत कमजोर है। जरा सी कोई आपदा आयेगी तो सब ताश के पत्तों की तरह ढह जाएँगे।
सीड्स कहता है, हमारा काम था हमने एक नया डिजाइन बनाकर लोगों के सामने प्रस्तुत कर दिया। अब यह लोगों के ऊपर है कि वो उसे स्वीकार करते हैं या नहीं। हमने मॉडल तैयार कर दिया, स्थानीय लोगों को तकनीकि दे दी, इसके आगे स्थानीय लोग तय करेंगे कि उन्हें इस तरह के घर बनाने हैं या नहीं। सीड्स का कहना है कि इस तरह के घर पर्यावरण परिवर्तन की चपेट में आ रहे गुजरात में भी बनाये जा सकते हैं लेकिन फिलहाल उन्हें काम करने का मौका नहीं मिला है।
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