विश्व में मां नर्मदा ही एक ऐसी नदी है, जिसकी परिक्रमा की जाती है। यह परिक्रमा कब से की जा रही है इसके स्पष्ट साक्ष्य तो नहीं, लेकिन सदियों से समाज अपने बुजुर्गों से इस परंपरा का अनुगमन कर रहा है, और विभिन्न अर्थों में यह परिक्रमा अध्यात्म, पीढ़ीगत मूल्य , सृष्टि के रहस्य और प्रकृति तथा जल के महत्व को अपने में समेटे हुए है।
मेरे जीवन में नर्मदा नदी की परिक्रमा की सीधी प्रेरणा इससे पूर्व नहीं थी। हां श्री अमृतलाल बेगड़ की कलजयी रचनाओं, उनकी कलाकृतियों और उनसे हुई भेटों से नर्मदा यात्रा के संबंध में मन में कौतुक तो अवश्य था, लेकिन नर्मदा यात्रा करने का सुफल और मनोबल मुझे अपने गुरु संत श्री समर्थ दादा गुरु के सानिध्य में ही प्राप्त हुआ। विगत वर्ष 22 से लेकर 28 दिसंबर 2022 को मैंने गुजरात के बड़ोदरा जिले के मालसर होते हुए नीलकंठ तक का प्रवास अवधूत संत श्री के साथ नर्मदा परिक्रमा की। और ये मेरे लिए खंड परिक्रमा की बेहतरीन शुरुआत थी।
नर्मदा नदी अमरकंटक के स्रोत बिंदु से प्रारंभ हो लगभग 1600 किलोमीटर यानी परिक्रमा के रूप में 3200 किलोमीटर की यात्रा करती है। परिक्रमा वासियों द्वारा यह अमरकंटक, नेमावर या ओंकारेश्वर से उठाई जाती है, तथा नर्मदा के बाय चलते हुए पूरी की जाती है। वापस समुद्र को पार कर अपने मूल स्थान पर आकर समाप्त की जाती है।
अमरकंटक से निकलकर नर्मदा लगभग अपना 35% प्रवाह यात्रा यानी जबलपुर के बाद सिवनी और नरसिंहपुर में विस्तृत होते मैदानों तक पहाड़ों से गुजरते हुए पूरा करती है। ओंकारेश्वर के पहले तक सघन वनों के बीच भी विस्तृत मैदानी क्षेत्र इसका भूभाग बनाते हैं, और इसके पश्चात तीव्र ढाल के रूप में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के जिलों से होते हुए यह खंभात की खाड़ी में अपनी यात्रा पूरी करती है। नर्मदा नदी मध्यप्रदेश महाराष्ट्र और दक्षिणी गुजरात के सीमावर्ती कुल 21 जिलों को जीवन देते हुए आगे पड़ती है। इसकी यात्रा अत्यंत ही विलक्षण और रहस्यमय है। पहाड़ों में अल्हड़ प्रवाहमय गति के कारण इसका एक नाम रेवा भी है। फिर विस्तृत मैदान में यह अपने आगारों में विशाल जल राशि लिए जीवन के सूत्रों का प्रतिपादन करते हैं।
गुरुवर बताते हैं, की नर्मदा परिक्रमा इस सृष्टि का एक विलक्षण आयोजन है। इस जगत में सब कुछ चक्रीय व्यवस्थाओं में है, जैसे पृथ्वी अन्य ग्रहों के साथ सूर्य का चक्कर लगाती है इसी प्रकार नर्मदा नदी की परिक्रमा हमारे जीवन की बाधाओं और विपत्तियों को दूर करते हुए हमें सार्थकता का वरण कराती है। इसकी अगाध जल राशि का मुख्य स्रोत पर्वतों और चट्टानों से रिसने वाला तरल है, वन आच्छादित प्रदेश ही इसकी निरंतरता को बनाए रखते है। विगत आधी शताब्दी से लगातार जंगलों के हो रहे दोहन ने इसके अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। लगातार वनीय और मैदानी क्षेत्रों में घास के मैदान का कम होना, वनस्पतियों, वृक्षों के कटाव ने भारी मात्रा में पर्वतों और मिट्टी के अपरदन को निरंतर बढ़ाया है। इससे लगातार नदी उथली भी होती गई है, रेत का अनावश्यक संधारण भी हुआ है।
इससे विभिन्न एक बड़ा संकट नर्मदा के जल में निरंतर रसायनों का उर्वरक एवं कीटनाशकों के रूप में प्रयोग होना है। भारत सरकार के जल शक्ति मंत्रालय द्वारा नर्मदा नदी पर जारी किए गए ग्रंथ वर्ष 2019 में यह तथ्य उद्घाटित हुए हैं, कि नदी के प्रदूषण का 57.6% कीटनाशकों के माध्यम से हुआ है। यह भी उल्लेखनीय है, की नर्मदा नदी के दोनों किनारों पर लगभग 60% भाग कृषि क्षेत्र है। नदी के साथ बसने वाले 1500 से अधिक छोटे-बड़े ग्रामों ने सदियों से जीवन का संदेश नर्मदा मां से ही पाया था, किंतु आज वही जीवनदायनी मां प्रक्षक तत्वों के अतिशय प्रयोग से कलुषित होती चली गई हैं।
यह संक्रमण का वह दौर है, जब हम इस बात को सोचने के लिए विवश है, कि क्या हमारे सृष्टि, जीवन, जीव और जगत के प्रति उच्च आदर्श केवल कपोल कल्पनाएं और बोलने की बातें हैं। अथवा इनका वास्तविक क्रियाकलापों से कोई संबंध भी है? आज आवश्यकता इस बात की है कि नर्मदा मां के साथ लगी कृषि भूमि को प्राकृतिक किया जाए। उपयोग होने वाले रसायनों को चरणबद्ध तरीके से शून्य किया जाए। और परिक्रमा वासी और तटवासी एक ऐसे गठबंधन में बंधे, जिसमें ऊर्जा का आदान-प्रदान एक सार्थक भाव से हो सके । मां नर्मदा की परिक्रमा को हमें उसके अस्तित्व, उससे मिलती रही ऊष्मा और प्रकाश के संदर्भ में समझना चाहिए। केवल पौराणिक मान्यताओं के अनुरूप यात्रा कर लेना भर शायद काफी ना हो ।
स्रोत :- पर्यावरण डाइजेस्ट
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