नर्मदा को निचोड़ने की नादानी

नदी-जोड़ योजना का एक आम सिद्धांत है कि किसी दानदाता नदी का पानी ग्रहणदाता नदी में तभी डाला जा सकता है, जब दानदाता नदी में अपने इलाके के लोगों की आवश्यकताओं से ज्यादा पानी उपलब्ध हो। सवाल है कि क्या नर्मदा में पेयजल, खेती और उद्योगों को ध्यान में रखते हुए आवश्यकता से ज्यादा पानी उपलब्ध है? गौर करने लायक तथ्य है कि वाशिंगटन डीसी के वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के मुताबिक, नर्मदा दुनिया की छह सबसे संकटग्रस्त नदियों में शामिल है.. 18 फरवरी, 2014 का दिन और स्थान इंदौर जिले का उज्जैनी गांव। मध्य प्रदेश में भी यह आगामी लोकसभा चुनाव से ठीक पहले का समय है। तीन घंटे के लिए यह गांव प्रदेश की राजधानी बन गया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अगुवाई में दोपहर 3 से शाम 6 बजे तक मंत्रिमंडल की बैठक यहीं हुई। इस दिन नर्मदा-शिप्रा लीन परियोजना से चर्चा में आए उज्जैनी को विकसित करने के लिए मुख्यमंत्री चौहान ने विशेष रुचि ली। इसी दिन यहां चौहान ने जल संकट से घिरे सूबे के पश्चिमी अंचल मालवा को हरा-भरा बनाने का भी सपना दिखाया। उनका दावा है कि मालवा के सैकड़ों गांवों को रेगिस्तान बनने से बचाने के लिए उन्होंने योजना को तेजी से अमली जामा पहनाना शुरू कर दिया है। किंतु हकीकत यह है कि पूरी योजना में ऐसी कई खामियां हैं, जिससे अब यह योजना महज चुनावी हथकंडा नजर आने लगी है। देश में बीते कई सालों से नदियों को जोड़ने की परियोजना पर बहस चल रही है। इस मुद्दे पर एक वर्ग का मानना है कि यह विचार न केवल पर्यावरण के विरुद्ध है, बल्कि इसमें बड़े पैमाने पर फिजूल खर्ची भी जुड़ी हुई है। वहीं दूसरा तबका इसे जल संकट से निजात पाने के स्थाई उपाय के तौर पर देखता है। लेकिन जब इसी कड़ी में नर्मदा को क्षिप्रा से जोड़ने का मामला सामने आया है तो नदी-जोड़ परियोजनाओं का समर्थन करने वाले कई विशेषज्ञ भी इसके पक्ष में नहीं दिखते।

इस बारे में उनकी साफ राय है कि भौगोलिक नजरिए से नर्मदा को क्षिप्रा से जोड़ना एकदम उल्टी कवायद है। इसमें इस्तेमाल तकनीक ही इतनी खर्चीली साबित होने वाली है कि योजना घाटे का सौदा बन जाएगी। काबिलेगौर है कि मध्य प्रदेश में नर्मदा जहां सतपुड़ा पर्वतमाला की घाटियों में बहने वाली नदी है, वहीं क्षिप्रा मालवा के पठार पर स्थित है। योजना के मुताबिक क्षिप्रा को सदानीरा बनाए रखने के लिए उससे काफी नीचे स्थित नर्मदा के पानी को काफी ऊंचाई पर चढ़ाया और फिर उसे क्षिप्रा में डाला जाता रहेगा। इस ढंग से क्षिप्रा को चौबीस घंटे जिंदा रखने के लिए भारी मात्रा में नर्मदा का पानी डालते रहना अपने आप ही दर्शाता है कि यह योजना कितनी जटिल और खर्चीली है। वहीं विशेषज्ञों का विश्लेषण हमें यह सोचने में मदद करता है कि राज्य सरकार की यह अनोखी तरकीब किस तरह से एक ऐसी नादानी है, जो राज्य की जनता के लिए बेहद महंगी साबित होने जा रही है।

यदि इस पूरी योजना के तकनीकी पक्षों पर जाएं तो नर्मदा नदी को क्षिप्रा से जोड़ने के लिए बनाई जानेवाली 50 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन इसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। योजना के तहत नर्मदा के पानी को नर्मदा घाटी से मालवा के पठार तक ले जाने के लिए तकरीबन पांच सौ मीटर यानी आधा किलोमीटर की ऊंचाई तक चढ़ाया जाएगा। तकनीकी विशेषज्ञों के मुताबिक एक नदी के बहाव को इस ऊंचाई तक खींचने के मामले में यह एक बहुत बड़ा फासला है। सीधी बात है कि इतने ऊंचे फासले को पाटने के लिए इस योजना में कई मेगावॉट बिजली इस्तेमाल की जाएगी। इसके लिए चार स्थानों पर न केवल पंपिंग स्टेशन बनाए जाएंगे, बल्कि नर्मदा की धारा को अनवरत पठार तक पहुंचाने के लिए इन स्टेशनों को हमेशा चालू हालत में भी रखना पड़ेगा। इस योजना के निर्माण से जुड़े कामों के लिए जिम्मेदार नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अधिकारी भी इसे काफी खर्चीली कवायद मान रहे हैं। एक अधिकारी जानकारी देते हैं कि पानी को पठार तक पहुंचाने में कुल 22 रुपए प्रति हजार लीटर का खर्च आएगा। दूसरी तरफ मध्य प्रदेश के नगर निगमों पर निगाह डाली जाए तो छोटी नदियों या तालाबों से पानी लेकर घरों तक आपूर्ति की उनकी लागत महज दो रुपए प्रति हजार लीटर होती है।

इस योजना के अंतर्गत हर दिन तीन लाख 60 हजार घनमीटर पानी नर्मदा से क्षिप्रा में डालकर बहाया जाना है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस पूरी कवायद में रोजाना किस हद तक बिजली फूंकी जाएगी। जानकारों की राय में आगे जाकर बिजली की कीमत बढ़ेगी और इस नजरिए से योजना ठीक नहीं कही जा सकती। वहीं जल क्षेत्र में शोध से जुड़ी संस्था मंथन अध्ययन केंद्र बड़वानी के रहमत के मुताबिक, क्षिप्रा सहित मालवा की तमाम नदियां यदि सूखीं तो इसलिए कि औद्योगीकरण के नाम पर इस इलाके में जंगलों की सबसे ज्यादा कटाई हुई और उसके चलते नदियों में पानी की आवक कम होती गई। कायदे से मालवा की नदियों को जिंदा करने के लिए उनके जलग्रहण क्षेत्र में सुधार लाने की जरूरत थी। लेकिन इसके उलट अब दूसरे अंचल की नदी का पानी उधार लेकर यहां की नदियों को जीवनदायिनी ठहराने की परिपाटी डाली जा रही है। नदी-जोड़ योजना का एक आम सिद्धांत है कि किसी दानदाता नदी का पानी ग्रहणदाता नदी में तभी डाला जा सकता है, जब दानदाता नदी में अपने इलाके के लोगों की आवश्यकताओं से ज्यादा पानी उपलब्ध हो। सवाल है कि क्या नर्मदा में पेयजल, खेती और उद्योगों को ध्यान में रखते हुए आवश्यकता से ज्यादा पानी उपलब्ध है? गौर करने लायक तथ्य है कि वाशिंगटन डीसी के वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के मुताबिक, नर्मदा दुनिया की छह सबसे संकटग्रस्त नदियों में शामिल है। केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक 2005 से 2010 तक आते-आते नर्मदा में पानी की आपूर्ति आधी रह गई है। जबकि एक अनुमान के मुताबिक 2026 तक नर्मदा घाटी की आबादी पांच करोड़ हो जाएगी। ऐसे में यहां पानी जैसे संसाधनों पर भारी दबाव पड़ेगा।

इस योजना को लेकर जल वैज्ञानिक केजी व्यास का मानना है कि नर्मदा का पानी जिस जगह से उठाया जाएगा, उसके बारे में यह नहीं बताया गया है कि वहां लोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उससे अधिक पानी उपलब्ध है भी या नहीं। इसी तरह इस नदी-जोड़ योजना में करीब साढ़े चार सौ करोड़ रुपए आधारभूत ढांचा खड़ा करने में खर्च किए जाएंगे। लिहाजा खर्च के अनुपात में समस्या के निराकरण की तुलना होनी चाहिए। लेकिन यहां भी यह नहीं बताया गया है कि इस लेन देन में नर्मदा घाटी को कितना घाटा और सूबे को कुल कितना मुनाफा होने वाला है। दरअसल, यह पूरी योजना न केवल महंगी, बल्कि जटिल भी है। इसलिए इसका संचालन और रख-रखाव भी उतना ही खर्चीला रहेगा। ऐसे में जितना खर्च आएगा, उससे पड़ने वाले कर का बोझ भी राज्य के लोगों पर पड़ेगा।

मालूम हो कि नर्मदा को मालवा की जीवनरेखा बनाने की पहल नई नहीं है। किंतु 2002 में सूबे की तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार ने जरूरत से ज्यादा बिजली खर्च होने की दलील देकर ऐसी योजना को खारिज कर दिया था। 2002 को विधानसभा में दिग्विजय सिंह ने इस योजना से जुड़े सवालों का जवाब देते हुए कहा था कि इसके लिए पैसा जुटाना बड़ी चुनौती है। लेकिन मौजूदा सरकार ने अब इसी योजना को जनता के बीच आकर्षण का मुद्दा बना दिया है। वहीं अनौपचारिक चर्चा के दौरान प्राधिकरण के एक आला अधिकारी का कहना है - अब तक यह साफ नहीं हो पाया है कि नर्मदा से क्षिप्रा को जोड़ने के नाम पर सैकड़ों करोड़ रुपए की रकम कहां से जुटाई जाएगी। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री शिवराज चौहान का कहना है कि मालवा में नर्मदा का पानी लाने के लिए एक लाख करोड़ रुपए भी खर्च करने पड़े तो हंसते-हंसते खर्च किए जाएंगे। साथ ही उन्होंने दोनों नदियों के बीच एक भव्य मंदिर बनाने की घोषणा भी की है।

जाहिर है, मामला चुनावी है और इस योजना को पीने के पानी के निराकरण के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। इसलिए राज्य सरकार जहां किसी भी कीमत पर पीछे हटने को तैयार नहीं है, वहीं विपक्षी कांग्रेस विरोध दिखाने की हालत में नहीं है। नर्मदा-क्षिप्रा योजना पर संभल कर आगे बढ़ने की सलाह देते हुए जल नीतियों पर अध्ययन करने वाला संस्था सैड्रप, दिल्ली के हिमांशु ठक्कर कहते हैं- पानी से उठने वाले विवादों के हल बाद में ढूंढना काफी मुश्किल हो जाता है। जैसे कि दक्षिण भारत में कावेरी नदी के विवाद के बाद कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों के बीच पनपी पानी की लड़ाई खत्म होने का नाम नहीं लेती। ऐसा ही इस योजना के साथ भी हो सकता है।

तजुर्बे बताते हैं कि भले ही पानी आग ठंडा करने के काम आता हो, लेकिन सियासत में यह आग लगाने के काम आ रहा है। लिहाजा मध्य प्रदेश के निमाड़ और मालवा इलाके की नदियों के पानी के साथ ऐसा कोई खेल न खेलने की कोशिश होनी चाहिए थी। लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज चौहान का नर्मदा को क्षिप्रा से जोड़ने का दावा यहीं नहीं थमता। वे तो नर्मदा के पानी से मालवा की कई बड़ी नदियों को जोड़ने का राग भी आलाप रहे हैं। इस तरह चौहान इन दिनों नर्मदा के पानी से मालवा के तीन हजार गांवों और दस शहरों की प्यास बुझाने का सपना दिखा रहे हैं। यही नहीं, वे नर्मदा के ही पानी से मालवा के 18 लाख हेक्टेयर खेतों को सींचने की उम्मीद भी जगा रहे हैं। गौर करें तो मालवा में क्षिप्रा के अलावा खान, गंभीर, चंबल, कालीसिंध व पार्वती सरीखी बड़ी नदियां हैं और अकले नर्मदा नदी के दम पर सभी नदियों को जिंदा रखने का दावा किया जा रहा है। इस पूरी परियोजना से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस कवायद में जब नर्मदा निचुड़ कर सूख जाएगी, तब उसे कौन-सी नदी से जिंदा किया जाएगा?

Path Alias

/articles/naramadaa-kao-naicaodanae-kai-naadaanai

Post By: Hindi
×