नर्मदा का जल सौन्दर्य

युवा कवि आनन्द कुमार सिंह के काव्य-संग्रह सौन्दर्य जल में नर्मदा पढ़ते हुए लगा कि वे अपने समय में तीन प्रकार से सार्थक हस्तक्षेप करते हैं- प्रकृति-राग, श्रेष्ठतम शाब्दिक निवेश और पूर्वग्रह से मुक्त, किसी प्रकार की धर्मगत जड़ता से मुक्त और नकली किस्म की बौद्धिकता के उन्माद से मुक्त संवेदना-संकुल मानवीय अंतःकरण। ये कविताएँ साभ्यतिक विकास की प्रतीक हैं और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति भी। व्यक्ति-सत्य जब काव्य-सत्य में रचा जाता है, तो वह सौन्दर्य-सत्य भी बन जाता है। इसीलिये ‘सौन्दर्य जल में नर्मदा’ जल का भी काव्य है, जल के प्रवाह का भी, जल के सौन्दर्य का भी, जल की साधना का भी और जल के आध्यात्म का भी। आनन्द के पास केवल कवि-मन नहीं है, वे अनेक अनुशासनों के साथ सक्रिय सर्जक हैं। ‘सौन्दर्य जल में नर्मदा’ का मंगलाचरण पढ़ कर लगता है कि इस युवा कवि के पास एक प्रकार की मंत्र भाषा है। ऐसी कविताएँ तो बौद्धिकों के आदर्श गणतंत्र से लगभग निष्कासित की जाती रही हैं।

‘अपसरित सरित करती बन्धन
आलोकित करती तिमिरांगन
ज्योतिर्धन संस्कृति का क्रन्दन छंदाकुल
भव-ज्वर पीड़ित दिग्देश काल
चैतन्य-चूर्ण जड़ चक्रवात
कलिमल संज्ञाहत दुख कराल जालांगुल।’


इन पंक्तियों में निराला के शब्द-सामर्थ्य का आभास होता है, जिसे आज की समालोचना में पैरोडी और कोलाज का नाम दिया जाता है। मगर इसे नकल इसलिये नहीं कह सकते, क्योंकि यह आनन्द की अपनी सर्जना है। विजय बहादुर सिंह जैसे वरिष्ठ समालोचक की मान्यता है कि साहित्य वही लोकप्रिय है, जो सहज-सरल भाषा में लोक-सम्बोधी हो और सामान्यजन जिसका आनन्द ग्रहण करता है। बात सही भी है, साहित्य का एक पक्ष जनपक्ष भी माना जाता है, जो सामान्यजन को रस-समृद्ध करता है, लेकिन साहित्य का एक काम भाषा को भी समृद्ध करना, हमारी बौद्धिक-मनीषा को जागृत रखना भी है। उसे शास्त्रीय जटिलता के नाम पर खारिज नहीं किया जा सकता। वह किसी भी देश की बौद्धिक-चेतना का प्रतिनिधि भी होता है। इसलिये साहित्य के दो पक्ष हैं- एक लोकप्रिय जनपक्ष और दूसरा सांस्कृतिक-बौद्धिक प्रज्ञा-पक्ष। ऐसे कम ही साहित्यकार हैं, जो तुलसी, कबीर, प्रेमचन्द की तरह दोनों पक्षों के प्रतिनिधि कहला सकें।

आनन्द ने अपनी मेधा से ‘नर्मदा सूक्त’ और ‘नदी सूक्त’ रचे हैं। साथ ही शंकराचार्य का नर्मदा स्रोत भी दिया है। नर्मदा एक ऐसी नदी है, जिसकी वैज्ञानिक महिमा यह है कि वह अपने अन्तर जल-प्रवाह से गंगा जैसी नदी से भी अधिक दीर्घजीवी होगी। आनन्द ने नर्मदा के अनेक रूपक गढ़े हैं। जल से, प्रस्तरों, देव रूपों, रेत, वनस्पतियों, सभ्यतागत मानवीय आकारों, आदिम जीवन, परकम्मा और लोकश्रद्धा से। कुछ बिम्ब नर्मदा के स्वरूप के अनुरूप ऐसे हैं, जो कविता को नर्मदामय बनाते हैं: ‘कामनाएँ सिरजती हैं

अधखिले कुसुम के पारिजात पत्थर।’
‘अलंबुष की पीठ पर पड़े हैं
पत्थरों के अण्डे।’
‘चारों ओर खड़े हैं जंगल एकांत/
मौन अमुखर शिलाओं में।’
‘छायावी ध्वनियों को छूकर तोड़ती है देहगीत
उच्छल लहरों को पीती हैं लहरे।’
‘विषैली कामनाओं के दर्पस्वी रूप
तृषित इतिहास का रसायन लिये हुए कण्ठ में।’
‘इतिहासों को सीखना होगा
तुमसे समन्वय।’
‘पत्थर कर सकता है प्रेम
धरा में धुल कर।’
‘तुम एक नीग्रो लड़की की तरह
नियाग्रा में गिर रही हो।’


आनन्द कुमार सिंह का संस्कृति-बोध इतना व्यापक है कि वे नर्मदा के अनेक नामों के संज्ञापद रचते हैं, उसकी धारा के क्रियापद हैं, उसके सम्बोधन के अनेक सर्वनाम और विशेषण हैं, इतिहास, भूगोल, वन-उपवन, ऋषि-मुनि, साधना परम्परा, पौराणिक प्रसंग, देव-प्रतिमाओं के सन्दर्भ और साथ ही नर्मदा के प्रति एक कवि का नदी-संवेदन है, जल सौन्दर्य और काव्य रूप है।

द्वितीय खण्ड ‘नदी सूक्त’ में सप्त नदियों के पौराणिक सन्दर्भ के साथ उनका महत्त्व है। कवि का नदी-बोध इतना व्यापक है कि गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी, सिन्धु, सरस्वती और नर्मदा के साथ वे क्षिप्रा, तमसा, काली सिन्ध आदि छोटी आंचलिक और ग्राम्य नदियों के सौन्दर्य की भी रचना करते हैं। आनन्द ने ऋषियों, स्थानों, नदियों, पौराणिक सन्दर्भों की अति के कारण कविता की जो स्वाभाविक कल्पनाशीलता है, उसे ज्ञान-मोह में विलीन कर दिया है। इस कारण कविता के काव्य रूप की क्षति भी हुई है।

परिशिष्ट ‘क’ में नर्मदा सूक्त की कविताओं की संख्याओं के आधार पर सन्दर्भों की व्याख्या है, विवरण है। यह पाठक को कविता की आभ्यन्तरिक अर्थगति से जोड़ने का प्रयास तो अच्छा है, लेकिन इससे पाठक खुद अपना पाठ मौलिक रस-आस्वाद के बजाय व्याख्या के आधार पर करने लगता है। नोट्स देने से कविता के नोट्स आधारित अर्थ तो खुलते हैं, लेकिन आत्म-अर्थ नहीं। परिशिष्ट ‘ख’ में नर्मदाष्टकम है, जिसकी संग्रह में आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। परिशिष्ट ‘ग’ एक प्रकार का यात्रा-आख्यान है और एक शोधपूर्ण आलेख है, जो नदी के महत्त्व का एक व्यापक फलक पर शोध है। परिशिष्ट ‘घ’ में सृजन-प्रक्रिया प्रस्तुत की गई है। इसके साथ ही नर्मदा को सर्वप्रथम सौन्दर्य की नदी से सम्बोधित करने वाले अमृतलाल वेगड़ के छायाचित्रों से नर्मदा क्षेत्र का लोक-जीवन परिचय भी मिलता है।

‘नर्मदा’ मात्र एक नदी नहीं, एक समग्र अनुभव है। आनन्द के इस वाक्य के साथ वरिष्ठ साहित्यकार रमेशचन्द्र शाह ने कहा है ‘इतनी संवेदनशील भाव-ऊर्जा के साथ इतनी अध्ययन-मनन-शील शोध-परक बुद्धि-ऊर्जा का संयोग आज के काव्य-दृश्य में विरल और स्पृहणीय ही कहा जाएगा।’ अमृतलाल वेगड़ इन कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं: ‘नर्मदा के संस्पर्श, सान्निध्य और नर्मदा के सौन्दर्य के पान से कवि ने जिस अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव किया है, वही यहाँ प्रेम और प्रार्थना की कविताओं के रूप में प्रस्फुटित हुआ है।’

आनन्द कुमार सिंह की नर्मदाजयन्ती के सन्दर्भ से लिखी ये कविताएँ पाठक को प्रफुल्लित कर सकती हैं और फिर अपनी जल-संस्कृति या नदी-सभ्यता पर विचार करने का अवकाश प्रदान कर सकती हैं।

सौन्दर्य जल में नर्मदा : आनन्द कुमार सिंह; क प्रकाशक, 43, गणेशनगर-2, गली नम्बर-2, शकरपुर, दिल्ली; मूल्यः 200 रुपए।

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Post By: RuralWater
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