नर्मदा घाटीः सचमुच कुछ घटिया विचार

Narmada
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हत्या से कुछ दिन पहले नर्मदा सागर बाँध का शिलान्यास करते हुए श्रीमती इंदिरा गाँधी ने कहा था कि वे इन बड़े बाँधों के पक्ष में नहीं हैं, पर विशेषज्ञ उन्हें बताते हैं कि इनके बिना काम चलेगा नहीं। लेकिन अब कुछ विशेषज्ञ ही नेताओं, अखबारों और लोगों को बताने लगे हैं कि इन बड़े बाँधों के बिना काम ज्यादा अच्छा चलेगा। मध्य प्रदेश शासन में सिंचाई सचिव रह चुके एक प्रशासक ने पिछले दिनों प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर नर्मदा घाटी में बन रहे बड़े बाँधों-सरदार सरोवर (गुजरात) और नर्मदा सागर (मध्य प्रदेश) की ओछी योजनाओं का ब्यौरा दिया है और बताया है कि इन बाँधों से होने वाले लाभ का जो दावा किया है वह पूरा होगा नहीं, इनके कारण उजड़ने वाले लोगों से जो वादा किया है वह निभाया नहीं जा सकेगा और कुल मिलाकर नुकसान इतना ज्यादा होगा कि 21वीं सदी के विकास के लिये तैयार की जा रही नर्मदा घाटी कहीं बीस हजार साल पीछे न ठेल दी जाए।

गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और एक हद तक राजस्थान के विकास के लिये बन रहे ये भीमकाय बाँध एक किस्म से अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े हैं। इनकी लगाम छूने तक का दुस्साहस किसी ने किया नहीं था। लेकिन यज्ञ को लेकर तीनों राज्यों के नेताओं और विशेषज्ञों में भारी मतभेद थेः इस बहस में कौन कितनी आहुति देगा और उसके लाभ का बँटवारा किस अनुपात में मिलेगा, 33 बरस बीत गए। सन 1946 में शुरू हुई बहस में तीनों राज्यों के नेताओं और विशेषज्ञों की दो पीढ़ियाँ बदल गईं पर प्रकृति को आर्थिक तराजू पर नकली बांट रख कर तौलने की नजर नहीं बदली। इनकी तीसरी पीढ़ी को भी यही लगता रहा कि कमबख्त नर्मदा हमसे बिना पूछे 3454 अरब घन मीटर पानी खंबात की खाड़ी में बहा ले जा रही है। इस पर बड़े-बड़े बाँध बना लें तो 2500 से 3300 मेगावाट बिजली मिल जाएगी और कोई 23 लाख हेक्टेयर में सिंचाई हो जाएगी। लेकिन इतने लाभकारी यज्ञ की कीमत बहुत थी। यहाँ डूबने वाली कीमती सवा लाख हेक्टेयर जमीन और वन तथा कोई डेढ़ लाख लोगों की बात नहीं हो रही। कीमत यानी वह रुपया जो इस सपने को आकार देता। उन दिनों के सस्ते जमाने में भी यह कीमत 600 से 1000 करोड़ रुपया थी जो आज शायद 3800 करोड़ रुपये के आस-पास झूल रही है। झगड़ रहे तीनों राज्यों में से किसी की भी जेब में इतना रुपया नहीं था कि वे अपने दम पर या केंद्र की मदद से ये बाँध बना पाते। बहुत कम लोगों को याद होगा कि 1967 में मध्य प्रदेश के 31 संसद सदस्यों ने इंदिरा गाँधी से नर्मदा घाटी योजना को भारत-सोवियत व्यापार में शामिल करने का आग्रह भी किया था।

सबसे विवादास्पद बाँध सरदार सरोवर (गुजरात) को लेकर सन 67 से 1974 तक मध्य प्रदेश और गुजरात सरकार के बीच जो ऊलजलूल बयानबाज़ी और झगड़े हुए वे अपने आप में एक छोटे-मोटे महाभारत की याद दिलाते हैं। 1969 में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने जोर-शोर से कहा था कि गुजरात में नर्मदा पर बनने वाले बाँध से मध्यप्रदेश की एक इंच जमीन भी डूब में नहीं आएगी। (बाद में यह आंकड़ा एक इंच से बढ़कर 27 हजार एकड़ उम्दा कृषि में बदला गया) इसी दौरान गुजरात और मध्य प्रदेश में अपने-अपने बाँधों की ऊँचाई बढ़ाकर अधिक बिजली बना लेने की जैसे होड़ लग गई। केवल बिजली का बहाना थोड़ा शर्मनाक लग सकता था, इसलिये दोनों राज्यों ने अपने-अपने किसानों के ‘हितों’ को भी बढ़ाना शुरू कर दिया। पर इन दोनों बाँधों की ऊँचाई जितनी बढ़ती, उतनी अधिक कीमती जमीन और वन भी उनकी डूब में आते, इसलिये बाँधों की ऊँचाई का सारा विवाद नीचता की हद तक उतरता गया। लगता है कुछ पुण्याई कमाने के ख्याल से ही उस समय यह भी जोड़ दिया गया कि अगर बाँध ऊँचा बना तो उसमें एक लंबी नहर निकाल कर राजस्थान जैसे ‘प्यासे’ राज्य को भी कुछ पानी दे दिया जाएगा।

तीन राज्यों के मुख्यमंत्री और उनके अधिकारी व इंजीनियर आखिर कब तक झगड़ते। सन 73 में सारा विवाद इंदिरा गाँधी को सौंपा गया। वे हाथ जो इस देश की सारी समस्याओं का हल खोजने के लिये लगातार मजबूत किए जाते रहे, नर्मदा के मामले में बेहद कमजोर साबित हुए। इंदिरा गाँधी हल नहीं खोज सकीं तो उन्होंने इस विवाद को सन 74 में एक पंचाट को सौंप दिया। यहाँ कुछ पुरानी बातें एक बार फिर दोहरा लें। सन 74 से बहुत दूर नहीं था सन 75 की जून में लगा आपातकाल। सारे झगड़े समाप्त हो गए। पंचाट चुपचाप काम करती रही।

आपातकाल हटा और केंद्र तथा इन राज्यों में आई जनता पार्टी सरकार। और कुछ ही समय बाद सन 79 में पंचाट ने अपना फैसला दिया। सबसे विवादास्पद बाँध सरदार सरोवर की ऊँचाई उसने 455 फुट तय की। तब मध्यप्रदेश में विपक्ष की बेंच पर बैठी इंदिरा कांग्रेस उछलकर इन बाँधों पर टूट पड़ी। पूरे फैसले को राज्य के लिये अभिशाप बताया गया। पर जनता सरकार चली ही कितने दिन। सन 80 में वापस शासन में आते ही इंदिरा सरकार ने अब तक के अभिशाप को वरदान की तरह स्वीकार किया और पंचाट के जो पंच उसे विपक्ष की कुर्सी से कपटी दिख रहे थे, वे फिर परमेश्वर दिखने लगे।

अब इसे भगवान की ही कृपा मानना होगा कि सन 80 से अब तक नर्मदा-विवाद में डूबे राज्यों में और केंद्र में इंदिरा कांग्रेस है, और साथ ही यह भी कि इन सभी जगहों में विरोधी दल बेहद सिकुड़ा हुआ है तथा सबसे बड़े महाजन विश्व बैंक ने इसके लिये पैसा देना मंजूर किया है।

सरदार सरोवर बांध परियोजना पर नर्मदा का विकराल रूप (जुलाई 2013)तीन राज्यों से गुजरने वाली 1312 किलोमीटर लंबी नर्मदा नदी की घाटी के ‘पिछड़ेपन’ को दूर करने के लिये कुछ उच्च विचार हों, इन्हें अमल में उतारने की महँगी योजनाओं का खर्च जुटाने के लिये विश्व बैंक जैसा उदार महाजन हो, सारे ‘टुच्चे’ विवादों को निपटा चुका पंच परमेश्वर हो तो भला देरी किस बात की? भीमकाय बाँधों को बाँधने के लिये टेंडर खुल चुके हैं।

लेकिन इस बीच कुछ ‘घटिया विचार’ भी सामने आने लगे हैं। बहस चल पड़ी है, इन बड़ें बाँधों के नुकसानों, पर्यावरण पर इनके असर और इनसे उजड़ने वाले हजारों लोगों के भविष्य को लेकर। अब तक एक सांस में गिनाए जाते रहे इनके लाभों पर भी कई विशेषज्ञों ने, संस्थाओं ने प्रश्न चिन्ह लगाना शुरू कर दिया है। पंचाट के फैसले के तुरंत बाद पहले कांग्रेस और फिर भाजपा द्वारा चलाए गए ‘निमाड़ बचाओ आंदोलन’ के क्षणिक उफान का अपवाद छोड़ दें तो सन 80 से 85 तक नर्मदा घाटी में छाया सन्नाटा लगता है टूट रहा है। मध्यप्रदेश के जो अखबार पंचाट के फैसले के बाद बेहद कट्टर बनकर इन बड़े बाँधों का पूरा समर्थन कर रहे थे और जिस कारण उनकी प्रतियाँ- इन बाँधों की डूब में आने वाले, कस्बों, गाँवों में जलाई गई थीं- वे अखबार आज कह रहे हैं कि पंचाट के फैसले में इन बाँधों के पक्ष में कई मुद्दों पर सविस्तार स्पष्ट मत व्यक्त किए गए थे, लेकिन पर्यावरण का जो नया आयाम पिछले वर्षों में सामने आया है वह इस बात की माँग करता है कि इन ऊँचे बाँधों की फिर से समीक्षा हो।

पर क्या पर्यावरण का मुद्दा सचमुच कोई नया आयाम है? जिस सर्वगुण संपन्न पंचाट में पानी, नदी मिट्टी, सिंचाई, फसलें, बिजली, भूगर्भ, भूकम्प, भूजल के सैकड़ों विशेषज्ञ थे, दोनों राज्यों की जनता के प्रतिनिधि नेता थे, योजना वाले जानकार थे, जिसके सामने तब तक देश की दूसरी नदियों पर बन चुके बाँधों के गुणों, अवगुणों का पूरा लेखा-जोखा था- उसे इस पर्यावरण नाम की चिड़िया का अता-पता न होना बड़ी अटपटी बात है।

खैर, कोई बात नहीं। पिछले वर्षों में कई तरह की बदनाम योजनाओं का ब्याज ढो रहे विश्व बैंक ने अपना पल्ला बचाने के लिये ऐसी तमाम योजनाओं को पैसा देने में पहले पर्यावरण की सुरक्षा का डिठोना लगाना जरूरी समझा। पैसा पाने के लिये आतुर सरकारों को भी मजबूरी में यह करना पड़ा। नर्मदा के बड़े बाँधों को लेकर राज्य सरकारों ने नवंबर 84 में ‘पर्यावरण जाँच समिति’ बनाई। पहली बैठक थी दिसंबर 84 की तीन तारीख को। पर्यावरण का सबक सीखने के लिये इससे भयानक कोई और दिन न उगे। भोपाल उसी रात विकास की भारी कीमत अदा कर चुका था। यूनियन कार्बाइड भी नर्मदा के बाँधों की तरह गरीब और पिछड़े माने गए प्रदेश के लिये आधुनिक खेती का महान विचार लेकर आया था। ऐसे विचारों के बीच ‘घटिया’ विचारों की जगह भोपाल में भी नहीं बन पाई थी। नर्मदा घाटी तो फिर भी वहाँ से काफी दूर थी।

नर्मदा घाटी को आधुनिक ढंग से विकसित करने के उच्च विचारों के बीच कुछ ‘घटिया’ विचार सन 83 में उभरने लगे थे। दिल्ली की संस्था कल्पवृक्ष के दस छात्रों ने जुलाई-अगस्त में पूरी घाटी का दौरा किया और 44 पन्नों की एक रपट बनाकर पूछा था कि इतने बड़े बाँधों की ये योजनाएं विकास के लिये हैं या विनाश के लिये। अब तक चित्रित किया जा रहा लाभ रपट के मुताबिक कोई शुभ संकेत नहीं देता था और स्वीकार की गई कुछ हानियाँ मात्रा में बहुत ज्यादा हो सकती थीं और निश्चित ही अशुभ संकेत देती थीं। फिर मई 85 में लंदन की एक संस्था ‘सर्वाइवल इंटरनेशनल’ ने गुजरात में बन रहे सरदार सरोवर की डूब में आने वाले आदिवासियों का पक्ष रखते हुए विश्व बैंक को याद दिलाया कि आदिवासियों के पुनर्वास में बरती जा रही उपेक्षा बैंक की अपनी आचार संहिता के विरुद्ध जा रही है। फिलहाल कमजोर नायक के बदले बलवान खलनायक की आचार संहिता की याद दिलाना शायद ज्यादा व्यावहारिक था।

फिर नर्मदा घाटी के विकास से जुड़े सबसे बड़े अधिकारी नर्मदा प्लानिंग एजेंसी के अध्यक्ष सुशीलचन्द्र वर्मा ने देश में पहली बार उन सब बातों को सार्वजनिक बनाया जो अब तक बने हर बाँध में वहाँ के लोगों पर कहर ढाती हैंः जान बूझ कर ठीक से सर्वे नहीं होता, बाँध के सरोवर में डूबने वाले इलाकों की ईमानदारी के साथ जानकारी नहीं दी जाती, पूरी कोशिश की जाती है कि मुआवजे के मामले में सरकारें सस्ते में निपट जाएँ आदि। वर्मा ने खुद बहुत दुख के साथ कहा कि नब्बे साल पहले सन 1894 में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया भू-अर्जन (भूमि अधिग्रहण) कानून ऐसी तमाम योजनाओं में लोगों को लूट कर अपना खजाना भरने के लिये था। आजादी के बाद भी इस कानून में जो कुछ सुधार हुआ, वह सब सरकार के पक्ष में ही था, लोगों के पक्ष में नहीं। वर्मा ने पहली बार सरकारी तौर पर स्वीकार किया कि उत्तर में भाखड़ा से लेकर दक्षिण में बने श्रीशैलम और पोलावरम बाँधों से बेघर-बार हुआ लोग आज भी दर-दर भटक रहे हैं। इन बाँधों का लाभ उठाने वाली सरकारें और लोग इन योजनाओं में डूब गए लोगों की शहादत को भूल चुके हैं। ऐसी योजनाओं से कई परिवारों को ठगा गया और वे हमेशा के लिये बर्बाद हो गए। इन पर अनगिनत जुल्म किए गए जो अब रोशनी में आ रहे हैं। वर्माजी के इन लेखों को पढ़ने से तो यही लगता है कि अब तक बाँध सीमेंट कंक्रीट पर नहीं, अन्याय की नींव पर बाँधे गए हैं। उनका कहना है कि “यह परंपरा ब्रिटिश काल से चली आ रही है। जाहिर है कि जिस गैर जिम्मेदारी से इन मसलों की तरफ देखा जाता था, जनता अब उसे बर्दाश्त नहीं करेगी।” उनके मुँह में घी शक्कर!

डूबने वालों के लिये इतनी संवेदना रखने वाले वर्मा जैसे अधिकारियों के रहते हुए भी नर्मदा घाटी में बंधने जा रहे बाँधों में ऐसा कुछ नया नहीं होता दिखता कि ये बाँध अन्याय की नींव पर नहीं, केवल सीमेंट की नींव पर खड़े हो सकेंगे। इधर पिछले दिनों ऐसे भी संकेत आने लगे हैं कि नुकसान पाने वाले लोग और इलाकों की तो छोड़िए, लाभ पाने वाले क्षेत्र भी परेशानी में पड़ सकते हैं। बंगलुरु के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की एक रपट का कहना है कि मध्यप्रदेश में इन बाँधों से सिंचित होने वाले क्षेत्र का 40 प्रतिशत भाग (लगभग एक लाख हेक्टेयर) दलदल में भी बदल सकता है। अध्ययन दल ने इस खतरे को रोकने के भी कुछ उपाय जरूर बताए हैं। इस रपट पर काफी हल्ला मचा है। लेकिन सरकार का कहना है कि इससे घबराने की कोई बात नहीं क्योंकि वह अध्ययन तो खुद सरकार ने बंगलुरु को सौंपा था। लगभग यही तर्क विश्व बैंक का है। वह भी कहता है कि पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का यह अध्ययन उसकी शर्त का एक हिस्सा था। इससे चौंकने की जरूरत नहीं है। लेकिन अध्ययन की पहल का श्रेय ले लेने से उसमें छिपे नुकसान के खतरे को टाला नहीं जा सकता।

नर्मदा नदीनर्मदा के पानी को लेकर झगड़ते रहे राज्यों को अब यह भी मालूम पड़ गया होगा कि नदी में उतना पानी नहीं बचा है जितने को ध्यान में रखकर ये सारी योजनाएँ बनाई गई हैं। अनुमानित 280 लाख एकड़ फुट के बदले पिछले कुछ वर्षों का औसत 230 लाख एकड़ फुट है। पानी की कमी के कारण ऊँचे बाँध रीते रह जाएँगे। नदी के पनढाल (जलागम) क्षेत्रों में एक तो बड़े बाँधों के कारण पश्चिमी मध्यप्रदेश का कोई 43,064 हेक्टेयर वन डूबेगा और बचा हुआ पनढाल इतनी बुरी तरह से नंगा किया जा चुका है कि यह अब बाँधों में गाद भरने का ही काम करेगा।

यों केन्द्र सरकार ने विश्व-खाद्य संगठन से आए एम एल दीवान की अध्यक्षता में इन बाँधों को ध्यान में रख कर नर्मदा के पनढाल का सर्वे और उसे भूक्षरण से बचाने, वनीकरण करने के सुझाव देने की समिति बनाई थी। समिति ने काम पूरा किया। सुझाव दिया कि यदि इन बाँधों की उम्र बढ़ानी है तो बाँध बनने से पहले ही पनढाल को हरा-भरा बना लेना चाहिए। खर्च आएगा कोई 1400 करोड़ रुपया। पर बाँध वाले कहते हैं कि उनके पास इतना पैसा नहीं है। वे बाँध बनाएँगे, बाँध की सेहत का ख्याल कोई और रखे। कुल मिलाकर होगा यही कि इसका ख्याल कोई नहीं रखेगा और बाँध बन जाएँगे। तब बरसात के दिनों में बाढ़ आएगी और अपने साथ मिट्टी बहाकर इन बाँधों को भेंट करेगी। धीरे-धीरे इससे उस बिजली पर भी असर पड़ेगा जिसे बनाने के लिये यह सारा तमाशा खड़ा किया जा रहा है। लेकिन बाँध वाले कोई खतरा नहीं मानते। अब तक बनाए गए सभी बाँधों में गाद-साद भरी है, उनकी अनुमानित उम्र घटी है और इसलिये बाँध बनाने वाले कम उम्र के बाँधों के इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि चिरंजीव शब्द उन्हें पुसाता नहीं।

कुछ लोगों की राय है कि इन बाँधों की कमजोरियाँ या कमियों का हल होगा, जवाब होगा। फिलहाल उन बातों को सामने रखना चाहिए जिन्हें उन्होंने अनदेखा किया है। लेकिन आज सिंचाई विभाग अपनी गलतियों के बारे में कैसे सोचता है इसका एक उदाहरण है गुजरात में टूटा मोरवी बाँध। विभाग के कुछ लोग आज भी पूरी ईमानदारी से मानते हैं कि मोरवी बाँध तकनीक या प्रबंध की गलतियों के कारण नहीं, षडयंत्र के कारण टूटा था। षडयंत्र भी मामूली नहीं। अमेरिका ने अपने एक उपग्रह से संकेत भेज कर इस पर निशाना साधा था! लेकिन हमारी सरकार ने इस पर जोरदार विरोध क्यों नहीं प्रकट किया? जवाब है कि पर्याप्त प्रमाण नहीं जुटाए जा सके थे। अगर यह सही है तो फिर पूछना चाहिए कि नर्मदा पर मोरवी से सौ गुने बड़े बाँध क्यों बना रहे हो। क्या हमने अपनी राजनैतिक हैसियत इतनी मजबूत कर ली है कि कोई देश अपने उपग्रहों से हमारे साथ फिर ऐसा खिलवाड़ नहीं कर पाएगा?

खैर गलतियों की बात छोड़ें, अनदेखी को देखें। अनदेखी की सूची तो बहुत लंबी है। सबसे भयानक समस्या होगी उनाव की। यह शब्द अभी ज्यादा नहीं चला है क्योंकि यह समस्या भी अभी उतनी नहीं उठी थी। उनाव यानी बाढ़ के समय पीछे पलट कर लगातार उठने वाला जलस्तर। उसे बाँध वाले ‘बैक वॉटर’ कहते हैं। बड़े बाँधों के कारण नदी का जलस्तर काफी ऊपर उठ जाएगा। तब जब भी बाढ़ आएगी, पूर में बह रही नर्मदा में जो असंख्य सहायक नदियाँ और नाले मिलेंगे, उन सबमें पानी का स्तर मुख्य धारा के बढ़ते जलस्तर के कारण लगातार अपने किनारे तोड़ कर आस-पास के खेत, घर, रास्तों को अपने में लपेटेगा। अभी तक बाँध वालों ने केवल मुख्य धारा के उनाव का थोड़ा बहुत अध्ययन किया है। पर सभी जानते हैं कि नर्मदा घाटी दोनों तरफ पहाड़ों से घिरी एक संकरी घाटी है। इसमें कदम-कदम पर मिलने वाली सहायक नदियों के उनाव की कल्पना करते हुए भी डर लगता है।

दूसरी अनदेखी है इन भीमकाय बाँधों के सरोवरों से इस क्षेत्र में भूकम्प आने की आशंकाएँ। कुछ लोगों ने पिछले दिनों कोयना बाँध के भूकम्प को उसके जलाशय के दाब से जोड़ा है। ज्यों-ज्यों सरोवर में जलस्तर बढ़ता जाता है भूकम्प की परिस्थितियाँ बनने लगती थीं। उसका पानी छोड़ते जाने से ये आशंकाएँ भी कम होने लगती हैं। नर्मदा घाटी में खरगोन के पास सेंधवा में पिछले 137 वर्ष में पाँच बार भूकम्प आया है। कहा जा सकता है कि बाँधों को भूकम्प सहने लायक मजबूत बनाया जा रहा है पर आस-पास की बस्तियों का क्या होगा?

बिजली के पीछे जा रहे योजनाकारों को अब यह भी पता चल गया होगा कि नर्मदा घाटी में तेल की भी गुंजाइश है। तेल कम निकलेगा या ज्यादा, यह अभी तक तय नहीं हो पाया है। तेल और प्राकृतिक गैस आयोग ने जो कुछ यहाँ देखा-परखा है, उस आधार पर कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र मुंबई से ईरान जा रही एक तेल पट्टी की पीठ है। इसे बाँधों में डुबोने से पहले यह तो जाँच लें कि हम खोने क्या-क्या जा रहे हैं।

आज नर्मदा घाटी का इलाका पिछड़ा बता दिया गया है। इसका पिछड़ापन दूर करने के लिये ये बाँध कल्याणकारी यज्ञ की तरह प्रचारित किए जा रहे हैं। इन यज्ञों के लिये आहुति चाहिए। ऐसे लोगों की पहले भी कमी नहीं थी जो अपने क्षेत्र की उन्नति के लिये बलिदान हो जाते थे। नर्मदा के बहुत से इलाकों में आज भी ‘गाता’ मिलेंगे। सिल के आकार के पत्थरों पर उकेरी हुई ये मूर्तियाँ उन शहीदों की स्मृति के लिये हैं जो अपनी और अपने समाज की शान, आन के लिये मर मिटे। आज भी ‘गाता’ के पास मेले लगते हैं और हाट सजते हैं।

हम क्या-क्या खो रहे हैं यह जानना जरूरी है। क्योंकि 21वीं सदी आखिरी मंजिल नहीं है। वह एक पड़ाव भर होगी। 22वीं सदी भी आएगी, 23वीं भी और उसके आगे भी सूरज उगेगा और डूबेगा। तब भी मालवा, निमाड़, मध्यप्रदेश, गुजरात और देश को विकास करना होगा। इसलिये मेहरबानी करके विकास के (अगर यह सचमुच विकास है तो) सारे माध्यमों पर इन्हीं 15-20 सालों में कब्जा मत कीजिए। नर्मदा पर बाँधों की कुछ दर्जन भर जगहें अगली पीढ़ी के लिये सुरक्षित छोड़ दें। ऐसी क्या हाय तौबा है कि 80 बड़े, 300 मंझोले और 3000 छोटे बाँध बना लेने की सारी जिम्मेदारी इसी पीढ़ी के नाजुक कंधों पर आ गई है? सारा जंगल यही पीढ़ी काट ले, डुबो दे, भूमि का सारा उपजाऊपन यही पीढ़ी खींच ले!

पिछली पीढ़ियाँ इस पीढ़ी के लिये यह सब छोड़ती आई हैं। ऐसा नहीं था कि ये इनमें से ज्यादातर काम कर ही नहीं सकती थीं, इसलिये उन्होंने किए नहीं। नर्मदा के किनारे कोटेश्वर के पास बावनगजा तीर्थ है। जो लोग आज से 2031 साल पहले पत्थर की बावन गज यानी 156 फुट ऊँची मूर्ति बना सके वे यहाँ की प्रकृति को पहले विकास के लिये डुबो भी सकते थे। कोई 7000 साल पहले मालवा के पठार में आकर बसे लोगों ने त्रिपुरी, महिष्मती जैसे शक्तिशाली राज्यों की नींव रखी थी। चिकल्दा, झाकड़ा, खेड़, पिपल्दा आदि उनके केंद्र थे। चेटियों, गोंड और हैहय वंशों ने नर्मदा के सुवर्ण कछार की समृद्धि से अपने राज्य मजबूत किए। जिस खंबात की खाड़ी में आज नर्मदा अपना ‘सारा जल बर्बाद’ कर रही है, वही खंबात उस दौर में हमारा सबसे पुराना और विकसित बंदरगाह था। वहाँ से अरब, इसराइल और अफ्रीका के साथ व्यापार होता था।

आज नर्मदा घाटी का इलाका पिछड़ा बता दिया गया है। इसका पिछड़ापन दूर करने के लिये ये बाँध कल्याणकारी यज्ञ की तरह प्रचारित किए जा रहे हैं। इन यज्ञों के लिये आहुति चाहिए। ऐसे लोगों की पहले भी कमी नहीं थी जो अपने क्षेत्र की उन्नति के लिये बलिदान हो जाते थे। नर्मदा के बहुत से इलाकों में आज भी ‘गाता’ मिलेंगे। सिल के आकार के पत्थरों पर उकेरी हुई ये मूर्तियाँ उन शहीदों की स्मृति के लिये हैं जो अपनी और अपने समाज की शान, आन के लिये मर मिटे। आज भी ‘गाता’ के पास मेले लगते हैं और हाट सजते हैं। लेकिन नर्मदा के बाँधों में शहीद होने वालों की ‘गाता’ नहीं बनेगी। विस्थापितों के साथ जो अन्याय की परंपरा अंग्रेज़ों के जमाने से कल तक जारी थी उसे एक अकेले सुशीलचंद्र वर्मा कितना बदल पाएँगे? विस्थापित तो भटकेंगे ही और अगर लाभ पाने वाले लोग अनदेखी बातों के कारण उखड़ गए तो? इसलिये कल्याणकारी सरकारें यज्ञ जरूर करें पर उतने ही बड़े जिनमें कोई चूक हो गई तो सिर्फ सरकार की उंगलियाँ जलें, लोग न जलें, पीढ़ियाँ न झुलसें।

सन उन्नीस सौ सतासी में लिखा गया लेख।

साफ माथे का समाज

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

भाषा और पर्यावरण

2

अकाल अच्छे विचारों का

3

'बनाजी' का गांव (Heading Change)

4

तैरने वाला समाज डूब रहा है

5

नर्मदा घाटीः सचमुच कुछ घटिया विचार

6

भूकम्प की तर्जनी और कुम्हड़बतिया

7

पर्यावरण : खाने का और दिखाने का और

8

बीजों के सौदागर                                                              

9

बारानी को भी ये दासी बना देंगे

10

सरकारी विभागों में भटक कर ‘पुर गये तालाब’

11

गोपालपुरा: न बंधुआ बसे, न पेड़ बचे

12

गौना ताल: प्रलय का शिलालेख

13

साध्य, साधन और साधना

14

माटी, जल और ताप की तपस्या

15

सन 2000 में तीन शून्य भी हो सकते हैं

16

साफ माथे का समाज

17

थाली का बैंगन

18

भगदड़ में पड़ी सभ्यता

19

राजरोगियों की खतरनाक रजामंदी

20

असभ्यता की दुर्गंध में एक सुगंध

21

नए थाने खोलने से अपराध नहीं रुकते : अनुपम मिश्र

22

मन्ना: वे गीत फरोश भी थे

23

श्रद्धा-भाव की जरूरत

 

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