राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम:संदर्भ एवं राष्ट्रीय महत्त्व
1.1 संदर्भ
आर्थिक वृद्धि दर में बढ़त और स्टाक मार्केट की आक्रमक चढ़ाई ने भारत को दुनिया की सबसे आकर्षक अर्थव्यवस्थाओं की श्रेणी में ला खड़ा किया है। भारत ने विदेशी निवेश के मामले में तो अमेरिका को भी विश्व के दूसरे स्थान से हटा दिया है। अब इस संदर्भ में प्रथम स्थान पर चीन के बाद भारत की ही गिनती होती है। किन्तु यह अप्रत्याशित प्रदर्शन भारत की उस दुखती रग को छिपाता है जिसको लोगों ने 2004 के ऐतिहासिक चुनावों में अपने मत के माध्यम से उजागर किया - कि आर्थिक उन्नति के लाभों को समान रूप से बांटा नहीं गया है और भारत के अधिकांश लोग आज़ादी के 60 साल बाद भी इनसे वंचित रह गए हैं। देश के विकास मानचित्र पर आज भी देश का एक बहुत बड़ा भाग अदृश्य है।
भारत के राज्यों में सकल घरेलू उत्पादन के एक पथ प्रदर्शक अध्ययन में ई.पी.डब्लूअनुसंधान संस्थान ने पाया कि जो राज्य पहले से पिछड़े थे वे न केवल निम्न स्तर की आर्थिक वृद्धि पर फंसे रहे अपितु उनकी वृद्धि दर में 1990 के बाद लगतार गिरावट भीआई। विश्व बैंक के अर्थ-शास्त्री दत्त व रावायों ने अपने अध्ययन में यह पाया है कि इस क्षेत्रीय असमानता के कारण भारत का आर्थिक विकास गरीबी पर अपेक्षित असर नहीं डाल पाया है। भारत सरकार के वित्त मंत्रालय और यू.एन.डी.पी के लिए किए गए एक अध्ययन (मिहिर शाह व अन्य, 1998) ने विस्तृत आंकड़ों के माध्यम से यह तथ्य उजागर किया है कि भारत के सूखे, दूरस्थ, आदिवासी बहुल, पहाड़ी क्षेत्रों में गरीबी सबसे अधिक है। विकास के इस असंतुलन को सरकार ने भी स्वीकारा है। हाल ही में योजना आयोगद्वारा जारी बढ़ती हुई क्षेत्रीय असमानताओं के निवारण हेतु गठित अंतर-मंत्रालय कार्य-दल की रिपोर्ट में ``170 अति-पिछड़े जिले, जिनमें से 55 अतिवाद प्रभावित है´´ की सूची दी गई है। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि जहां पिछड़ापन अधिक है, वहीं नक्सलवाद का भी प्रकोप है।
सरकारी आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि भारत में तीन साल से कम उम्र के बच्चों में 74 प्रतिशत बच्चें रक्तहीनता के शिकार है और 50 प्रतिशत बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित हैं। देश की 87 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं में रक्तहीनता है। देशभर में भूख से हुई सैंकड़ों मौतें एक ``कुपोषण आपातकाल´´ को रेखंाकित करती हैं। भारत में प्रत्येक वर्ष 25 लाख से अधिक बच्चों की मौत हो रही है। विश्व में हर पांच मरने वाले बच्चों में एक बच्चा भारतीय है। शिशु मृत्यु दर बंाग्लादेश से भी कहीं ज्यादा है। राष्ट्रीय साम्पलसर्वे (एन.एस.एस.) के अप्रकाशित आंकड़ों से ज्ञात होता है कि ``हमारी आधी ग्रामीण जनसंख्या या करीब 350 लाख लोग अफ्रीकी-सहारा क्षेत्र के औसत से भी कम खाद्य-उर्जा ग्रहण कर पाते हैं´´ (पटनायक 2005)। स्थिति कितनी अगाध है यह हाल ही के वर्षों में 10,000 से अधिक कृषकों द्वारा की गई आत्महत्या (घोष 2005) और महाराष्ट्र में हुई हजारों की संख्या में बच्चों की मृत्यु से समझा जा सकता है।
इसी प्रकार बेरोजगारी की समस्या भी अत्यंत चिन्ताजनक है। राष्ट्रीय साम्पल सर्वे की 55 वीं गणना यह दर्शाती कि रोजगार सृजन की दर में भारी गिरावट आई है। वर्तमान दैनिक स्थिति (करंट डेली स्टेटस) के हिसाब से रोजगार की वृद्धि दर जो 1983-1994 की अवधि में 2.7 प्रतिशत˜ थी, 1994-2000 में गिर कर 1.07 प्रतिशत˜ हो गई। शहरी और ग्रामीण क्षेत्र दोनों में बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की दर वर्ष 1993-94 में 5.6 प्रतिशत थी जो बढ़कर 1999-2000 में 7.2 प्रतिशत हो गई है।रोजगार के अवसर में कमी होने का मुख्य कारण यह रहा कि कृषि विकास के साथ-साथ रोजगार सृजन जिस गति से होना चाहिए था वैसा नही हुआ। इसको यूं भी समझा जा सकता है कि जहां 1983-94 के बीच कृषि उत्पादन में 1 इकाई वृद्धि से रोजगार के अवसरोंमें 0.7 इकाइयों का इज़ाफा होता था, वहीं 1994-2000 के बीच केवल 0.01 रोज़गार इकाइयां ही अर्जित हो पाई1 (घोष 2005)। अत: करोड़ो बेरोजगारों को रोजगार मुहैया कराना ही आज की सबसे अहम प्राथमिकता है।
1.2 रोजगार गारंटी का महत्त्व एवं संभावनाएं
जो संविधान निजी संपत्ति के संरक्षण के लिए स्वयं को नैतिक रूप से बाध्य मानता है उसे काम के अधिकार को सुरक्षित करना भी अपना दायित्व समझना चाहिए। विशेष रूप से जब योजनाबद्ध विकास के साठ वर्ष भी इस दिशा में विफल रहे हों। 1920 के दशक में पश्चिमी पूंजीवादी देशों में बेरोज़गारी इस हद तक बढ़ गई थी कि उनकी सरकारों को बेरोज़गारी बीमा नीतियां लागू करनी पड़ी। 1980 तक 30 देशों के संविधान ने काम के अधिकार को अपने में समाहित कर लिया था। इनमें 18 विकासशील राष्ट्र भी थे। 25देशों ने इसे काम की गारण्टी को अधिकार का दज़ाZ दिया है। काम का अधिकार भारतीय संविधान की धारा 41 में निहित है। किन्तु मौलिक अधिकार के रूप में नहीं बल्कि शासकीय नीतियों के निर्देशक सिद्धांतों के रूप में।सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न फैसलों में यह बात कही गई है कि सरकार को निर्देशक सिद्धान्तों को मौलिक अधिकारों का दर्ज़ा देना चाहिए। मानव अधिकार के सार्वभौमिक उद˜घोष अंतर्राष्ट्रीय श्रम संठन की ``आर्थिक,सामाजिक व सांस्कृतिक संधि´´ पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत के ऊपर अंतर्राष्ट्रीय दायित्व भी है कि वह ऐसा करे।भारत की विकास योजनाओं की शुरुआत ही इस पूर्वाग्रह से हुई कि ग्रामीण क्षेत्र के करोड़ों बेरोज़गारों के उद्धार का एकमात्र तरीका है शहरों में उद्योग स्थापित कर उन्हें वहां श्रम के अवसर प्रदान करना। किन्तु 60 के दशक के मध्य में पड़ी सूखे की मार और उससे उत्पन्न राष्ट्रीय ग्लानि की भावना ने नीति की दिशा को बदलने पर मजबूर कर दिया। इस पुनर्विचार का नतीजा थी अगले दो दशकों की हरित क्रांति। लेकिन इस क्रांति के पहिए भी अब डगमगाने लगे हैं। भारत के कछारी इलाके के संपन्न किसानों पर केन्द्रित, गेहूं और चावल तक सीमित, इस क्रांति ने देश के सबसे गरीब और पिछड़े क्षेत्रों को अपने आप से दूर रखा। नतीजा - ऐसे पिछड़े क्षेत्रों में गरीबी का चक्रव्यूह और भी गहराया। करोड़ो छोटे व सीमांत किसानों को अपने खेत के बाहर काम ढूंढ कर अपना जीवन यापन करना पड़ा। राष्ट्रीय साम्पल सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि खेतिहर मजदूर में 80 प्रतिशत˜ ऐसे हैं जिनके पास अपनी ज़मीन होते हुए भी जिन्हें काम करना पड़ रहा है। क्योंकि उनके खेतों में रोज़गार सृजन की क्षमता, पर्यावरण के पतन के साथ विलोपित होती गई।
ग्रामीण रोज़गार गारण्टी का प्रमुख ध्येय होना चाहिए ऐसे कार्य जो कि भूक्षरण को रोक सकें, वषाZ के जल को संग्रहित करें और खेतों के जलग्रहण क्षेत्र का उपचार करें। इसके साथ शिक्षा व स्वास्थ्य पर भी उचित व्यय किया जाना चाहिए। इससे कई उद˜देश्य एक साथ सुनिश्चित हो सकते हैं:
1. रोज़गार गारण्टी केवल अल्पकालीन राहत ही नहीं पहुंचाएगी अपितु भारतीय खेती को दीर्घकालीन सूखा-मुक्ति व बाढ़-सुरक्षा की ओर ले जाएगी।
2. अर्थ-व्यवस्था को स्थाई व सुदृढ़ आधार मिलेगा जिससे कि सतत विकास हो सके जो कि प्रकृति के उतार-चढाव से सुरक्षित रहे।
3. देश की आर्थिक वृद्धि गरीबी को दूर भगाने में ज़्यादा असरदार साबित होगी। अध्ययन दर्शाते हैं कि आर्थिक वृद्धि का सबसे अधिक असर वहां होता है जहां सामाजिक अधोसंरचना बुलंद हो। जहां लोग शिक्षित और स्वस्थ होंगे और जहां स्वच्छ पेयजल उपलब्ध होगा वहां लोग विकास के अवसरों का लाभ लेने में ज़्यादा सक्षम होंगे। अत: ऐसे क्षेत्र में किए गए सभी पूंजि निवेशों को सफलता मिलेगी।
4. लोगों की सरकारी रोज़गार गारण्टी योजनाओं पर निर्भरता धीरे-धीरे कम होती जाएगी जैसे-जैसे लोगों के खेत ही उनका भरण-पोषण कर पाएंगे।
5. रोज़गार गारण्टी पर खर्च स्थाई आजीविका निर्माण में लगेगा जिससे पूरे देश की अर्थव्यवस्था और उत्पादकता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
6. इससे निजी पूंजि निवेश को भी प्रोत्साहन मिलेगा जिससे कि रोज़गार के और अवसर खड़े होंगे।
7. किस हद तक पूंजि निवेश गरीबी को दूर कर पाता है यह इस पर निर्भर करेगा कि निवेश किस रूप में और किन कार्यों पर हुआ। यदि रोज़गार गारण्टी पर होने वाला खर्च श्रमोन्मुखी कार्यो पर केन्द्रित हुआ तो आर्थिक विकास के साथ-साथ लोगों को काम भी मिलेगा।
इससे रोज़गार गारण्टी सही माने में दीर्घकालीन रूप से प्रभावी होते हुए, पर्यावरणीय व वित्तीय, दोनो दृष्टि से उचित होगी। पूरे विश्व में गत˜ दो दशक से अर्थशास्त्र एक विशेष `कट्टरपंथ´ का शिकार हुआ है जो कि सरकार के बजट घाटे को कम करने की रट लगाए हुए है। इस विचारधारा को यह नहीं समझ आ रहा कि सरकारी निवेश, आर्थिक वृद्धि और गहरे आर्थिक बदलाव के द्वार भी खोल सकता है। बशर्ते कि यह निवेश स्वास्थ्य, जल, भोजन, काम व शिक्षा में हों जो कि हमारे देश की सबसे गंभीर प्राथमिकताएं हैं। याद रहे कि ऐसे निवेश केवल सरकार ही कर सकती है। यह कितनी शर्मनाक बात है कि हम आज़ादी के 60 साल बाद भी अपने लोगों के लिए यह सब सुरक्षित नहीं कर सके। यदि ऐसे कार्यों पर रोज़गार गारण्टी का फोकस हो तो बजट घाटे का भी समाधान मिल सकता है। ज्यों-ज्यों लोगों की आय बढ़ेगी त्यों-त्यों सरकारी राजस्व भी। ऐसे कार्यों पर खर्च होने वाली सकल घरेलू उत्पादन की केवल 2 प्रतिशत˜ राशि सामाजिक सुरक्षा कवच के लिए कोई ज़्यादा दाम नहीं है। यह भी याद रहे कि रोज़गार गारण्टी का आकार भी साल दर साल कम होता रहेगा, जैसे-जैसे अपने खेत के बाहर काम करने की लोगों की आवश्यकता कम होती जाएगी। कोई भी ``राजकोष जवाबदेही अधिनियम´ ऐसी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के आड़े नहीं आना चाहिए।
ऐसे संतुलित व शून्य घाटे के बजट से क्या फायदा जो कि हमारेदेश के करोड़ों लोगों को भूखा, बीमार, अशिक्षित व नाकाम छोड़ दे।किन्तु यह सुनिश्चित करने के लिए कि बजट घाटा वाकई कम हो रहा है, हमें यह भी ध्यान देना होगा कि रोज़गार गारण्टी का कार्यान्वयन सही हो। क्योंकि यह भी सच है कि ऐसे निवेशों का पूर्व में बुरा हाल हुआ है। या तो वे सरेआम बरबाद हुए या फिरकिसी न किसी की जेब गरम करने में गए। सफल कार्यान्वयन के लिए चाहिए सशक्त सामाजिक मूल्यांकन व अंकेक्षण प्रक्रिया जिसके तहत पथभ्रष्ट हाने पर दंड मिलना निहित हो। यहां केवल मस्टर रोल और मजदूरों के भुगतान के साथ छेड़-छाड़ की बात नहीं है।भ्रष्टाचार की कलाकारी कार्य दर अनुसूची के ``कल्पनाशील´´ उपयोग के साथ जुड़ी है, कि कैसे इन दरों के साथ लागत आंकलन में कढ़ाई की जाए ताकि आगे चल कर मजदूरों को चूना लगाया जा सके। पिछले एक दशक के कार्य के बाद हमने अपने अनुभव से सीखा है कि लोगों को कार्य के हर पहलू के साथ जुड़ना होगा - निर्माण स्थल के चयन से ले कर लागत आंकलन, कार्य की नपती और उसका भुगतान। यही एक रास्ता है जिससे किए गए कार्य उत्पादकता की कसौटी पर खरे उतर पाएंगे। इसका अर्थ है जन सुनवाइयों को आयोजन, जिनका नेतृत्व करेंगे वे सब लोग जो स्थल पर काम करने वालों में हैं। ऐसी जन सुनवाइयां पूर्ण पारदर्शिता की तरफ भी महŸवपूर्ण कदम हैं।
1.3 राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम
अभी हाल ही में लोकसभा द्वारा पारित राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम 2005 (रागरोगा) इन सब चिंताओं को संबोधित करने का प्रयास है। रागरोगा लंबे समय से चल रहे जन संगठनों के संघर्ष का नतीजा है। इस कानून में रोजगार का अधिकार दिए जाने का पूर्ण प्रावधान सुनिश्चित किया गया है। कानून के मुताबिक रागरोगा लागूहोने के छ: महीने के अन्दर-अन्दर प्रत्येक राज्य एक ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना चालू करने के लिए बाघ्य है। ये योजनाएं क़ानून को ज़मीन पर कारगर करने के उद्देश्य से चलाई जाएंगी। इन योजनाओं के अंतर्गत प्रत्येक ग्रामीण परिवार, जिसके वयस्क सदस्यअधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत मजदूरी करने के लिए तैयार हैं, को कम से कम 100 दिन का सुरक्षित रोज़गार मुहैया कराना राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है। इन योजनाओं को रागरोगा की अनुसूची 1 व 2 में विस्तार से विर्णत विशेषताओं को अपने में समाहित करनाहोगा। रोज़गार योजनाओं से यह भी अपेक्षा है कि ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक व सामाजिक अधोसंरचना को सुदृढ़ करते हुए ग्रामीण लोगों की आजीविका को दूरगामी रूप से प्रभावित करें। ऐसे कार्य चयनित करने चाहिए जो चिरंतन गरीबी के मूल कारण - सूखा, कटतेहुए जंगल और मृदा कटाव को जड़ से उखाड़ फेंकने में सक्षम हों। यदि पूरी इच्छाशक्ति के साथ पालन किया जाए तो इस अधिनियम में देश की गरीबी के नक्षे को पूरी तरह से बदल डालने की संभावना और क्षमता है।
1.4 2020 में खाद्य सुरक्षा
आने वाले वर्षो में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करना है तो सूखे क्षेत्र की कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। सरकार की बढ़ती आयात निर्भरता के मद्देनज़र यह और भी आवश्यक हो जाता है। हमारे अनुमान में, यदि हम सिंचाई व्यवस्था के फैलाव की सबसे आशावादी संभावनाओं को भी सच मान लें, तबभी 2020 तक खाद्यान्न की मांग का लगभग 40 प्रतिशत˜ हिस्सा भारत के सूखे, असिंचित क्षेत्रों से ही आना होगा।
तालिका 1.1 वर्ष 2020 में भारत में अनाज की अनुमानित मांग एवं पूर्ति (करोड़ टन में) 1. 2020 में अनाज की संभावित मांग 30.7 2. वर्ष 2002 तक औसतन खाद्यान्न उत्पादन 20.5 3. अतिरिक्त मांग की पूर्ति: 10.2 4. सिंचित कृषि भूमि से अधिकतम उत्पादन -सिंचित क्षेत्र का रकबा बढ़ने से 3.8 - सिंचित क्षेत्र से उत्पादकता में बढ़ोत्तरी से 2.6 5. असिंचित कृषि भूमि से वांछित कम से कम शेष उत्पादन 3.8 6. असिंचित कृषि का हिस्सा 37%
1.5 ग्रामीण सुशासन का पुनर्जन्म
अंत में ग्रामीण शासन के बुनियादी ढांचे में मूलभूत परिवर्तन ला पाने की रागरोगा की अनंत संभावनाओं को हमें पहचानना होगा। आर्थिक ``सुधारों´´ के आज के दौर में नीति निर्माता इस उधेड़बुन में ज़्यादा फंसे है कि निजी कंपनियों के लिए अनुकूल वातावरण कैसेबनाया जाए और कैसे उनके लिए सरकार को ``कम´´ किया जाए व्रर्षों से पूरी प्रक्रिया में इस विषय पर ध्यान नहीं दिया गया है कि ग्रामीण गरीब को किस प्रकार की असंवेदनशील और गैर-पारदशीZ नौकरशाही के साथ व्यवहार करना पड़ता है। यदि रोज़गार गारण्टी अधिनियम को सही माने में क्रियािन्वत किया जाए तो ग्रामीण क्षेत्र में सुशासन का एक नया अध्याय शुरु हो सकता है। अगले अघ्याय में हमने राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम के प्रावधानों पर विस्तार से चर्चा की है। इन प्राचधानों से सभी नागरिक को वाकिफ होना चाहिए ताकि वे पंचायतों और ग्रामीण लोगों तक इस अधिनियम की बात पहुंचा सकें। एक बार रागरोगा सही माने में क्रियान्वित होने लगेगा तो हम आशा कर सकते हैं कि पारदर्शिताऔर सामाजिक अंकेक्षण पंचायत राज के मुख्य स्तंभ बन जाएंगे।Path Alias
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