जिम कार्बेट ने इस अंचल की वास्तविकता से न केवल स्वंय को आत्मसात किया बल्कि इन्हें चमत्कारिक ढंग से आखेट कहानियों में भी व्यक्त किया है। अपनी कहानियों में वे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में उपस्थित होते हैं, जिसकी अभिलाषा नरभक्षी बाघों को मार कर एक साहसी शिकारी की प्रसिद्धि प्राप्त करना मात्र नहीं थी। इस साहसिक कार्य को उन्होंने बिना किसी सरकारी सहायता के भी अनेक बार किया। वे भारत के करोड़ों भूखे-नंगे लोगों की सेवा के प्रति समर्पित थे। वे उनके बीच रहे थे और उन्हें प्यार करते थे। मैने ईटर्स ऑफ कुमाऊँ के टाक मैनइटर अध्याय में उन्होंने एक जंगल के ठेकदार के स्वार्तपूर्ण सुझाव पर यह टिप्पणी की थी, मैंने कोटकिनरी (पूर्णगिरी के पास) जाने का जो वादा स्थानीय लोगों के पक्ष में किया है, न कि आप जैसे जंगल के ठेकेदारों के स्वार्थ के लिए।
कुमाऊँ में जन्मे एवं पले कार्बेट ने अपने व्यक्तित्व तथा गुणों के कारण समाज में लोकप्रिय हो गए थे। प्रकृति के साथ उनके इस गहन सान्निध्य ने उनके भीतर जंगल के स्पंदनों के प्रति गहरी जिज्ञासा उत्पन्न की तथा इसी कारण विभिन्न प्राणियों की सहज मूलभूत प्रवृत्तियों एवं व्यवहार का एक वैज्ञानिक विश्लेषण उन्होंने अपनी दूसरी पुस्तक जंगल लोर में किया है। इस पुस्तक में वन्यगीत के उन अत्यन्त सूक्ष्म एवं व्यावहारिक पहलुओं को कार्बेट द्वारा समझाया गया है, जो आगे चलकर गुलदारों के आखेट के दौरान पेश आए खतरनाक क्षणों में एक सफल अनुभव के रूप में उनके ही सुरक्षा दूत बने (गार्जियन एंजल)। पूर्ण वैज्ञानिक ज्ञान के बिना भी उस काल के दुर्गम वनों के पशु पक्षियों के गूढ़ व्यवहार को उनके प्रवृत्यात्मक धरातल में प्रस्तुत कर देना कार्बेट का सराहनीय कार्य कहा जा सकता है। प्रकृति के अनेक रहस्यों को समझने के उपरान्त कार्बेट उस पारिस्थितिकीय सन्तुलन को भी समझने लगे थे जो केवल पशु-पक्षियों के व्यवहार को समझने में सहायता करता है, बल्कि सम्पूर्ण जैव-संरचना को भी नियंत्रित करता है। इसी ज्ञान से कार्बेट को जंगल-जीवों की सुरक्षा का पक्का पैरोकार बना दिया था। स्वयं अपने जीवनकाल में उन्होने पर्यावरण उन्नयन के कार्यों का सूत्रपात किया। हालांकि पहाड़ के लोगों की नरभक्षी बाघों द्वारा की गई जन-हानि को देखते हुए उन्हें कई नरभक्षी बाघों को मारना पड़ा। किन्तु जंगल के अन्य प्राणियों की सुरक्षा हेतु वे हमेशा तत्पर रहे। रुद्रप्रयाग के नरभक्षी तेंदुए को मारने के दौरान जब एक मनचले व्यक्ति ने उनसे पास गुजरते सुअर को मारने का अनुरोध किया तो प्रत्युतर में कार्बेट ने कहा, मैं बन्दूक को गढ़वाल में अपनी जान बचाने हेतु भाग रहे निरीह सुअर को मारने नहीं लाया हूँ। मैं तो उसे मारने आया हूँ जिसे तुम पिशाच मानते हो, किन्तु वह मेरे लिए मात्र एक गुलदार है (मैन इटिंग लियोपार्ड ऑफ रुद्रप्रयागः139)।
गोरंग देश (पिथौरागढ़) के नरभक्षी बाघ ने पुनः उन सामाजिक एवं धार्मिक अन्ध-विश्वासों को पुनर्जीवित कर दिया था जिसके साक्षात दर्शन कार्बेट ने भी स्वतंत्रता पूर्व कुमाऊँ-गढ़वाल के नरभक्षी बाघों के आखेट के दौरान किए गए थे। कुछ लोग इसे पीड़ित परिवारों पर दैवी प्रकोप का प्रभाव मान रहे थे तो कुछ लोगों के अनैतिक कर्म व ताप का परिणाम मान रहे थे। विभिन्न लोगों से बातचीत के दौरान वही तथ्य उजागर हुए जिनका सजीव वर्णन कार्बेट ने अपनी कहानियों में किया है। किन्तु नरभक्षी गुलदारों को मारने की उत्कट इच्छा शक्ति होने के साथ, इससे कहीं अधिक रुचि आम लोगों के जीवन में थी। वे स्मरणीय क्षण जो उन्होंने पहाड़ के लोगों के मध्य बिताए थे, उनका मार्मिक एवं तथ्यपरक वर्णन उन्होंने अपनी जंगल कहानियों में किया है। स्वयं कार्बेट के शब्दों में पहाड़ के लोगों के साथ जीवन-पर्यन्त संसर्ग में रहने के कारण कुमाऊँ की भाषाओं एवं उपभाषाओं को समझने में सक्षम हूँ। इसमें भी सबसे महत्त्वपूर्ण है उनके प्रत्येक विचार की दिशा को समझना (टैम्पल टाइगर एण्ड मोर मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँ-134)।
माई इण्डिया में कार्बेट ने यहाँ के जन मानस की उन भावनाओं को प्रस्तुत किया है, जिनमें इस माटी की महक बरबस ही फूट पड़ती है। यहीं के लोक जीवन से घटनाओं को चुनकर अपनी भाषा में उन्हें सजीवता से व्यक्त किया है। उनकी अंग्रेजी भी यहाँ के लोगों के विचारों एवं बोली के साथ पूर्णरूप से सामंजस्य एवं अनुकूलन प्राप्त कर गई है तथा बिना किसी प्रतिबन्ध व माध्यम की कठिनाई से उनकी भाषा यहाँ के निवासियों की मूलभूत भावनाओं को सहज रूप में व्यक्त कर देती है।
भाषा का माध्यम कुछ भी हो, नैसर्गिक परिवेश एवं उस समाज के बीच यदि विशुद्ध सामंजस्य स्थापित हो गया है तो कोई भी भाषा उस परिवेश जनित विचारों एवं भावनाओं की वास्तविक वाहन बन जाती है। इसी प्रकार की भाषा एवं भावनाओं की लयबद्धता का एक उदाहरण कार्बेट की पुस्तक माई इण्डिया से दिया जा सकता है, जब कार्बेट मृत्यु शैया में पड़े कुँवर सिंह को भविष्य में अफीम न खाने की चेतावनी देते हैं। एक ऐसी चेतावनी जिसमें वक्ता एवं चेतावनी सुनने वाले के बीच कोई दूसरा नहीं है। कार्बेट को चिन्ता थी कि कहीं उनका मित्र असमय मृत्यु को प्राप्त न हो जाए, बक्त बदल गया। चचा बक्त के सात तुम भी बदल गए हो, एक समय ऐसा था जब कोई व्यक्ति तुम्हें तुम्हारे मकान से हटाकर एक नौकर के कमरे में डालने की हिम्मत कर सकता था? ताकि तुम एक तिरस्कृत भिखीरी की मौत मर सको… यदि तुम्हारे बुलावे से मुझे थोड़ी सी देरी हो गई होती तो अभी तक तुम्हारी अर्थी श्मशान घाट के रास्ते में होती (माई इण्डिया-27) यह भाषा एवं भावना की एक ऐसी स्वतः स्फूर्त अनवरतता है, जिसे शब्दशः कुमाऊँनी में भी बिना किसी माध्यम अवरोध से व्यक्त किया जा सकता है। एक ऐसी कठोर शपथ व्यक्ति को दिलाई जा रही है जिसकी पवित्रता वैधानिक शपथ से कही अधिक बाध्यता देती है।
जनेऊ धागा कणि अपणा आंगुल में लपेट बेर, पीपल को पात अपणा हाथ में थामि बेर (क्योंकि उस समय कुँवर सिंह का गोदान हो रहा था) आपण जेठ च्याल का ख्वार में हाथ धरि, अले बस अल्लै सौं खाओ कि तुम कभै ले ये बूटी कणी नी छुआल (माई इण्डियाः28)।
मैन इटिंग लियोपार्ड ऑफ रुद्रप्रयाग (89) में एक विधवा का अपने इकलौते बेटे को गुलदार द्वारा मारे जाने पर व्यक्त रुदन, हे परमेश्वर ! मेरे पुत्र ने, जो कि सभी का प्यारा था, ऐसा क्या अपराध किया था जिस कारण जीवन ने इस सवेरे में ही उसे भयानक मौत मिली? मार्मिक है और प्रकटीकरण भी कार्बेट के साहित्य में प्रचुर मात्रा में मिलता है।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में की तुलना वर्तमान से नहीं की जा सकती। आजादी के बाद सामाजिक जीवन के स्वाभाविक रंग फीके पड़ चुके हैं। तत्कालीन समाज के लोगों के उस नैसर्गिक, आडम्बरहीन व्यवहार को कार्बेट ने अपनी कथाओं में जिस सहज ढंग से प्रस्तुत किया है, वह अमर रहेगा। पहाड़ की विषम परिस्थिति, न्यून कृषि उत्पादन एवं सीमित साधनों के मध्य जीवन यापन कर रहे पहाड़ पुत्रों को उन्होंने हमेशा उनकी जन्म भूमि से शाश्वत रूप से जुड़ा पाया। टेम्पल टाइगर एण्ड मोर मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँ से इसी पुष्टि के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत है- जब उस व्यक्ति से मैंने पूछा कि इस एकान्त स्थान को छोड़कर तुम अपनी आजीविका अन्यत्र क्यों नहीं तलाशते? तो उसने कहा यही मेरा घर है मलेरिया रोग पीड़ित तराई से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्र कार्बेट न कई बार उत्साहपूर्वक एवं व्यक्तिगत अभिरुचि के साथ भ्रमण कर जनजीवन के विभिन्न पहलुओं का विवेचन उन्होंने मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँ, टेम्पल टाइगर एण्ड मोर इटर्स ऑफ कुमाऊ, माई इण्डिया और मैन इटिंग लियोपार्ड ऑफ रुद्रप्रयाग में किया है। ये पुस्तकें पूर्वाग्रह रहित हैं। इस विवेचन के प्रवाह में अनेक बार उन्होंने स्वयं को आत्मसात कर लिया था। जब आदमखोर शेरों के आतंक से यहाँ के निवासी बुरी तरह से त्रस्त थे, कार्बेट ने इन शेरों को मारने का बीड़ा अपने बल-बूते पर उठाया तथा स्पष्ट तौर पर घोषणा की कि उनके इस अभियान के दौरान सरकार द्वारा शिकारियों को जंगल से हटा दिया जाए।
आदमखोरों द्वारा मचाई गई तबाही के बाद भी उन्हें हमेशा इस कहावत में अद्भुत संबल मिला कि जो भाग्य में लिखा है उसे मिटाया नहीं जा सकता है। इस तथ्य की पुष्टि कार्बेट ने इस प्रकार की है- उनका इस जीवन दर्शन में अडिग अविश्वास शोक-संतप्त व्यक्तियों के लिए एक पीड़ाहारी औषधि भी है, वह यह कि कोई मानव तथा अन्य प्राणी अपने निश्चित काल से पहले मृत्यु प्राप्त नहीं कर सकता है, चूँकि नरभक्षी बाघ का काल अभी नहीं आया है, इसलिए वह अभी नहीं मरेगा इस तथ्य के आगे किसी स्पष्टीकरण एवं तर्क की आवश्यकता नहीं होती(द मैन इटिंग लियोपार्ड ऑफ रुद्रप्रयागः171)।
चाहे वह वृतांत चम्पावत में उन बीस जवान लोगों की उसे लापरवाही तथा उदासीनता का हो, जब नरभक्षी बाघिन उनके आँखों के सामने एक औरत को जिन्दा खींचकर ले जा रही थी। वह औरत उन लोगों से मदद की गुहार कर रही थी। जब कार्बेट ने मदद न करने का कारण जानना चाहा तो उत्तर मिला, नहीं साहब, हमने कुछ नहीं किया, क्योंकि हम डर गए थे और उसे बचाने का कोई फायदा भी नहीं था, क्योंकि वह खून से लथपथ थी और गहरे घावों के कारण निश्चित तौर पर वह मर जाती (मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँः 3) या फिर पनारगाड़ (अल्मोड़ा) के पनुवा नामक व्यक्ति की स्वार्थपरक वीरगाथा, जिसने घुंघराले बाल वाले नाटे कद के पथ-प्रदर्शक (गाइड) को पनार की तेज धारा में बहने से बचाया परन्तु जब कार्बेट ने उस उपकार हेतु पनुवा की तारीफ की तो बिना लाग-लपेट का उत्तर मिला, नहीं साहब नहीं, मैंने केवल उसे बचाने को ही उफनती नदी में छलांग नहीं लगाई। वह सब मैंने अपनी कोट के खातिर किया जो कि उसकी पीठ से बँधा था (टैम्पल टाइगर एण्ड मोर इटर्स ऑफ कुमाऊँः77)।
गोलावरी रुद्रप्रयाग में रहने वाले उस हृदयविहीन, संवेदना शून्य नौजवान का किस्सा भी कम रोचक नहीं है, जो उसके सामने जिन्दा पत्नी को खींचकर ले जा रहे नरभक्षी तेंदुए के चंगुल से उसे छुड़ाने का साहस न कर सका तथा कारण पूछने पर उसने तर्क दिया, अपनी जान को जोखिम में डालकर एक मृत शरीर को बाघ के चंगुल से छुड़ाने का मुझे क्या फायदा होता? (मैन इटिंग लियोपार्ड ऑफ रुद्रप्रयागः44)।
जिम कार्बेट ने इन सभी घटनाओं तथा जन भावनाओं को अपनी जंगल कहानियों में पिरोया है। किन्तु उपर्युक्त वर्णित लोक-व्यवहार के अतिरिक्त पहाड़ के इस विविधतापूर्ण जीवन को इस जंगल विधा के विद्वान ने इससे रोचक स्वरूप में भी प्रस्तुत किया है। चौगड़ (चम्पावत) के उस लम्बे दुबले तथा बाघ के पंजों के द्वारा विकृत किए गए चेहरे वाले मनुष्य द्वारा बाघ के साथ किए लम्बे संघर्ष की दास्तान उसी की बोली में प्रस्तुत की है। इस व्यक्ति को यह मलाल था कि उसका दुश्मन बाघ अभी भी जंगल में जिन्दा घूम रहा है तथा वह व्यक्ति स्वयं घायल होने के कारण अब उस बाघ का मुकाबला करने में असमर्थ है। अलकनन्दा पार निवास कर रही उस वीरागंना की कार्बेट ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है, जिसने अकेले ही गंडासे से नरभक्षी तेंदुए का मुकाबला कर अपने बेटे को बचा लिया था। सुख-दुख में समभाव के प्रतीक उस अनपढ़ दार्शनकि वृद्ध का किस्सा भी पाठकों को कम बोध-गम्य नहीं बनाता, जो काण्डा (बागेश्वर) के वियावन जंगलों में रात भर अकेला इकलौते बेटे की लाश ढूँढ़ता रहा, जिसको चंद घंटों पहले नरभक्षी बाघ ने शिकार बनाया था। जब कार्बेट ने उक्त बाघ को मार गिराया तो इस व्यक्ति ने शान्त अविचलित स्वर में कहा, साहब मैं सन्तुष्ट हूँ, आपने मेरे बेटे की मौत का बदला ले लिया है (मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँः168)।
प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रणभूमि में सर्वाधिक वीरता पदक हासिल करने वाले यहाँ के लोगों ने कभी भी नरभक्षी बाघों के आतंक को समाप्त करने के विषय में गम्भीरता से नहीं सोचा होगा, लेकिन इसके इतर उनके अन्य गुणों की कार्बेट ने सदैव प्रशंसा की है। यहाँ के निवासियों के स्वभाव की सहजता एवं उनकी असीम सहन-शक्ति को उन्होंने अद्वितीय गुणों के रूप में सहारा है। इसी प्रकार की स्वभावगत एक नैसर्गिक सहजता, जिसका प्रचुर हास्य पाठकों को रोमांचित करता है, टेम्पल टाइगर एण्ड मोर मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँ(77) पुस्तक के तल्ला देश मैन इटर अध्याय में देखने को मिलती है- लोगों के बीच एक उत्तेजित बहस छिड़ गई थी कि तल्ला देश में बाघों ने प्रथम बार कब वारदात शुरू की थी। सही तिथि का निर्धारण नहीं हो पा रहा था। गाँव के लोग नरभक्षी बाघों के आतंक से परेशान थे। कुछ लोगों ने कहा प्रथम बार यह वारदात 8 वर्ष पूर्व हुई होगी, दूसरों ने इस तथ्य को नकारते हुए कहा कि यह घटना दस वर्ष पूर्व की है। किन्तु सभी एक बात से सहमत थे कि उस वर्ष (वर्ष का उल्लेख नहीं) जब बची सिंह ने लकड़ी फाड़ते समय अपने पैर का अगूँठा कुल्हाड़ी से काट लिया था तथा जब कालू सिंह का काला बैल, जिसे उसने तीस रुपए में खरीदा था, पहाड़ से गिर कर मर गया था। उसी दिन से बाघों के आतंक की शुरूआत हुई थी। यह एक ऐसी घटना है जिसकी तुलना एक सुदूर नेपाल निवासी के भोले व स्पष्ट व्यवहार से की जा सकती है। इस ग्रामीण व्यक्ति का जब लड़का पैदा हुआ तो उसकी जन्मपत्री बनवाने हेतु वह अपने पुरोहित के पास पहुँचा पंडित जी ने उसे बालक का जन्म समय पूछा तो उसने बेहिचक जवाब दिया, जब मेरे भैंस ने गोबर किया था, तब मेरा लड़का पैदा हुआ था। अतः आप इस हिसाब से बालक की जन्मपत्री बना दें। इस प्रकार के दर्जनों रोचक अवसरों से कार्बेट अपने शिकार यात्राओं के दौरान दो-चार हुए थे तथा व्यक्तिगत रूप से उन्होंने इनका भरपूर रसास्वादन भी किया था।
उनकी प्रसिद्ध पुस्तक माइ इंडिया भारत के गरीब लोगों को समर्पित है। भ्रमण के दौरान वह जिस क्षेत्र में भी गए, उनेक सद्भावपूर्ण व्यवहार के बदले उन्हें लोगों का विश्वास मिला तथा शिकार में सफलता। उनके लिए सदा शुभकामनाएँ तथा सद्भावनाएँ अर्पित की गई। असंख्य गरीब व दलित लोगों के प्रति यह उनका स्नेह ही था जिस कारण उनकी कहानियों में बाला सिंह, चमारी, कुँवर सिंह, दान सिंह, क्वीन ऑफ विलेज जैसे दर्जनों चरित्र अन्य अभिजात चरित्रों की तुलना में प्रमुखता से प्रस्तुत किए गए हैं। ये सभी पात्र वास्तविक धरातल में अवतरित हुए हैं। तामली गाँव (चम्पावत) के लोगों द्वारा उनको दिया गया असीम अतिथि-सत्कार उन्होंने इस तरह व्यक्त किया है, मुझे यह जानकर अक्सर आश्चर्य होता है कि दुनिया के किसी छोटे भाग में भी जब एक व्यक्ति अजनबी की भाँति जाता है और उस स्थान के लोगों को उसके उद्देश्यों के बारे में भी मालूम नहीं होता, फिर भी उस स्थान विशेष के लोगों द्वारा क्या उसे उतना स्नेह व अतिथि-सत्कार मिलना सम्भव होगा, जितना कुमाऊँ में मिलता है? (टैम्पल टाइगर एण्ड मोर मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँः184)। गुड़ मिश्रित लोटे भर दूध से मेहमनों की खतिरदारी करने का वह स्नेह अब यहाँ के जनजीवन से विलुप्त हो चुका है परन्तु कुमाऊँ की उस पुरानी संस्कृति का वह मैत्रीपूर्ण सद्भाव कार्बेट ने अपने कथा साहित्य में एक खजाने के मानिन्द संजोया हुआ है। यही प्रशंसा उन्होंने गढ़वाल के लोगों की भी की है।
पुरातन समाज की रुढियों के प्रभाव में एक कोलाहल रहित जीवन जीना जन की नियति बन गई थी। नरभक्षी बाघों द्वारा मचाई गई तबाही के निराकरण हेतु एक तर्कपूर्ण सोच भी वे उस समाज में विकसित नहीं कर सके और इसे दैवी प्रकोप मानते रहे। यथार्थ की उपेक्षा कर आधारहीन तथ्यों एवं गल्पों को गढ़ना उस समाज की विशेषता थी, जिसकी पुष्टि कार्बेट ने स्वयं इस समाज में 70 वर्ष से अधिक के जीवन के अनुभवों के आधार पर की है। उनके अपने शब्दों मेें गढ़वाल में नरभक्षी बाघों द्वारा लोगों को मारा जाना तान्त्रिक साधुओं के कारण था तथा नैनीताल एवं अल्मोड़ा जिलों में इन घटनाओं के पीछे बोक्सारों का हाथ माना जाता था, जो अपने शिकार हेतु तराई कहे जाने वाले गन्दे घास वाले भाग में निवास करते थे (द मैन इटिंग लियोपार्ड ऑफ रुद्रप्रयागः22)। स्वयं सोर (पिथौरागढ़) में यह कहावत उन दिनों प्रचलित थी काली पार को कलुवा ढोली सोर को बाघ, तै बाघ मारियाँ का दिन मैस दिया छाक। तांत्रिक विद्या से बाघ बने कलुवा ढोला नामक व्यक्ति की पत्नी इस छोटे से गीत द्वारा यह सन्देश सोरियालों को देती है कि उसका पति तांत्रिक क्रिया द्वारा बाघ बन गया है, उसका मानव योनि में लौटना अब असम्भव है। उसे पुष्ट सूत्रों से यह खबर मिली है कि वह जब जंगलों में घूमता-घूमता सोर पहुँच गया है। यदि शिकारी द्वारा वह मारा जाता है तो उसकी छाक (मृत्यु की खबर) उसे शीघ्र प्रेषित की जाए।
प्रचलित मान्यताओं एवं अन्धविश्वासों का भरपूर उल्लेख करने के बावजूद स्वयं कार्बेट इन विश्वासों से अपने को अलग नहीं कर सके। उन्हें इस बात पर पूरा यकीन था कि किसी भी व्यक्ति विशेष की रक्षा करने वाला उसका ईष्ट होता है, जिसे उन्होंने गार्जियन एंजल की संज्ञा दी है, और वह व्यक्ति तब तक नहीं मर सकता जब तक उसके सुरक्षा दूत की कृपा उस पर रहती है। इस गार्जियन एंजल का उन्होंने कई बार शिकार करने के खतरनाक क्षणों में उनकी जान बचाने के लिए आभार व्यक्त किया है। टैम्पल टाइगर देवीधुरा के वाराही मन्दिर के पास जंगल में रह रहे उस शेर के शीर्षक पर लिखी गई कहानियों की पुस्तक है जिसको वे सात-आठ प्रयासों के बावजूद भी वे मार न सके। उक्त मन्दिर के पुजारी से उनके मित्रवत सम्बन्ध थे तथा इसी पुजारी ने कार्बेट को चुनौती दी थी कि इस शेर को कोई नहीं मार सकता। यह संयोग था या कोई और कारण कार्बेट इस शेर को मारने में कामयाब नहीं हुए, परन्तु उनके इस अनुभव ने उन्हें लिखने के प्रेरणा अवश्य दी होगी। तल्ला देश मैन इटर कहानी प्रसिद्ध शक्ति पीठ पूर्णागिरी पहाड़ की जड़ में कालाढुंगा विश्राम कैम्प से रात में काली नदी के उस पार तीन आरती के दियों को उनके द्वारा देखना एक अद्भुत अनुभव था, जिसकी पुष्टि एवं व्याख्या उन्होंने अपने रसोइए गंगा राम को दूसरे दिन पूर्णागिरी मन्दिर भिजवाकर की थी। तत्पश्चात तल्ला देश (चम्पावत) में तीन नरभक्षी बाघों को इस दौरान मारना भी उनके लिए भी कम चमत्कारी अनुभव साबित नहीं हुआ। यात्रा हेतु ज्योतिषियों से शुभ दिशा प्रस्थान, दिशा शूल एवं अनुकूल तिथिवार की गणना करवाना कार्बेट द्वारा यहाँ के आंचलिक समाज में व्याप्त धार्मिक विश्वासों के प्रति आस्था का द्योतक है।
कुमाऊँ-गढ़वाल की तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों एवं धार्मिक विश्वासों का कार्बेट की कहानियों में यथावत चित्रण बड़ी दक्षता के साथ किया गया है। यहाँ के मानव जीवन के विभिन्न पक्षों को उजागर करने में कार्बेट का अपना अलग मौलिक स्थान है। कार्बेट न अपने कथा साहित्य में तत्कालीन बहाड़ी समाज में व्याप्त अच्छी-बुरी परम्पराओं को बदलने या सुधारने का कोई प्रदर्शन नहीं किया है। एक लेखक के रूप में उन्होंने इन सच्ची कहानियों में इस दर्प का संकेत नहीं दिया है कि वे परिष्कृत अंग्रेज शासक वर्ग के सदस्य थे। एक विदेशी भाषा का लेखक होने का बड़बोलापन भी उनकी लेखनी में देखने को नहीं मिलता, जिसका उद्देश्य गुलाम एवं पिछड़े समाज के लोगों की कमियों का मखौल उड़ाना है, तथा इन कमियों का तिल का ताड़ बनाकर हास्य-व्यंग्य मिश्रित साहित्य का सृजन करना होता है। अ पैसेज टू इण्डिया के लेखक ई.एम. फोस्टर की भाँति कार्बेट ने भारत की जटिल सांस्कृतिक, धार्मिक संरचना का ईसाइयत के साथ एक रोमानी तथा तुलनात्मक विश्लेषण भी अपने साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत नहीं किया है। कार्बेट ने तो एक सरल लेखक की भाँति तत्कालीन सरल समाज को अपनी कहानियों में यथावत उतारा है। उनकी जगह शायद अन्य साहित्यकार इस समाज का वर्णन अपने कल्पनालोक के साथ मिलकर किसी अन्य रूप में प्रस्तुत करते, जैसा कि यहाँ के बाद के आंचलिक साहित्य में देखने को मिलता है। ऐसे साहित्य में भाषा-सौन्दर्य तथा कल्पना के चटक रंग तो अवश्य है किन्तु मानव जीवन की मौलिकता नहीं।
जिम कार्बेट ने इस समाज की छोटी से छोटी घटनाओं तथा क्रियाकलापों में गम्भीर अर्थ ढूँढे थे। इस रूप में वे एक तटस्थ दृष्टा न बनकर इसके ही अभिन्न बन गए थे, तभी तो वे इन गूढ़ तथ्यों को समझने तथा समझाने में सफल रहे थे। एक महान साहित्कार के द्वारा प्रस्तुत भाषा एवं भावों को हम न केवल समझते हैं, बल्कि उन्हें अपने में आत्मसात भी करते हैं। अनपी आखेट कहानियों में कार्बेट ने इस समाज की विभिन्न वास्तविकताओं को प्रस्तुत करने से पूर्व स्वयं को स्वच्छ मन से इनके साथ विलीन किया होगा, तभी तो उनकी कहानियों में एक शुद्ध आंचलिक सुगन्ध विद्यमान है, जो भौतिक रूप से भी इसके वास्तविक दर्शन कराती है। पहाड़ी जीवन का इतने निकट से सूक्ष्म निरीक्षण उनके पूर्व के किसी साहित्यकार में दृष्टिगोचर नहीं होता है। एक यूरोपियन माँ-बाप की सन्तान होने के बावजूद भी उनका भाव-लोक और संस्कार पहाड़ी हो गए थे। अपनी कहानियों में यहाँ के मानव जीवन के विभिन्न पक्षों को उजागर करने में कार्बेट का मौलिक स्थान है। इस समाज का जो बहुआयामी, बहुरंगी चित्र उन्होंने अपने साहित्य में खींचा है, निसन्देह उसके वे स्वाभाविक रंग आज के भौतिकवादी समाज में फीके पड़ चुके हैं, किन्तु उनके वे परोपकारी कार्य जिन्हें उसी शुद्ध भावना के आभार अभिवादन स्वरूप पहाड़ के सीधे-सीधे असंक्रमित जीवन वाले लोगों (माई इण्डिया) के द्वारा कार्बेट को लौटाए गए, हमेशा अमर रहेंगे।
सन्दर्भ
जिम कार्बेट, 1944, मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँ, ओयूपी, बम्बई।
जिम कार्बेट, 1987, माई इण्डिया, डेेडीकेशन, ओयूपी, ऑक्सफोर्ड।
जिम कार्बेट, 1987, मैन इटिंग लियोपार्ड ऑफ रुद्रप्रयाग, ओयूपी, न्यूयार्क।
जिम कार्बेट,1988, द टैम्पल टाइगर एण्ड मोर मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँ, ओयूपी, बम्बई।
कुमाऊँ में जन्मे एवं पले कार्बेट ने अपने व्यक्तित्व तथा गुणों के कारण समाज में लोकप्रिय हो गए थे। प्रकृति के साथ उनके इस गहन सान्निध्य ने उनके भीतर जंगल के स्पंदनों के प्रति गहरी जिज्ञासा उत्पन्न की तथा इसी कारण विभिन्न प्राणियों की सहज मूलभूत प्रवृत्तियों एवं व्यवहार का एक वैज्ञानिक विश्लेषण उन्होंने अपनी दूसरी पुस्तक जंगल लोर में किया है। इस पुस्तक में वन्यगीत के उन अत्यन्त सूक्ष्म एवं व्यावहारिक पहलुओं को कार्बेट द्वारा समझाया गया है, जो आगे चलकर गुलदारों के आखेट के दौरान पेश आए खतरनाक क्षणों में एक सफल अनुभव के रूप में उनके ही सुरक्षा दूत बने (गार्जियन एंजल)। पूर्ण वैज्ञानिक ज्ञान के बिना भी उस काल के दुर्गम वनों के पशु पक्षियों के गूढ़ व्यवहार को उनके प्रवृत्यात्मक धरातल में प्रस्तुत कर देना कार्बेट का सराहनीय कार्य कहा जा सकता है। प्रकृति के अनेक रहस्यों को समझने के उपरान्त कार्बेट उस पारिस्थितिकीय सन्तुलन को भी समझने लगे थे जो केवल पशु-पक्षियों के व्यवहार को समझने में सहायता करता है, बल्कि सम्पूर्ण जैव-संरचना को भी नियंत्रित करता है। इसी ज्ञान से कार्बेट को जंगल-जीवों की सुरक्षा का पक्का पैरोकार बना दिया था। स्वयं अपने जीवनकाल में उन्होने पर्यावरण उन्नयन के कार्यों का सूत्रपात किया। हालांकि पहाड़ के लोगों की नरभक्षी बाघों द्वारा की गई जन-हानि को देखते हुए उन्हें कई नरभक्षी बाघों को मारना पड़ा। किन्तु जंगल के अन्य प्राणियों की सुरक्षा हेतु वे हमेशा तत्पर रहे। रुद्रप्रयाग के नरभक्षी तेंदुए को मारने के दौरान जब एक मनचले व्यक्ति ने उनसे पास गुजरते सुअर को मारने का अनुरोध किया तो प्रत्युतर में कार्बेट ने कहा, मैं बन्दूक को गढ़वाल में अपनी जान बचाने हेतु भाग रहे निरीह सुअर को मारने नहीं लाया हूँ। मैं तो उसे मारने आया हूँ जिसे तुम पिशाच मानते हो, किन्तु वह मेरे लिए मात्र एक गुलदार है (मैन इटिंग लियोपार्ड ऑफ रुद्रप्रयागः139)।
गोरंग देश (पिथौरागढ़) के नरभक्षी बाघ ने पुनः उन सामाजिक एवं धार्मिक अन्ध-विश्वासों को पुनर्जीवित कर दिया था जिसके साक्षात दर्शन कार्बेट ने भी स्वतंत्रता पूर्व कुमाऊँ-गढ़वाल के नरभक्षी बाघों के आखेट के दौरान किए गए थे। कुछ लोग इसे पीड़ित परिवारों पर दैवी प्रकोप का प्रभाव मान रहे थे तो कुछ लोगों के अनैतिक कर्म व ताप का परिणाम मान रहे थे। विभिन्न लोगों से बातचीत के दौरान वही तथ्य उजागर हुए जिनका सजीव वर्णन कार्बेट ने अपनी कहानियों में किया है। किन्तु नरभक्षी गुलदारों को मारने की उत्कट इच्छा शक्ति होने के साथ, इससे कहीं अधिक रुचि आम लोगों के जीवन में थी। वे स्मरणीय क्षण जो उन्होंने पहाड़ के लोगों के मध्य बिताए थे, उनका मार्मिक एवं तथ्यपरक वर्णन उन्होंने अपनी जंगल कहानियों में किया है। स्वयं कार्बेट के शब्दों में पहाड़ के लोगों के साथ जीवन-पर्यन्त संसर्ग में रहने के कारण कुमाऊँ की भाषाओं एवं उपभाषाओं को समझने में सक्षम हूँ। इसमें भी सबसे महत्त्वपूर्ण है उनके प्रत्येक विचार की दिशा को समझना (टैम्पल टाइगर एण्ड मोर मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँ-134)।
माई इण्डिया में कार्बेट ने यहाँ के जन मानस की उन भावनाओं को प्रस्तुत किया है, जिनमें इस माटी की महक बरबस ही फूट पड़ती है। यहीं के लोक जीवन से घटनाओं को चुनकर अपनी भाषा में उन्हें सजीवता से व्यक्त किया है। उनकी अंग्रेजी भी यहाँ के लोगों के विचारों एवं बोली के साथ पूर्णरूप से सामंजस्य एवं अनुकूलन प्राप्त कर गई है तथा बिना किसी प्रतिबन्ध व माध्यम की कठिनाई से उनकी भाषा यहाँ के निवासियों की मूलभूत भावनाओं को सहज रूप में व्यक्त कर देती है।
भाषा का माध्यम कुछ भी हो, नैसर्गिक परिवेश एवं उस समाज के बीच यदि विशुद्ध सामंजस्य स्थापित हो गया है तो कोई भी भाषा उस परिवेश जनित विचारों एवं भावनाओं की वास्तविक वाहन बन जाती है। इसी प्रकार की भाषा एवं भावनाओं की लयबद्धता का एक उदाहरण कार्बेट की पुस्तक माई इण्डिया से दिया जा सकता है, जब कार्बेट मृत्यु शैया में पड़े कुँवर सिंह को भविष्य में अफीम न खाने की चेतावनी देते हैं। एक ऐसी चेतावनी जिसमें वक्ता एवं चेतावनी सुनने वाले के बीच कोई दूसरा नहीं है। कार्बेट को चिन्ता थी कि कहीं उनका मित्र असमय मृत्यु को प्राप्त न हो जाए, बक्त बदल गया। चचा बक्त के सात तुम भी बदल गए हो, एक समय ऐसा था जब कोई व्यक्ति तुम्हें तुम्हारे मकान से हटाकर एक नौकर के कमरे में डालने की हिम्मत कर सकता था? ताकि तुम एक तिरस्कृत भिखीरी की मौत मर सको… यदि तुम्हारे बुलावे से मुझे थोड़ी सी देरी हो गई होती तो अभी तक तुम्हारी अर्थी श्मशान घाट के रास्ते में होती (माई इण्डिया-27) यह भाषा एवं भावना की एक ऐसी स्वतः स्फूर्त अनवरतता है, जिसे शब्दशः कुमाऊँनी में भी बिना किसी माध्यम अवरोध से व्यक्त किया जा सकता है। एक ऐसी कठोर शपथ व्यक्ति को दिलाई जा रही है जिसकी पवित्रता वैधानिक शपथ से कही अधिक बाध्यता देती है।
जनेऊ धागा कणि अपणा आंगुल में लपेट बेर, पीपल को पात अपणा हाथ में थामि बेर (क्योंकि उस समय कुँवर सिंह का गोदान हो रहा था) आपण जेठ च्याल का ख्वार में हाथ धरि, अले बस अल्लै सौं खाओ कि तुम कभै ले ये बूटी कणी नी छुआल (माई इण्डियाः28)।
मैन इटिंग लियोपार्ड ऑफ रुद्रप्रयाग (89) में एक विधवा का अपने इकलौते बेटे को गुलदार द्वारा मारे जाने पर व्यक्त रुदन, हे परमेश्वर ! मेरे पुत्र ने, जो कि सभी का प्यारा था, ऐसा क्या अपराध किया था जिस कारण जीवन ने इस सवेरे में ही उसे भयानक मौत मिली? मार्मिक है और प्रकटीकरण भी कार्बेट के साहित्य में प्रचुर मात्रा में मिलता है।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में की तुलना वर्तमान से नहीं की जा सकती। आजादी के बाद सामाजिक जीवन के स्वाभाविक रंग फीके पड़ चुके हैं। तत्कालीन समाज के लोगों के उस नैसर्गिक, आडम्बरहीन व्यवहार को कार्बेट ने अपनी कथाओं में जिस सहज ढंग से प्रस्तुत किया है, वह अमर रहेगा। पहाड़ की विषम परिस्थिति, न्यून कृषि उत्पादन एवं सीमित साधनों के मध्य जीवन यापन कर रहे पहाड़ पुत्रों को उन्होंने हमेशा उनकी जन्म भूमि से शाश्वत रूप से जुड़ा पाया। टेम्पल टाइगर एण्ड मोर मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँ से इसी पुष्टि के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत है- जब उस व्यक्ति से मैंने पूछा कि इस एकान्त स्थान को छोड़कर तुम अपनी आजीविका अन्यत्र क्यों नहीं तलाशते? तो उसने कहा यही मेरा घर है मलेरिया रोग पीड़ित तराई से लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्र कार्बेट न कई बार उत्साहपूर्वक एवं व्यक्तिगत अभिरुचि के साथ भ्रमण कर जनजीवन के विभिन्न पहलुओं का विवेचन उन्होंने मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँ, टेम्पल टाइगर एण्ड मोर इटर्स ऑफ कुमाऊ, माई इण्डिया और मैन इटिंग लियोपार्ड ऑफ रुद्रप्रयाग में किया है। ये पुस्तकें पूर्वाग्रह रहित हैं। इस विवेचन के प्रवाह में अनेक बार उन्होंने स्वयं को आत्मसात कर लिया था। जब आदमखोर शेरों के आतंक से यहाँ के निवासी बुरी तरह से त्रस्त थे, कार्बेट ने इन शेरों को मारने का बीड़ा अपने बल-बूते पर उठाया तथा स्पष्ट तौर पर घोषणा की कि उनके इस अभियान के दौरान सरकार द्वारा शिकारियों को जंगल से हटा दिया जाए।
आदमखोरों द्वारा मचाई गई तबाही के बाद भी उन्हें हमेशा इस कहावत में अद्भुत संबल मिला कि जो भाग्य में लिखा है उसे मिटाया नहीं जा सकता है। इस तथ्य की पुष्टि कार्बेट ने इस प्रकार की है- उनका इस जीवन दर्शन में अडिग अविश्वास शोक-संतप्त व्यक्तियों के लिए एक पीड़ाहारी औषधि भी है, वह यह कि कोई मानव तथा अन्य प्राणी अपने निश्चित काल से पहले मृत्यु प्राप्त नहीं कर सकता है, चूँकि नरभक्षी बाघ का काल अभी नहीं आया है, इसलिए वह अभी नहीं मरेगा इस तथ्य के आगे किसी स्पष्टीकरण एवं तर्क की आवश्यकता नहीं होती(द मैन इटिंग लियोपार्ड ऑफ रुद्रप्रयागः171)।
चाहे वह वृतांत चम्पावत में उन बीस जवान लोगों की उसे लापरवाही तथा उदासीनता का हो, जब नरभक्षी बाघिन उनके आँखों के सामने एक औरत को जिन्दा खींचकर ले जा रही थी। वह औरत उन लोगों से मदद की गुहार कर रही थी। जब कार्बेट ने मदद न करने का कारण जानना चाहा तो उत्तर मिला, नहीं साहब, हमने कुछ नहीं किया, क्योंकि हम डर गए थे और उसे बचाने का कोई फायदा भी नहीं था, क्योंकि वह खून से लथपथ थी और गहरे घावों के कारण निश्चित तौर पर वह मर जाती (मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँः 3) या फिर पनारगाड़ (अल्मोड़ा) के पनुवा नामक व्यक्ति की स्वार्थपरक वीरगाथा, जिसने घुंघराले बाल वाले नाटे कद के पथ-प्रदर्शक (गाइड) को पनार की तेज धारा में बहने से बचाया परन्तु जब कार्बेट ने उस उपकार हेतु पनुवा की तारीफ की तो बिना लाग-लपेट का उत्तर मिला, नहीं साहब नहीं, मैंने केवल उसे बचाने को ही उफनती नदी में छलांग नहीं लगाई। वह सब मैंने अपनी कोट के खातिर किया जो कि उसकी पीठ से बँधा था (टैम्पल टाइगर एण्ड मोर इटर्स ऑफ कुमाऊँः77)।
गोलावरी रुद्रप्रयाग में रहने वाले उस हृदयविहीन, संवेदना शून्य नौजवान का किस्सा भी कम रोचक नहीं है, जो उसके सामने जिन्दा पत्नी को खींचकर ले जा रहे नरभक्षी तेंदुए के चंगुल से उसे छुड़ाने का साहस न कर सका तथा कारण पूछने पर उसने तर्क दिया, अपनी जान को जोखिम में डालकर एक मृत शरीर को बाघ के चंगुल से छुड़ाने का मुझे क्या फायदा होता? (मैन इटिंग लियोपार्ड ऑफ रुद्रप्रयागः44)।
जिम कार्बेट ने इन सभी घटनाओं तथा जन भावनाओं को अपनी जंगल कहानियों में पिरोया है। किन्तु उपर्युक्त वर्णित लोक-व्यवहार के अतिरिक्त पहाड़ के इस विविधतापूर्ण जीवन को इस जंगल विधा के विद्वान ने इससे रोचक स्वरूप में भी प्रस्तुत किया है। चौगड़ (चम्पावत) के उस लम्बे दुबले तथा बाघ के पंजों के द्वारा विकृत किए गए चेहरे वाले मनुष्य द्वारा बाघ के साथ किए लम्बे संघर्ष की दास्तान उसी की बोली में प्रस्तुत की है। इस व्यक्ति को यह मलाल था कि उसका दुश्मन बाघ अभी भी जंगल में जिन्दा घूम रहा है तथा वह व्यक्ति स्वयं घायल होने के कारण अब उस बाघ का मुकाबला करने में असमर्थ है। अलकनन्दा पार निवास कर रही उस वीरागंना की कार्बेट ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है, जिसने अकेले ही गंडासे से नरभक्षी तेंदुए का मुकाबला कर अपने बेटे को बचा लिया था। सुख-दुख में समभाव के प्रतीक उस अनपढ़ दार्शनकि वृद्ध का किस्सा भी पाठकों को कम बोध-गम्य नहीं बनाता, जो काण्डा (बागेश्वर) के वियावन जंगलों में रात भर अकेला इकलौते बेटे की लाश ढूँढ़ता रहा, जिसको चंद घंटों पहले नरभक्षी बाघ ने शिकार बनाया था। जब कार्बेट ने उक्त बाघ को मार गिराया तो इस व्यक्ति ने शान्त अविचलित स्वर में कहा, साहब मैं सन्तुष्ट हूँ, आपने मेरे बेटे की मौत का बदला ले लिया है (मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँः168)।
प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रणभूमि में सर्वाधिक वीरता पदक हासिल करने वाले यहाँ के लोगों ने कभी भी नरभक्षी बाघों के आतंक को समाप्त करने के विषय में गम्भीरता से नहीं सोचा होगा, लेकिन इसके इतर उनके अन्य गुणों की कार्बेट ने सदैव प्रशंसा की है। यहाँ के निवासियों के स्वभाव की सहजता एवं उनकी असीम सहन-शक्ति को उन्होंने अद्वितीय गुणों के रूप में सहारा है। इसी प्रकार की स्वभावगत एक नैसर्गिक सहजता, जिसका प्रचुर हास्य पाठकों को रोमांचित करता है, टेम्पल टाइगर एण्ड मोर मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँ(77) पुस्तक के तल्ला देश मैन इटर अध्याय में देखने को मिलती है- लोगों के बीच एक उत्तेजित बहस छिड़ गई थी कि तल्ला देश में बाघों ने प्रथम बार कब वारदात शुरू की थी। सही तिथि का निर्धारण नहीं हो पा रहा था। गाँव के लोग नरभक्षी बाघों के आतंक से परेशान थे। कुछ लोगों ने कहा प्रथम बार यह वारदात 8 वर्ष पूर्व हुई होगी, दूसरों ने इस तथ्य को नकारते हुए कहा कि यह घटना दस वर्ष पूर्व की है। किन्तु सभी एक बात से सहमत थे कि उस वर्ष (वर्ष का उल्लेख नहीं) जब बची सिंह ने लकड़ी फाड़ते समय अपने पैर का अगूँठा कुल्हाड़ी से काट लिया था तथा जब कालू सिंह का काला बैल, जिसे उसने तीस रुपए में खरीदा था, पहाड़ से गिर कर मर गया था। उसी दिन से बाघों के आतंक की शुरूआत हुई थी। यह एक ऐसी घटना है जिसकी तुलना एक सुदूर नेपाल निवासी के भोले व स्पष्ट व्यवहार से की जा सकती है। इस ग्रामीण व्यक्ति का जब लड़का पैदा हुआ तो उसकी जन्मपत्री बनवाने हेतु वह अपने पुरोहित के पास पहुँचा पंडित जी ने उसे बालक का जन्म समय पूछा तो उसने बेहिचक जवाब दिया, जब मेरे भैंस ने गोबर किया था, तब मेरा लड़का पैदा हुआ था। अतः आप इस हिसाब से बालक की जन्मपत्री बना दें। इस प्रकार के दर्जनों रोचक अवसरों से कार्बेट अपने शिकार यात्राओं के दौरान दो-चार हुए थे तथा व्यक्तिगत रूप से उन्होंने इनका भरपूर रसास्वादन भी किया था।
उनकी प्रसिद्ध पुस्तक माइ इंडिया भारत के गरीब लोगों को समर्पित है। भ्रमण के दौरान वह जिस क्षेत्र में भी गए, उनेक सद्भावपूर्ण व्यवहार के बदले उन्हें लोगों का विश्वास मिला तथा शिकार में सफलता। उनके लिए सदा शुभकामनाएँ तथा सद्भावनाएँ अर्पित की गई। असंख्य गरीब व दलित लोगों के प्रति यह उनका स्नेह ही था जिस कारण उनकी कहानियों में बाला सिंह, चमारी, कुँवर सिंह, दान सिंह, क्वीन ऑफ विलेज जैसे दर्जनों चरित्र अन्य अभिजात चरित्रों की तुलना में प्रमुखता से प्रस्तुत किए गए हैं। ये सभी पात्र वास्तविक धरातल में अवतरित हुए हैं। तामली गाँव (चम्पावत) के लोगों द्वारा उनको दिया गया असीम अतिथि-सत्कार उन्होंने इस तरह व्यक्त किया है, मुझे यह जानकर अक्सर आश्चर्य होता है कि दुनिया के किसी छोटे भाग में भी जब एक व्यक्ति अजनबी की भाँति जाता है और उस स्थान के लोगों को उसके उद्देश्यों के बारे में भी मालूम नहीं होता, फिर भी उस स्थान विशेष के लोगों द्वारा क्या उसे उतना स्नेह व अतिथि-सत्कार मिलना सम्भव होगा, जितना कुमाऊँ में मिलता है? (टैम्पल टाइगर एण्ड मोर मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँः184)। गुड़ मिश्रित लोटे भर दूध से मेहमनों की खतिरदारी करने का वह स्नेह अब यहाँ के जनजीवन से विलुप्त हो चुका है परन्तु कुमाऊँ की उस पुरानी संस्कृति का वह मैत्रीपूर्ण सद्भाव कार्बेट ने अपने कथा साहित्य में एक खजाने के मानिन्द संजोया हुआ है। यही प्रशंसा उन्होंने गढ़वाल के लोगों की भी की है।
पुरातन समाज की रुढियों के प्रभाव में एक कोलाहल रहित जीवन जीना जन की नियति बन गई थी। नरभक्षी बाघों द्वारा मचाई गई तबाही के निराकरण हेतु एक तर्कपूर्ण सोच भी वे उस समाज में विकसित नहीं कर सके और इसे दैवी प्रकोप मानते रहे। यथार्थ की उपेक्षा कर आधारहीन तथ्यों एवं गल्पों को गढ़ना उस समाज की विशेषता थी, जिसकी पुष्टि कार्बेट ने स्वयं इस समाज में 70 वर्ष से अधिक के जीवन के अनुभवों के आधार पर की है। उनके अपने शब्दों मेें गढ़वाल में नरभक्षी बाघों द्वारा लोगों को मारा जाना तान्त्रिक साधुओं के कारण था तथा नैनीताल एवं अल्मोड़ा जिलों में इन घटनाओं के पीछे बोक्सारों का हाथ माना जाता था, जो अपने शिकार हेतु तराई कहे जाने वाले गन्दे घास वाले भाग में निवास करते थे (द मैन इटिंग लियोपार्ड ऑफ रुद्रप्रयागः22)। स्वयं सोर (पिथौरागढ़) में यह कहावत उन दिनों प्रचलित थी काली पार को कलुवा ढोली सोर को बाघ, तै बाघ मारियाँ का दिन मैस दिया छाक। तांत्रिक विद्या से बाघ बने कलुवा ढोला नामक व्यक्ति की पत्नी इस छोटे से गीत द्वारा यह सन्देश सोरियालों को देती है कि उसका पति तांत्रिक क्रिया द्वारा बाघ बन गया है, उसका मानव योनि में लौटना अब असम्भव है। उसे पुष्ट सूत्रों से यह खबर मिली है कि वह जब जंगलों में घूमता-घूमता सोर पहुँच गया है। यदि शिकारी द्वारा वह मारा जाता है तो उसकी छाक (मृत्यु की खबर) उसे शीघ्र प्रेषित की जाए।
प्रचलित मान्यताओं एवं अन्धविश्वासों का भरपूर उल्लेख करने के बावजूद स्वयं कार्बेट इन विश्वासों से अपने को अलग नहीं कर सके। उन्हें इस बात पर पूरा यकीन था कि किसी भी व्यक्ति विशेष की रक्षा करने वाला उसका ईष्ट होता है, जिसे उन्होंने गार्जियन एंजल की संज्ञा दी है, और वह व्यक्ति तब तक नहीं मर सकता जब तक उसके सुरक्षा दूत की कृपा उस पर रहती है। इस गार्जियन एंजल का उन्होंने कई बार शिकार करने के खतरनाक क्षणों में उनकी जान बचाने के लिए आभार व्यक्त किया है। टैम्पल टाइगर देवीधुरा के वाराही मन्दिर के पास जंगल में रह रहे उस शेर के शीर्षक पर लिखी गई कहानियों की पुस्तक है जिसको वे सात-आठ प्रयासों के बावजूद भी वे मार न सके। उक्त मन्दिर के पुजारी से उनके मित्रवत सम्बन्ध थे तथा इसी पुजारी ने कार्बेट को चुनौती दी थी कि इस शेर को कोई नहीं मार सकता। यह संयोग था या कोई और कारण कार्बेट इस शेर को मारने में कामयाब नहीं हुए, परन्तु उनके इस अनुभव ने उन्हें लिखने के प्रेरणा अवश्य दी होगी। तल्ला देश मैन इटर कहानी प्रसिद्ध शक्ति पीठ पूर्णागिरी पहाड़ की जड़ में कालाढुंगा विश्राम कैम्प से रात में काली नदी के उस पार तीन आरती के दियों को उनके द्वारा देखना एक अद्भुत अनुभव था, जिसकी पुष्टि एवं व्याख्या उन्होंने अपने रसोइए गंगा राम को दूसरे दिन पूर्णागिरी मन्दिर भिजवाकर की थी। तत्पश्चात तल्ला देश (चम्पावत) में तीन नरभक्षी बाघों को इस दौरान मारना भी उनके लिए भी कम चमत्कारी अनुभव साबित नहीं हुआ। यात्रा हेतु ज्योतिषियों से शुभ दिशा प्रस्थान, दिशा शूल एवं अनुकूल तिथिवार की गणना करवाना कार्बेट द्वारा यहाँ के आंचलिक समाज में व्याप्त धार्मिक विश्वासों के प्रति आस्था का द्योतक है।
कुमाऊँ-गढ़वाल की तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों एवं धार्मिक विश्वासों का कार्बेट की कहानियों में यथावत चित्रण बड़ी दक्षता के साथ किया गया है। यहाँ के मानव जीवन के विभिन्न पक्षों को उजागर करने में कार्बेट का अपना अलग मौलिक स्थान है। कार्बेट न अपने कथा साहित्य में तत्कालीन बहाड़ी समाज में व्याप्त अच्छी-बुरी परम्पराओं को बदलने या सुधारने का कोई प्रदर्शन नहीं किया है। एक लेखक के रूप में उन्होंने इन सच्ची कहानियों में इस दर्प का संकेत नहीं दिया है कि वे परिष्कृत अंग्रेज शासक वर्ग के सदस्य थे। एक विदेशी भाषा का लेखक होने का बड़बोलापन भी उनकी लेखनी में देखने को नहीं मिलता, जिसका उद्देश्य गुलाम एवं पिछड़े समाज के लोगों की कमियों का मखौल उड़ाना है, तथा इन कमियों का तिल का ताड़ बनाकर हास्य-व्यंग्य मिश्रित साहित्य का सृजन करना होता है। अ पैसेज टू इण्डिया के लेखक ई.एम. फोस्टर की भाँति कार्बेट ने भारत की जटिल सांस्कृतिक, धार्मिक संरचना का ईसाइयत के साथ एक रोमानी तथा तुलनात्मक विश्लेषण भी अपने साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत नहीं किया है। कार्बेट ने तो एक सरल लेखक की भाँति तत्कालीन सरल समाज को अपनी कहानियों में यथावत उतारा है। उनकी जगह शायद अन्य साहित्यकार इस समाज का वर्णन अपने कल्पनालोक के साथ मिलकर किसी अन्य रूप में प्रस्तुत करते, जैसा कि यहाँ के बाद के आंचलिक साहित्य में देखने को मिलता है। ऐसे साहित्य में भाषा-सौन्दर्य तथा कल्पना के चटक रंग तो अवश्य है किन्तु मानव जीवन की मौलिकता नहीं।
जिम कार्बेट ने इस समाज की छोटी से छोटी घटनाओं तथा क्रियाकलापों में गम्भीर अर्थ ढूँढे थे। इस रूप में वे एक तटस्थ दृष्टा न बनकर इसके ही अभिन्न बन गए थे, तभी तो वे इन गूढ़ तथ्यों को समझने तथा समझाने में सफल रहे थे। एक महान साहित्कार के द्वारा प्रस्तुत भाषा एवं भावों को हम न केवल समझते हैं, बल्कि उन्हें अपने में आत्मसात भी करते हैं। अनपी आखेट कहानियों में कार्बेट ने इस समाज की विभिन्न वास्तविकताओं को प्रस्तुत करने से पूर्व स्वयं को स्वच्छ मन से इनके साथ विलीन किया होगा, तभी तो उनकी कहानियों में एक शुद्ध आंचलिक सुगन्ध विद्यमान है, जो भौतिक रूप से भी इसके वास्तविक दर्शन कराती है। पहाड़ी जीवन का इतने निकट से सूक्ष्म निरीक्षण उनके पूर्व के किसी साहित्यकार में दृष्टिगोचर नहीं होता है। एक यूरोपियन माँ-बाप की सन्तान होने के बावजूद भी उनका भाव-लोक और संस्कार पहाड़ी हो गए थे। अपनी कहानियों में यहाँ के मानव जीवन के विभिन्न पक्षों को उजागर करने में कार्बेट का मौलिक स्थान है। इस समाज का जो बहुआयामी, बहुरंगी चित्र उन्होंने अपने साहित्य में खींचा है, निसन्देह उसके वे स्वाभाविक रंग आज के भौतिकवादी समाज में फीके पड़ चुके हैं, किन्तु उनके वे परोपकारी कार्य जिन्हें उसी शुद्ध भावना के आभार अभिवादन स्वरूप पहाड़ के सीधे-सीधे असंक्रमित जीवन वाले लोगों (माई इण्डिया) के द्वारा कार्बेट को लौटाए गए, हमेशा अमर रहेंगे।
सन्दर्भ
जिम कार्बेट, 1944, मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँ, ओयूपी, बम्बई।
जिम कार्बेट, 1987, माई इण्डिया, डेेडीकेशन, ओयूपी, ऑक्सफोर्ड।
जिम कार्बेट, 1987, मैन इटिंग लियोपार्ड ऑफ रुद्रप्रयाग, ओयूपी, न्यूयार्क।
जिम कार्बेट,1988, द टैम्पल टाइगर एण्ड मोर मैन इटर्स ऑफ कुमाऊँ, ओयूपी, बम्बई।
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