जल संसाधन विभाग ने पानी को बांध बनाने की वस्तु और नदी को पानी पैदा करने वाली फैक्टरी ही माना है। लगता है इस सोच ने नदी और उसके पानी को सीमेंट, लोहे, पत्थर की तरह एक वस्तु से आगे नहीं माना, उसके अन्य पहलुओं के असर से बेखबर रहकर काम किया। लेखक को लगता है कि नोडल विभाग ने पानी से जुड़ी अनेक जिम्मेदारियों पर समुचित ध्यान नहीं दिया या अनदेखी की। भारत सहित सारी दुनिया में बहुत सारे लोग, सरकारी महकमे, स्वयंसेवी संस्थाएं तथा वित्तीय संस्थान पानी पर काम करते हैं। इस क्षेत्र में अनुसंधान, अध्यापन तथा अकादमिक लेखन से जुड़े लोगों की भागीदारी और योगदान भी किसी मायने में कम नहीं हैं पर हमारे देश में पानी का नोडल विभाग जल संसाधन विभाग ही है। सरकारी दस्तावेजों में विभिन्न कालावधि में इस विभाग को कभी जल संसाधन विभाग तो कभी सिंचाई विभाग के नाम से पुकारा गया है।
सरकारों ने भले ही अलग-अलग समय पर उसे अलग-अलग नाम दिए हों या कुछ लोगों ने इसे भले ही नोडल विभाग या जल संसाधन विभाग कहा हो, पर, इस विभाग ने यह नाम या इस नाम से जुड़ी पहचान, अपने बरसों के काम से अर्जित की है। अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए आजादी के बाद के सालों में इस विभाग ने बांध बनाने का जो सिलसिला प्रारंभ कर सिंचाई के रकबे में वृद्धि की है, उसी से इस विभाग की पहचान बनी है। नोडल विभाग की यह यात्रा अनवरत जारी है। सरकार और समाज में उसकी अपनी अलग पहचान है। देशव्यापी अस्तित्व है। आम आदमी के लिए यह मोटे तौर पर बांध बनाने वाला विभाग है। सिंचाई की आपूर्ति के लिए लोग उस पर निर्भर हैं।
पंडित नेहरू ने बांधों को भारत के नए तीर्थों का दर्जा दिया था। आजादी के बाद के दौर में सिंचाई बांधों का स्थान, सबसे ऊपर की नहीं तो कम से कम, प्राथमिकता की पायदान पर बहुत ऊपर अवश्य था। वह दौर आत्म बलिदान, त्याग और देश के लिए मर मिटने का दौर था। इस कारण विस्थापन और पुनर्वास से जुड़े बिंदु किसी हद तक देश के प्रति कर्तव्य बलिदान और देशक्ति की परिधि में आते थे।
मिट्टी के खराब होने या वाटरलागिंग की बात नहीं की जाती थी। सिंचाई के लिए अन्य विकल्पों की बात भी नहीं होती थी और सब लोग बांधों और बांध बनाने वाले विभाग के पक्ष में एकजुट होकर खड़े दिखते थे। सिंचाई विभाग के लिए यह गौरव की बात थी। इसे सिंचाई विभाग का सौभाग्य ही माना जाना चाहिए कि उसने और उसमें काम करने वाले अमले ने यह गौरव या सम्मान पाया। इसी कारण विभाग का खूब विस्तार हुआ और उसकी विभिन्न जरूरतों के लिए देश का बजट कभी बाधक नहीं बना।
अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता के लिए जब बांध एकमात्र मॉडल के रूप में देश के सामने पेश हुए तो अनेक लोगों ने उनका समर्थन किया और किसी हद तक सिंचाई विभाग के सोच और उसके विस्तार को आंख मूंदकर हरी झंडी दी। चूंकि देश के संविधान ने केन्द्र और राज्य के दायित्वों को मोटे तौर पर परिभाषित कर दिया था इसलिए दोनों ने अपने-अपने दायित्वों का यथासंभव पूरी तरह निर्वाह किया।
केन्द्र सरकार के स्तर पर सिंचाई विभाग ने दो देशों के बीच के मसलों का निपटारा अंतरराष्ट्रीय नियमों के अधीन करने का पुरजोर प्रयास किया। वहीं, देश के भीतर अंतरराष्ट्रीय मसलों का निपटारा संविधान की व्याख्या के अंतर्गत करने के प्रयास होते रहे। पर यह किसी हद तक सही कहा जा सकता है कि इन विवादों के निपटारे में विभाग की नीति, सोच या व्याख्या पूरी तरह कारगर नहीं हुई, हो भी नहीं सकती है क्योंकि संविधान लिखते समय या संबंधित पक्षों द्वारा पानी के उपयोग और आवंटन को तय करने वाली समयसिद्ध एवं स्वीकार्य नीति या परंपरागत प्रचलित तरीका जिसे सामाजिक एवं राजनीतिक मान्यता प्राप्त हो, नहीं अपनाया गया था।
आजादी के समय शायद इस दिशा में समुचित चिंतन नहीं हुआ था और समझ बनाने के लिए किसी भी पक्ष ने कारगर कदम नहीं उठाए थे। अलबत्ता, बाद के दौर में अनेक लोगों ने पानी के विवादों और उससे जुड़े असंतोष और विरोध को अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार तलवार और ढाल जरूर बनाया।
जाने-अंजाने में अन्न उत्पादन के लिए बांधों के निर्माण पर सर्वाधिक ध्यान देने के कारण संभवतः जल संसाधन विभाग की पूरी ताकत बांध बनाने या उसके पक्ष में काम करने पर केन्द्रित होती गई। विभाग का सारा सोच, सारा जद्दोजहद बांधों के इर्दगिर्द सिमट गया। क्षमता और काबिलियत आसमान छूने में जुट गई और सबसे आगे, सबसे विशाल या सबसे अनूठा करने की ललक ने विभाग की पहचान पानी की समग्र सोच वाले नोडल विभाग के स्थान पर बड़े, मंझोले और छोटे बांध बनाने वाले विभाग के रूप में होती गई।
इतर सुझावों या नणनीति में सुधार की संभावना की अनदेखी होने लगी। नहरों की मदद से खेतों को पानी देने वाली जलाशय आधारित वितरण प्रणाली की मदद से पानी से जुड़ी हर समस्या का हल, बांधों के निर्माण में खोजा जाने लगा तथा वे बहुउद्देशीय कहलाने लगे।
जाहिर है, इस प्रवृति ने एक ओर तो बांधों के साइड इफेक्ट्स की अनदेखी की तो दूसरी ओर बांध निर्माण से जुड़ी तकनीकों और बारीकियों पर ज्ञान की ऊंचाइयों को हासिल करने की ललक पैदा की। इस दौर में, बहुत हद तक जल स्वराज या सार्वभौमिक आत्मनिर्भरता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे परिदृश्य से गायब रहे या उन पर जरूरी बहस नहीं हुई।
विभाग भी काफी हद तक अनजान बना रहा और बहस बांध बनाने वाले तकनीकी प्रस्तावों तक सीमित रही।
इस अध्याय में, मुख्य रूप से पानी के नोडल विभाग की बात की जा रही है। इसलिए, जाहिर है, अपेक्षाएं कुछ अधिक होंगी। इन अपेक्षाओं के परिप्रेक्ष्य में विभाग के सर्वोच्च शिखर (मंत्रालय स्तर) से अपेक्षाएं यदि नीतिगत होती हैं तो विभाग से, तकनीकी मामलों के साथ-साथ समग्र सोच जो समस्त प्राणियों एवं वनस्पितयों के अस्तित्व, समाज की आकांक्षाओं, जीवनशैली, संस्कृति, भूगोल, परंपराओं, समानता, प्राकृतिक न्याय एवं पर्यावरण तथा प्रकृति से तालमेल इत्यादि को समाहित करने की होती है। इस अनुक्रम में यदि विभाग के वर्तमान ढांचे को देखा जाए तो उसमें सीधे-सीधे दो वर्ग नजर आते हैं। पहला वर्ग (केन्द्रीय जल आयोग) मुक्ष्य रूप से बांधों, तटबंधों और बाढ़ प्रबंध के अलावा सुरक्षा उपायों पर काम करता नजर आता है; तो दूसरा वर्ग (केन्द्रीय भूजल परिषद) जमीन के नीचे के पानी पर काम करता दिखता है।
दोनों ही वर्ग, राज्यों के साथ मिलकर काम करते हैं और यथासंभव अधिकतम मदद देते हैं। केन्द्रीय संगठन, संविधान द्वारा तय लक्ष्मण रेखा के कारण निर्माण कार्यों की जिम्मेदारी से दूर रहते हैं और राज्य सरकारें, निर्माण की जिम्मेदारी का निर्वाह करती हैं।
केन्द्रीय संगठन मूल रूप से उनकी तकनीकी कठिनाइयों को दूर करने और दिशा देने के काम करते हैं। वे, लगातार अध्ययन करते हैं, आंकड़े एकत्रित करते हैं, आंकड़ों की समीक्षा करते हैं और समाज को प्रभावित करने वाले प्रोग्राम तय करते हैं। इस मामले में केन्द्रीय जल आयोग का रिपोर्ट कार्ड बेहतर है।
उसने बांधों और उनसे जुड़ी तकनीकी समस्याओं को यथा संभव सुलझाने और नए-नए कामों को आगे लाने का काम बखूबी किया है। जहां तक केन्द्रीय भूजल परिषद का प्रश्न है तो उसने एक्सप्लोरेटरी ट्यूबवेल आर्गनाइजेशन से लेकर आज तक की अपनी यात्रा में मुख्य रूप से भूजल पैरामीटर ज्ञात करने, आंकड़े एकत्रित करने, उनकी समीक्षा करने और भूजल भंडारों की अनुमानित क्षमता जानने तक की भूमिका का निर्वाह किया है।
भूजल के क्षेत्र में देश में पनप रही पानी की मुख्य समस्याओं के निराकरण के लिए उसका योगदान और राज्यों को दिया जा रहा सहयोग, अपने सहयोगी संगठन, केन्द्रीय जल आयोग के बांध संबंधी सहयोग की तुलना में बीस नहीं रहा है।
यह उल्लेख केन्द्रीय भूजल परिषद के योगदान को कम दिखाने के लिए नहीं है वरन उस बात को रेखांकित करने के लिए है जो दुर्भाग्य से केन्द्रीय भूजल परिषद सहित अनेक राज्यों के गंभीर चिंतन का मुख्य बिंदु नहीं बना।
कई बार लेखक को लगता है कि जल संसाधन विभाग ने पानी को बांध बनाने की वस्तु और नदी को पानी पैदा करने वाली फैक्टरी ही माना है। लगता है इस सोच (कामना है, लेखक गलत सिद्ध हो) ने नदी और उसके पानी को सीमेंट, लोहे, पत्थर की तरह एक वस्तु से आगे नहीं माना, उसके अन्य पहलुओं के असर से बेखबर रहकर काम किया। लेखक को लगता है कि नोडल विभाग ने पानी से जुड़ी अनेक जिम्मेदारियों पर समुचित ध्यान नहीं दिया या अनदेखी की।
इस अनदेखी के कारण पानी के समस्त प्राणियों एवं वनस्पतियों तथा पर्यावरण के अस्तित्व से जुड़े अनेक सवाल अनुत्तरित रहे। स्थानीय भूगोल का उपयोग बांध और नहरों की जगह तय करने में तो बखूबी हुआ पर मिट्टी, पर्यावरण और भूजल स्तर इत्यादि से पानी के सह-संबंधों की अनदेखी ने वाटरलागिंग, मिट्टी के खारेपन एवं क्षारीयता और जल निकास जैसी अनेक समस्याओं को जन्म दिया।
विभाग ने उनके निराकरण पर अपेक्षित या असरकारी काम नहीं किया। मानवीय संवेदनाओं के स्थान पर अनेक बार टाप डाउन इंजीनियरिंग सोच हावी रहा और लगभग सभी सिंचाई परियोजना के कुप्रभाव से प्रभावित खेत एवं किसान बदहाल ही बने रहे।
पाठक सहमत होंगे कि भारत की जलवायु में चट्टानों की टूटन और सड़न, यूरोप और अमेरिका की ठंडी जलवायु में होने वाली टूटन और सड़न से पूरी तरह भिन्न है। इस अंतर के कारण देश के अधिकांश गर्म भागों में चट्टानों की टूटन और सड़ने से बहुत अधिक मात्रा में मलबा पैदा हेाता है।
बरसात के दिनों में यह मलबा बहकर नदियों को मिलता है और धीरे-धीरे आगे बढ़कर समुद्र में जमा हो जाता है। बांध बनाते समय इस मलबे के निपटान की अनदेखी ने बांधों की लंबी उपयोगी जिंदगी के लिए खतरा पैदा कर दिया है तथा हिमालयीन नदियों के तटबन्धों के साइढ इफेक्ट को त्रासद बनाया है और जहां कहीं उन पर बांध बना दिए हैं, उन बांधों को भविष्य के लिए घातक बनाया है।
लेखक को लगता है कि इस विषय पर नोडल विभाग सहित सरकार को और अधिक चिंतन करना चाहिए। कभी-कभी समाज की सुनना चाहिए। किसी भी देश का इतिहास सौ-दो-सौ साल का नहीं होता इसलिए बहुत बड़ी धनराशि खर्च कर बनाए बांध और सिंचाई सुविधाओं की कम उम्र चिंता का विषय है। लेखक को लगता है कि बांधों की उपयोगिता खत्म होने के बाद अन्न उत्पादन, सिंचित खेती और किसान की आजीविका का क्या होगा, इस पर विचार ही नहीं हो रहा है। ये सारी बातें नोडल विभाग के एजेंडे पर बहुत ऊंची पायदान पर होना चाहिए। उनके प्रभावों को कम करने और उनसे निपटने पर अधिकतम ध्यान दिया जाना चाहिए।
इस देश के अधिकांश भाग में लोग रहते हैं। पानी, उनकी मूलभूत आवश्यकता है। इसलिए नोडल विभाग से यह अपेक्षा करना अनुचित नहीं होगा कि वह पानी के संग्रह के उस मॉडल पर काम करे और कराए जिसमें सबको सब जगह जरूरत के लायक पानी मिल सके।
खेद है कि नोडल विभाग पानी के असमान वितरण के मॉडल पर काम कर रहा है जिसके कारण कमांड के बाहर के इलाकों में पीने के पानी तक का संकट लगातार बढ़ रहा है। नोडल विभाग के एजेंडे पर पेयजल की पूति नहीं होने के कारण मामला प्राथमिकता तय करने पर जाकर रुक गया है।
यह आश्चर्य जनक है कि नोडल विभाग ने पेयजल की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जरूरी पानी की मात्रा की गणना कर आज तक उसका आवंटन नहीं किया है।
सब जानते हैं कि बांध मॉडल की मदद से देश के अधिकतम लगभग 35 प्रतिशत इलाके की जमीन की ही सिंचाई की जा सकती है। दूसरे शब्दों में इस माडल की मदद से बचे 65 प्रतिशत इलाके की सिंचाई के लिए कुछ भी करना संभव नहीं है अर्थात इस मॉडल पर काम करने के कारण देश का 65 प्रतिशत इलाका, हमेशा के लिए असिंचित बना रहेगा।
आश्चर्यजनक है कि नोडल विभाग ने इस 65 प्रतिशत इलाके की सिंचाई या अन्य आवश्यकताओं की आपूर्ति की जिम्मेदारी नहीं ली है।
वाटरशेड अवधारणा जो सब जगह पानी की उपलब्धता को मान्यता देती है, नोडल विभाग की तकनीकी डिक्शनरी में गुमनामी झेल रही है। नोडल विभाग की बांध माडल नीति के कारण, कैचमेंट और कमांड में पानी का असमान वितरण, सरकारी मान्यता प्राप्त कर रहा है।
यह माडल कम आबादी वाले यूरोप और अमेरिका या आस्ट्रेलिया जैसे देशों के लिए भले ही फिलहाल उपयुक्त नजर आता हो पर भारत जैसी सघन आबादी, घटती जोत और मानसूनी जलवायु वाले देश के लिए कतई उपयुक्त नहीं है। लेखक को लगता है कि नोडल विभाग को इतने सीमित दायरे और इतनी सीमित तकनीकों पर काम नहीं करना चाहिए।
विभागीय आंकड़ों के अनुसार, पानी के मामले में भारत दुनिया का सबसे अमीर देश है इसलिए, लेखक की अपील है कि “जल एक सीमित संसाधन है” जैसे नकारात्मक वाक्य को जलनीति या सरकारी वक्तव्यों से तत्काल हटा देना चाहिए।
इस नकारात्मक ‘टिप्पणी को हटाने से समाज को सही संदेश जाएगा और उसकी आकांक्षाओं की पूर्ति संभव होगी। इस आपूर्ति में समाज की जीवनशैली, संस्कृति, परंपराओं, समानता, प्राकृतिक न्याय एवं पर्यावरणी अनिवार्यताओं इत्यादि को आधार मिलेगा।
जल संपदा और जल परंपरा से समृद्ध देश में पानी का नोडल विभाग, केवल बांध बनाने वाला या नदी जोड़ योजना पर काम करने वाला सीमित दृष्टिबोध वाला विभाग नहीं हो सकता। भारत की आबादी, उसकी विभिन्न जरूरतों और अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए जो समन्वित एवं समग्र दृष्टिबोध चाहिए वही नोडल विभाग का दृष्टिबोध होना चाहिए।
अब समय आ गया है जब देश और समाज को अपने सुरक्षित भविष्य की रक्षा के लिए नोडल विभाग का पुनर्गठन करना चाहिए, उसे प्रकृति से लड़ने के स्थान पर उससे जुगत बैठाकर काम करने वाला लचीला नया अजेंडा देना चाहिए।
उसकी दिशा और उसके सोच में आमूलचल परिवर्तन को लागू करने के लिए तत्काल कदम उठाना चाहिए। उपर्युक्त सोच और दिशा को अपनाकर ही वह नोडल विभाग के खिताब का हकदार बनेगा; पर्यावरण, समाज एवं समस्त जीवधारियों का भला करेगा।
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