गंगा केवल नदी नहीं है। यह भारत की संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसके बिना इस देश की कल्पना नहीं की जा सकती है।
नदियों को धरती की धमनियाँ कहा जाता है। जैसे शरीर की धमनियों से बहता रक्त जीवन के लिये जरूरी है, उसी तरह नदियों का बहना भी दुनिया के वजूद के लिये अहम है। धमनी अगर सूख जाये, तो वो अंग काम नहीं करता है। उसी तरह अगर नदी सूख जाये, तो उसके आसपास के इलाकों की सुख-समृद्धि थम जाती है।
इस लिहाज से देखें, तो कहा जा सकता है कि गंगा भारत की सबसे अहम धमनी है।
गंगा नदी के साथ तमाम पौराणिक कथाएँ नत्थी हैं जिसके चलते इसका धार्मिक महत्त्व भी बहुत है। गंगाजल पवित्रता का पर्याय माना जाता है। यहाँ का शायद ही कोई हिन्दू घर होगा, जिसके पूजा घर में गंगाजल न रखा हो। यह नदी करोड़ों लोगों की जीवनरेखा भी है।
गंगा नदी करीब 2525 किलोमीटर लम्बी है और उत्तराखण्ड में पश्चिमी हिमालय से निकलती है। उत्तराखण्ड से यह उत्तर भारत के मैदानी भूभाग से बहती हुई पश्चिम बंगाल में पहुँचती है।
पश्चिम बंगाल में यह नदी दो हिस्सों में बँट जाती है। एक हिस्सा बंगाल की खाड़ी में गिरती है और दूसरा हिस्सा भी बांग्लादेश से होती हुई बंगाल की खाड़ी में ही सागर में समा जाती है।
गौरतलब है कि भारत के दर्जनों शहर इस नदी के किनारे व आसपास बसे हुए हैं। इनमें ऋषिकेश, हरिद्वार, फार्रुखाबाद, कन्नौज, कानपुर, प्रयागराज, वाराणसी, बक्सर, पटना, भागलपुर, फरक्का, मुर्शिदाबाद, पलासी, नवद्वीप व कोलकाता प्रमुख हैं।
ऐतिहासिक और धार्मिक महत्त्व वाली यह नदी पिछले कई दशकों से अपने वजूद को बचाए रखने के लिये लड़ रही है। इन दशकों में केन्द्र में जो भी सरकारें आईं, उन्होंने अपने स्तर पर गंगा को प्रदूषण मुक्त और साफ रखने के लिये कई योजनाएँ लाईं। लेकिन, जमीनी स्तर पर उन योजनाओं का वही हश्र हुआ, जो नौकरशाही के मकड़जाल में फँसी अन्य योजनाओं का होता आया है।
इसका परिणाम ये हुआ कि गंगा दिनोंदिन प्रदूषण व गन्दगी के गर्त में धँसती चली गई। गंगा को साफ करने के लिये सबसे पहली योजना राजीव गाँधी के प्रधानमंत्री रहते शुरू की गई थी।
14 जनवरी 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने और इसके पानी को साफ बनाने के लिये गंगा एक्शन प्लान शुरू किया था। उस वक्त करोड़ों रुपए इस पर झोंके गए थे, लेकिन गंगा की सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ।
इसके बाद से लेकर अब तक कई योजनाएँ बनीं। वर्ष 2014 में भाजपा की सरकार बनने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नमामि गंगे योजना शुरू की।
लोकसभा चुनाव से पहले जब वह एक चुनावी सभा को सम्बोधित करने वाराणसी गए थे, तो उन्होंने कहा था कि गंगा माँ ने उन्हें बुलाया है।
जब उनकी सरकार बनी, तो यह उम्मीद जगी कि अब शायद गंगा को बचाने के लिये गम्भीर कोशिश की जाएगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी नमामि गंगे परियोजना शुरू की थी। इस योजना के साढ़े चार गुजर चुके हैं, लेकिन गंगा का मैल नहीं धुला।
अभी हाल ही में सरकार की तरफ से किये गए मूल्यांकन में भी गंगा नदी की जो छवि सामने आई है, वह चिन्ताजनक है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि कम-से-कम 66 ऐसे शहर हैं, जिनके नाले या ड्रेन सीधे गंगा नदी में खुलते हैं। यानी कि इन नालों से शहरों का गन्दा पानी सीधे गंगा में प्रवाहित हो रहा है। वहीं, इन नालों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की गई है, जो कूड़ा-करकट को गंगा में पहुँचने से रोक सके। यानी गन्दे पानी के साथ ही कूड़ा भी गंगा तक पहुँच रहा है।
गंगा नदी उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल से होकर गुजरती है।
गंगा किनारे सबसे ज्यादा शहर पश्चिम बंगाल के हैं। यहाँ के करीब-करीब 40 छोटे-बड़े शहर गंगा के किनारे बसे हुए हैं। वहीं, उत्तर प्रदेश के 21, बिहार के 18, छत्तीसगढ़ के 16 और झारखण्ड के दो शहर गंगा के किनारे बसे हुए हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, गंगा के किनारे बसे महज 19 शहरों में ही शहर के भीतर म्युनिसिपल वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट स्थित थे। जबकि 72 शहरों में लम्बे समय से घाट के आसपास डम्प साइट बने हुए मिले।
शहरी विकास मंत्रालय की ओर से क्वालिटी काउंसिल ऑफ इण्डिया द्वारा यह मूल्यांकन कराया गया है। बताया जाता है कि पिछले साल यानी वर्ष 2018 के नवम्बर-दिसम्बर में मूल्यांकन किया गया और इसमें छह हफ्ते लग गए।
क्वालिटी काउंसिल ऑफ इण्डिया के मुताबिक, गंगा के किनारे व आसपास बसे 92 शहरों को सर्वेक्षण किया गया। इनमें से 72 शहर ऐसे मिले, जिनका कूड़ा गंगा किनारे फेंका जाता है। केवल 19 ऐसे टाउन मिले, जहाँ ठोस कचरों के प्रबन्धन के लिये प्लांट मौजूद हैं।
राज्यवार बात करें, तो रिपोर्ट में पता चला है कि पश्चिम बंगाल में 40 नाले गंगा नदी में गिरते हैं। वहीं, बिहार में 18 नाले गंगा नदी में जाते हैं। उत्तर प्रदेश में 21 जबकि उत्तराखण्ड में 16 नाले गंगा नदी गिरते हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक, गंगा के किनारे व आसपास स्थित 97 शहरों में से 92 शहरों का सर्वेक्षण किया गया। बाकी पाँच शहरों के घाट गंगा किनारे नहीं थे और दो शहरों का सर्वेक्षण खराब मौसम के कारण नहीं किया जा सका।
गंगा नदी में प्रदूषण की गम्भीर स्थिति का सबूत देने वाला यह कोई पहला सर्वेक्षण नहीं है। इससे पहले भी कई रिपोर्टों में यही बातें सामने आ चुकी हैं।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि वर्ष 2017 में गंगा नदी में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड की मात्रा काफी बढ़ गई थी। यहीं नहीं, रिपोर्ट में यह भी पता चला था कि गंगा में डिजॉल्व्ड ऑक्सीजन की मात्रा भी घट रही है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की जाँच में यह भी पता चला था कि 80 में से कम-से-कम 36 जगहों पर गंगा में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड प्रति लीटर 3 मिलीग्राम से ज्यादा था। वर्ष 2013 में महज 31 जगहों पर तीन मिलीग्राम से अधिक बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड पाया गया था।
शहरों की बात की जाये, तो रुद्रप्रयाग, बुलंदशहर, अलीगढ़, प्रयागराज (इलाहाबाद), गाजीपुर, वाराणसी, डायमंड हार्बर आदि में गंगा में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड की मात्रा में इजाफा हुआ है।
आरटीआई के तहत मिली जानकारी के मुताबिक, वर्ष 2014 से जून 2018 तक गंगा की सफाई के लिये 5523 करोड़ रुपए जारी किये गए थे। इनमें से 3867 करोड़ रुपए खर्च कर दिये गए, लेकिन साफ होने की बजाय गंगा गंदी ही होती चली गई।
उल्लेखनीय है कि नमामि गंगे परियोजना केन्द्र सरकार ने 2015 में ही शुरू की थी। इसके तहत सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाकर गंगा में गिरने वाले गन्दे पानी को ट्रीट करने, गंगा में पसरी गन्दगी को हटाने और कल-कारखानों से निकलने वाले गन्दगी को ट्रीट करने आदि की योजना थी।
नमामि गंगे प्रोजेक्ट के अन्तर्गत अब तक 220 से ज्यादा प्रोजेक्ट को मंजूरी मिल चुकी है। बताया जाता है कि इनमें से 105 प्रोजेक्ट सीवेज ट्रीटमेंट से जुड़े हुए थे। इनमें से महज 67 प्रोजेक्ट ही पूरे हो सके।
एक शोध पत्र में कहा गया है कि गंगा में मौजूद तत्वों के विश्लेषण से पता चलता है कि गंगा नदी के पानी की गुणवत्ता दिनोंदिन गिरती जा रही है और इसके ऊपरी हिस्से में बहुत जगहों का पानी घर में इस्तेमाल करने लायक भी नहीं है।
हालांकि, इस रिपोर्ट में गंगा तटीय क्षेत्रों में खेत में कीटनाशक व अन्य रासायनिक तत्वों के इस्तेमाल पर रोक व जागरुकता के कारण कुछ फायदा हुआ है। शोध में पता चला है कि गंगा के पानी में कीटनाशक व अन्य रासायनिक तत्वों में गिरावट आई है, लेकिन जहरीले तत्वों में बढ़ोत्तरी हुई है। इन जहरीले तत्वों से कैंसर का खतरा हो सकता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि ये जहरीले तत्व जानलेवा हो सकते हैं क्योंकि गंगा नदी करोड़ लोगों की जीवनरेखा है। वहीं, गंगा नदी के जहरीले तत्व मछलियों तक भी पहुँच रहे हैं और उन मछलियों का सेवन लाखों लोग करते हैं।
गंगा नदी को बचाने के लिये सरकार की तरफ से जो प्रयास किये गए हैं, वो तो जगजाहिर हैं। लेकिन, गंगा नदी को बचाने के लिये अब तक कई सन्तों ने अपनी जान जरूर दे दी है। इन्हीं में एक जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद भी थे। स्वामी सानन्द ने केन्द्र सरकार से कई बार गुजारिश की थी कि गंगा को साफ रखने के लिये ठोस कदम उठाएँ, लेकिन उनकी यह गुजारिश नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई।
उन्होंने केन्द्र सरकार को कम-से-कम तीन बार कड़े लहजे में खत लिखकर गंगा को बचाने के लिये गुहार लगाई थी। इन खतों को पढ़ते हुए पता चलता है कि गंगा को बचाने के लिये वह किस तरह की मानसिक बेचैनी का सामना कर रहे थे।
लेकिन, केन्द्र सरकार ने एक भी खत का माकूल जवाब देना मुनासिब नहीं समझा। उनके सारे खत लेटर बॉक्स या दफ्तर की धूल फाँकते रह गए।
बताया जाता है कि पहला खत उन्होंने 28 फरवरी 2018 को लिखा था जिसमें प्रधानमंत्री को 2014 में उनके द्वारा किये गए वादों को याद दिलाई गई थी।
उक्त पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव तक तो तुम (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) भी स्वयं मां गंगाजी के समझदार, लाडले और माँ के प्रति समर्पित बेटा होने की बात करते थे। पर वह चुनाव माँ के आशीर्वाद से जीतकर अब तो तुम माँ के कुछ लालची, विलासिता-प्रिय बेटे-बेटियों के समूह में फँस गए हो।’
उनके खतों के मजमून बताते हैं कि गंगा नदी को लेकर भाजपा नीत केन्द्र सरकार के रवैए से नाराज थे और इसलिये उन्होंने अपने खतों के जरिए वर्ष 2014 के वादों की याद बार-बार दिलाने की कोशिश की थी।
आखिरी खत उन्होंने पाँच अगस्त 2018 को लिखा था। इस पत्र में उन्होंने अपनी चार माँगें केन्द्र सरकार के समक्ष रखी थीं। इनमें गंगा को बचाने के लिये गंगा-महासभा द्वारा प्रस्तावित अधिनियम ड्राफ्ट 2012 को संसद में पेश कराकर इस पर चर्चा कर कानून बनाने की माँग की गई थी। यह माँग पूरी नहीं होने की सूरत में उन्होंने उक्त ड्राफ्ट की धारा 1 से धारा 9 तक को लागू करने की माँग शामिल थी।
उनके इन तीनों खतों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। इस बीच वह अपनी माँगों को लेकर अनशन पर थे। लम्बे समय तक अनशन और अन्न-जल त्याग देने के कारण पिछले साल अक्टूबर में उनका निधन हो गया। उनके निधन के इतने वक्त गुजरने के बाद भी सरकार की तरफ से कोई ठोस प्रयास होता नहीं दिख रहा है।
नदियों पर काम करने वाले मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित व नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथॉरिटी के पूर्व सदस्य राजेंद्र सिंह इन दिनों गंगा सद्भावना यात्रा पर हैं। अपनी कोलकाता यात्रा के दौरान उन्होंने गंगा की दुर्दशा को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार की जमकर आलोचना की। उन्होंने कहा कि पिछले साढ़े चार वर्षों में केन्द्र सरकार ने गंगा के लिये कुछ नहीं किया।
उन्होंने द टेलीग्राफ के साथ बातचीत में कहा, ‘प्रधानमंत्री बनने से पहले मोदी ने कहा था कि वह गंगा के पुत्र हैं। उन्होंने गंगा को पुनर्जीवन देने के लिये कई वादे किये थे और कहा था कि सरकार में आने के तीन महीने के भीतर वे सारी समस्याएँ दूर कर देंगे। हम सब उम्मीदवार थे, लेकिन उन्होंने पिछले साढ़े चार वर्षों में उन्होंने गंगा के लिये कुछ भी नहीं किया।’
उन्होंने आगे कहा कि उन्होंने गंगा के नाम पर एक मंत्रालय दिया और करोड़ों रुपए जो अधिक भ्रष्टाचार का कारण बना। इस फंड का इस्तेमाल गंगा की भलाई के लिये शायद ही किया गया हो।
यहाँ सोचने वाली बात ये है कि पिछले चार दशकों से लगातार गंगा नदी की हालत पर चिन्ता जताई जा रही है, लेकिन अब तक गंगा की हालत में अपेक्षित सुधार नहीं हो सका है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर चूक कहाँ हो रही है?
विशेषज्ञों का कहना है कि गंगा को बचाने के लिये इच्छाशक्ति की कमी है और इसी वजह से नदी की ये हालत है। अगर सरकार ठान ले कि गंगा को निर्मल, अविरल बना देना है, तो वह कर सकती है।
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