यूनियन के सदस्यों ने भारी तादाद में पेड़ लगाए हैं, जो अब जंगल का रूप ले चुका है तथा इसे ‘अपना जंगल’ कहकर मजदूर गौरव का अनुभव करते हैं। सरकारी सामाजिक वानिकी में व्यापारिक दृष्टिकोण रहता है तथा एक जैसे पेड़ लगाए जाते हैं, लेकिन नियोगी का विचार इस संबंध में बहुत स्पष्ट था तथा उन्होंने यूक्लेप्टिस अथवा पाइन के बजाए बांस, सलूफी, महुआ, आम, जामुन, फरहर, शीशम, सेर, सागौन, नीम, करी, नीबू, रूख और अरहर के पेड़ लगवाए। मध्य प्रदेश में घटी दो घटनाओं का जिक्र करना जरूरी है। इन घटनाओं का संबंध बहुत व्यापक है। इनसे देश के कुछ बुनियादी मुद्दे जुड़े हैं। इन घटनाओं के बीच घटा अंतराल तो दो वर्षों का है, लेकिन दोनों ही घटनाएं एक ही दिन घटी है।
तारीख का मिलन तो एक संयोग ही होता है, लेकिन यदि घटनाओं का रिश्ता नजदीकी है तो तारीखों का संयोग मात्र संयोग न होकर महत्वपूर्ण हो जाता है।
करीब तीन वर्ष पूर्व 28 सितंबर 1989 को म.प्र. के खंडवा जिले में स्थित हरसूद कस्बे में जो नर्मदा सागर परियोजना में पूरा का पूरा डूब रहा है, एक बड़ी रैली हुई थी।
कम-से-कम 60 हजार लोग जिनमें अधिकांशतः आदिवासी उपस्थित हुए थे। कर्नाटक के साहित्यकार शिवराम कारंत, मेधा पाटकर और बाबा आमटे से लेकर सिने तारिका शबाना आजमी, राजनेता मेनका गांधी व विद्याचरण शुक्ल उपस्थित थे। विशेष बात यह है कि करीब 150 स्वयंसेवी तथा संघर्षशील संगठनों के सैकड़ों युवक और युवतियां इस रैली में हिस्सेदारी कर रहे थे। घाटी के लोगों का तो जैसे सैलाब उमड़ पड़ा था।
केवल आमसभा में ही नहीं, चाहे मशाल जुलूस हो अथवा रैली में शरीक होने वाली टोलियां हो, यानि सभा के बाद निकला नाचता गाता विशाल जुलूस हो, सभी एक स्वर से यही कह रहे थे कि हमें ‘विनाश नहीं विकास चाहिए।’ घाटी में पहली बार इतनी बड़ी ताकत से यह स्वर गूंजा था कि नर्मदा घाटी की लड़ाई केवल एक या दो बांध की लड़ाई नहीं है।
यह लड़ाई उस सभ्यता को बदलने की लड़ाई है, जो क्रूरता, अन्याय, हिंसा, अंधी और भोगविलास पर टिकी हुई है। कलागुरू विष्णु चिंचालकर के नेतृत्व में हरसूद में बना स्मारक भी यह आवाज उठा रहा है।
उपरोक्त घटना घटी पश्चिमी, मध्य प्रदेश में और दूसरी घटना घटी इसी प्रदेश के पूर्वी-दक्षिणी इलाके में। पिछली दो शताब्दियों से यहां मजदूरों का एक नए किस्म का अद्वितीय आंदोलन चल रहा है, जिसमें किसान तथा आदिवासी भी जुड़ गए हैं। मजदूरों के नेतृत्व में चल रहा यह आंदोलन अन्य ट्रेड यूनियनों की तरह केवल आर्थिक मांगों तक सीमित नहीं है।
यह भी वर्तमान सभ्यता और व्यवस्था को बदल डालने का आंदोलन है। ऊपर लिखी गई पंक्तियों में जिस ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का जिक्र है, उससे स्थापित व्यवस्था अपने को बहुत अधिक असुरक्षित महसूस नहीं कर रही थी।
विदेशी एजेंसियों की मदद एवं अपार धनराशियों की प्राप्ति की आशाएं उन्हें आश्वस्त करती रही हैं कि वे धन-बल और प्रचार के बल पर आंदोलन को तोड़ सकेंगे, लेकिन छत्तीसगढ़ में चल रहे ‘छत्तीसगढ़-मुक्ति मोर्चे’ की लड़ाई तुलनात्मक रूप से छोटे पूंजीपतियों और छोटे ठेकेदारों के हितों पर चोट कर रही थी। जिनके हाथ लंबे नहीं उनकी रणनीति में सब्र और चतुराई की भी कमी रहती है।
श्री शंकर गुहा नियोगी की हत्या कर दी गई। 28 सितंबर को ही यह हत्या हुई थी, जो कि अब नर्मदा घाटी मे भी परिस्थितियां बदल रही हैं। स्वतंत्र समीक्षा दल (मोर्स कमेटी) की इस दो टूक सिफारिश के बाद कि विश्व बैंक को सरदार-सरोवर से अपने हाथ खींच लेना चाहिए, परियोजना की विश्वसनीयता को एक बड़ा धक्का लगा है।
विदेशी मुद्दें झमेले में पड़ गई है। हुकूमतें तो अंधी होती है, कौन कह सकता है कि जो खेल छत्तीसगढ़ में खेला गया है यह नर्मदा घाटी में नहीं खेला जाएगा।
नियोगी की हत्या और उसके बाद 1 जुलाई को हुए नृशंस गोली कांड की देशभर में प्रतिक्रिया हुई है। ट्रेड यूनियनों और राजनैतिक दलों ने भी इस कांड की निंदा की है। 28 सितंबर 89 को जो समूह हरसूद में इकट्ठा हुए, उन्होंने आपसी मेलजोल बढ़ाने, संवाद स्थापित करने तथा एक जैसे कार्यक्रमों पर मिलीजुली कार्रवाईयां करने के लिए ‘जन-विकास आंदोलन’ का निर्माण किया था।
गत 29-30 जुलाई को इसकी एक बैठक बंबई में हुई थी, जिसमें अनेक समूह शामिल हुए थे, जिन्होंने वहां पर तय किया था कि 22 से 28 सितंबर तक नियोगी सप्ताह मनाया जाएगा तथा इसके माध्यम से नियोगी के विचार ‘छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा’ (छमुमो) के संघर्ष और बलिदान तथा राज्य की दमन नीति के संबंध में जानकारियां फैलाई जाएंगी।
हिंदी इलाकों से कहीं अधिक तादाद में यह सप्ताह गैर-हिंदी इलाकों में मनाया जाएगा, ऐसा पता चला है बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु के अनेक समूहों द्वारा यह सप्ताह मनाए जा रहे हैं।
म.प्र. में ‘छमुमो, ‘एकता परिषद’, ‘खेडूत मजदूर चेतना संगठन’, ‘आदिवासी किसान संगठन’ एवं ‘समता संगठन’ मिलकर करीब-करीब सभी जिलों के कुछ स्थानों पर यह सप्ताह मनाने जा रहे हैं।
नियोगी केवल एक सफल ट्रेड यूनियन नेता मात्र नहीं थे, उनमें इस बात की भी ललक थी कि वे सड़ रही सभ्यता को जड़ से बदल डालें। यही कारण था कि उनके निर्देशन में चले ट्रेड यूनियनों और संगठनों ने शराब के खिलाफ भी जेहाद छेड़ा, शहीद भगत सिंह अस्पताल भी खोला, स्कूल भी खोला और सहकारी संस्थाएं भी बनाई, महिलाओं की मुक्ति का आंदोलन भी चलाया और मजदूर किसानों को एक मंच पर लाए।
श्री नियोगी ने कार्यकर्ताओं को विचार और रणनीति का प्रशिक्षण भी दिया। यही कारण था कि जब पिछले 28 सितंबर को नियोगी की हत्याकांड से विचलित और हतप्रभ डेढ़ लाख लोग श्रद्धांजलि के लिए एकत्रित हुए थे, तो किसी ने एक कंकरी भी फेंककर अपने गुस्से का इजहार नहीं किया था।
ऐसी अनुशासित फौज पर जब हिंसा का आरोप लगाया जाता है तब मेरे जैसे अनेक लोगों की मान्यता पुष्ट होती है कि नक्सलवादी तो इस देश की हिंसा की ओर धकेलने में कामयाब नहीं होंगे, लेकिन सरकार जरूर अपने कारनामों से देश में हिंसा फैला देगी।
जाने पहिचाने ट्रेड यूनियन के नेताओं में शायद शंकर गुहा नियोगी एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिन्होंने अपने कार्यक्रमों में पर्यावरण को बचाने के कदम भी शामिल किए। आज से करीब सात वर्ष पूर्व नियोगी के नेतृत्व में ‘अपने जंगल को पहिचानो’ नामक कार्यक्रम चालू किया गया था।
जैसे हम अपने परिचित की दुर्घटना से दुःखी हो जाते हैं, उसी तरह हम पेड़ के कट जाने पर भी दुःखी होंगे, यदि हमारा उन पेड़ों से रिश्ता क्या है, यह हम समझ लें। यूनियन के सदस्यों ने भारी तादाद में पेड़ लगाए हैं, जो अब जंगल का रूप ले चुका है तथा इसे ‘अपना जंगल’ कहकर मजदूर गौरव का अनुभव करते हैं। सरकारी सामाजिक वानिकी में व्यापारिक दृष्टिकोण रहता है तथा एक जैसे पेड़ लगाए जाते हैं, लेकिन नियोगी का विचार इस संबंध में बहुत स्पष्ट था तथा उन्होंने यूक्लेप्टिस अथवा पाइन के बजाए बांस, सलूफी, महुआ, आम, जामुन, फरहर, शीशम, सेर, सागौन, नीम, करी, नीबू, रूख और अरहर के पेड़ लगवाए।
नर्मदा घाटी का आंदोलन इंदौर संभाग में भी चल रहा है। इंदौर बड़ा जागृत शहर समझा जाता है, लेकिन इंदौर के ट्रेड यूनियन नेताओं को कभी मैंने इस आंदोलन में हिस्सेदारी करते हुए नहीं देखा। लेकिन सुदूर इलाके से शंकर गुहा नियोगी और उनके इलाके के सैकड़ों मजदूर किसान और महिलाएं नर्मदा घाटी में आते रहे हैं।
इसका कारण यह है कि नियोगी की समझ बहुत व्यापक थी। नियोगी के द्वारा चलाए गए काम सचमुच इस वाक्य के साक्षी हैं, नियोगी व्यक्ति नहीं धारा है, जो छत्तीसगढ़ की गली-गली में आपको दीवालों पर लिखा हुआ मिलेगा।
28 सितंबर को हरसूद में जो बिगुल बजा था उसी से मिलते-जुलते संदेश को लेकर छमुमो का आंदोलन चल रहा है। ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ और भिलाई तथा उसके आसपास के क्षेत्रों में छमुमो के नेतृत्व में चल रहा आंदोलन मुख्य रूप से उस वर्ग का आंदोलन है, जो वर्तमान मशीनी विनाश की प्रक्रिया में उजाड़े और फेंके जा रहे हैं।
इस तरह के आंदोलन केवल म.प्र. में ही नहीं, संपूर्ण देश में फैल रहे हैं। हरसूद के संकल्प मेले के ठीक दो वर्ष बाद 28 सितंबर को ही नियोगी की शहादत केवल छत्तीसगढ़ के मजदूर-किसानों के लिए ही नहीं थी, नियोगी विकास की एक वैकल्पिक व्यवस्था के लिए लड़ रहे थे और उनकी शहादत उस विचार के लिए थी, जिस विचार को लेकर आज न केवल इस देश में, बल्कि पूरे विश्व में लड़ाइयां चल रही हैं।
खोने के लिए जिसके पास कुछ नहीं है, वह यदि सर्वहारा है (प्रोलेटेरिएट) तो शायद पहली बार दुनिया के सर्वहारा एक होते दिखाई दे रहे हैं। छत्तीसगढ़ के मजदूरों की शहादत इसमें बेमिसाल है।
तारीख का मिलन तो एक संयोग ही होता है, लेकिन यदि घटनाओं का रिश्ता नजदीकी है तो तारीखों का संयोग मात्र संयोग न होकर महत्वपूर्ण हो जाता है।
करीब तीन वर्ष पूर्व 28 सितंबर 1989 को म.प्र. के खंडवा जिले में स्थित हरसूद कस्बे में जो नर्मदा सागर परियोजना में पूरा का पूरा डूब रहा है, एक बड़ी रैली हुई थी।
कम-से-कम 60 हजार लोग जिनमें अधिकांशतः आदिवासी उपस्थित हुए थे। कर्नाटक के साहित्यकार शिवराम कारंत, मेधा पाटकर और बाबा आमटे से लेकर सिने तारिका शबाना आजमी, राजनेता मेनका गांधी व विद्याचरण शुक्ल उपस्थित थे। विशेष बात यह है कि करीब 150 स्वयंसेवी तथा संघर्षशील संगठनों के सैकड़ों युवक और युवतियां इस रैली में हिस्सेदारी कर रहे थे। घाटी के लोगों का तो जैसे सैलाब उमड़ पड़ा था।
केवल आमसभा में ही नहीं, चाहे मशाल जुलूस हो अथवा रैली में शरीक होने वाली टोलियां हो, यानि सभा के बाद निकला नाचता गाता विशाल जुलूस हो, सभी एक स्वर से यही कह रहे थे कि हमें ‘विनाश नहीं विकास चाहिए।’ घाटी में पहली बार इतनी बड़ी ताकत से यह स्वर गूंजा था कि नर्मदा घाटी की लड़ाई केवल एक या दो बांध की लड़ाई नहीं है।
यह लड़ाई उस सभ्यता को बदलने की लड़ाई है, जो क्रूरता, अन्याय, हिंसा, अंधी और भोगविलास पर टिकी हुई है। कलागुरू विष्णु चिंचालकर के नेतृत्व में हरसूद में बना स्मारक भी यह आवाज उठा रहा है।
उपरोक्त घटना घटी पश्चिमी, मध्य प्रदेश में और दूसरी घटना घटी इसी प्रदेश के पूर्वी-दक्षिणी इलाके में। पिछली दो शताब्दियों से यहां मजदूरों का एक नए किस्म का अद्वितीय आंदोलन चल रहा है, जिसमें किसान तथा आदिवासी भी जुड़ गए हैं। मजदूरों के नेतृत्व में चल रहा यह आंदोलन अन्य ट्रेड यूनियनों की तरह केवल आर्थिक मांगों तक सीमित नहीं है।
यह भी वर्तमान सभ्यता और व्यवस्था को बदल डालने का आंदोलन है। ऊपर लिखी गई पंक्तियों में जिस ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का जिक्र है, उससे स्थापित व्यवस्था अपने को बहुत अधिक असुरक्षित महसूस नहीं कर रही थी।
विदेशी एजेंसियों की मदद एवं अपार धनराशियों की प्राप्ति की आशाएं उन्हें आश्वस्त करती रही हैं कि वे धन-बल और प्रचार के बल पर आंदोलन को तोड़ सकेंगे, लेकिन छत्तीसगढ़ में चल रहे ‘छत्तीसगढ़-मुक्ति मोर्चे’ की लड़ाई तुलनात्मक रूप से छोटे पूंजीपतियों और छोटे ठेकेदारों के हितों पर चोट कर रही थी। जिनके हाथ लंबे नहीं उनकी रणनीति में सब्र और चतुराई की भी कमी रहती है।
श्री शंकर गुहा नियोगी की हत्या कर दी गई। 28 सितंबर को ही यह हत्या हुई थी, जो कि अब नर्मदा घाटी मे भी परिस्थितियां बदल रही हैं। स्वतंत्र समीक्षा दल (मोर्स कमेटी) की इस दो टूक सिफारिश के बाद कि विश्व बैंक को सरदार-सरोवर से अपने हाथ खींच लेना चाहिए, परियोजना की विश्वसनीयता को एक बड़ा धक्का लगा है।
विदेशी मुद्दें झमेले में पड़ गई है। हुकूमतें तो अंधी होती है, कौन कह सकता है कि जो खेल छत्तीसगढ़ में खेला गया है यह नर्मदा घाटी में नहीं खेला जाएगा।
नियोगी की हत्या और उसके बाद 1 जुलाई को हुए नृशंस गोली कांड की देशभर में प्रतिक्रिया हुई है। ट्रेड यूनियनों और राजनैतिक दलों ने भी इस कांड की निंदा की है। 28 सितंबर 89 को जो समूह हरसूद में इकट्ठा हुए, उन्होंने आपसी मेलजोल बढ़ाने, संवाद स्थापित करने तथा एक जैसे कार्यक्रमों पर मिलीजुली कार्रवाईयां करने के लिए ‘जन-विकास आंदोलन’ का निर्माण किया था।
गत 29-30 जुलाई को इसकी एक बैठक बंबई में हुई थी, जिसमें अनेक समूह शामिल हुए थे, जिन्होंने वहां पर तय किया था कि 22 से 28 सितंबर तक नियोगी सप्ताह मनाया जाएगा तथा इसके माध्यम से नियोगी के विचार ‘छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा’ (छमुमो) के संघर्ष और बलिदान तथा राज्य की दमन नीति के संबंध में जानकारियां फैलाई जाएंगी।
हिंदी इलाकों से कहीं अधिक तादाद में यह सप्ताह गैर-हिंदी इलाकों में मनाया जाएगा, ऐसा पता चला है बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु के अनेक समूहों द्वारा यह सप्ताह मनाए जा रहे हैं।
म.प्र. में ‘छमुमो, ‘एकता परिषद’, ‘खेडूत मजदूर चेतना संगठन’, ‘आदिवासी किसान संगठन’ एवं ‘समता संगठन’ मिलकर करीब-करीब सभी जिलों के कुछ स्थानों पर यह सप्ताह मनाने जा रहे हैं।
नियोगी केवल एक सफल ट्रेड यूनियन नेता मात्र नहीं थे, उनमें इस बात की भी ललक थी कि वे सड़ रही सभ्यता को जड़ से बदल डालें। यही कारण था कि उनके निर्देशन में चले ट्रेड यूनियनों और संगठनों ने शराब के खिलाफ भी जेहाद छेड़ा, शहीद भगत सिंह अस्पताल भी खोला, स्कूल भी खोला और सहकारी संस्थाएं भी बनाई, महिलाओं की मुक्ति का आंदोलन भी चलाया और मजदूर किसानों को एक मंच पर लाए।
श्री नियोगी ने कार्यकर्ताओं को विचार और रणनीति का प्रशिक्षण भी दिया। यही कारण था कि जब पिछले 28 सितंबर को नियोगी की हत्याकांड से विचलित और हतप्रभ डेढ़ लाख लोग श्रद्धांजलि के लिए एकत्रित हुए थे, तो किसी ने एक कंकरी भी फेंककर अपने गुस्से का इजहार नहीं किया था।
ऐसी अनुशासित फौज पर जब हिंसा का आरोप लगाया जाता है तब मेरे जैसे अनेक लोगों की मान्यता पुष्ट होती है कि नक्सलवादी तो इस देश की हिंसा की ओर धकेलने में कामयाब नहीं होंगे, लेकिन सरकार जरूर अपने कारनामों से देश में हिंसा फैला देगी।
जाने पहिचाने ट्रेड यूनियन के नेताओं में शायद शंकर गुहा नियोगी एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिन्होंने अपने कार्यक्रमों में पर्यावरण को बचाने के कदम भी शामिल किए। आज से करीब सात वर्ष पूर्व नियोगी के नेतृत्व में ‘अपने जंगल को पहिचानो’ नामक कार्यक्रम चालू किया गया था।
जैसे हम अपने परिचित की दुर्घटना से दुःखी हो जाते हैं, उसी तरह हम पेड़ के कट जाने पर भी दुःखी होंगे, यदि हमारा उन पेड़ों से रिश्ता क्या है, यह हम समझ लें। यूनियन के सदस्यों ने भारी तादाद में पेड़ लगाए हैं, जो अब जंगल का रूप ले चुका है तथा इसे ‘अपना जंगल’ कहकर मजदूर गौरव का अनुभव करते हैं। सरकारी सामाजिक वानिकी में व्यापारिक दृष्टिकोण रहता है तथा एक जैसे पेड़ लगाए जाते हैं, लेकिन नियोगी का विचार इस संबंध में बहुत स्पष्ट था तथा उन्होंने यूक्लेप्टिस अथवा पाइन के बजाए बांस, सलूफी, महुआ, आम, जामुन, फरहर, शीशम, सेर, सागौन, नीम, करी, नीबू, रूख और अरहर के पेड़ लगवाए।
नर्मदा घाटी का आंदोलन इंदौर संभाग में भी चल रहा है। इंदौर बड़ा जागृत शहर समझा जाता है, लेकिन इंदौर के ट्रेड यूनियन नेताओं को कभी मैंने इस आंदोलन में हिस्सेदारी करते हुए नहीं देखा। लेकिन सुदूर इलाके से शंकर गुहा नियोगी और उनके इलाके के सैकड़ों मजदूर किसान और महिलाएं नर्मदा घाटी में आते रहे हैं।
इसका कारण यह है कि नियोगी की समझ बहुत व्यापक थी। नियोगी के द्वारा चलाए गए काम सचमुच इस वाक्य के साक्षी हैं, नियोगी व्यक्ति नहीं धारा है, जो छत्तीसगढ़ की गली-गली में आपको दीवालों पर लिखा हुआ मिलेगा।
28 सितंबर को हरसूद में जो बिगुल बजा था उसी से मिलते-जुलते संदेश को लेकर छमुमो का आंदोलन चल रहा है। ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ और भिलाई तथा उसके आसपास के क्षेत्रों में छमुमो के नेतृत्व में चल रहा आंदोलन मुख्य रूप से उस वर्ग का आंदोलन है, जो वर्तमान मशीनी विनाश की प्रक्रिया में उजाड़े और फेंके जा रहे हैं।
इस तरह के आंदोलन केवल म.प्र. में ही नहीं, संपूर्ण देश में फैल रहे हैं। हरसूद के संकल्प मेले के ठीक दो वर्ष बाद 28 सितंबर को ही नियोगी की शहादत केवल छत्तीसगढ़ के मजदूर-किसानों के लिए ही नहीं थी, नियोगी विकास की एक वैकल्पिक व्यवस्था के लिए लड़ रहे थे और उनकी शहादत उस विचार के लिए थी, जिस विचार को लेकर आज न केवल इस देश में, बल्कि पूरे विश्व में लड़ाइयां चल रही हैं।
खोने के लिए जिसके पास कुछ नहीं है, वह यदि सर्वहारा है (प्रोलेटेरिएट) तो शायद पहली बार दुनिया के सर्वहारा एक होते दिखाई दे रहे हैं। छत्तीसगढ़ के मजदूरों की शहादत इसमें बेमिसाल है।
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