नीतीश आपको रोना ही चाहिए


जो कुछ नहीं कर सकते वे रोते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर गंगा के तलछट प्रबन्धन पर ध्यान (धन) देने की माँग की, वे प्रधानमंत्री से बोले कि गंगा की हालात पर रोने का मन करता है। नीतीश जैसे संवेदनशील मुख्यमंत्री की आँखों में गंगा के लिये पानी हो तो इसे अच्छा संकेत माना जाना चाहिए लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। उनका गंगा उवाच राजनीति से ज्यादा कुछ नहीं है।

डिसिल्टिंग यानी तलछट की समस्या आज की नहीं दशकों पुरानी है और फरक्का डैम इसका एक बड़ा कारण है। इतने सालों में बिहार ने गंगा सहित किसी भी नदी में डिसिल्टिंग की कोशिश नहीं की, वे अच्छी तरह जानते हैं कि डिसिल्टिंग एक महंगा सौदा है, अविरल बहती नदी स्वयं को डिसिल्ट कर सकती है लेकिन जब बहते को बाँधने की सरकारी प्रवृत्ति तलछट प्रबन्धन की माँग करती है तो इसमें उनका भोलापन ही छलकता है।

कोसी सहित नेपाल से आने वाली कई नदियाँ है जिनका प्रबन्धन नीतीश सरकार करती है, क्या उन्होंने कभी इनमें से किसी भी नदी के तलछट को साफ करने की कोशिश की है? उनकी एक बात ठीक है कि फरक्का पर पुनर्विचार होना चाहिए, हालांकि वे ये भी जानते हैं कि विकासपरक सरकारें इस तरह के पुनर्विचार पर समय नहीं गँवाया करतीं।

फरक्का बैराज के कारण पानी का बहाव उल्टी दिशा में हो जाता है खासकर बारिश के दौरान, इससे कटाव और बाढ़ की त्रासदी विकराल हो जाती है। वास्तविकता तो यह है कि गंगा पर विकसित किये जा रहे सपनीले जलमार्ग के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा भी यही डिसिल्टिंग है। जहाजों के आवागमन के लिये बीच धारा में रेत काटकर गहरा करना बेहद महंगी प्रक्रिया है और ये लगातार करना होगा। इससे नितिन गडकरी का सस्ते ट्रांसपोर्टेशन का दावा झूठा साबित हो जाएगा।

बिहार के ये हालात तब है जब बारिश सामान्य से 14 फीसद कम हुई है। सामान्य से अधिक बारिश भी हो सकती है, इसे समाज और सरकार ने काल्पनिक तथ्य मान लिया है। इस बार की बाढ़ में नेपाल की नदियों के अलावा सोन नदी का भी बड़ा योगदान रहा जो मध्य प्रदेश का अथाह पानी लेकर राज्य में प्रवेश कर रही है।

सोन नदी में बिहार सरकार की नाक के नीचे सबसे ज्यादा अवैध रेत खनन होता है क्योंकि सोन की रेत ही निर्माण के लिये आदर्श मानी जाती है, यदि राज्य सरकार ने लगातार चलते इस अवैध खनन पर रोक लगाई होती या पुनपुन जैसी छोटी नदियों का गहरीकरण किया होता, जो कि व्यावहारिक है, तो हालात शायद इतने बुरे ना होते।

बलिया से पटना की तरफ गंगा के उत्तरी किनारे पर शानदार सड़क बनी है, इस सड़क को जमीन से काफी ऊपर उठा कर बनाया गया है, इसका उद्देश्य है कि बाढ़ का पानी सड़क को नुकसान ना पहुँचा सके लेकिन जमीन को उठा देने से दक्षिणी किनारों पर मौजूद गाँवों पर संकट आ गया। उनके खेत पूरी तरह बर्बाद हो गए।

कहा जा रहा है कि चालीस साल में पहली बार गंगा पटना के रिहायशी इलाकों में घुसी है लेकिन प्रकृति के कलेंडर में 40-50 साल का कोई महत्त्व नहीं है, गंगा जहाँ घुसी हुई नजर आ रही है वह वास्तव में गंगा का ही घर है, वह सिकुड़ी हुई थी तो लोगों ने उसके पाट में घुस कर अपने आशियाने बना लिये और अब कह रहे हैं कि गंगा उनके घर में घुस आई है।

गंगा पर ये सारा अतिक्रमण सरकारी पनाह से ही हुआ है। गंगा की हालात पर रोने वाली सरकार गंगा और आस्थावानों के शोषण में भी पीछे नहीं है। उत्तरी बिहार के कुम्भ के तौर पर स्थापित हो चुके सेमरिया घाट का ठेका दो करोड़ से ज्यादा का उठता है, इसके बाद ठेकेदार घाट पर जो लूट मचाते हैं वो किसी को भी विचलित कर देती है यही हाल बिहार में गंगा किनारे मौजूद सुल्तानपुर सहित सभी धामों का है। इनके लिये गंगा का अर्थ स्वरूप ही सब कुछ है।

उन आँखों में पानी आने का कोई भावनात्मक महत्त्व नहीं होता जो पहले ही मूँदी हुई हैं।
 

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Post By: RuralWater
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