नीर है अनमोल

प्रत्येक नागरिक को जल के महत्त्व को समझना होगा। वरना वह दिन दूर नहीं जब पानी की एक-एक बूँद के लिए प्रत्येक व्यक्ति संघर्ष करता नजर आएगा।जल प्रकृति प्रदत्त अमूल्य संसाधन है। यह न केवल मानव को अपितु वनस्पति को भी जीवन प्रदान करता है और यही कारण है कि जल को अमृत की संज्ञा दी गई है। जल की आवश्यकता का अन्दाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 2020 तक दुनिया की जरूरत के मुताबिक पानी 17 प्रतिशत कम पड़ेगा। एक अनुमान के अनुसार, देश में कुल 1,869 अरब क्यूबिक मीटर (वीसीएम) जल उपलब्ध है, लेकिन जो जल उपयोग में लिया जाता है वह 1,123 अरब क्यूबिक मीटर ही है, जिसमें 690 अरब क्यूबिक मीटर सतही जल और 433 अरब क्यूबिक मीटर पुनर्भरण योग्य भूजल है। वर्तमान समय में जहाँ चीन में प्रति व्यक्ति जल-संग्रहण क्षमता 1,111 क्यूबिक मीटर है वहीं भारत में यह क्षमता मात्र 207 क्यूबिक मीटर है। बढ़ती जनसंख्या के फलस्वरूप प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता निरन्तर घटती जा रही है।

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की रिपोर्ट के अनुसार, जब तक विकासशील विश्व में 1.1 अरब लोगों को स्वच्छ पानी और 2.6 अरब लोगों को सफाई व्यवस्था मुहैया नहीं होती, तब तक विकास का दावा बेमानी है। इसी सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए अगर विचार किया जाए तो यह तथ्य साफ तौर पर स्पष्ट होता है कि विकासशील देशों की प्राथमिकताओं में, जिसमें भारत भी सम्मिलित है, जल उपलब्धता पर बजट राशि नाममात्र की है। भारत का सैन्य बजट, पानी और सफाई व्यवस्था पर होने वाले खर्च की तुलना में आठ गुना अधिक है। यूनएडीपी द्वारा जारी मानव विकास रिपोर्ट 2006 में, भारत ने कुल 177 देशों की सूची में 126वां स्थान प्राप्त किया है।

जनसंख्या के लगातार बढ़ते आकार एवं उसके अनुपात में जल उपब्धता की स्थिति के सम्बन्ध में 2001 की जनगणना रिपोर्ट में जो आँकड़े प्रस्तुत किए गए हैं वह किसी सुखद स्थिति की ओर संकेत नहीं करते। रिपोर्ट के अनुसार, देश में 19.2 करोड़ परिवारों में से केवल 7.5 करोड़ परिवार (अर्थात 39 प्रतिशत) ऐसे हैं जिन्हें परिसर के अन्दर पेयजल उपलब्ध होता है। 8.5 करोड़ परिवारों (44.3 प्रतिशत) को परिसर के निकट और 3.2 करोड़ परिवारों (16.7 प्रतिशत) को दूर से पीने का पानी लाना पड़ता है। शहरी क्षेत्रों में जहाँ यह दूरी 100 मीटर से अधिक है वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह दूरी 500 मीटर से अधिक होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में जल उपलब्धता, शहरी क्षेत्रों की अपेक्षाकृत खराब है। परिसर के अन्दर पेयजल प्राप्त करने वाले परिवारों का प्रतिशत 28.7 है। 13.2 करोड़ परिवारों में लगभग 7.2 करोड़ (51.8 प्रतिशत) को परिसर के निकट एवं 19.5 प्रतिशत (2.7 करोड़) को परिसर से दूर जाकर पानी लाना पड़ता है।

वर्षा जल संरक्षण से भूजल में वृद्धि के साथ-साथ सिंचाई एवं पेयजल में बढ़ोत्तरी होगी। वर्षा जल संरक्षण के लिए पुराने तालाबों, कुओं, झील आदि को फिर से उपयोग में लाना होगा।भारत की 70 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती है परन्तु जीवन की मौलिक आवश्यकताओं तक चाहे वह स्वच्छ जल हो या स्वास्थ्य सुविधाएँ, उनकी पहुँच शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की अपेक्षाकृत बहुत निम्न स्थिति में है। जल उपलब्धता की स्थिति भी ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षाकृत शहरी क्षेत्रों में कहीं बेहतर है। 5.4 करोड़ परिवारों में उन परिवारों की संख्या लगभग 3.5 करोड़ है, जिन्हें परिसर के भीतर जल उपलब्ध होता है, 1.4 करोड़ परिवारों परिसर के निकट और 50 लाख परिवारों (9.4 प्रतिशत) को जल प्राप्ति हेतु परिसर से दूर जाना पड़ता है।

जिस तरह शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में जल उलब्धता सम्बन्धी आँकड़ों में गहरा अन्तर दिखाई देता है उसी प्रकार विभिन्न राज्यों में जल उपलब्धता का मानक समान नहीं है। आय की दृष्टि से तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल एवं कर्नाटक का स्तर उच्च है, किन्तु पेयजल उपलब्घता के आधार पर वे 39 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से भी नीचे है। इसके विपरीत बिहार, उत्तर प्रदेश जिन्हें बीमारू राज्यों में गिना जाता है, ने अपने राज्य के परिवारों को जल उपलब्ध कराने के लिए बेहतर प्रयास किए हैं। जल उपलब्धता के दृष्टिकोण से जो राज्य पहले स्थान पर है, वह है पंजाब। पंजाब में 85.5 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिन्हें परिसर के भीतर ही जल उपलब्ध होता है, इसके पश्चात केरल (71.6 प्रतिशत), महाराष्ट्र (53.4 प्रतिशत) और गुजरात (46 प्रतिशत) का स्थान आता है।

नीर है अनमोलराज्यवार जल उपलब्धता के आँकड़े भी उस अन्तर की ओर इशारा करते हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर जल उपलब्धता के सम्बन्ध में देखा गया वह अन्तर है ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों का। ग्रामीण क्षेत्रों में जल उलब्धता के सम्बन्ध में सबसे शोचनीय स्थिति झारखण्ड की है, जहाँ जल उपलब्धता का प्रतिशत 9.7 है। आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ राज्य तमिलनाडु, अपने राज्य के ग्रामीण इलाकों के केवल 12 प्रतिशत परिवारों को परिसर के भीतर जल उपलब्ध कराता है।

विगत दो वर्षों से भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर नौ प्रतिशत से अधिक रही है। परन्तु आज भी बहुत से राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों के निवासियों को पीने का पानी लाने के लिए 500 मीटर से अधिक का फासला तय करना पड़ता है। हरियाणा प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से देश में तीसरा स्थान प्रदान करने वाला राज्य है परन्तु अपनी ग्रामीण जनसंख्या को पेयजल उपलबध कराने में यह अन्य राज्यों से अपेक्षाकृत पीछे है।

प्रश्न सिर्फ पेयजल उपलब्धता का ही नहीं है, बल्कि शुद्ध पेयजल उलब्धता का भी है। आर्थिक समीक्षा (2002-03) में उल्लेख किया गया है कि ‘यदि किसी परिवार को पेयजल नल, हैण्डपम्प या ट्यूबवेल से परिसर के अन्दर या बाहर प्राप्त होता है, तो कहा जाएगा कि उस परिवार की पहुँच सुरक्षित पेयजल तक है’ इस मानक का प्रयोग कर, आर्थिक सीमक्षा (2003-04) ने उल्लेख किया, 2001 की जनगणना के अनुसार (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) सुरक्षित पेयजल प्राप्त करने वाले परिवारों का अनुपात 77.9 प्रतिशत था।

यहाँ जो प्रश्न खड़ा हो रहा है, वह यह है कि क्या हम हैण्डपम्पों और ट्यूबवेलों से प्राप्त जल की गुणवत्ता पर भरोसा कर सकते हैं? इसका जवाब हमें नकारात्मक ही मिलेगा। सच्चाई तो यह है कि ज्यादातर ट्यूबवेल और हैण्डपम्प जल सम्बन्धी बीमारियों के वाहक माने जाते हैं, तो क्या फिर भी उन्हें सुरक्षित पेयजल की श्रेणी में रखा जाना चाहिए?

अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सुरक्षित पेयजल की परिभाषा में उन्नत जलस्रोत को सम्मिलित किया जाता है, जिन तक जनसंख्या की पहुँच स्थायी तौर पर हो। मानवीय विकास रिपोर्ट (2004) में कहा गया है कि “जनसंख्या का वह भाग जिसके पीने के पानी की उचित पहुँच निम्नलिखित प्रकार से हो : पारिवारिक कनेक्शन, सरकारी नल, सुरक्षित कुएँ, सुरक्षित झरने और वर्षा के पानी का संग्रह। उचित पहुँच का अर्थ निवास स्थान से 1 किलोमीटर के अन्दर किसी स्रोत से प्रतिदिन प्रति व्यक्ति कम से कम 20 लीटर पानी की उपलब्धि से है।”

वाशिंगटन स्थित वर्ल्ड वॉच संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 58 प्रतिशत लोगों को पीने का स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है।मानवीय विकास रिपोर्ट की परिभाषा से स्पष्ट है कि हैण्डपम्पों, असुरक्षित ट्यूबवेलों की बहुसंख्या को सुरक्षित पेयजल की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वाशिंगटन स्थित वर्ल्ड वॉच संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 58 प्रतिशत लोगों को पीने का स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, विश्व में 80 प्रतिशत बीमारियों का कारण अशुद्ध जल होता है। पिछड़े और विकासशील देशों में डायरिया, तपेदिक, पेट और सांस की बीमारियाँ तथा कैंसर सहित अनेक रोगों का कारण अशुद्ध जल होता है। भारत में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार एक हजार नवजात शिशुओं में से लगभग 127 बच्चे हैजा, डायरिया तथा दूषित जल से उत्पन्न अन्य रोगों से काल के ग्रास बन जाते हैं। एक साल से पाँच साल के आयु के लगभग 15 लाख बच्चे प्रतिवर्ष प्रदूषित जल से उत्पन्न हुई बीमारियों के कारण मौत के शिकार बन जाते हैं।

भारत में भूमिगत जलस्रोतों का प्रयोग बहुतायत होता है। भूमिगत जल का सीधा प्रयोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। एक अध्ययन के अनुसार, भारत के 18 राज्यों के 200 जनपदों के भूजल स्रोतों का पानी पीने लायक नहीं रहा है। अस्थि सम्बन्धित विकृतियाँ फैलाने वाला फ्लोराइड भारत के 8,600 गाँवों को अपनी चपेट में ले चुका है।

पेयजल उपलब्धता को स्वच्छता के साथ जोड़कर देखा जाना बेहद जरूरी है इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि सुरक्षित पेयजल की परिभाषा को परिष्कृत किया जाए यदि ऐसा सम्भव न हो पाए तो ऐसी स्थिति में हैण्डपम्प उचित प्लेटफॉर्म पर बनाए जाए एवं पानी के निकासी के लिए व्यवस्थित तरीके से नालियों का निर्माण किया जाए जिससे पेयजल की गुणवत्ता एवं शुद्धता कायम रहे।

देश में उपलब्ध जल संसाधनों के अनुकूलतम प्रयोग को सुनिश्चित करने के उदेश्य से केन्द्र सरकार द्वारा नयी राष्ट्रीय जल नीति की घोषणा की गई है। अप्रैल 2002 को राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद द्वारा आम सहमति से राष्ट्रीय जल नीति को स्वीकृति प्रदान की गई। संशोधित जल नीति 2002 जिसने 1987 की जल नीति का स्थान लिया है, में सबके लिए पेयजल की व्यवस्था को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की गई है।

जल सम्बन्धी मुद्दों पर विशेषतौर पर ध्यान देने और इससे सम्बन्धित मुद्दों से निपटने के लिए नीतियों तथा कार्यक्रमों के सफल कार्यान्वयन साथ ही सम्पूर्ण देश में व्यापक स्तर पर जागरुकता कार्यक्रम चलाने के उदेश्य से वर्ष 2007 को ‘जल वर्ष’ घोषित किया गया। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने 4 जनवरी, 2007 को एक बैठक में जल संसाधन मन्त्रालय के फैसले पर अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। जिसके तहत राष्ट्रीय जन संसाधन परिषद की बैठक बुलाई जाएगी जिसकी अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करेंगे और सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री उसमें सम्मिलित होंगे।

जल के हर बूँद से अधिक से अधिक फसल और ज्यादा आय को बढ़ावा देने के लिए 5,000 गाँवों में कृषक सहभागिता कार्रवाई अनुसन्धान कार्यक्रम को चलाए जाने की बात कही गई है। जल सम्बन्धित तकनीकी तथा प्रबन्ध व्यवस्था मुद्दों पर कार्यशालाओं और सम्मेलनों का आयोजन भी प्रस्तावित है। देश में पेयजल उपलब्धता अधिक से अधिक लोगों को हो सके, इस दिशा में राजीव गाँधी पेयजल मिशन के अन्तर्गत दिसम्बर 2006 तक 55,512 आवासों तथा 34,000 स्कूलों में जेयजल आपूर्ति की व्यवस्था की गई है। अब तक योजना में शामिल न की गई या छूट गई बस्तियों के लिए 2007-08 में लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। राजीव गाँधी पेयजल मिशन हेतु बजट 2006-07 में किए गए 4,680 करोड़ रुपए के आवण्टन को बढ़ाकर 2007-08 में 5,850 करोड़ रुपए करने का प्रस्ताव है।

सरकारी प्रयास अपनी जगह हैं पर प्रत्येक नागरिक को जल के महत्त्व को समझना होगा। वरना वह दिन दूर नहीं जब पानी की एक-एक बूँद के लिए प्रत्येक व्यक्ति संघर्ष करता नजर आएगा। जहाँ एक ओर पानी के दुरुपयोग को रोकना जरूरी है वहीं दूसरी ओर बारिश के पानी के संचयन की तकनीक को व्यापक स्तर पर लागू किए जाने की आवश्यता है। वर्षा जल संरक्षण से भूजल में वृद्धि के साथ-साथ सिंचाई एवं पेयजल में बढ़ोत्तरी होगी। वर्षा जल संरक्षण के लिए पुराने तालाबों, कुओं, झील आदि को फिर से उपयोग में लाना होगा। जन-जागरुकता ही एक मार्ग है जिससे जल के दुरुपयोग को रोका जा सकता है। जल संकट को आँकड़ों सहित, जन-जन तक पहुँचाने एवं जल दुरुपयोग को रोकने हेतु जनसंचार माध्यमों का आश्रय लिया जा सकता है। कोई भी समस्या तब तक समाप्त नहीं हो सकती जब तक उसकी जड़ों को ही समाप्त न किया जाए। जल के महत्त्व का व्यापक प्रचार जल संकट से निपटने का एक कारगर उपाय है।

(लेखिका समाजशास्त्री)

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