नैनीताल में बसावट शुरु होते ही भू-स्खलन

नैनीताल में बसावट शुरु होते ही भू-स्खलन
नैनीताल में बसावट शुरु होते ही भू-स्खलन

ब्रिटिश हुक्मरान नैनीताल में अधिसंरचनात्मक सुविधाओं के प्रबंध में जुटे ही थे कि बसावट शुरु होने के महज 25 साल बाद अगस्त 1867 में मल्लीताल के पॉपुलर स्टेट में भू-स्खलन हो गया। इस भू-स्खलन में विक्टोरिया होटल का नव निर्मित एक कॉटेज दब गया था। विक्टोरिया होटल के पास स्थित पुलिया में एक हिन्दुस्तानी की मृत्यु हो गई थी। इस भू-स्खलन ने अंग्रेजों को नैनीताल की क्षण भंगुर पारिस्थितिक तंत्र की इत्तला दे दी। 1860 में अंग्रेज लेखक मेजर गार्सटिन विक्टोरिया होटल को असुरक्षित बता चुके थे। इसी साल डॉक्टर वॉल्कर ने भी इस पहाड़ी में दरारें आने की बात कही थी। इस हादसे के फौरन बाद 12 अक्टूबर, 1867 को जाँच कमेटी गठित कर दी गई। जाँच कमेटी ने पहाड़ियों की सुरक्षा के लिए नाले और सुरक्षा दीवारें बनाने का सुझाव दिया। 1868 में फादर बौना बैंचर ने तत्लीताल में सेंट फ्रांसिस कैथोलिक चर्च का निर्माण कराया। इसे 'लेक चर्च' भी कहा जाता था। 1869 में भी पॉपुलर स्टेट क्षेत्र में एक और भू-स्खलन हुआ। इसका प्रकोप पूर्व के भू-स्खलन के मुकाबले कहीं व्यापक था। इसका प्रभाव आल्मा पहाड़ी तक पड़ा, पर कोई नुकसान नहीं हुआ। अंग्रेजी शासन ने इस चेतावनी को गंभीरता से लिया। संरक्षण और विकास की वैज्ञानिक नीतियां अपनाई गई। संरक्षणात्मक उपायों के साथ प्रकृति के दोहन पर जोर दिया गया।

1868 में नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंसेस की राजधानी आगरा से इलाहाबाद आ गई। 12 अक्टूबर, 1882 को भारत सरकार के सचिव और 'दी रुहेलखण्ड एण्ड कुमाऊँ रेलवे कंपनी लिमिटेड' के बीच बरेली से काठगोदाम तक रेलवे लाइन बिछाने तथा काठगोदाम तक रेल सेवा प्रारंभ करने का अनुबंध हुआ। 1869 में नैनीताल में मेडिकल स्कूल खुला। इसमें आठ पुरुषों और चार महिलाओं को चिकित्सा शास्त्र का बुनियादी प्रशिक्षण दिया गया। इसी साल 17 नवंबर, 1869 में स्वेज नहर खुल गई थी। स्वेज नहर खुलने से भारत और इंग्लैंड की समुद्र मार्ग से दूरी करीब तीन हजार मील कम हो गई थी। 8 दिसम्बर, 1869 को नैनीताल में जमीन का टैक्स बारह आना प्रति एकड़ से बढ़ाकर दो रुपये प्रति एकड़ कर दिया गया था।

एक नई किस्म की दुनिया थी नैनीताल

नैनीताल एक प्रकार से नई किस्म की दुनिया थी। यहाँ प्रशासनिक अमला ऊपर से नीचे की ओर क्रमानुसार रहता था। पहाड़ की ऊँचाई के अनुसार पदानुक्रम में बंगले बनाए जाते थे। बंगलों की भौगोलिक ऊँचाई-भव्यता, उच्चता, प्रभाव और साम्राज्यिक संस्कृति की सत्ता के प्रतीक थी। औपनिवेशिक सत्ता का अभिजात्य वर्ग श्रेष्ठता कायम रखने के लिए खुद के प्रशासकीय तंत्र से जुड़े निचले वर्गों से एक निश्चित दूरी बनाए रखता था। प्रशासनिक तंत्र में अनुशासन कायम रखने के उद्देश्य से पहाड़ी की सबसे ऊँची चोटी पर लेफ्टिनेंट गवर्नर, सेना के कमाण्डर और उच्च पदस्थ अधिकारियों के निवास बनाए जाते थे। ताकि श्रेष्ठता भी बनी रहे और ऊँचाई से पहाड़ियों की सुंदर दृश्यावलियों तथा अप्रतिम प्राकृतिक सौंदर्य का भी भरपूर लुत्फ उठाया जा सके।

अंगेजों की उच्चता एवं श्रेष्ठता की भावनाएं नैनीताल की बसावट की बुनियादी परिकल्पना में भी स्पष्ट तौर पर परिलक्षित होती हैं। अंग्रेजों ने नैनीताल को सम्पन्न एवं उच्च वर्ग के लिए बसाया। प्रारंभ में यहाँ सामान्यतः एक व्यक्ति को सात एकड़ जमीन आवंटित करने की व्यवस्था थी। कुमाऊँ के वरिष्ठ सहायक आयुक्त, (नैनीताल) को जमीन आवंटित करने के लिए अधिकृत किया गया था। अंग्रेजों द्वारा भारत के पहाड़ी नगरों के लिए खास तौर पर विकसित की गई मिश्रित स्थापत्य शैली का सवा मंजिला लॉफ्ट वाला बंगला और उस बंगले से एक निश्चित दूरी पर दो मंजिली रसोई बनानी होती थी। बंगला और रसोई एक बंद गलियारे (आर्च-वे) से जुड़े होते थे। मुख्य बंगले से थोड़ी-सी दूरी पर एक छोटा बंगला बनाया जाता था, जिसे 'सनी साइड' भी कहते थे। बंगले के इर्द-गिर्द फूल, सब्जी और फलों का बगीचा बनता था। फिर एक खूबसूरत टेनिस कोर्ट। मुख्य बंगले की अलग-अलग दिशाओं में विभिन्न प्रयोजनों के लिए छोटे-छोटे मकान बनाए जाते थे। घरेलू काम करने वाले खिदमदगारों, चौकीदारी करने वाले 'बरकंदाजों" डांडी, झम्पानी ढोने वालों, घोड़ा चालकों, सफाई कर्मी आदि के लिए आउट हाउस बनाए जाते थे। घोड़ों के लिए अस्तबल, दूसरे जानवरों के लिए मवेशीघर, डांडी-झम्पानी रखने के लिए डांडी शेड बनाया जाता था। धोबी के लिए अलग से एक छोटा घर बनाया जाता था। तब नैनीताल की आधे से ज्यादा आबादी इन्हीं आउट हाउसों में आबाद थी। बंगला बनाने वाले को अपनी रोजमर्रा की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सभी व्यवस्थाएं खुद करनी होती थीं। अपने सभी सेवादारों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने की जिम्मेदारी भी बंगले के मालिक की ही होती थी।

अपने परिसर की साफ-सफाई तथा बरसाती पानी को नालियों द्वारा पास के सार्वजनिक नालों तक पहुँचाने की जिम्मेदारी भी भवन स्वामी की ही होती थी। स्पष्ट है कि यहाँ वही व्यक्ति बंगला बना सकता था, जिसके पास इतने संसाधन जुटाने की क्षमता हो। जिनमें खुद का बंगला बना पाने और उसके रख-रखाव की सामर्थ्य नहीं हो, उसके पास किराये पर मकान लेकर नैनीताल में रहने का विकल्प था।
अधिकांश बंगलों के अपेक्षाकृत छायादार हिस्सों में ढालदार जमीन की तल में बड़े-बड़े गड्ढे खोदकर 'हिम कुंड' बनाए जाते थे। जाड़ों में बर्फबारी के दौरान ढालदार जमीन की बर्फ स्वतः ही खिसककर इन हिमकुंडों में जमा हो जाती थी। इन हिमकुंडों का इस्तेमाल फ्रिज के तौर पर किया जाता था। इनमें बीयर एवं शीतल पेय को गाड़ दिया जाता था। नगर के अनेक क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से भी हिमकुंड बने थे, इनमें अप्रैल-मई के महीने तक बर्फ जमा रहती थी। बरसात में ये गड्ढे तालाब के लिए जल संग्रहण का काम भी करते थे।

अंग्रेजों द्वारा नैनीताल में निर्मित गिरजाघर और सार्वजनिक उपयोग की इमारतों में ईसाई स्थापत्य गौथिक के नैतिक और सौंदर्यपरक मूल्यों का प्रभाव रहा। जबकि अन्य भवनों के निर्माण में स्थानीय तौर पर उपलब्ध संसाधनों और यहाँ के मौसम तथा जलवायु के मद्देनजर एक मुक्तहस्त मिश्रित शैली अपनाई गई। जिसे 'नैनीताल पैटर्न' कहा गया।   
भारत में अन्य हिल स्टेशनों की तरह नैनीताल भी अंग्रेजों का प्रिय ऐशगाह था। तब नैनीताल को शिक्षा एवं स्वास्थ्य लाभ के केन्द्र के रूप में जाना जाता था। अंग्रेज शासक नैनीताल की सुरक्षा, स्वास्थ्य, सफाई और पर्यावरण समेत हरेक पक्ष का बखूबी ख्याल रखते थे। पारिस्थितिकीय एवं पर्यावरण सुरक्षा को गंभीरता से लिया जाता था। अंग्रेजों ने यहाँ वह सब व्यवस्थाएं की, जिससे यहाँ की हवा एवं पानी साफ रह सके और नैनीताल की सुंदरता, शांति तथा सुरक्षा बनी रहे।

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Post By: Shivendra
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