निन्द्य पानी का गुण

विण्मूत्रं विषपर्णनीकलविषं तप्तं घनं फेनिलं दन्तग्राह्यमनार्तवं सलवणं शैवालकैस्संभृतम्।लूतातन्तुविमिश्रितं गुरुतरं पर्णोध क्वाथान्वितंचन्द्रार्कांशुवगोपितं न च पिबेन्नीरं सदा दोषदम्।।
मलमूत्र, विष, पत्ते से, नील से विषैला, तपा, सघन (गाढ़ा), फेनवाला, दाँत से प्राप्य (बर्फ), बिना ऋतु का, नमकीन, काई से भरा, मकड़ी के जाले वाला, भारी-भारी, पत्तों के ढेर, काढ़ा (?) जैसा और सूर्य-चन्द्र की किरणों से अछूता पानी नहीं पीना चाहिए। यह सदा दोष करता है।

वज्र-जल के गुण

न संपतिः क्रियाशक्तिः भेषजं च न विद्यते।सर्वरोगविनाशाय निशान्ते च पयः पिबेत्।।अम्भसश्चुलुकान्यष्टौ पिबेदनुदिते रवौ।हन्ति श्वांस तथा खासं जीवेद्वर्षशतं सुखी।।
मतान्तरे-
शस्तामृतविषं वज्रं गुणैश्चवारि वारिणः।भुक्तोत्तरे च प्रत्यूषे अभुक्ते भोजने स ह।।यन्मूला व्याधयस्सर्वे सम्भवन्ति भयावहाः।तदेव भेषजं तेषां सिद्धाज्ञा सम्भृतं जलम्।।निहन्ति श्लेष्मसंघातम पकर्षत्यजीर्णकम्।जरयत्याशु वा पीतमुष्णोदकमिदं निशि।वर्षासु न जलं ग्राह्यं नादेयं बहुदोषकृत।।
रात के अन्त में पानी पिएँ। उसमें न संपत्ति, न काम करना पड़ता है और न औषधि है यह। परन्तु इससे समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं।


सूर्योदय से पहले आठ चुल्लू पानी के पान से श्वास, खुजली नष्ट होता है और सुख से सौ वर्ष जीवित रहता है।

अन्य मत में-
वज्र प्रशंसनीय है। यह अमृत-विष है-पानी के चार गुणों से। भोजन के बाद, भोर में, बिना भोजन के और भोजन के साथ। ये मूल हैं जिनसे समस्त भयंकर व्याधियाँ होती हैं। उनकी औषधि भी वही है। यह पानी पीने सम्बन्धी सिद्धों की आज्ञा है। कितना ही सघन-समूह हो कफ का उसे नष्ट करता है। अजीर्ण दूर करता है। पित्त को तत्काल जल देता है- रात में गरम पानी। वर्षा का पानी नहीं लेना चाहिए और विभिन्न अनेक दोषों वाला पानी भी नहीं लेना चाहिए।

नाक से पानी लेने का गुण

विगतघननिशीथे प्रातरुत्थाय नित्यं पिबति खलु नरो यो घ्राणरन्ध्रेण वारि।स भवति मतिपुण्यो चक्षुषा तार्क्ष्यतुल्यो वलिपलितविहीनः सर्वरोगैर्विमुक्तः।।
मेघ रुपी रात बीतने पर नित्य प्रायः उठकर नाक के गड्ढे (नथुने) से जो व्यक्ति पानी पीता है वह पवित्र पानी पीता है वह पवित्र बुद्धि का व्यक्ति आँखों से गरुड़ के समान हो जाता है, उसे न झुर्री पड़ती है और न बाल सफेद होते हैं तथा समस्त रोगों से वह मुक्त रहता है।

आँखों के पानी का गुण

शीताम्बुपूरितमुखः प्रतिवासरं यःकालत्रयेSपि नयनद्वितयं जलेन।आसिच्च-तिवमन (?) कदाचिदक्षि-रोगव्यथाविधुरतां भजते मनुष्यः।।
जो प्रतिदिन मुँह को ठंडे पानी से, दोनों आँखों को तीनों समय भरकर धोते हैं उसे व्यक्ति को कभी आँखों का रोग नहीं होता।

पानीपपञ्चकम्

नादेयं नवमृद्घटप्रणिहितं संतप्तमर्कांशुभिःरात्रौ सम्प्रतिपूज्यमिन्दुकिरणैर्मन्दानिलान्दोलितम्।शीतं भिन्नमणिप्रभं लघुतया नास्तीति शंकाप (व?) हंपाटल्युत्पलकेतकीसुरभितं पानीय मानीयताम्।।पानीयं नवमृद्घटप्रणिहितं तप्तार्धशेषं पुनःतप्तादित्यनिशीन्दुरश्मिनिहितं मन्दानिलान्दोलितम्।।एलोशीरमृणाल चन्दनहितं कर्पूरवासन्तिकापाटल्युत्पलमाम्र केरिसुरभि पानीय मानीयताम्।।(?) केरं रुद्र जटाटवी परिमलव्यालोलभस्माविलंदोर्मज्जत्सुरसुन्दरीकुछ तटी खारोत्तरं (?) शीतलम्।धाराधौतकरालिनं बलकरं निश्शेषपापापहंगङ्गातुङ्गर्भनिहितं पानीय मानीयताम्।।स्वच्छं सज्जन चित्तवल्लघुतरं दीनार्तिवत्सीतलंपुत्रालिङ्गनवत्तथैव मधुरं तद्बाल्यसंजल्पवत्।एलोशीर लवङ्ग चन्दनयुतं कर्पूरकस्तूरिका-पाटल्युत्पलकेतकी सुरभितं पानीय मानीयताम्।।वारिभाजनधूपिते नवघटी मुस्तागरु गुग्गुल।स्तोयैः पूर्णसुगन्धकुष्ठत्रुटिभिः कच्चोरकैः पत्रकैः।नारङ्गोत्पलमाम्रकेरक्रमुकं पुन्नागपुष्पादिकंकेतक्युत्पलपाटली सुरभितं पानीय मानीयताम्।।वापीकूपसमुद्भवं नवघटे रात्रिस्थितं मारुतात्शीतं लघ्वमृतोपमं समधुकं तृष्णाश्रमघ्नं परम्।त्रुट्योदीच्यमृणालचम्पकघनैः पुन्नगजात्यादिभिःकेतक्युत्पलपाटलीसुरभितं पानीय मानीयताम्।।ताटाकं नवमृद्घटे प्रणिहितं मन्दानिलैस्संस्थितंआम्रात्सज्जन चित्त वल्लघुतरं पित्तश्रमघ्नं तथा।एलोशीर वराल चन्दनहिमैः कस्तूरिसंमिश्रितं पाटल्युत्पलकेतकी सुरभितं पानीय मानीयताम्।।एतद् भव्यरसायनं श्रमहरं बुद्धिन्द्रियाह्लाकं (चै) तद्व्यक्तरसं त्रिदोषशमनं कामीमनोरज्जकम्।ऋत्वौश्शैशिरमाधवौ बहुजलं दे (पे) यं पुनः स्वेच्छयाग्रीष्मे वर्षशरदृतौ हि मरुतौ चाल्पं प्रपेयं जलम्।।ग्रीष्मे वर्षानिलकुपितमहाशीतघाते शरत्सु श्लेष्मोद्रेके हिमशिशिरवस्नतर्तुषु प्राप्तदोषम्।हीनं पादानिलघ्नं कुपित सुमहापित्तघाते तदर्धंएनं त्रैभागशेषं कष हरति लघुर्वारि वह्श्नेश्च दीप्तिम्।।क्षीणे पादविभागार्धे देशर्तुगुरुलाघवात्।क्वथितं फेनरहितमवेगममलं हितम्।।तथा पाषाणमृद्धेमरौप्यतापार्कतापितम्।पानीयमुष्णं शीतं वा त्रिदोषघ्नं तृडार्तिजित्।।
मिट्टी के नये मटके में रखा और धूप में तपा पानी नहीं पीना चाहिए। परन्तु रात में चन्द्रकिरणों से पूजित, मन्द पवन से कंपित, शीतल, मणि की काँति से हल्केपन में बढ़कर हो तो वह शंकास्प्द नहीं होता। गुलाब, नीलकमल और केवड़े से सुगन्धित पानी लाओ। मिट्टी के नये मटके में रखा अधतपा और शेथ फिर धूप से तपा और रात में चाँदनी में रख, मन्द पवन से कंपित, इलायची, खस, कमलतन्तु, चन्दन, कपूर वाला वसन्त ऋतु में हो और गुलाब, कमल, आम की केरी से सुगन्धित पानी लाओ।


रुद्र की जटा के वन में पराग बिखरने की भस्म से युक्त करील भुजा से स्नान करती देवांगना के स्तन तट के खार से बढ़कर शीतल, अपनी धारा से धोया विकराल, बलदायी, समस्त पाप नष्ट करने वाला, गंगा की ऊँची तरंगों मे छिपे पानी को लाओ। सज्जनों के चित्त के समान स्वच्छ, दीन के कष्ट के समान हल्का (चंचल), पुत्र के आलिंगन के समान शीतल, बच्चे की (तोतली) बोली के समान मधुर, इलायची, खस, लोंग, चन्दन सहित और कपूर तथा कस्तूरी, गुलाब, कमल, केवड़ा से सुगन्धित पानी लाओ।


धुप खाये पानी के पात्र में, नयी गगरी मोथा, गूगल, अगरु के जलों से पूर्ण, कुष्ठाकारि पौधों और कच्चोटक (हल्दी का एक प्रकार) के पत्तों से सुगन्धित, नारंगी, कमल, आम, करील, सुपारी, जायफल (या श्वेत कमल) के फूल, केवड़ा, नीलकमल, गुलाब, से सुगन्धित पानी लाओ। कुएँ-बावड़ी का नये घड़े में रात भर रखा, वायु से शीतल, हल्का, अमृत के समान, महुए या शहद सहित पानी प्यास और थकान मिटता है। टूटे हुए उत्तर के कमलतन्तु, चम्पे से घनीभूत सुपारी, जाति (चमेली), केवड़ा, नीलकमल, गुलाब से सुगन्धित पानी लोऔ। नये मटके में तालाब का पानी मन्द पवन में रखा हो, आम से सज्जनों के चित्त के समान बहुत हल्का और पित्त तथा थकान मिटाने वाला हो। इलायची, खस, लोंग, चन्दन से शीतल, कस्तूरी मिला हुआ गुलाब, कमल, केवड़ा से सुगन्धित पानी लाओ।


यह भव्य रसायन है। थकान दूर करता है। बुद्धि-और इन्द्रियों को प्रसन्न करता है। उससे प्रकट रस तीनों दश शान्त करता है और कामी का मनोरंजन करता है। शिशिर और वसन्त ऋतु में ऐसा बहुत सा पानी बार-बार देना चाहिए। ग्रीष्म, वर्षा और शरद् ऋतु और वायु में यह पानी थोड़ा पीना चाहिए। ग्रीष्म में, वर्षा में वात कोप और महाशीत के आघात होते हैं। शरद् में कफ बढ़ता है। हेमन्त, शिशिर औऱ वसन्त ऋतु में भी दोष रहते हैं। अधिक बढ़े पित्त को भी नष्ट करता है। इसलिए इस त्रिभाग शेष कफ (कसौटी?) को यह जल दूर करता है औऱ गर्मी बढ़ाता है। देश औऱ ऋतु के घटने-बढ़ने के अनुसार एक चरण के आधे भाग के क्षीण होने पर ऐसा विमल पानी हितकारी होता है जो उबला हुआ, बिना फेन का और गति रहित हो। जो पत्थर, मिट्टी, स्वर्ण, चाँदी, ताम्र (या ताप) के साथ धुप में तपाया हो। ऐसा पानी गरम हो या ठंडा तीनों दोष नष्ट करता है, साथ ही प्यास आदि कष्ट भी जीत लेता है।

आकाशगंगा के पानी का गुण

सात्वत्योत्तम वा वृक्के स्पृष्टवा कालानुवर्तिभिः।शीतोष्ण स्निग्धरुक्षापैः यथामन्नमहीगुणैः।।तद्भेदाधारतोयादेः कारकं जैममित्यपि।भौमं तद्भूगतं तत्र धारं गङ्गासमुद्रजम्।।
सात्विक या उत्तम को हृदय में छूकर समयानुसारी शीतल, उष्ण, चिकने या रुखे पानी से- वहाँ की धरती के गुणों के अनुसार उसके भेद आधार के (अनुसार) जल आदि के भोजन आदि भी होते हैं। वह जैसी भूमि वैसा भौम जल होता है और उसमें धार या आधार होता है गंगा या समुद्र का पानी।

गंगा के पानी का गुण

गाङ्गं तज्जीवनं हृद्यं ह्लादि बुद्धिप्रचोदनम्।तन्वव्यक्त रसं स्पृष्टं शीतं लध्वमृतोपमम्।।
गंगा का पानी मनोरम, प्रसन्न करने वाला, बुद्धि (तेजकर) चलाने वाला, पतला, रस प्रकट करता, छूने में शीतल, हल्का और अमृत के समान (मधुर) होता है।

गंगाजलं पापहरं त्रिदोषान्निहन्ति पित्तं लघु शीतलञ्च।सुकान्तिकृत सर्वमलापहारि रुचिप्रदं वृष्यतमं मनोज्ञम।।
गंगा का पानी पाप दूर करता है, तीनों दोषों को नष्ट करता है, पित्त नष्ट करता है। वह हल्का और ठंडा होता है। वह कान्ति करता है, समस्त मल हरता है, रुचि प्रदान करता है, शक्तिवर्धकों में श्रेष्ठ है और मनोरम होता है।

भागीरथी के पानी का गुण

शैत्यं जीवनसाम्यं तत् पित्त रक्त विषार्तिजित्।संजीवनं तर्पणमम्बु हृद्यं आह्लादनं बुद्धिविबोधनं च।विषघ्नमव्यक्तरसं च हृष्यं शीतं स्वभावदमृतोपमानम्।।
भागीरथी के जल में शीतलता, जीवन के समान, पित्त रक्त और विष के कष्ट को जीतने के गुण होते हैं।


यह पानी संजीवनी (जीवन दाता), तृप्ति देता है। मनोरम है, प्रसन्न करने वाला और बुद्धि को जगाने वाला है। यह विष नष्ट करता है, अप्रकट रस है यह, हर्षित करता है। यह सवभाव से ही शीतल और अमृत के समान है।

गंगा के पानी की परीक्षा

येनाभिमृष्टममलं शाल्यत्रं राजता स्थितम्।अक्लिन्नमविवर्णं च तत्तोयं गाङ्गमन्यथा।।निर्गन्धमव्यक्तरसं तृष्णाघ्नं रुचिशीतलतम्।स्वच्छं लघु च हृद्यं च तोयं गुणा वदुच्यते।।
जिस जल से धोने (मसलने) पर साल (धान) अन्न (चावल) स्वच्छ और चमकदार हो जाएँ। न तो वे गीले रहें, न उनका रंग बिगड़े वह पानी गंगा का है। वह पानी मन को भाने वाला, गुणशाली, स्वच्छ, हल्का, गन्धरहित, अप्रकट रस वाला, प्यास बुझाने वाल, रोचक और शीतल होता है।

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Post By: tridmin
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