मेलियासिए परिवार का नीम (अजादिरक्ता इंडिका) भारत में पाई जाने वाली सर्वाधिक उपयोगी और मूल्यवान वृक्ष-प्रजातियों में से एक है। यह पीएच 10 तक की अनेक प्रकार की मिटि्टयों में उग सकता है, जो कि इसे भारतीय उप महाद्वीप में एक सर्वाधिक बहुआयामी और महत्वपूर्ण वृक्ष बनाता है। इसके अनेक प्रकार के उपयोगों की वजह से, भारतीय कृषकों द्वारा इसकी खेती वैदिक काल से की गई है और अब यह भारतीय संस्कृति का अंग बन गया है। भारत में, यह पूरे देश में पाया जाता है और, ऊंचे एवं ठंडे क्षेत्रों तथा बांध-स्थलों को छोड़कर, हर प्रकार के कृषि-जलवायु अंचलों में अच्छी तरह उग सकता है। सच बात तो यह है कि भारत में नीम के वृक्ष, फसलों को कोई नुकसान पहुंचाए बिना, अक्सर कृषकों के खेतों में और खेतों की मेड़ों पर छितरे हुए रूप में उगे हुए पाये जाते हैं। कृषक इस प्रणाली को केवल निर्माण-काष्ठ, चारे, ईंधन के रूप में काम में आने वाली लकड़ी की स्थानीय मांग को पूरा करने के लिए और विभिन्न औषधीय गुणों के लिए अपनाते हैं। इसकी मुसलमूल प्रणाली की वजह से, यह मिट्टी में उपलब्ध अल्प नमी के लिए वार्षिक फसलों से प्रतिस्पर्द्धा नहीं करता।
नीम के वृक्ष को इसके अनेक प्रकार के उपयोगों के कारण सही अर्थों में आश्चर्य वृक्ष कहा जा सकता है। यह एक लंबे समय से एक औषधीय वृक्ष के रूप में उपयोग किया जाता रहा है और ग्रामीण क्षेत्रों की लगभग सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है - चाहे वह निर्माण-काष्ठ हो, ईंधन के रूप में काम में आने वाली लकड़ी हो, चारा हो, तेल हो, उर्वरक हों, कीट-रोधी हों या फिर सर्वव्यापी `दातुन` हो।
आज इसे भारत का सर्वाधिक संभाव्यतायुक्त वृक्ष मान लिया गया है क्योंकि यह सदाबहार प्रकृति (शुष्क क्षेत्रों में पर्णपाती) का है, सर्वाधिक शुष्क और कम पोषक तत्वों वाली मिट्टियों में भी उग सकता है, इसके कई उप-उत्पादों का वाणिज्यिक रूप से उपयोग किया जा सकता है और इसमें पर्यावरण की दृष्टि से लाभदायक गुण हैं (इसलिए इसे भविष्य का वृक्ष भी कहा गया है)। यदि इस वृक्ष के बड़े पैमाने पर बागान लगाने का कार्य हाथ में लिया जाना है, तो इसे विभिन्न्न कृषि-वानिकी प्रणालियों के अंतर्गत कृषि के एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में समन्वित किया जाना होगा।
ऐसा अनुमान है कि भारत के नीम प्रतिवर्ष लगभग 35 लाख टन मींगी उत्पन्न्न करते हैं। इससे लगभग 7 लाख टन तेल निकाला जा सकता है। 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में वार्षिक उत्पादन लगभग 1.5 लाख टन मात्र था। प्राप्त होने वाले तेल की मात्रा को बढ़ाने के लिए, खादी और ग्रामोद्योग आयोग (केवीआईसी) ने पिछले दो दशकों के दौरान नीम के फल और बीजों के प्रसंस्करण के विभिन्न्न पहलुओं का मार्ग प्रशस्त किया है। नीम सहित वृक्षों पर लगने वाले अधिकांश तिलहनों के मामले में देखने में आई मुख्य कठिनाई यह है कि नीम के फलों को नम मौसम में तोड़ा जाना होता है। सुखाने की सुविधा स्थानीय रूप से उपलब्ध न होने की स्थिति में, फल और बीज तेजी से खराब होने लगते हैं और एफ्लोटोक्सिन से ग्रस्त हो जाते हैं। आदर्श रूप में, फलों का गूदा अविलंब निकाल लिया जाना चाहिए और बीजों को पूरी तरह से सुखा लिया जाना चाहिए। केवीआईसी ने देश के दूर-दराज के भागों में भी नीम के उत्पादों का गूदा निकालने, सुखाने और छिलका उतारने की सरल विधियों को लोकप्रिय बना दिया है। भारत में नीम के बीजों के बारे में कई एजेंसियों ने अनुमान लगाया है। प्रमुख नीम बीज बाजारों में स्वतंत्र एजेंसियों द्वारा किए गए यादृच्छिक सर्वेक्षण के अनुसार, 1996 के दौरान बेचे गए नीम के बीजों की मात्रा 5.5 लाख टन थी और कुल 137 करोड़ रुपए था।
2.विस्तार
यह उष्ण कटिबंधीय से लेकर उप उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों और अर्ध शुष्क से लेकर नम उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में और समुद्रतल से लेकर 700 मीटर की ऊंचाई तक केरल के दक्षिणी छोर से लेकर हिमालय की पहाड़ियों तक उगाया जाता है। भारत में और अफ्रीका के देशों में इसकी खेती व्यापक रूप से की गई है। भारत में,उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु राज्यों के एक बड़े भाग में पाया जाता है। यह वृक्ष अधिकांशत: सदाबहार है। सूखे क्षेत्रों में फरवरी-मार्च के दौरान अल्प अवधि के लिए यह लगभग पर्णरहित हो जाता है, किन्तु बहुत ही जल्द इस पर नई पत्तियां उग आती हैं। देश के दक्षिणी भागों में फूल जनवरी-मार्च में और उत्तरी भागों में उसके बाद आते हैं। नीम की आवश्यकताएं बहुत कम होती है और जब यह छोटा होता है, तब बहुत तेजी से बढ़ता है। यह पाले के प्रति संवेदनशील होता है और, विशेष से सीडलिंग एवं सैपलिंग अवस्थाओं में, अत्यधिक ठंड सहन नहीं कर सकता है। एरिड फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, जोधपुर द्वारा लगाए गए अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय मूलस्थान परीक्षणों में, यह देखने में आया कि पाले से हुए नुकसान के कारण, नीम के सभी वृक्षों में शाखाएं अधोभाग के पास थीं। इसका स्थूणीकरण अच्छी तरह होता है, यह मूलचूषक उत्पन्न्न करता है और मुण्डा हो जाने या कर दिए जाने की स्थिति में इसमें फिर से पत्तियां बहुत जल्दी आ जाती हैं।
3. वृक्ष का विवरण
यह बड़े आकार का सदाबहार वृक्ष होता है, इसकी ऊंचाई 12 से 18 मीटर तक होती है, तने का घेरा 1.8 से 2.4 मीटर तक होता है, इसका तना सीधा होता है, शाखाएं लंबी और फैली हुई होती हैं और वे एक बड़े मुकुट जैसा आकार धारण कर लेती हैं, जिसकी चौड़ाई एक से दूसरे सिरे तक 20 मीटर तक होती है और सामान्यतया यह देश के अधिकांश भागों में पाया जाता है
इसकी छाल खाकी अथवा गहरे ललाई लिए हुए भूरे रंग की होती है, जिस पर जगह-जगह पर बहुत से गूमड़ उभरे हुए होते हैं। छाल से गोंद निकलता है, जिसे `ईस्ट इंडिया गम` कहा जाता है। टहनियां एकान्तर और 20-30 से. मी. लंबी होती हैं, पत्तियां 8-19 से. मी. लंबी, एकान्तर या आमने-सामने, अण्डाकार, चमकदार और भोथरे रूप में दांतेदार होती हैं।
फूल
सफेद या हल्के पीले रंग के होते हैं, आकार में छोटे लगते हैं, सुगंधयुक्त होते हैं, लंबे उपसंगी पुष्पगुच्छों में बहुत बड़ी संख्या में लगते हैं और शहद जैसी सुगंध वाले होते हैं और बहुत सी मधुमक्खियों को आकर्षित करते हैं।
फल
फल डिम्बाकार, भोथरे रूप में नुकीला, चिकना, गुठलीदार होता है, जो कि कच्चा होने पर हरा होता है और बाद में पीला हो जाता है। इसका बाहरी छिलका बहुत पतला होता है। मध्यावरण में थोड़ा गूदा और कठोर एवं हड्डी जैसा अंतराच्छादन होता है, जिसमें एक बीज होता है।
नीम से प्राप्त होने वाला निर्माण-काष्ठ थोड़ा भारी होता है और इसका आनुपातिक भार 0.56 से 0.85 के बीच (औसतन 0.68) होता है। ताजी कटी लकड़ी में तेज गंध होती है।
नीम में अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग समय पर फूल आते हैं सामान्यतया, इसमें जनवरी से मई तक फूल आते हैं और फल के पकने का समय मई से अगस्त है। फल का गूदा खाने के योग्य होता है।
4. उपयोग
नीम सत्व कीटनाशक, नाशिकीटमार और फफूंदनाशकों के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। नीम के तेल में जीवाणुरोधी, विषाणुरोधी गुण होते हैं और उसका प्रयोग त्वचा एवं दांतों से संबंधित समस्याओं में किया जाता है। नीम-उत्पादों का उपयोग मलेरिया, ज्वर, दर्द के लिए और गर्भनिरोधक के रूप में भी किया जा रहा है। नीम का प्रयोग सौन्दर्य-प्रसाधनों, लुब्रीकेन्ट्स और उर्वरकों में भी किया जा रहा है। गांवों में नीम की छाल का उपयोग रस्सी बनाने के लिए किया जाता है। नीम के तेल का उपयोग साबुन बनाने के लिए किया जाता है।
5. कृषि-जलवायु आवश्यकताएं
यह सामान्यतया 400 से 1200 मि.मी. तक की वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में अच्छी तरह उगता है। यह उन उष्णतम स्थानों में भी अच्छी तरह फलता-फूलता है, जहां दिन का तापमान 50 अंश सेन्टीग्रेड तक पहुंच जाता है लेकिन यह जमा देने वाली अथवा लंबी ठंड सहन नहीं कर सकता है।
5.1 मिट्टी
नीम, मृण्मय, लवणयुक्त और क्षारीय मिटि्टयों सहित, लगभग सभी प्रकार की मिटि्टयों में उगता है, किन्तु यह काली कपास मिट्टी में अच्छी तरह उगता है। साथ ही, जिन शुष्क पथरीली लवणयुक्त मिटि्टयों में जलरहित उप-मृदा हो अथवा जिन स्थानों में सतह के समीप एक कड़ी चूनेदार या चिकनी मिट्टी की परत हो, वहां यह अधिकांश अन्य वृक्षों की तुलना में, बेहतर तरीके से उगता है। यह आप्लावन सहन नहीं कर पाता है। इसमें कैल्शियम का प्रभाव समाप्त करने का एक अनूठा गुण होता है, जिससे मिट्टी की अम्लता समाप्त हो जाती है। नीम अम्लीय मिट्टी पर भी अच्छी तरह उगता है। ऐसा कहा जाता है कि नीम की गिरी हुई पत्तियां, जो कुछ क्षारीय होती हैं, मिट्टी की अम्लता समाप्त करने की दृष्टि से अच्छी होती हैं।
5.2 पौधशाला पद्धतियां
पौधशाला स्थल : पौधशाला अस्थाई हो सकती है अथवा स्थाई भी। दोनों ही मामलों में पौधशाला-स्थल पर पानी का बारहमासी स्रोत होना चाहिए, समतल भूमि पर होना चाहिए और वहां की मिट्टी जलोत्सारित होनी चाहिए। पहाड़ी स्थान पर होने की स्थिति में, अच्छा होगा कि उत्तर की ओर मामूली सा ढलान हो।
5.3 बीज एकत्रीकरण और भण्डारण
केवल पीले हरे रंग के स्तर के फल ही शाखाओं से तोड़े जाते हैं। एकत्रित फलों का गूदा अविलंब निकाल लिया जाता है। ठंडे पानी में कुछ घंटे भिगोने से गूदा निकालने में सहायता मिलती है। 40 प्रतिशत प्राकृतिक आर्द्रता पर 16 अंश सेन्टीग्रेड तापमान पर नीम के बीजों का 5 माह के लिए भंडारण संभव है। कम अवधि के भंडारण के लिए पोलीथीन की थैलियों में बीजों को बंद कर दिया जाता है और उन्हें सप्ताह में एक बार हवा लगाई जाती है, ताकि वे अंकुरणक्षम बने रह सकें। नीम के बीजों का 10 वर्ष से भी अधिक अवधि के लिए दीर्घावधि भण्डारण 4 प्रतिशत आर्द्रता और -20 अंश सेन्टीग्रेड तापमान पर किया जाता है। मिट्टी के बर्तन में गीली रेत (30 प्रतिशत आर्द्रता) में बीजों के भण्डारण से, 3 माह के अंत में 60 प्रतिशत तक अंकुरण क्षमता बनाए रखने में सहायता मिलती है। औसतन 5000 बीजों का वजन एक किलोग्राम होता है।
5.4 बीजों की बुआई
नीम की अंकुरण दर 15 प्रतिशत (भण्डारित बीज) और 85 प्रतिशत (ताजा बीज) के बीच होती है। इसलिए, बीजों की अधिक अंकुरण क्षमता सुनिश्चित करने के प्रयोजन से, पौधशाला में उनकी अविलंब बुआई की अनुशंसा की जाती है। बुआई से पूर्व बीजों को 24 घंटे तक ठंडे पानी में भिगोने और अंतराच्छादन को हटाने अथवा बीज के आवरण को गोल सिरे पर तेज धार वाले चाकू से काटने से भी अंकुरण क्षमता में वृद्धि होती है।
बीजों की बुआई पौधशाला में नदी की बारीक रेत से बनी क्यारियों में 15 से.मी. के अंतर पर खूंड़ों में की जाती है। बीज, पंक्तियों में 2.5 से.मी. की गहराई पर 2 से 5 से.मी. की दूरी पर बोए जाते हैं और उन्हें हलके तौर पर मिट्टी से ढक दिया जाता है, ताकि वे चिड़ियों और कीटों से बचे रह सकें, जो अक्सर अंकुरित बीजों के सतह पर के मूलांकुरों को खा जाते हैं। क्यारियों में पानी इस प्रकार दिया जाता है कि मिट्टी का पिण्डन न हो जाए। वैकल्पिक तौर पर बीज, पॉट्स में सीधे बोए जा सकते हैं। अंकुरण 1/2सप्ताह की अवधि में हो जाता है। हाइपोकोटिल के खड़े हो जाने पर पौधों को कंटेनर्स में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। बीज, पौधरोपण की तारीख से ¾ महीने पहले बोए जाते हैं। पॉट्स में 50 प्रतिशत रेतीली दुमट, 40 प्रतिशत नदी की रेत और 10 प्रतिशत वानस्पतिक खाद डाली जाती है।
5.5 रोपण
लगभग 2 महीने के हो जाने पर पौधों को 15 से.मी.X 15 से.मी. के अंतर पर पंक्तियों में लगा दिया जाता है। उन्हें किसी छांह की आवश्यकता नहीं होती है। मिट्टी तैयार करना और निराई बहुत लाभदायक हैं। पालाग्रस्त क्षेत्रों में पौधों को रक्षावरणों द्वारा संरक्षित किया जाता है। जब पौधों की ऊंचाई 7 से 10 से.मी. हो जाती है और मुसलमूल लगभग 15 से.मी. लंबी हो जाती है, तो पौधों को उनके आसपास की मिट्टी के साथ प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। शुष्क क्षेत्रों में, यह आवश्यक है कि कम से कम 45 से.मी. ऊंचाई के बड़े पौधे ही प्रत्यारोपित किए जाएं क्योंकि उससे छोटे पौधे सूखे की अवधि से पार नहीं पा पाते हैं। यही कारण है कि पौधों को, अगले स्थान पर लगाने से पहले, एक वर्ष तक पौधशाला क्यारियों में रखा जाता है।
5.6 रोपण तकनीकें
नीम सीधे बोकर, संपूर्ण/पोलीपॉट पौधों अथवा मूल-अंकुर पौधों के माध्यम से आसानी से उगाया जा सकता है। संपूर्ण/पोलीपॉट पौधे अथवा मूल-अंकुर पौधे कृषि वानिकी/वन वर्धन चारागाहों अथवा सड़क के किनारे के रोपणों के लिए अधिक उपयुक्त हैं। सीधी बुआई या तो झाड़ियों में छिद्ररोपण बुआई, छिटका बुआई, पंक्ति बुआई, ढूहों या टीलों पर बुआई, खाइयों में निमज्जित क्यारियों में वर्तुलाकार रकाबी के आकार के स्थानों में बुआई या फिर वायव्य बुआई के माध्यम से की जाती है। रोपण की तकनीक का चयन, स्थान की भौतिक, जलवायु संबंधी, जैविक और आर्थिक स्थितियों के अनुसार अलग-अलग होता है। गड्ढों में रोपण 20 से 45 ऊंचे पौधे लगाकर किया जाता है। ऊंचे पौधों के जीवित रहने की संभावना अधिक होती है। एक वर्ष के पौधों से तैयार किए गए मूलमुण्डों को सब्बल-गड्ढों में लगाने से भी अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं।
5.6.1 संपूर्ण/पोलीपॉट रोपण
जो पौधे बरसात का मौसम आरंभ होने तक 20-25 से.मी. ऊंचे हो जाते हैं, उन्हें 30 घन से.मी. के गड्ढों में 3 x 3 मीटर अथवा रोपण के प्रयोजन के अनुसार किसी अन्य अंतर पर लगा दिया जाता है। फुनगी और जड़ों से इतर स्थानों की पत्तियों की छँटाई महाराष्ट्र के नागपुर जिले में सफल सिद्ध हुई है। तमिलनाडु में, इस प्रयोजन के लिए 45 से.मी. ऊंचाई के पौधे प्रयोग में लाए जाते हैं क्योंकि उससे छोटे पौधे सूखे की अवधि सहन करने में असफल पाए गए हैं। किन्तु रोपण बरसात के मौसम में किया जाता है।
5.6.2 मूल-अंकुर पौध रोपण
12-13 महीने के पौधों से मूलमुण्ड तैयार किए जाते हैं, जिनमें अंकुर का 2.5 से.मी. भाग और जड़ का 23 से.मी. भाग रखा जाता है और उन्हें बरसात आरंभ होने के समय सब्बल-गड्ढों में लगा दिया जाता है। तमिलनाडु में 1 वर्ष के पौधों की तुलना में 2 वर्ष के पौधों से तैयार किए गए मूलमुण्डों के जीवित रहने की संभावना अधिक रही है और वे ऊंचे भी अधिक हुए हैं। महाराष्ट्र में मूल-अंकुर पौधों की सफलता की दर 53 प्रतिशत बताई गई है। मूल-अंकुर पौधों की सफलता बरसात पर निर्भर करती है। सूखे की अवधि लंबी होने का इनके जीवित रहने पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है।
5.7 कृषि वानिकी बागान
कृषि वानिकी के अंतर्गत ब्लॉक बागान लगाने के लिए, 5 मीटर x 5 मीटर की कम अंतर वाली पद्धति अपनाई जा सकती है, जिसमें एक हेक्टेयर में 400 वृक्ष उग सकेंगे। यह अलग-अलग खेतों और प्रयोजन के अनुसार अलग-अलग हो सकती है। 7 मीटर x 7 मीटर का अंतर (जिसमें एक हेक्टेयर में लगभग 200 वृक्ष उगेंगे) कुछ अधिक हो सकता है, जिसमें कृषि-वानिकी भी की जा सकती है।
5.8 छोटे किसानों के लिए व्यवहार्य इकाई
सूक्ष्म ऋण का लाभ लेने के इच्छुक किसानों द्वारा कम से कम 100 वृक्ष उगाए जाने चाहिए। इसके लिए लगभग एक एकड़ भूमि की आवश्यकता होगी।
5.9 छोटे पौधों की देखभाल
छोटे पौधों की पत्ती-निराई का उनके स्वास्थ्य और जीवित रहने पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। पहले वर्ष में दो निराई पर्याप्त हैं और दूसरे वर्ष में एक निराई। प्रत्यारोपित पौधों के मामले में पहली यांत्रिक छँटाई उनके 5 वर्ष के होने पर की जाती है। शुष्क क्षेत्र में, नहर के किनारे लगाए गए नीम को प्रथम 5-7 वर्षों तक पानी देना होता है।
5.10 पौधों की वृद्धि
बागान में नीम की वृद्धि की दर मिट्टी की गुणवत्ता के अनुसार अलग-अलग होती है। 5 वर्ष की आयु तक यह काफी तेज होती है, जिसके बाद यह धीमी पड़ जाती है। 5 वर्ष में पौधा 4 मीटर की ऊंचाई प्राप्त कर लेता है और 25 वर्ष में 10 मीटर। तने के घेरे की वार्षिक वृद्धि औसतन 2.3-3.0 से.मी. होती है। अनुकूल स्थितियों में अधिक तेज वृद्धि प्राप्त होती है। कर्नाटक में, प्राकृतिक रूप से उगाए गए 10 वर्ष के नीम के वृक्ष औसतन 6.58 ऊंचाई के हो जाते हैं और उनके तने का घेरा 68.1 से.मी. हो जाता है।
उत्तर प्रदेश की क्षारीय मिटि्टयों में, पहले मौसम के अंत तक नीम औसतन 170 से.मी. की ऊंचाई का हो जाता है और दूसरे मौसम के अंत तक 264 से.मी. ऊंचाई का। सात माह के मूलचूषक औसतन 65.7 से.मी. ऊंचाई के हो जाते हैं। नीम के अंतर्राष्ट्रीय महत्व के कारण, कई मूलस्थान परीक्षण अनेक स्थानों पर किए गए हैं। 1993 में, नीम पर पहली अंतर्राष्ट्रीय विचार-विमर्श बैठक बैंकाक में आयोजित की गई, जहां नीम के आनुवंशिक सुधार के कार्य हेतु सहायता एवं समन्वय के प्रयोजन से, एक पैनल गठित किया गया। एरिड फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, जोधपुर में, 1992 में नीम के भारतीय मूलस्थानों के मामले में एक मूलस्थान परीक्षण प्रायोगिक खेतों में स्थापित किया गया। मूलस्थान परीक्षण में नीम के बीज-गुणों और भंडारण प्राथमिकताओं जैसे अतिरिक्त अन्वेषणों के माध्यम से सहायता उपलब्ध कराई गई। परीक्षण में, जो कि जोधपुर में सुस्थापित है, भारत के 10 राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले 40 मूलस्थानों के वृक्ष हैं, जहां भारत के अन्य कृषि-जलवायु अंचलों के सफल प्रतिनिधित्व के लिए प्रयास किया गया है। परीक्षणों के आरंभिक परिणामों से यह संकेत मिला है कि भिन्नता बहुत अधिक है और तदनुसार नीम के आनुवंशिक सुधार के लिए चयन और प्रजनन की गुंजाइश है। इंस्टीट्यूट को आशा है कि चयनात्मक प्रसार के लैंगिक और अलैंगिक दोनों तरीकों का उपयोग किया जा सकेगा।
5.11 पौधों का संरक्षण
कीट और बीमारियां : टिप बोरर (लैस्पेरेसिया कोइनीगियाना), टी मोस्क्विटो बग (हैलियोपैल्टिस एन्टोनी), सीडलिंग्स और छोटे पौधों को प्रभावित करते हैं। पल्वीनेरिस मैक्सिमा एक स्केल कीट है, जो कि अब मुख्य कीट माना जाता है और हैलियोथ्रिप्स हैमोरोइडैलिस नीम का एक संभाव्यतायुक्त कीट है।
साथ ही, नीम के सीडलिंग्स पर, फफूंदजनित बीमारियों, राइजोक्टोनिया, लीफ वैब ब्लाइट, कोलेटोट्रिकम, आल्टेमारिया और सूडोसेर्कोस्पोरा द्वारा किए गए लीफ स्पॉट और ब्लाट्स का भी बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।
5.12 पर्यावरण
नीम की बहुआयामी प्रकृति, उपयोगों और विश्व में बढ़ते हुए महत्व को ध्यान में रखते हुए, संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे ``इक्कीसवीं शताब्दी का वृक्ष`` घोषित किया है। इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन करने से विश्व की पर्यावरण संबंधी अनेक समस्याओं को कम करने में सहायता मिलेगी। यदि इसे वास्तव में बड़े पैमाने पर लगाया जाए, तो निर्वनीकरण, मरुस्थलों में वृद्धि, भू-क्षरण और भूमि के तापमान में वृद्धि जैसी समस्याएं शायद कम हो सकती हैं। इसकी बड़ी और गहरी जड़ खराब मिटि्टयों में से पोषक तत्व खींचने में अत्याधिक प्रभावी प्रतीत होती है। बड़े पैमाने पर नीम के बागान लगाने से बड़े-बड़े बंजरभूमि-खण्डों के सुधार और पर्यावरण को हरा बनाने में सहायता मिल सकती है।
5.13 कृषि-वानिकी में नीम
कृषि-वानिकी प्रणालियों में स्थानीय उपयोग, आसानी से विपणन के योग्य और अच्छे आर्थिक मूल्य वाले वृक्ष-घटक को प्राथमिकता दी जाती है। यद्यपि कृषि-वानिकी प्रणालियों में नीम को सर्वोत्तम वृक्ष-प्रजाति नहीं माना जाता है, तथापि, भारत के कई भागों में यह कृषि-वानिकी-प्रजाति के रूप में उपयुक्त पाया गया है। इंडियन ग्रासलैण्ड एण्ड फौडर रिसर्च इंस्टीट्यूट, झांसी की अर्द्ध-शुष्क परिस्थितियों में नीम और अन्य वृक्ष-प्रजातियों से वनवर्धन चारागाह प्रणाली की उत्पादकता में 8.5 टन/हेक्टेयर तक वृद्धि हुई है। यह जानकारी दी गई है कि थार मरुस्थल के शुष्क अंचल में, उचित घास और शिम्ब, नीम तथा विभिन्न अन्य वृक्ष-प्रजातियों के साथ उगाने से चारे का उत्पादन 0.5 से 3.6 टन/हेक्टेयर तक बढ़ाया जा सकता है।
5.14. निर्माण-काष्ठ वृक्ष के रूप में नीम
नीम एक बड़े आकार का सदाबहार वृक्ष है, जो कि 15 से 20 मीटर ऊंचा होता है, जिसका तना आधा सीधा अथवा एकदम सीधा होता है, जिसके तने का व्यास 30 से 80 से.मी. होता है और जिसकी फैली हुई शाखाएं एक बड़े ताज जैसा आकार बनाती हैं। इसका जीवन काफी लंबा 100 वर्ष का होता है। नीम वृक्ष के, भारत में उगाई जाने वाली अन्य बहु उपयोगी वृक्ष-प्रजातियों की तुलना में, बहुत से आर्थिक लाभ हैं। यद्यपि इस वृक्ष का मुख्य उपयोग तेल प्राप्त करने के प्रयोजन से बीजों का उत्पादन है, तथापि, इसे रोपण से 35 से 40 वर्ष के पश्चात निर्माण-काष्ठ के लिए भी काटा जा सकता है। नीम की छाल खाकी सफेद रंग की होती है और तने के अंदर की लकड़ी लाल से ललाई लिए हुए भूरे रंग तक की होती है, जो कि महोगनी जैसी लगती है। लकड़ी गंधयुक्त होती है, थोड़ी भारी होती है, उसका तंतु असमान होता है, टिकाऊ होती है और कीड़े उस पर आसानी से आक्रमण नहीं कर सकते हैं। निर्माण-काष्ठ मध्यम स्तर का अपवर्तक होता है, गीला चीरे जाने पर भी यह उपयोग के लिए अच्छी तरह तैयार होता है, इस पर कार्य आसानी से किया जा सकता है, लेकिन इस पर पॉलिश अच्छी तरह नहीं चढ़ती है।
लकड़ी का उपयोग मकान, खंभे, शहतीरें, दरवाजे/खिड़की की चौखटें, फर्निचर, गाड़ियां, धुरियां, जुए, जहाज एवं नाव निर्माण, नौकर्ण तथा पतवार, कोल्हू, सिगार-डिब्बे, तराशी हुई मूर्तियां, खिलौने और कृषि-उपकरण बनाने के लिए किया जाता है।
5.15 कटाई, उपज और प्रतिफल
नीम 5 वर्ष की आयु से फल धारण करने लगता है और 10-12 वर्ष की आयु तक फल धारण करने की पूर्ण क्षमता तक पहुंच जाता है। फलोत्पादन आरंभिक वर्षों में प्रति वर्ष प्रति वृक्ष 5-20 किलोग्राम तक होता है। परिपक्व वृक्ष प्रति वर्ष 35-50 किलोग्राम फल उत्पन्न करता है। तेल उत्पादन, शुष्क वजन आधार पर, बीज का 40-43 प्रतिशत होता है। तेल की अधिकतम मात्रा (43।2 प्रतिशत) राजस्थान के बांसवाड़ा क्षेत्र में बताई गई है, जबकि 32.4 प्रतिशत की न्यूनतम मात्रा जैसलमेर क्षेत्र में बताई गई है। यह देखने में आया है कि किसी क्षेत्र में जैसे-जैसे वर्षा की मात्रा बढ़ती है, वैसे-वैसे तेल की मात्रा भी बढ़ती है। जिन अंतर्राष्ट्रीय मूलस्थानों का परीक्षण किया गया है, उनमें बांग्लादेश मूलस्थान में तेल की मात्रा सर्वाधिक (48.6 प्रतिशत) है। तथापि, हम यह मान रहे हैं कि साधारणतया प्रति वृक्ष उपज पांचवें वर्ष से क्रमश: 5, 6, 10, 15, 20 किलोग्राम होती है। सामान्यतया नौवें वर्ष से उपज स्थिर हो जाती है। बीज का विक्रय-मूल्य 5 रुपए/किलोग्राम माना जा सकता है।
यह रिपोर्ट दी गई है कि छोटे पौधों की सिंचाई, खेत को प्रतिस्पर्धी खरपतवार से मुक्त रखने और मृदा-शिथिलीकरण से नीम के मामले में अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं।
नीम के बीज की कीमत निकट भविष्य में 10000 रुपए/टन प्रक्षेपित की गई है। इसलिए अब समय आ गया है कि अब तक उपेक्षित इस वृक्ष की संभाव्यता का दोहन और कृषकों को अधिक आर्थिक प्रतिफल देने की दृष्टि से नीम का प्रबंधन किया जाए। ऐसा अनुमान है कि 10 वर्ष की आयु का वृक्ष 5-6 घन फुट निर्माण-काष्ठ उपलब्ध करा सकता है।
6.निर्यात संभाव्यता
वन-उत्पाद में, वनों से प्राप्त कुछ औषधीय पौधों के अलावा, शायद नीम अकेला ऐसा वृक्ष है, जिसमें निर्यात की जा सकने वाली कई वस्तुएं उत्पन्न करने की संभाव्यता है। इसीलिए संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, जर्मनी, फ्रांस और नीदरलैण्ड जैसे बहुत से विकसित देशों ने, जिनके पास बहुत अधिक नीम-संपदा नहीं है, अनन्य रूप से नीम के लिए अनुसंधान प्रयोगशालाएं विकसित की हैं। इसके विपरीत, भारत में नीम-संपदा के काफी अच्छे संसाधन हैं और देश भर में नीम के लाखों वृक्ष बिखरे हुए हैं, किन्तु हमने, उस छिटपुट अनुसंधान को छोड़कर, जो कि कुछ प्रयोगशालाओं में किया जा रहा है, अब तक नीम अनुसंधान व्यवस्थित रूप से आरंभ नहीं किया है।
नीम का प्रमुख तत्व अजादिरेक्टिन है, जो कि ओपन कलर क्रोमेटोग्राफी अथवा प्रेशर लिक्विड क्रोमेटोग्राफी के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। एक किलोग्राम नीम के बीजों से अधिकतम 3 ग्राम अजादिरेक्टिन प्राप्त होता है। नीम की एक निर्यात संभाव्यतायुक्त मद के में पैरवी की जाती है, किन्तु फिर भी इस वृक्ष के सुधार पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया गया है, विशेष रूप से प्रति किलोग्राम अजादिरेक्टिन के उत्पादन और अन्य घटकों के मामले में। भारत में, नीम की खेती अभी भी अपनी शैशवावस्था में है। कुछ ही बागान यत्र-तत्र लगाए गए हैं। नीम के जो भी बीज उपलब्ध होते हैं, वे असंगठित क्षेत्र के माध्यम से व्यक्तिगत वृक्षों से एकत्रित किए जाते हैं। अत: इस बात की पुरजोर वकालत की जाती है कि आईसीएफआरई, आईसीएआर आदि जैसे सरकारी संस्थान, कृषि विश्वविद्यालय और गैर सरकारी संगठन इस वृक्ष तथा इसके उत्पादों पर समन्वित अनुसंधान करने के लिए आगे आएं, ताकि बृहत् निर्यात बाजार से लाभ प्राप्त किया जा सके।
7. खेती की आर्थिकी
खेती की लागत उस क्षेत्र पर निर्भर करेगी, जिस पर रोपण किया जाना है। 5 मीटर x 5 मीटर के अंतराल पर एक हेक्टेयर अर्थात 400 पौधे/हेक्टेयर की खेती की लागत 20700 रुपए/हेक्टेयर पड़ती है, जो कि अनुबंध- । में दी गई है। नीम की खेती से उपज तथा आय और तकनीकी-आर्थिक मानदण्ड अनुबंध-II में दिए गए हैं।
8.वित्तीय विश्लेषण
निवेश की लागत के उपर्युक्त मानदण्डों एवं तकनीकी-आर्थिक मानदण्डों के साथ वित्तीय विश्लेषण और आंतरिक प्रतिफल दर, जो कि 30.48 प्रतिशत पड़ती है, अनुबंध-III में दिए गए हैं।
9. ऋण के नियम और शर्तें
9.1. मार्जिन राशि
नाबार्ड, परियोजना-लागत में लाभार्थी का अंशदान विनिर्दिष्ट करता है, ताकि निवेश में उसका पण सुनिश्चित किया जा सके। इस प्रकार की मार्जिन राशि, निवेश के प्रकार और ऋणकर्ताओं की श्रेणी के अनुसार, 5 प्रतिशत से 25 प्रतिशत तक होती है। संदर्भाधीन मॉडल परियोजना में मार्जिन राशि 10 प्रतिशत मानी गई है।
9.2 ब्याज की दर
अंतिम लाभार्थी से प्रभारित की जाने वाली ब्याज की दर वित्त पोषक बैंकों द्वारा निर्धारित की जाती है, जो कि भारतीय रिजर्व बैंक/नाबार्ड द्वारा समय-समय पर किए जाने वाले संशोधनों के अधीन होती है। संदर्भाधीन योजना में, हमने ब्याज की दर 12 प्रतिशत प्रति वर्ष मानी है।
9.3 ऋण की चुकौती
ऋण वार्षिक श्रेणीकृत किस्तों में चुकाया जाता है। ऋण-स्थगन/अनुग्रह अवधि 5 वर्ष होगी। ब्याज सहित ऋण की संपूर्ण राशि, रोपण से 10 वर्ष की अवधि में चुकाई जा सकती है। चुकौती-अनुसूची तैयार की गई है और वह अनुबंध-IV में दी गई है।
अनुबंध – I
एक हेक्टेयर में नीम की खेती की इकाई लागत
क्र. सं. |
कार्यों का विवरण |
इकाई |
इकाई दर |
वर्ष |
योग |
||||
1 |
स्थल तैयार करना |
10 श्रम दिवस |
100 रु./ श्रम दिवस |
1000 |
|
|
|
|
1000 |
2 |
जुताई |
एकमुश्त |
1000 रु. |
1000 |
|
|
|
|
1000 |
3 |
सिधाई और टेक लगाना |
3 श्रम दिवस |
200 रु./ श्रम दिवस |
600 |
|
|
|
|
600 |
4 |
गड्ढे खोदना (30 घन से. मी.) और एफवाईएम तथा उर्वरक मिलाकर गड्ढों को फिर से भरना (50 गड्ढे/ श्रम दिवस और 100 गड्ढे/ श्रम दिवस) |
|
|
|
|
|
|
|
|
खोदना |
20 श्रम दिवस |
100 रऎ./ श्रम दिवस |
2000 |
|
|
|
|
2000 |
|
फिर से भरना |
4 श्रम दिवस |
100 रु./ श्रम दिवस |
400 |
|
|
|
|
400 |
|
5 |
एफवाईएम की लागत |
1.2 टन |
500 रु./ टन |
600 |
|
|
|
|
600 |
6 |
उर्वरक की लागत (एन यूरिया के रूप में) 50 ग्राम/ पौधे की दर से |
20 कि. ग्रा. |
5 रु./ कि. ग्रा. |
100 |
100 |
100 |
200 |
200 |
700 |
7 |
पौधों की लागत |
440 पौधे |
10 रु./ पौधा |
4000 |
400 |
|
|
|
4400 |
8 |
रोपण और पुन: रोपण 100 पौधे प्रति श्रम दिवस की दर से |
5 श्रम दिवस |
100 रु./ श्रम दिवस |
400 |
100 |
|
|
|
500 |
9 |
मिट्टी तैयार करना |
एक बार तैयार करने के लिए 15 श्रम दिवस |
100 रु./ श्रम दिवस |
1500 |
1000 |
1000 |
1000 |
1000 |
5500 |
10 |
5 बार/वर्ष की दर से सिंचाई, 5 वर्ष के दौरान |
|
150 रु./ प्रति सिंचाई |
750 |
750 |
750 |
750 |
750 |
3750 |
|
कुल योग (पहले पांच वर्षों के व्यय के परिप्रेक्ष्य में इकाई लागत) |
|
|
12350 |
2350 |
1850 |
1950 |
1950 |
20450 |
|
|
पूर्णांकन |
|
12400 |
2400 |
1900 |
2000 |
2000 |
20700 |
|
प्रति हेक्टेयर इकाई लागत |
|
|
|
|
|
|
|
20700 |
|
10 प्रतिशत की दर से मार्जिन |
|
|
1240 |
240 |
190 |
200 |
200 |
2070 |
|
90 प्रतिशत की दर से बैंक ऋण |
|
|
11160 |
2160 |
1710 |
1800 |
1800 |
18630 |
अनुबंध – II
नीम की खेती से उपज और आय
वर्ष |
प्रति वृक्ष उपज (कि.ग्रा.) |
प्रति हेक्टेयर उपज (कि.ग्रा.) |
आय (रुपए) |
6 |
5 |
2000 |
11000 |
7 |
6 |
2400 |
13200 |
8 |
10 |
4000 |
22000 |
9 |
15 |
6000 |
33000 |
10 |
20 |
8000 |
44000 |
तकनीकी-आर्थिक मानदण्ड
1. |
5 मीटरx5 मीटर का अंतर अपनाया गया है। |
2. |
एक हेक्टेयर में लगाए जाने वाले पौधों की संख्या 400 है। |
3. |
पौधों के जीवित रहने का प्रतिशत 90 माना गया है और नष्ट हो गए पौधों का प्रतिस्थापन 10 प्रतिशत। |
4. |
जीवन रक्षक सिंचाई पहले तीन वर्षों के दौरान की जानी है। |
5. |
वृक्ष लगभग 5 वर्ष के पश्चात फल धारण करने लगता है। |
6. |
प्रति वृक्ष छठे वर्ष से उपज साधारणतया 5, 6, 10, 15, 20 कि. ग्रा. मानी गई है। |
7. |
उपज दसवें वर्ष में स्थिर हो जाती है। |
8. |
बीज का विक्रय मूल्य 5.50 रु./कि.ग्रा. माना गया है। |
9. |
मार्जिन राशि कुल वित्तीय परिव्यय का 10 प्रतिशत मानी गई है। |
10. |
ऋण पर ब्याज की दर 12 प्रतिशत मानी गई है। |
11. |
चुकौती की अवधि, 5 वर्ष की अनुग्रह अवधि के साथ, 10 वर्ष है। |
अनुबंध – III
वित्तीय विश्लेषण
विवरण |
वर्ष 1 |
वर्ष 2 |
वर्ष 3 |
वर्ष 4 |
वर्ष 5 |
वर्ष 6 |
वर्ष 7 |
वर्ष 8 |
वर्ष 9 |
वर्ष 10 |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
पूंजीगत व्यय |
12,400 |
2,400 |
1,900 |
2,000 |
2,000 |
- |
- |
- |
- |
- |
आवर्ती व्यय |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
- |
|
कुल व्यय |
12,400 |
2,400 |
1,900 |
2,000 |
2,000 |
- |
- |
- |
- |
- |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
आय |
|
- |
- |
- |
- |
11,000 |
13,200 |
22,000 |
33,000 |
44,000 |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
निवल आय |
-12400 |
-2400 |
-1900 |
-2000 |
-2000 |
11000 |
13200 |
22000 |
33000 |
44000 |
15 प्रतिशत पर लागतों का वर्तमान मूल्य 15984
15 प्रतिशत पर लाभों का वर्तमान मूल्य 37167
लाभ लागत अनुपात 2.33 : 1
आंतरिक प्रतिफल दर 30.48 प्रतिशत
अनुबंध – IV
चुकौती अनुसूची
वर्ष |
बैंक ऋण |
बकाया बैंक ऋण |
12 प्रतिशत की दर से ब्याज |
संचयी बकाया ब्याज |
निवल आय |
चुकौती |
निवल अधिशेष (रुपए) |
टिप्पणी |
|
मूलधन |
ब्याज |
||||||||
1 |
11160 |
11160 |
1339 |
1339 |
|
|
|
|
कुल आय का लगभग 50 प्रतिशत ही ऋण की चुकौती पर व्यय होगा, जिससे भरण पोषण के लिए पर्याप्त अधिशेष बचेगा। |
2 |
2160 |
13320 |
1598 |
2938 |
|
|
|
|
|
3 |
1710 |
15030 |
1804 |
4741 |
|
|
|
|
|
4 |
1800 |
16830 |
2020 |
6761 |
|
|
|
|
|
5 |
1800 |
18630 |
2236 |
8996 |
|
|
|
|
|
6 |
|
18630 |
2236 |
11232 |
11000 |
2750 |
2750 |
5500 |
|
7 |
|
15880 |
1906 |
10388 |
13200 |
3300 |
3300 |
6600 |
|
8 |
|
12580 |
1510 |
8697 |
22000 |
5500 |
5500 |
11000 |
|
9 |
|
7080 |
850 |
3947 |
33000 |
4125 |
3300 |
25575 |
|
10 |
|
2955 |
355 |
1001 |
44000 |
2955 |
1001 |
40044 |
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