‘नीला सोना’ पर अब सबका अधिकार

इक्कीसवीं सदी का ‘नीला सोना’ कहे जाने वाले पानी का करोबार एक खरब डॉलर तक पहुंच गया है। संयुक्त राष्ट्र ने साफ पानी और सफाई को बुनियादी अधिकार माना है। पानी को सार्वजनिक धरोहर मानने वालों और उसे अपनी जागीर समझने वाली कंपनियों के बीच तनातनी लगातार बढ़ रही है। इससे उपजे हालात का जायजा ले रहे हैं अफलातून। स्कूलों में पढ़ाया जाता है कि पृथ्वी का जल-चक्र एक बंद प्रणाली है। यानी वर्षा और वाष्पीकरण की प्रक्रिया के जरिए पानी पृथ्वी के वातावरण में जस का तस बना रहता है। पृथ्वी के निर्माण के समय इस ग्रह पर जितना पानी था, अभी भी वह बरकरार है। यह कल्पना दिलचस्प है कि जो बूंदें हम पर गिर रही हैं वे कभी डाइनॉसोर के खून के साथ बहती होंगी या हजारों बरस पहले के बच्चों के आंसुओं में शामिल रही होंगी।

पानी की कुल मात्रा बरकरार रहेगी, फिर भी मुमकिन है कि इंसान उसे भविष्य में अपने और अन्य प्राणियों के उपयोग के लायक न छोड़े। पेयजल संकट की कई वजहें हैं। पानी की खपत हर बीसवें साल में प्रतिव्यक्ति दोगुनी हो जा रही है। आबादी बढ़ने की रफ्तार से भी यह दोगुनी है। अमीर औद्योगिक देशों की तकनीकी और आधुनिक स्वच्छता प्रणाली ने जरूरत से कहीं ज्यादा पानी के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया है। दूसरी ओर घर-गृहस्थी और नगरपालिकाओं के तहत दस फीसद पानी की खपत होती है।

दुनिया में ताजा पानी की कुल आपूर्ति का बीस से पच्चीस फीसद हिस्सा उद्योग सोख रहें हैं। और उनकी मांग बढ़ती जा रही है। तेजी से बढ़ रहे कई उद्योग पानी की भारी खपत करते हैं। मसलन सिर्फ अमेरिकी कम्प्यूटर उद्योग साल भर में 396 अरब लीटर पानी पी जाते हैं। पानी की सबसे ज्यादा खपत सिचाई में होती है। इंसान कुल जितना पानी इस्तेमाल करता है उसका पैंसठ से सत्तर फीसद हिस्सा सिंचाई में लगता है। औद्योगिक यानी कंपनियों की खेती में निरंतर अधिकाधिक पानी की खपत के तौर तरीके अपनाए जा रहे हैं। कंपनियों को सघन सिंचाई वाली खेती के लिए सरकारें और करदाता भारी अनुदान भी देती हैं। अनुदान मिलने के कारण कंपनियां इसी विधि को बढ़ावा दे रही हैं।

जनसंख्या वृद्धि और प्रति व्यक्ति खपत में वृद्धि के साथ-साथ भूतल जल-प्रणालियों के भीषण प्रदूषण की वजह से बाकी स्वच्छ पानी पर दबाव बढ़ जाता है। जंगलों का विनाश, कीटनाशकों औऱ रासायनिक उर्वरकों से प्रदूषण और ग्लोवल वार्मिंग के सम्मिलित प्रभाव से पृथ्वी की नाजुक जल प्रणाली खतरे में हैं। दुनिया में साफ पानी की कमी हो गई है। 2025 में विश्व की आबादी 2.6 अरब आज की तुलना में अधिक हो जाएगी। इस आबादी के दो-तिहाई लोगों के सामने पानी पर गंभीर संकट होगा और एक तिहाई तो घोर अभाव में होंगे।

बढ़ती मांग और घटती आपूर्ति की वजह से बहुराष्ट्रीय कंपनियों की रुचि इस क्षेत्र में जागृत हुई है, जो पानी से मुनाफा कमाना चाहती हैं। विश्व-बैंक के मुताबिक पानी-उद्योग एक खरब डॉलर तक पहुंच गया है। विश्व बैंक सरकारों पर दबाव बनाए हुए है कि वे जल-आपूर्ति की सार्वजनिक व्यवस्था निजी हाथों में सौंप दें। पानी इक्कीसवीं सदी का ‘नीला सोना’ बन गया है। उदारीकरण, निजीकरण, विनिवेश वगैरह दुनिया के आर्थिक दर्शन पर हावी हैं। ये नीतियां ‘वाशिंगटन सहमति’ के नाम से जानी जाती हैं। पानी का निजीकरण, इन नीतियों से मेल खाता है। यह दर्शन सरकारों को सामाजिक कार्यक्रमों की जिम्मेदारी और संसाधनों के प्रबंधन से मुंह मोड़ लेने की सलाह देता है। ताकि निजी क्षेत्र उनका स्थान ले लें। इस मामले में यह ‘सबके लिए पानी’ की प्राचीन सोच पर सीधा हमला है।

पानी के लिए चारों तरफ मची लूटमार और कोहराम के बीच कोई खुशखबरी है तो यही कि संयुक्त राष्ट्र ने साफ पानी और सफाई को बुनियादी अधिकार मान लिया है। इससे पानी के लिए संघर्षरत तमाम आंदोलनकारी उत्साहित हैं। जीने के लिए पानी जरूरी है। सभी लोगों को समान रूप से पानी मिलना चाहिए न कि उसकी कीमत चुकाने की औकात से। इस बुनियादी दर्शन की दिशा में लड़ने वालों को संयुक्त राष्ट्र के कदम से बल मिलेगा। गौरतलब है कि इस अधिकार को पाने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी है। इस लड़ाई के अगुआ रहे बोलीविया के प्रतिनिधि पाब्लो सोलोन। उन्होंने ने ही संयुक्त राष्ट्र महासभा में ‘स्वच्छ पानी हासिल करने का बुनियादी हक’ पर प्रस्ताव पेश किया और दुनिया को बताया कि दुनिया में हर आठवें आदमी को पीने का पानी नहीं मिलता। हर रोज महिलाओं के बीस करोड़ घंटे पानी इकट्ठा करने और उसे घर लाने में बर्बाद होते हैं। दुनिया की आबादी का चालीस फीसद यानी 2.6 अरब लोग पानी की कमी की त्रासदी झेल रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ के मुताबिक हर रोज विकासशील देशों के 24 हजार बच्चे दूषित पानी के सेवन से डायरिया जैसी बीमारी से मरते हैं। हर साढ़े तीन सेकेंड यानी जब तक ‘एक-दो-तीन’ बोला जाता है तब तक एक बच्चा जल-जनित रोग से मर जाता है। कुछ करने का वक्त आ गया है।’

पानी के लिए चारों तरफ मची लूटमार और कोहराम के बीच कोई खुशखबरी है तो यह कि संयुक्त राष्ट्र ने साफ पानी और सफाई को बुनियादी अधिकार मान लिया है। इससे पानी के लिए संघर्षरत तमाम आंदोलनकारी उत्साहित हैं।उनका बहुप्रतीक्षित प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास न हो सका। यह जरूर रहा कि प्रस्ताव के विरोध में किसी देश ने वोट देने की हिम्मत नहीं की लेकिन 41 देश मतदान से दूर रहे। इनमें अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड वगैरह शामिल थे। गौरतलब है कि ये सभी देश अंग्रेजी भाषी हैं। जर्मनी, फ्रांस, इटली, रूस, चीन जैसे गैर अंग्रेजीभाषी विकसित राष्ट्रों ने भी प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया है। इंग्लैंड के एक राजनयिक ने इस अधिकार के खिलाफ कहा था, ‘हम अफ्रीका में संडास बनाने के लिए क्यों खर्च करें?’ इस बहस में अमेरिकी प्रतिनिधि ने प्रस्तावकर्ता बोलीविया के प्रतिनिधि को अपमानजनक शब्दों में धमकाने वाला भाषण दिया। अमेरिका ने कुछ सालों से संयुक्त राष्ट्र में अधिकारों का विरोध करने की नीति जारी कर रखी है। इस मामले में बुश और ओबामा में अंतर नहीं है। इस अधिकार के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जागृति फैलाने वाली प्रमुख नेता मॉड बार्लो का कहना है कि इस फैसले से कुदरत और दूसरे इंसानों के प्रति रवैये में बदलाव होगा। जिन देशों ने प्रस्ताव से विरत रहना उचित समझा वहां की जनता इस ‘कायरता’ की आलोचना भी कर रही है।

पानी के अधिकार को लेकर संयुक्त राष्ट्र ने जो प्रस्ताव पास किया है उसमें कहा गया है, “इस सभा को गहरी चिंता है कि 88.4 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है। 2.6 अरब लोगों को सफाई की बुनियादी जरूरतें मुहैया नहीं है। इस चौंकाने वाली स्थिति से हम वाकिफ हैं कि पांच साल से कम उम्र के पंद्रह लाख बच्चे हर साल पानी की कमी और इस वजह से पैदा बीमारियों से मर जाते हैं। इन बीमारियों से 44.3 करोड़ बच्चों का स्कूल नागा होता है। सभा यह कबूल करती है कि साफ, सुरक्षित और सबके लिए पानी की आपूर्ति हर तरह के मानवधिकारों को हासिल करने का अभिन्न अंग है। सभा यह दृढ़तापूर्वक दोहराना चाहती है कि समस्त मानवाधिकारों की रक्षा और बढ़ोतरी के लिए सरकारों की यह जिम्मेदारी है कि वह यह समझें कि ये अधिकार सार्वभौमिक, अविभाज्य और परस्पर निर्भर हैं। इनकी बाबत एक वैश्विक नजरिया रखना होगा और इन्हें बराबर का महत्व देना होगा।”

अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा निर्धारित विकास के लक्ष्य की प्रतिबद्धता को ध्यान में रखते हुए और इस संदर्भ में राष्ट्राध्यक्षों के लिए गए संकल्प को लेकर यह सभा जोर देती है कि 2015 तक स्वच्छ पानी से वंचित और इन्हें हासिल न कर सकने की हैसियत वाले लोगों की तादाद में से आधे लोगों को पानी मुहैया करा दिया जाएगा। इसी तरह सफाई से वंचित लोगों की तादाद में से आधे लोगों को यह सुविधाएं दिलाने के प्रयास के संकल्प को याद रखना होगा। सभा घोषणा करती है कि साफ और सुरक्षित पेयजल का अधिकार ऐसा मानवाधिकार है जो जीवन के पूरे आनंद और समस्त मानवाधिकारों के लिए मूलभूत तौर पर जरूरी है। स्वच्छ, सुरक्षित, प्राप्य और सामर्थ्य के तहत पानी और इससे जुड़ी सफाई की सुविधाएं सभी को मुहैया कराने की मुहिम को गतिशील करने के लिए सभा सभी सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से अपील करती है कि वे मुख्यतः विकासशील देशों को अंतर्राष्ट्रीय सहायता और सहयोग से वित्तीय संसाधन, सामर्थ्य-वृद्धि के उपाय, तकनीक स्थानांतरण प्रदान करें। सभा मानवाधिकार परिषद के प्रयासों का स्वागत करती है।”

अब पानी को लेकर दुनिया भर में संघर्ष शुरू हो चुका है। दस साल पहले बोलीविया में कोचाबांबा शहर के लोगों ने अपनी पानी की व्यवस्था बहुराष्ट्रीय कंपनी बेकटेल को सौंपे जाने के खिलाफ सफल अहिंसक आंदोलन किया था। इस आंदोलन के नेता एक जूता कंपनी के मिस्त्री ऑस्कर ऑलिवेरा फोरोंडा थे। ऑलिवेरा कहते हैं, ‘पानी सबके लिए है- सभी जीवों, पौधों, पशुओं और मानव-जाति की प्राकृतिक धरोहर।’

आंदोलन की सफलता के बाद उन्होंने जीत का आर्थिक पक्ष बताया था, ‘बढ़े रेट खारिज किए जाने और बहुराष्ट्रीय कंपनी के निष्कासन के बाद कोचाबांबा से तीस लाख डॉलर बाहर जाने से बच जाएंगे। हमारे देश की न्यूनतम आमदनी साठ डॉलर मासिक है और हर परिवार पानी पर खर्च के मद में तीस से अस्सी डॉलर की बचत कर लेगा।’

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