नील का राजकुमार

विश्व बाजार में कृत्रिम नील 1897 में ही आ जाता है। परिणाम यह होता है कि नील का भाव प्रति मन 234 रुपए से गिरकर 100 रुपए हो जाता है। लेकिन 1911 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ जाने पर जर्मनी से कृत्रिम नील आना बंद हो जाने पर बिहार नील का भाव उछलकर 675 रुपए प्रति मन हो जाता है। निलहे गोरों की बाछें खिल जाती हैं। अब नील की खेती के लिए अत्याचार का दूसरा दौर शुरू हो जाता है। बेतिया राज का प्रबंध यूरोपियनों के हाथों में रहने के कारण यहाँ के निलहों को मनमानी करने की पूरी छूट है। जहाँ सबसे अधिक दमन है, वहीं सबसे अधिक उग्र विद्रोह होता है। कहते हैं नील की खेती भारत से ही विलायत गई थी। इसका अंग्रेजी नाम ‘इंडिगो’ है। मूल शब्द ‘इंडिकम’ है जो ‘इण्डिया’ से निकला है। विलायत में यह रंग अत्यन्त लोकप्रिय होकर व्यापार के लिए एक अनमोल वस्तु बन गया था। जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में व्यापार करने आती है, तो सन 1600 में इसके व्यापार की मुख्य वस्तु नील होती है। अनेक वर्षों तक इसका व्यापार फलता-फूलता रहता है। भारत में इसकी खेती सघन रूप से करने के लिए 18वीं शताब्दी के अन्त में कम्पनी गोरे खेतिहरों को बड़ी-बड़ी रकमें उधार में देती है। पहले-पहल यह खेती बंगाल में पसरती है और तभी से भारतीय किसानों पर अत्याचार भी बरसने लगता है।

उस अत्याचार के बारे में पहली झलक एक अंग्रेज अफसर ही देता है। फरीदपुर में पदस्थापित तत्कालीन बंगाल सिविल सर्विस के एक डिप्टी मजिस्ट्रेट ई.डी. लाटूर थे। वे सन 1848 में लिखते हैं कि ‘मानव रक्त से रंजित हुए बिना नील की कोई गाँठ इंग्लैंड नहीं पहुँचती है।’ इस अत्याचार की आवाज जब अंग्रेजी सरकार के कानों में जाती है तो उसकी जाँच के लिए सन 1860 में एक नील आयोग बिठाया जाता है। आयोग के समक्ष आस्ले इडेन नामक एक अन्य अंग्रेज डिप्टी मजिस्ट्रेट अपने सुझाव में निलहे गोरों की घिनौनी करतूतों की सूची देकर कहते हैं कि जब गोरों पर मुकदमा होता है तो न्यायालय में न्याय भी भुला दिया जाता है। बाद में इडेन बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर बने और सर आस्ले इडेन कहलाते हैं। उन्हीं के नाम पर कलकत्ता का मशहूर इडेन गार्डन है।

नील की खेती से परेशान किसान इस आयोग से कहते हैं कि हमारा गला भी काट दिया जाएगा तो भी हम नील नहीं बोयेंगे। वे कहते हैं कि हम उस देश में चले जाएँगे जहाँ नील के पौधे कभी देखे और बोये नहीं जाते। चीखते-चिल्लाते वे किसान कहते हैं कि हम किसी के लिए नील नहीं बोयेंगे- अपने माँ-बाप के लिए भी नहीं, हम गोली खायेंगे लेकिन नील नहीं बोयेंगे।

जब अंग्रेजी सरकार कुछ निलहे गोरों को ही मानद मजिस्ट्रेट बना देती है तो उनकी भर्त्सना करने वाले गीत रचे जाते हैं। ये गीत लोकगायकों द्वारा टोलियों में भी गाए जाते थे। निलहों के अत्याचार पर बंगाल में गीतों का एक संकलन भी प्रकाशित हुआ था। उस समय एक काव्यात्मक त्रिपदी बंगाल में दूर-दूर तक गाई जाती थीः ‘जमीनेर शत्रु नील, कोरमेर शत्रु ढील, तेने ओनी जातेर शत्रु पादरी हिल।’ जमीन का शत्रु नील है, श्रम का शत्रु आलस्य है और जाति का शत्रु पादरी हिल है। लंदन मिशनरी सोबेती के पादरी हिल ने स्वयं उक्त त्रिपदी के बारे में आयोग को बतलाया था।

सबसे हृदयस्पर्शी वर्णन दीनबंधु मित्र अपने नाटक ‘नील दर्पण’ में करते हैं। दीन-बंधु मित्र डाक विभाग में एक अधीक्षक थे। वे नदिया जिले के निवासी थे। यह नाटक वे एक गुप्त नाम से सन 1860 में लिखते हैं। इसका अंग्रेजी अनुवाद माइकेल मधुसूदन दत्त रातों-रात कर डालते हैं। इस अनुवाद का प्रकाशन एक अंग्रेज जेम्स लौंग करते हैं। फिर देश के अनेक नगरों में इसका मंचन होता है तथा कई यूरोपीय भाषाओं में इसका अनुवाद भी। एक बार कलकत्ता में जब इसका मंचन हो रहा था, तो दर्शकों में बैठे ईश्वरचंद्र विद्यासागर इतने उत्तेजित हो उठते हैं कि वे निलहे गोरे की भूमिका करने वाले कलाकार को जूते से पीट देते हैं! ये सारी घटनाएँ मोहनदास करमचंद गाँधी तथा राजकुमार शुक्ल के जन्म से पूर्व ही घट चुकी हैं। नील-अशांति नदिया और जैसोर जिलों में तो दब जाती है, लेकिन बिहार में फिर उभर पड़ती है।

सन 1911 तक बिहार भी तो बंगाल का ही एक हिस्सा था। तब के तिरहुत सरकार (तब सरकार का अर्थ एक प्रशासनिक इकाई विशेष) में दरभंगा राज के अंतर्गत पंडौल नील कारखाने के मैनेजर और रैयतों के बीच वर्ष 1866 में कुछ विवाद होता है। एक वर्ष बाद ही एक उग्र प्रदर्शन। और उसके बाद हिंसा फूट पड़ती है। पहले-पहल चम्पारण में मझौलिया के निकट के जौकटिया गाँव के रैयत सुगौली के लाल सरैया नील कारखाने के साथ हुए करार को तोड़ देते हैं और नील नहीं बोने का अपना फैसला जाहिर करते हैं। वे अपने खेतों में नील के बदले रबी की फसलें बो देते हैं। अन्य अनेक गाँव जौकटिया का साथ देते हैं। इस एकजुट विरोध से निलहे थोड़े समय के लिए तो झुक जाते हैं लेकिन उनका दमनचक्र पुनः प्रारम्भ हो जाता है।

बिहार में गंगा के उत्तर में सारण, मुजफ्फपुर,पूर्णिया तथा दक्षिण में मुँगेर और भागलपुर जिलों में नील की खेती होती थी। भागलपुर जिले का करीब आधा हिस्सा तो गंगा के उत्तर में पड़ता है। बाद में इस जिले का अधिकांश उत्तरी हिस्सा सहरसा जिला बन जाता है। सहरसा जिला भी बँटकर अब तीन जिलों- सहरसा, सुपौल और मधेपुरा में बदल चुका है। अलेक्जेंडर नोएल (बाद में नोएल एण्ड कम्पनी) द्वारा सन 1778 के आस-पास पहले-पहल वैज्ञानिक तरीके से नील की खेती तथा निर्माण का काम आरम्भ हुआ। पुराने मुज़फ़्फ़रपुर तथा पुराने दरभंगा जिलों को मिलाकर बना तिरहुत सरकार का पहला कलेक्टर फ्रैंकोईश ग्रैंड सन 1782 में इस पद पर अपनी नियुक्ति के बाद से ही अपने तीन-तीन फार्म तथा फैक्टरियाँ स्थापित करने में लग जाता है। लोक कल्याण के लिए किया गया कोई भी काम तो उसके पास नहीं रहता है। लेकिन अपनी कलेक्टरी के तीन वर्षों बाद भी वह निर्लज्जता पूर्वक कहता है कि मैंने यूरोपीय तरीके से नील की खेती आरम्भ की, नील के निर्माण तथा खेती को स्थापित करने में प्रोत्साहन दिया और अपने ही खर्च पर तीन फार्म भी खड़े किए। इस निर्लज्ज, दुस्साहसी, स्वार्थलोलुप तथा प्रशासनहीन कलेक्टर को ईस्ट इण्डिया कम्पनी नौकरी से हटा देती है। आखिर क्यों न हटाए? डकैत के घर चोर जो घुस आया था। मुज़फ़्फ़रपुर जिले के अन्तर्गत ही मोतीपुर में सन 1789 में डच लोग भी नील का कारोबार शुरू कर देते हैं।

कहा जाता है कि चम्पारण में नील का पहला कारखाना सन 1813 में कर्नल हिक्की रेलवे स्टेशन चकिया के बीच में बारा नाम की जगह में स्थापित करते हैं। इस कारखाने की प्रसिद्धि के कारण इस स्थान का जुड़वाँ नाम बाराचकिया प्रसिद्ध हो जाता है। किसानों को पहले तो गन्ने की खेती से सबसे अधिक आय हुआ करती थी। लेकिन जब सन 1850 में नील के भाव काफी बढ़ जाते हैं, तो चीनी के कारखानों के स्थान पर नील के कारखाने लगने लगते हैं। शुरू-शुरू में जहाँ-जहाँ नील और गन्ने की खेती के लिए मिट्टी अच्छी होती है, वहाँ नील के कारखाने बनाए जाते हैं। लेकिन सन 1875 तक निलहे गोरे अपना दबदबा कायम कर लेते हैं। 1892-97 में एक सर्वेक्षण होता है। उसमें पाया जाता है कि चम्पारण में नील के इक्कीस कारखाने तथा उनकी 48 कोठियों में करीब 33,000 कामगार हैं तथा 95,970 एकड़ अर्थात कुल कृषि भूमि के सात प्रतिशत भाग में नील की खेती हो रही है। निलहों के अत्याचार बढ़ने लगते हैं। उन अत्याचारों के सम्बन्ध में जाँच आयोग बिठाने की किसानों की माँग लेफ्टिनेंट गवर्नर द्वारा अनसुनी कर दी जाती है। पटना प्रमण्डल के आयुक्त बेली स्टुअर्ट सन 1870 में लिखते हैं: ‘यह बात स्थानीय अधिकारियों को साफ-साफ दिख रही है कि काफी असंतोष व्याप्त है।’

विश्व बाजार में कृत्रिम नील 1897 में ही आ जाता है। परिणाम यह होता है कि नील का भाव प्रति मन 234 रुपए से गिरकर 100 रुपए हो जाता है। लेकिन 1911 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ जाने पर जर्मनी से कृत्रिम नील आना बंद हो जाने पर बिहार नील का भाव उछलकर 675 रुपए प्रति मन हो जाता है। निलहे गोरों की बाछें खिल जाती हैं। अब नील की खेती के लिए अत्याचार का दूसरा दौर शुरू हो जाता है। बेतिया राज का प्रबंध यूरोपियनों के हाथों में रहने के कारण यहाँ के निलहों को मनमानी करने की पूरी छूट है। जहाँ सबसे अधिक दमन है, वहीं सबसे अधिक उग्र विद्रोह होता है।

अंग्रेजों के प्रचार-तंत्र ने चारों तरफ इस बात का प्रचार-प्रसार कर दिया था कि बेतिया राज के महाराजा की फिजूलखर्ची तथा विलासिता और उसके कर्मचारियों के कुप्रबंध ने इस राज्य को कर्ज में डुबो दिया है। सन 1876 में टी. गिब्बन नामक एक अंग्रेज इस राज्य का मैनेजर इसलिए नियुक्त किया जाता है कि राज्य को कर्ज के दलदल से निकाला जा सके। मैनेजर एक योजना बनाते हैं: इस योजना के अन्तर्गत इंग्लैंड का गिलीलैंड यहाँ करीब 95 लाख रुपए का स्टर्लिंग कर्ज सिर्फ एक शर्त पर देता है कि इसका जिम्मा यूरोपियन लें! यही कर्ज आग में घी डालता है। शर्त को पूरा करने और कर्ज को चुकाने के लिए राज की जमींदारी के टुकड़े गोरे साहबों को पट्टों पर दे दिये जाते हैं। करीब प्रत्येक पंद्रह-सोलह किलोमीटर पर किसी न किसी गोरे की कोठी और कचहरी बन जाती है। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में उत्तर बिहार का प्रशासन यूरोपियन निलहों की मुट्ठी में आ जाता है। लेकिन इस मुट्ठी का सबसे ज्यादा कसाव चम्पारण को झेलना पड़ता है।

सरकार का अपना ही एक अधिकारी जून 1915 में रिपोर्ट प्रस्तुत करता है कि इन किसानों की अधिकतर शिकायतें सच्ची हैं। इस अफसर का नाम जे.ए. स्वीनी है। ये सेटलमेंट अफसर थे। जमीन के सर्वे के काम के सिलसिले में उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर स्वयं वस्तु-स्थिति को जाना-समझा था। लेकिन सरकार उस रिपोर्ट को भी बस्ते में बाँधकर रख देती है। स्वीनी को अपने सजातीय लोगों से घृणा और अपमान मिलता है। गोरे अफसर तो उनसे बोलचाल तक बंद कर देते हैं। एक प्रकार से वे जाति-बहिष्कृत हो जाते हैं। जब उनका स्थानांतरण होता है, तो कोई गोरा अफसर उन्हें बिदा करने नहीं निकलता है।विरोध और विद्रोह की आग की लपटें गाँव-गाँव में फैलने लगती हैं। इन्हीं लपटों से मशालें जलाई जाती हैं। सतवरिया के राजकुमार शुक्ल, साठी गाँव के शेख गुलाब तथा लौरिया थाने के ही मठिया गाँव के शीतल राय मशालधारियों की सबसे अग्रिम पंक्ति में आ जाते हैं। ये लोग गाँव-गाँव घूमते हैं, संगठन बनाते हैं और निलहों के अत्याचार से लोहा लेने के लिए किसानों को जगाते हैं। सन 1907 में साठी गाँव अंगड़ाई लेने लगता है। शेख गुलाब की अगुवाई में मुसलमान रैयत मीटिंग करते हैं तथा नील की खेती करना छोड़ देते हैं। ये तीनों रणबांकुरे पीड़ित किसानों तथा उनके सहयोगियों से चंदा एकत्र कर एक सामूहिक कोष भी बनाते हैं। यह कोष खाने-पीने और मौज-मस्ती के लिए नहीं है, एक-एक पैसे का हिसाब रखा जाता है। कचहरियों में मुकदमों के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए इस राशि का उपयोग किया जाता है। सन 1908 में शेख गुलाब के साथ कुछ अन्य लोगों को पुलिस अधिनियम के अंतर्गत विशेष कांस्टेबल नियुक्त किया जाता है, लेकिन ये लोग विशेष कांस्टेबल के रूप में काम करने से इनकार कर देते हैं। तब इन्हें जेल की सजा सुनाई जाती है।

इस सजा से कलकत्ता उच्च न्यायालय इन्हें मुक्त कर देता है। इसी वर्ष 30 अप्रैल को कलकत्ता के खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी ब्रितानी हुकूमत तथा अत्याचार के खिलाफ मुज़फ़्फ़रपुर में बम फेंकते हैं। इसी वर्ष शीतल राय को उनके मठिया गाँव के मकान में घेरकर 26 अक्तूबर को गिरफ्तार कर लिया जाता है। शीतल राय के बदन में आग लग जाती है जब वे देखते हैं कि एस.डी.एम के बंगले के समीप ही जेल जाते समय शीतल राय के पीछे-पीछे करीब चार हजार किसानों की भीड़ है। इस गिरफ्तारी की खबर कलकत्ता के ‘अमृत बाजार पत्रिका’ नामक अंग्रेजी दैनिक में 9 नवम्बर 1908 को प्रकाशित होती है। शीतल राय, राधेमल तथा अन्य 26 व्यक्तियों को सश्रम कारावास की सजा दी जाती है। इस मुकदमे और सजा की पृष्ठभूमि में वह सार्वजनिक सभा है, जो 1908 के दशहरे के समय बेतिया मेले में आयोजित होती है। इस मेले में तिनकठिया प्रणाली के विरोध में खुलकर बोला जाता है। शीतल राय और शेख गुलाब के शंखनाद पर हजारों मुट्ठियाँ एक साथ बंध जाती हैं। राजकुमार शुक्ल अपनी चाणक्य बुद्धि से इस सभा को सफल बनाते हैं। किसानों का एक संगठन बन जाता है।

पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार सन 1908 के दशहरा मेले में राजकुमार शुक्ल, शेख गुलाब और शीतल राय की तिकड़ी के नेतृत्व में बेतिया के चारों तरफ के किसान बड़ा रमना के दक्षिणी छोर पर निर्णय लेते हैं कि अब हम नील नहीं बोयेंगे। सभा में यह भी तय किया जाता है कि किसी गाँव पर कोई संकट आएगा तो गाँव के लोग ‘हो...हो...’ चिल्लाकर आस-पास के गाँवों के लोगों को सूचित करेंगे। मेले से किसान दुगने उत्साह के साथ अपने-अपने घर लौट आते हैं। वे अन्य किसानों को प्रोत्साहित करने में लग जाते हैं कि नील नहीं बोना है।

डब्लू, आर. गोरले नामक एक गोरे अफसर कभी बेतिया के एस.डी.ओ. और चम्पारण के कलेक्टर हुआ करते थे। वे सन 1908 में बंगाल के कृषि निदेशक थे। बंगाल के गवर्नर किसानों के विद्रोह के कारणों के सम्बन्ध में जाँच करने के लिए उन्हें नियुक्त करते हैं। ये दिसम्बर 1908 तथा जनवरी 1909 में उस विषय में अनौपचारिक जाँच करते हैं और अपनी रिपोर्ट अप्रैल 1909 में सरकार को देते हैं। यद्यपि उनकी रिपोर्ट कभी प्रकाशित नहीं की जाती है तथापि यह तो पता चल ही जाता है कि किसानों की शिकायतें सही पाई गई हैं। सरकार कारागार में बंद किसानों को मुक्त कर देती है, लेकिन गोरले की रिपोर्ट अलमारी में बंद कर देती है।

दिसम्बर 1911 में राजतिलक होने के बाद ब्रिटिश साम्राज्य के सम्राट पंचम जाॅर्ज भारत की यात्रा पर आते हैं। माह के अंत में जब नेपाल में शिकार कर सम्राट भिखनाठोरी के रास्ते वापसी पर हैं तो शुक्ल, शेख और राय के प्रयासों से नरकटियागंज रेलवे स्टेशन पर करीब पंद्रह हजार किसान इकट्ठे हो जाते हैं। काफी हो-हल्ले के बीच किसान अपनी विपत्तियों और दुखड़ों की बातें सम्राट को बतलाते हैं और उनकी जय-जयकार भी करते हैं। किसानों की भाषा न समझ पाने के कारण जब सम्राट पूछते हैं कि ये क्या कह रहे हैं, तो चाटुकार उन्हें बतलाते हैं कि ये लोग ब्रिटिश हुकूमत की प्रशंसा कर रहे हैं और अपनी खुशी जाहिर कर रहे हैं!

निलहों का अत्याचार बढ़ जाता है। ज्यों-ज्यों अत्याचार बढ़ता है त्यों-त्यों राजकुमार शुक्ल, शीतल राय और शेख गुलाब की गतिविधियाँ तेज होती जाती हैं। गाँव-गाँव में उनका संगठन मजबूत होता जाता है। हर दिन कुछ नए लोग शामिल होते जाते हैं। लेकिन अभी तक उन्हें जिले से बाहर फरियाद सुनाने का मौका नहीं मिल पाया है।

जब बिहार प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन के छपरा में आयोजन की घोषणा होती है, तो इन तीनों सेनानियों को अंधकार में प्रकाश की एक क्षीण रेखा दिखाई पड़ती है। किसानों के प्रतिनिधि के रूप में राजकुमार शुक्ल तीन अप्रैल, 1915 के उस सम्मेलन में छपरा पहुँचते हैं। वे किसानों की दुर्दशा का आँखों देखा हाल सम्मेलन में मंच से विस्तारपूर्वक कहते हैं। सैकड़ों आँखें नम हो जाती हैं। इस व्यथा-कथा से ब्रजकिशोर प्रसाद भी हिल जाते हैं। ब्रजकिशोर बाबू दरभंगा में वकालत करते थे। उन्होंने स्वयं किसानों की प्रताड़ना नहीं देखी थी, लेकिन उस मंच से तथा उसके बाद जो बातें उन्होंने सुनीं, उनके सम्बन्ध में उनके जैसे पार्षदों से सरकार सदन में तो समर्थन की ही आशा रखती थी। ब्रजकिशोर बाबू सदन में मई, 1915 में बड़ी संयत भाषा में एक प्रस्ताव रखते हैं कि किसानों की शिकायतों की जाँच करने के लिए एक जाँच समिति नियुक्त की जाए। लेकिन सरकारी पक्ष प्रस्ताव को ठुकरा देता है। गवर्नर सर चार्ल्स बेली उस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करते हैं।

लेकिन सरकार का अपना ही एक अधिकारी जून 1915 में रिपोर्ट प्रस्तुत करता है कि इन किसानों की अधिकतर शिकायतें सच्ची हैं। इस अफसर का नाम जे.ए. स्वीनी है। ये सेटलमेंट अफसर थे। जमीन के सर्वे के काम के सिलसिले में उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर स्वयं वस्तु-स्थिति को जाना-समझा था। लेकिन सरकार उस रिपोर्ट को भी बस्ते में बाँधकर रख देती है। स्वीनी को अपने सजातीय लोगों से घृणा और अपमान मिलता है। गोरे अफसर तो उनसे बोलचाल तक बंद कर देते हैं। एक प्रकार से वे जाति-बहिष्कृत हो जाते हैं। जब उनका स्थानांतरण होता है, तो कोई गोरा अफसर उन्हें बिदा करने नहीं निकलता है।

विश्व रंगमंच पर प्रथम विश्वयुद्ध का दृश्य अपने उफान पर है। इधर चम्पारण के रंगमंच पर निलहों के विरुद्ध किसानों का धर्मयुद्ध भी उत्कर्ष पर है। राजकुमार शुक्ल हर सुबह चिउड़ा-दही का नाश्ता कर सतवरिया से निकलते हैं और न जाने कहाँ-कहाँ किसके-किसके पास जाते रहते हैं। फिर भी वे क्या कर रहे हैं, यह उनके गाँव के लोग भी पूरी तरह नहीं समझ पा रहे हैं।

बेतिया राज चम्पारण के किसानों को भेड़ियों के हवाले कर देता है। भोले-भाले निरीह किसान दबाए जा रहे थे, कुचले और पीसे जा रहे थे। अत्याचार का अंतहीन सिलसिला। लोग मान रहे थे कि यही उनका भाग्य है। राजकुमार शुक्ल उन्हें ललकारते हैं कि हममें अपने भाग्य को बदलने की ताकत है- उठो, जागो, बढ़ो और लड़ो। चारों तरफ निराशा के घटाटोप के बीच राजकुमार शुक्ल अपने अदम्य साहस के साथ आशान्वित हैं। वे उन किसानों में से एक हैं जो जानते हैं कि परती जमीन को भी हल का फल कैसे चीरता है। वे नील के धब्बे को सदा-सदा के लिए धो डालना चाहते हैं। चम्पारण की भूमि पर पड़े ये नील के धब्बे उन्हें बेचैन किये रहते हैं। वे रात-रात भर जागते हैं और दिन-दिन भर चलते हैं।

निलहों के पाप का घड़ा भर चुका था। किसान चाहें या न चाहें, उन्हें जबरदस्ती अपनी जमीन के प्रत्येक बीघे में से तीन कट्ठे में नील की खेती करनी पड़ रही है। कुल जमीन के पंद्रह प्रतिशत भाग पर। निलहों की तय की हुई दर पर उन्हें नील उन्हीं के हाथों बेचना भी पड़ता था। खेत बंजर होते जाते हैं। उन्हें नील के डंठल भी खाद के रूप में उपयोग करने की अनुमति नहीं दी जाती। उन डंठलों का उपयोग निलहे अपनी जिरात (स्वयं की खेती की जमीन) में करते हैं।

सन 1908 में साठी कोठी नील की खेती के बदले ‘पाईन खर्च’ वसूल करना आरम्भ कर देती है। इसका मतलब यह है कि किसान अपने खेत में पानी पटाएँ या न पटाएँ, उन्हें सिंचाई-कर का भुगतान तो करना ही है। इस प्रकार से वसूली जाने वाली रकम को मुसलमान शासकों के समय से ‘अबवाब’ के नाम से जाना जाता है। जिस निलहे को जो मन में आता है, वह नए-नए प्रकार का अबवाब वसूल करना शुरू कर देता है। लगान और पाईन खर्चा के अलावा लगान के प्रत्येक रुपए पर किसानों को एक आना और देना पड़ता! इसका नाम ‘बांधबहेरी’ था।

गाँधी काठियावाड़ी किसान की पोशाक में हैं। उन्होंने जूते भी नहीं पहन रखे हैं। 20 फरवरी 1916 को गोपालकृष्ण गोखले की मृत्यु पुणे में होने के बाद से उन्होंने साल भर शोक मनाने के सिलसिले में नंगे पाँव रहने का व्रत लिया है। बिहार के प्रतिनिधियों के शिविरों से बहुत ज्यादा दूर वह शिविर भी नहीं है, जिसमें गाँधी ठहरे हुए हैं। ब्रजकिशोर प्रसाद को साथ लेकर शुक्लजी गाँधी के शिविर में जाते हैं। वे गाँधी के पाँव पड़कर अनुरोध करते हैं कि चम्पारण के रैयतों की दुर्दशा पर एक प्रस्ताव वे कांग्रेस के मंच पर लायें। ब्रजकिशोर बाबू काले अचकन और पायजामे में हैं। गांधी सोचते हैं कि निश्चित रूप से यह वकील भोले-भाले किसानों का शोषक होगा। किसान को अपना ही हल रखने के लिए प्रत्येक हल पर तीन रुपए सालाना देने पड़ते थे। इसे ‘बेंटमाफी’ कहते थे। जब कोई रैयत मर जाता है तब उसकी संतान से ‘बपही-पुतही’ नामक एक विचित्र कर वसूला जाता था। किसान अपनी लड़की की शादी के लिए मड़वा बनवाता तो कोठी वाले उससे मड़वच के नाम पर सवा रुपए वसूल कर लेते थे। किसी विधवा का पुनर्विवाह है तो सगौड़ा के नाम पर उससे पाँच रुपए वसूल किए जाते थे। तेल अथवा गन्ने पेरने के लिए कोई अपना कोल्हू रखता है तो ऐसे प्रत्येक कोल्हू के लिए उससे एक रुपए कोल्हुआवन लिया जाता था। हल्दी की खेती करने वाले किसान को हल्दी उबालने के लिए रखे गए प्रत्येक चूल्हे के लिए एक रुपए चुल्हियावन देना पड़ता। मिट्टी के बर्तन के लिए ‘बाटछपी’ के नाम पर एक रुपया वसूल किया जाता। जो किसान गल्ला बेचते, उनसे ‘बेचाई’ के नाम पर एक रुपए या दो रुपए सालाना वसूले जाते। होली के अवसर पर फगुअही, दशहरे के अवसर पर दशहरी और उसी प्रकार रामनवमी और दावत पूजा के अवसरों पर भी कोठी वाले या उनके कर्मचारी किसानों से कुछ न कुछ वसूल ले जाते।

किसी निलहे को हाथी खरीदना होता तो हाथी का दाम वे रैयतों से ‘हथिअही’ के नाम पर वसूलते। इसी प्रकार घोड़े के लिए घोड़ही, मोटरकार तक के लिए मोटरही अथवा हवही और नाव के लिए नवही भी वसूले जाते। किसी निलहे को घाव हो जाता तो घवही के नाम पर उसकी कोठी अपने रैयतों से कर वसूलती! बीमार पड़ने पर हर निलहा अपने इलाज का खर्च रैयतों से वसूलता था। कोठी के बाग में आम या कटहल ज्यादा फल जाते तो रैयतों के बीच बाँट जरूर दिए जाते लेकिन उसकी कीमत रैयत की हैसियत के अनुसार अमही और कटहरी के नाम पर वसूली जाती। जब साहब या उसका मैनेजर किसी गाँव में जाता है, तो बारी-बारी से हर रैयत आकर सलामी करता है और कम से कम एक रुपया प्रति आदमी सलामी के नाम भेंट चढ़ाता। रैयत अपनी लगान की रसीद कटवाते थे, तो प्रत्येक रसीद के लिए एक आना चुकाना पड़ता। रसीद के साथ रसीदावन की वसूली का सिलसिला तो हम आज भी देख रहे हैं। इसी प्रकार फरकवात, दस्तूरी, हिसाबान, तहरीर, दीवान-दस्तूरी, महापात्री, राजअंक, मुखदेखी, दीवानभेंटी, गुरुभेंटी, जंगलाइसिमनबीसी, दही-च्युड़ाहा, जमुनही इत्यादि दर्जनों प्रकार के अबवाब वसूल किए जाते।

लेकिन निलहों का मन इस सबसे भी नहीं भरता। ये रैयतों से छोटी-छोटी बातों के लिए जुर्माना वसूल करते। रैयतों को इस तरह से घेरकर रखा जाता कि वे अपने सारे वास्तविक और मनगढ़ंत झगड़ों के निपटारे के लिए कोठियों में ही पहुँचें। ये कोठियाँ उन बिल्लियों की तरह बन गई थीं जो चूहों के लिए न्याय करती थीं।

लखनऊ में अंबिकाचरण मजूमदार के सभापतित्व में 26 से 30 दिसम्बर, 1916 को कांग्रेस का अधिवेशन आयोजित होता है। करीब 2,300 प्रतिनिधि इस अधिवेशन में पहुँचते हैं। देश के कोने-कोने से हजारों की संख्या में दर्शक आते हैं। बड़ी गहमागहमी है। सन 1916 का पूरा साल लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, श्रीमती ऐनी बेसेंट तथा मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में राजनीतिक सरगर्मियों से भरा रहा। सूरत अधिवेशन में कांग्रेस के विभाजन के बाद तिलक पहली बार लखनऊ अधिवेशन में अपने बहुत सारे समर्थकों के साथ शामिल हो रहे थे। अन्य प्रांतों की तरह बिहार से भी वहां बहुत बड़ी संख्या में प्रतिनिधि पहुँचे थे। इसमें ब्रजकिशोर प्रसाद, राजेंद्र प्रसाद और मजहरुल हक भी थे। अधिवेशन में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा मोहनदास करमचंद गाँधी भी आए हैं। विराट पुरुष के रूप में तिलक करोड़ों दिलों की धड़कनों के रूप में खड़े हैं।

बिहार के प्रतिनिधियों की भीड़ में एक मामूली किसान भी आया है। साधारण कुर्ता-धोती और टोपी में राजकुमार शुक्ल अपनी टूटी-फूटी भाषा में बातें करते राष्ट्रीय स्तर के जनसमुद्र में इधर से उधर तिर रहे हैं। बड़े परेशान हैं कि चम्पारण में निलहों के अत्याचार की बातें इस सम्मेलन के मंच से देशवासियों तक कैसे पहुँचाई जाये।

उस जनसमुद्र में राजकुमार शुक्ल को पार उतारने वाले एकमात्र व्यक्ति मोहनदास करमचंद गाँधी दिखाई पड़ते हैं। शुक्लजी पहले लोकमान्य तिलक और मदनमोहन मालवीय से मिलकर अपने जिले के किसानों की करुण गाथा सुनाते हैं लेकिन वे दोनों नेता कहते हैं कि कांग्रेस के सामने तो अभी तात्कालिक प्रश्न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता है। शुक्लजी बेचैन हो उठते हैं। देश की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है, जब देशवासियों की कराह अनसुनी की जा रही हो? शुक्लजी सुन चुके हैं कि गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में गिरमिटिया मजदूरों का उद्धार किया है। गाँधी काठियावाड़ी किसान की पोशाक में हैं। उन्होंने जूते भी नहीं पहन रखे हैं। 20 फरवरी 1916 को गोपालकृष्ण गोखले की मृत्यु पुणे में होने के बाद से उन्होंने साल भर शोक मनाने के सिलसिले में नंगे पाँव रहने का व्रत लिया है। बिहार के प्रतिनिधियों के शिविरों से बहुत ज्यादा दूर वह शिविर भी नहीं है, जिसमें गाँधी ठहरे हुए हैं। ब्रजकिशोर प्रसाद को साथ लेकर शुक्लजी गाँधी के शिविर में जाते हैं। वे गाँधी के पाँव पड़कर अनुरोध करते हैं कि चम्पारण के रैयतों की दुर्दशा पर एक प्रस्ताव वे कांग्रेस के मंच पर लायें। ब्रजकिशोर बाबू काले अचकन और पायजामे में हैं। गांधी सोचते हैं कि निश्चित रूप से यह वकील भोले-भाले किसानों का शोषक होगा।

‘हमनी के दुखड़ा के बारे में वकील बाबू रउआ से सब कुछ कहिहें’ उन्होंने कहा और गाँधीजी से चम्पारण चलने के लिए अनुरोध किया। वकील बाबू और कोई नहीं बल्कि ब्रजकिशोर बाबू थे जो बाद में चम्पारण में गाँधी के सुयोग्य सहकर्मी बने और जो बिहार में सार्वजनिक कार्यों के प्राण थे।

चम्पारण के बारे में उनसे यह सब सुनकर गाँधीजी ने अपनी कार्यशैली के अनुसार उन्हें उत्तर दियाः “जब तक अपनी आँखों से स्वयं स्थिति देख नहीं लूँ तब तक मैं अपना विचार नहीं दे सकता हूँ। कृपया आप स्वयं कांग्रेस में प्रस्ताव लाएँगे लेकिन अभी के लिए मुझे बिलकुल छोड़ ही दें।” राजकुमार शुक्ल कांग्रेस से कुछ मदद चाहते ही थे। बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद चम्पारण के लोगों के लिए सहानुभूति व्यक्त करते हुए कांग्रेस सत्र के दूसरे दिन यह प्रस्ताव लाते हैं- ‘उत्तर बिहार में भूमि संघर्ष के कारणों तथा नीलरैयतों और यूरोपियन निलहों के बीच तनावपूर्ण सम्बन्धों की जाँच करने के लिए सरकारी अधिकारियों तथा गैर सरकारी सदस्यों की मिश्रित कमिटी नियुक्त करने की आवश्यकता को समझने के लिए कांग्रेस सर्वाधिक सम्मानपूर्वक सरकार से अनुनय करती है।’

यह भोथरा प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हो जाता है। इस प्रस्ताव के समर्थन में मंच से राजकुमार शुक्ल अपनी टूटी-फूटी भाषा में हजारों लोगों के सामने जब बोलते हैं तो बड़े-बड़े नेताओं की टकटकी बंध जाती है। पंडाल में लोग एक-दूसरे से पूछना शुरू कर देते हैं- यह व्यक्ति कौन है? यह चम्पारण कहाँ है। चम्पारण का नाम राष्ट्रीय क्षितिज पर उभर पड़ता है।

नेशनल बुक ट्रस्ट से सन 1912 में प्रकाशित पुस्तक ‘राजकुमार शुक्ल’ के तीन अध्यायों से सम्पादित अंश। लेखक बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं और भागलपुर विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार भी। श्री राय की सधी हुई कलम श्री राजकुमार शुक्ल की जीवन-कथा के माध्यम से रक्तरंजित नील की गाँठ का अनछुआ इतिहास भी सामने रखती है।

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