जबलपुर के पास कूइन द्वारा बनाया गया ताल आज कोई एक हजार वर्ष बाद भी काम दे रहा है। इसी समाज में रानी दुर्गावती हुई जिसने अपने छोटे से काल में एक बड़े भाग को तालाबों से भर दिया था। सन् 1800 तक मैसूर राज्य में 39,000 और दिल्ली में 350 तालाब थे। जीवन चलाने के लिए प्रकृति ने आकाश में धूप दी तो पृथ्वी पर वायु और जल। वायु तो बाजारवाद के औद्योगीकरण में काफी प्रदूषित हो चुकी है, लेकिन जल तो बाजारवाद के शिकंजे में ऐसा फँसा कि बिकाऊ भी हो गया। जहाँ किसी की प्यास बुझाना अपना धर्म माना जाता था वहीं आज प्यास बुझाने की कीमत वसूल की जा रही है। आदमी को आदमी की ही दृष्टि में शिकार बनाया जा रहा है। पानी पर चल रहा बाजार का यह खेल विभिन्न बाँध परियोजनाओं से शुरू होकर आज मिनरल वाटर तक पहुँच गया है। आज यदि पानी प्रबंन्धन की समस्या हमारे सामने आ गई है तो इसका समाधान निजीकरण नहीं हो सकता है।, पानी को पूजने वाले इस देश में आज भी ऐसी व्यवस्था बनाने की क्षमता है कि पानी सर्वसुलभ हो सकता है।
प्राथमिक कक्षाओं में चलने वाली पुस्तकों से लेकर देश के योजना भवन तक राजस्थान की, विशेषकर मरूभूमि की छवि एक सूखे, उजड़े और पिछड़े क्षेत्र की है। थार रेगिस्तान का वर्णन तो कुछ ऐसा मिलेगा कि कलेजा सूख जाए। देश के सभी राज्यों में क्षेत्रफल के आधार पर सबसे बड़ा राज्य राजस्थान है, लेकिन वर्षा के मामले में सबसे अंतिम है। वर्षा को पुराने इंच में नापे या नए सेंटीमीटर में, वह यहाँ सबसे कम गिरती है। यहाँ की औसत वर्षा देश की औसत वर्षा 110 सेंटीमीटर के मुकाबले 60 सेंटीमीटर ही बैठती हैं कहीं-कहीं पर 25 सेंटीमीटर से भी कम वर्षा होती है। फिर भी यहाँ पर पर्याप्त जल प्रबंध है।
भारत के समाज ने जल को इंच या सेंटीमीटर में नहीं अंगुलों या बित्तों में भी नहीं, बूँदों में मापा और बादल की एक-एक बूँद को टाँकों, कंड कंडियों, बेरियों, जोहड़ों, तालाबों, बावड़ियों और कुएँ, कुँइयों और पार में भरकर उड़ने वाले समुद्र को, अखंड हाकड़ो को खण्ड-खण्ड नीचे उतार लिया। पालर यानी वर्षा के जल को संग्रह कर लेने के तरीके भी यहाँ अनंत हैं। इन तरीकों का आकार इतना बडा है कि हजारों गाँवों और सैकड़ों शहरों, कस्बों में फैल गया। इन तरीकों को समाज ने न राज्य को, न सरकार को सौंपा, न आज की भाषा में निजी हाथों को।
वर्षा के पानी को संग्रह करने के लिए कुंई बनायी जाती है। यह तीस-चालीस फुट जमीन के नीचे होती है। कुंई में न तो अंतर पर बहने वाला पानी है न भू-जल है। इसमें वर्षा के माध्यम से आने वाले जल को संग्रह करते हैं। चूँकि राजस्थान जैसे राज्यों का भू-जल खारा होता है इसलिए गहराई तक न खोद कर बीस-पच्चीस घन तक ही खोदते है । यहाँ पानी एक-दो वर्ष तक रहता है। दूसरा तरीका है कंडी-कुंडा या कुंड। जहाँ जितनी जगह मिल सके, वहाँ गारे-चूने से लीप कर एक ऐसा आँगन बना लिया जाता है जो थोड़ी ढाल लिए रहता है। “आँगन” के आकार के हिसाब से उस पर बरसने वाली वर्षा के हिसाब से इस केन्द्र में एक कुंड बनाया जाता है। कुंड के भीतर की चिनाई इस ढंग से की जाती है कि एकत्र होने वाले पानी की एक बूँद भी रिसती नहीं। वर्ष भर पानी सुरक्षित और साफ-सुथरा बना रहता है। यहाँ गौर करने की बात है कि मरूभूमि में तीस हाथ पानी भरा हो फिर भी तीस बूंद भी रिसन नहीं होगी।
हमारे देश में अधिकांश नदियाँ बारहमासी नहीं हैं। ये कहीं से प्रारम्भ होती हैं बहती हैं और फिर भूमि में ही विलीन हो जाती है। ऐसी नदियों के पानी का उपयोग करने के लिए राजस्थान में खडीन बनाई गई है। खडीन एक प्रकार का अस्थाई तालाब है। दो तरफ मिट्टी की दीवार उठाकर तीसरी तरफ पत्थर की मजबूत चादर लगाई जाती है। खडीन में आराम करती हुई यह नदी धीरे-धीरे सूखती जाती है, सूखने तक तो इसका उपयोग होता रहता है, सूख जाने के बाद बची नम जमीन पर गेहूँ आदि फसलें संभव हो जाती हैं।
तालाब के संदर्भ में भारत में उसके आकार प्रकार और उनके नाम भी बदल जाते हैं। बंगाल में तो हर परिवार से जुड़ा हुआ लगभग एक तालाब है। देश में सदियों से सभी प्रान्तों में तालाब बनते रहे हैं। जब भी कोई राजा अच्छे कार्य करवाता था तो वह तालाब बनवाने को ही प्राथमिकता देता। इसकी पुष्टि ऐतिहासिक साक्ष्यों, जनश्रुतियों और कहानी-किस्सों से भी होती है। उदाहणार्थ गोंड समाज का तालाबों से गहरा संबंध रहा है। महाकौशल में गोंड का यह गुण जगह-जगह तालाबों के रूप में बिखरा मिलेगा। जबलपुर के पास कूइन द्वारा बनाया गया ताल आज कोई एक हजार वर्ष बाद भी काम दे रहा है। इसी समाज में रानी दुर्गावती हुई जिसने अपने छोटे से काल में एक बड़े भाग को तालाबों से भर दिया था। सन् 1800 तक मैसूर राज्य में 39,000 और दिल्ली में 350 तालाब थे।
समस्या यह है कि तालाब के रख-रखाव पर हमने कोई ध्यान नहीं दिया। पुराने तालाब साफ नहीं करवाए गए और नए तो कभी बने ही नहीं। पानी के मामले में तालाबों की उपेक्षा के उदाहरणों में कोई कमी नहीं है। मध्य प्रदेश के ही सागर शहर को देखें। कोई 600 बरस पहले ‘लाखा’ बंजारे द्वारा बनाए गए सागर नामक एक विशाल तालाब के किनारे बसे इस शहर का नाम सागर ही हो गया था। आज यहाँ नए समाज की चार बड़ी प्रतिष्ठित संस्थाएँ हैं। पुलिस प्रशिक्षण केंद्र हैं, सेना के महार रेजिमेंट का मुख्यालय है, नगर पालिका है और सर हरिसिंह गौर के नाम पर बना विश्वविद्यालय है। एक बंजारा यहाँ आया और विशाल सागर बनाकर चला गया, लेकिन नए समाज की चार साधन संपन्न संस्थाएँ इस सागर की देखभाल तक नहीं कर पाईं। आज सागर तालाब पर ग्यारह शोध प्रबंध पूरे हो चुके हैं, डिग्रियाँ बंट चुकी हैं पर एक अनपढ़ माने गए बंजारे के हाथों बने सागर को पढ़ा-लिखा माना गया समाज बचा तक नहीं पा रहा है।
परम्परा गत रूप से तालाब के रख-रखाव का काम हमारे समाज ने समस्या के तौर पर कभी नहीं लिया। बल्कि इसे प्रसाद की तरह ग्रहण किया। चूँकि तालाब ही सभी स्थिति में समाज के लिए उपयोगी रहे हैं और लगभग भारत के सभी स्थानों पर इनका निर्माण किया गया, आज भी पूरे पर्यावरण और पेयजल की समस्या का हल इन तालाबों में ही है।
भारत में अभी भी सम्भलने का समय है। सभी शहरों के तालाबों को भरने का काम तुरन्त रोककर उन्हें पुनर्जीवित करने की जरूरत है। जल संकट से उबरने में बड़े बाँध की तुलना में छोटे तालाब और झील अधिक कारगर साबित होंगे। शहरों में पेयजल की भारी बरबादी को भी रोकना होगा। इसके लिए आवश्यकता है पानी के उपयोग को नियंत्रित करने की न कि जल की कीमत लगाने की। जहाँ तक प्रश्न है कृषि क्षेत्रों का वहाँ अंधाधुंध नलकूप लगाने की प्रक्रिया को थामना होगा। साथ ही पानी की खपत बढ़ाने वाले रासायनिक खादों और कीटनाशकों से धीरे-धीरे मुक्ति पानी होगी। सिंचाई के लिए परम्परागत जल स्रोतों को सजीव बनाना होगा जो बारिश के पानी के संग्रह को तो बढ़ाते ही हैं और भू-जल स्तर को भी बनाए रखते हैं।
विकास का प्रतिमान बनी औद्योगिक इकाईयों के द्वारा भू-जल की बरबादी पर रोक लगानी होगी। इन इकाईयों में जल के पुनः उपयोग की व्यवस्था करनी चाहिए। साथ ही इन इकाईयों के प्रदूषित कचरे से नदियों को मुक्त करना होगा। शहरों में अभिजात्य वर्ग का खरीदकर पानी पीना भी अच्छा संकेत नहीं। यह पानी के व्यवसाय को ही बढ़ावा देता है। पानी की बिक्री को रोकने के लिए अभिजात्य वर्ग को भी पानी खरीद से बचना चाहिए।
समाज में प्रचलित कुछ स्वस्थ रीतियों को बढ़ावा देते हुए जगह-जगह प्याऊ लगाने चाहिए। यह पुण्य कार्य है जिसे स्थानीय स्तर पर किया जाना चाहिए। गर्मियों में विभिन्न स्टेशनों पर प्याऊ की व्यवस्था की जानी चाहिए। पानी की बिक्री के पीछे सबसे बड़ा कारण स्वच्छता बताया जाता है। अतः पानी की बिक्री को रोकने के लिए जल की स्वच्छता के संदर्भ में लोगों में जागरण की भी आवश्यकता है। पानी की बरबादी रोकने के लिए विद्यालयों के माध्यम से शिक्षण और जन-जागरण का अभियान चलाना चाहिए। जल को स्वच्छ रखने के परम्परागत साधनों का भी ज्ञान उपयोगी हो सकता है।
अगर हम भारत की जल संग्रह परंपरा की तुलना दुनिया के अन्य पेयजल विहीन प्रदेशों से करें तो स्वावलंबन और स्वाभिमान की एक अनूठी गौरवशाली सांस्कृतिक अनुभूति के दर्शन होते है। दूनिया के मरू देशों बोत्सवाना, इथोपिया, तंजानियाँ,मलावी, केन्या, स्वाजीलैण्ड और सहेल देशों में विदेशी संस्थाओं और विकसित देशों के अरबों रूपये से मामूली पेयजल व्यवस्था बन पायी हैं जबकि राजस्थान की मरूभूमि, जहाँ पर अन्य देशों की अपेक्षा कई गुना अधिक पेयजल की समस्या है, अपने स्वयं के साधनों पर पानी की कमी नहीं होने दी है। यहाँ प्रश्न उठता है कि कब तक ये देश पानी का सारा काम बाहरी शक्तियों तक ही सीमित रखेंगे? यदि ऐसा रहा तो यह व्यवस्था कुछ समय तक के लिए ही रहेगी और अपर्याप्त ही रहेगी।
स्पष्ट है कि विदेशी शक्तियों या कम्पनियों के बजाय जल प्रबंधन सरकारी सहयोग से स्थानीय समुदाय के हाथ में हो। वस्तुतः पानी का प्रबन्ध, उसकी चिन्ता हमारे समाज के कर्तव्यबोध के विशाल सागर की बूँद थी। सागर और बूँद एक-दूसरे से जुड़े थे। सात समुद्र पार से आए अंग्रेजों को समाज के कर्तव्यबोध का सागर नहीं दिखा। उन्होंने मान लिया कि सारी व्यवस्था उन्हें ही करनी है और परम्परागत जल संग्रह की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। आज भी सात समुन्दर पार बैठी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ मान रही हैं कि जल प्रबन्धन उन्हीं के हाथ में है। पानी पर कब्जा करना उनका कर्तव्य है जबकि यह कार्य मूलतः समाज का है। समाज के विभिन्न समुदायों को ही आगे आना होगा। हमारे सामने भागीरथ का उदाहरण मौजूद है। किस तरह पानी की कमी से जूझ रहे मैदानी क्षेत्र के लिए भागीरथ और उनके कुनबों ने पहाड़ों को काटकर गंगानदी को मैदानी क्षेत्र में उतारा। आज भी पानी को बचाने के लिए विभिन्न समुदायों द्वारा ‘भागीरथ प्रयास’ किए जाने की आवश्यकता है।
भारत में समाज की प्रतिभा, कौशल अपना तन-मन-धन सब लगाकर लोगों ने पानी के संकटों से मुकाबला किया है। राजस्थान के समाज ने सैकड़ों वर्षों से पानी की रजत बूँदों को जगह-जगह समेट कर सहेज कर रखने की एक परंपरा बनाई है और इस परंपरा ने कुछ लाख कुंडियाँ, कुछ लाख टाँके,कुछ हजार कुंइयाँ और कुछ हजार छोटे-मोटे तालाब बनाए है। यह सारा काम समाज ने अपने दम से किया है इसके लिए किसी के आगे हाथ नही फैलाया है।
स्पष्ट है कि भारत जैसे विवेकवान, स्वावलंबी समाज को कोई जरूरत नहीं है कि वह आज जल व्यवस्था के लिए विदेशी कंपनियों और निजी हाथों की ओर मुंह ताके। भारत के समाज ने जब थार के रेगिस्तान को अपने मेहनत कौशल से जिन्दा रखा है तो उन प्रदेशों की बात ही क्या, जो राजस्थान की अपेक्षा काफी हरे भरे हैं। यह दावा निराधार नहीं है कि भारत के प्रदेशों में जल के उपयोग की दूरदर्शी गौरवशाली परंपराएँ हैं। आवश्यकता है उनकी पहचान की और समसामयिकता के अनुरूप ढालने की, न कि देशी-विदेशी हाथों में बेंचने की । इतना ही नहीं भारत का कर्तव्य है कि पानी को बाजार के कुचक्र से मुक्त कराने में वह अन्य देशों की अगुवाई करे। भारत की गौरवशाली परंपरा की मजबूत नींव है जिसके ऊपर खड़ा होकर देश-दुनिया को संदेश दे सकता है कि “पानी बिकाऊ नहीं है, हम इसे बिकने नहीं देंगे।”
प्राथमिक कक्षाओं में चलने वाली पुस्तकों से लेकर देश के योजना भवन तक राजस्थान की, विशेषकर मरूभूमि की छवि एक सूखे, उजड़े और पिछड़े क्षेत्र की है। थार रेगिस्तान का वर्णन तो कुछ ऐसा मिलेगा कि कलेजा सूख जाए। देश के सभी राज्यों में क्षेत्रफल के आधार पर सबसे बड़ा राज्य राजस्थान है, लेकिन वर्षा के मामले में सबसे अंतिम है। वर्षा को पुराने इंच में नापे या नए सेंटीमीटर में, वह यहाँ सबसे कम गिरती है। यहाँ की औसत वर्षा देश की औसत वर्षा 110 सेंटीमीटर के मुकाबले 60 सेंटीमीटर ही बैठती हैं कहीं-कहीं पर 25 सेंटीमीटर से भी कम वर्षा होती है। फिर भी यहाँ पर पर्याप्त जल प्रबंध है।
भारत के समाज ने जल को इंच या सेंटीमीटर में नहीं अंगुलों या बित्तों में भी नहीं, बूँदों में मापा और बादल की एक-एक बूँद को टाँकों, कंड कंडियों, बेरियों, जोहड़ों, तालाबों, बावड़ियों और कुएँ, कुँइयों और पार में भरकर उड़ने वाले समुद्र को, अखंड हाकड़ो को खण्ड-खण्ड नीचे उतार लिया। पालर यानी वर्षा के जल को संग्रह कर लेने के तरीके भी यहाँ अनंत हैं। इन तरीकों का आकार इतना बडा है कि हजारों गाँवों और सैकड़ों शहरों, कस्बों में फैल गया। इन तरीकों को समाज ने न राज्य को, न सरकार को सौंपा, न आज की भाषा में निजी हाथों को।
वर्षा के पानी को संग्रह करने के लिए कुंई बनायी जाती है। यह तीस-चालीस फुट जमीन के नीचे होती है। कुंई में न तो अंतर पर बहने वाला पानी है न भू-जल है। इसमें वर्षा के माध्यम से आने वाले जल को संग्रह करते हैं। चूँकि राजस्थान जैसे राज्यों का भू-जल खारा होता है इसलिए गहराई तक न खोद कर बीस-पच्चीस घन तक ही खोदते है । यहाँ पानी एक-दो वर्ष तक रहता है। दूसरा तरीका है कंडी-कुंडा या कुंड। जहाँ जितनी जगह मिल सके, वहाँ गारे-चूने से लीप कर एक ऐसा आँगन बना लिया जाता है जो थोड़ी ढाल लिए रहता है। “आँगन” के आकार के हिसाब से उस पर बरसने वाली वर्षा के हिसाब से इस केन्द्र में एक कुंड बनाया जाता है। कुंड के भीतर की चिनाई इस ढंग से की जाती है कि एकत्र होने वाले पानी की एक बूँद भी रिसती नहीं। वर्ष भर पानी सुरक्षित और साफ-सुथरा बना रहता है। यहाँ गौर करने की बात है कि मरूभूमि में तीस हाथ पानी भरा हो फिर भी तीस बूंद भी रिसन नहीं होगी।
हमारे देश में अधिकांश नदियाँ बारहमासी नहीं हैं। ये कहीं से प्रारम्भ होती हैं बहती हैं और फिर भूमि में ही विलीन हो जाती है। ऐसी नदियों के पानी का उपयोग करने के लिए राजस्थान में खडीन बनाई गई है। खडीन एक प्रकार का अस्थाई तालाब है। दो तरफ मिट्टी की दीवार उठाकर तीसरी तरफ पत्थर की मजबूत चादर लगाई जाती है। खडीन में आराम करती हुई यह नदी धीरे-धीरे सूखती जाती है, सूखने तक तो इसका उपयोग होता रहता है, सूख जाने के बाद बची नम जमीन पर गेहूँ आदि फसलें संभव हो जाती हैं।
तालाब के संदर्भ में भारत में उसके आकार प्रकार और उनके नाम भी बदल जाते हैं। बंगाल में तो हर परिवार से जुड़ा हुआ लगभग एक तालाब है। देश में सदियों से सभी प्रान्तों में तालाब बनते रहे हैं। जब भी कोई राजा अच्छे कार्य करवाता था तो वह तालाब बनवाने को ही प्राथमिकता देता। इसकी पुष्टि ऐतिहासिक साक्ष्यों, जनश्रुतियों और कहानी-किस्सों से भी होती है। उदाहणार्थ गोंड समाज का तालाबों से गहरा संबंध रहा है। महाकौशल में गोंड का यह गुण जगह-जगह तालाबों के रूप में बिखरा मिलेगा। जबलपुर के पास कूइन द्वारा बनाया गया ताल आज कोई एक हजार वर्ष बाद भी काम दे रहा है। इसी समाज में रानी दुर्गावती हुई जिसने अपने छोटे से काल में एक बड़े भाग को तालाबों से भर दिया था। सन् 1800 तक मैसूर राज्य में 39,000 और दिल्ली में 350 तालाब थे।
समस्या यह है कि तालाब के रख-रखाव पर हमने कोई ध्यान नहीं दिया। पुराने तालाब साफ नहीं करवाए गए और नए तो कभी बने ही नहीं। पानी के मामले में तालाबों की उपेक्षा के उदाहरणों में कोई कमी नहीं है। मध्य प्रदेश के ही सागर शहर को देखें। कोई 600 बरस पहले ‘लाखा’ बंजारे द्वारा बनाए गए सागर नामक एक विशाल तालाब के किनारे बसे इस शहर का नाम सागर ही हो गया था। आज यहाँ नए समाज की चार बड़ी प्रतिष्ठित संस्थाएँ हैं। पुलिस प्रशिक्षण केंद्र हैं, सेना के महार रेजिमेंट का मुख्यालय है, नगर पालिका है और सर हरिसिंह गौर के नाम पर बना विश्वविद्यालय है। एक बंजारा यहाँ आया और विशाल सागर बनाकर चला गया, लेकिन नए समाज की चार साधन संपन्न संस्थाएँ इस सागर की देखभाल तक नहीं कर पाईं। आज सागर तालाब पर ग्यारह शोध प्रबंध पूरे हो चुके हैं, डिग्रियाँ बंट चुकी हैं पर एक अनपढ़ माने गए बंजारे के हाथों बने सागर को पढ़ा-लिखा माना गया समाज बचा तक नहीं पा रहा है।
परम्परा गत रूप से तालाब के रख-रखाव का काम हमारे समाज ने समस्या के तौर पर कभी नहीं लिया। बल्कि इसे प्रसाद की तरह ग्रहण किया। चूँकि तालाब ही सभी स्थिति में समाज के लिए उपयोगी रहे हैं और लगभग भारत के सभी स्थानों पर इनका निर्माण किया गया, आज भी पूरे पर्यावरण और पेयजल की समस्या का हल इन तालाबों में ही है।
भारत में अभी भी सम्भलने का समय है। सभी शहरों के तालाबों को भरने का काम तुरन्त रोककर उन्हें पुनर्जीवित करने की जरूरत है। जल संकट से उबरने में बड़े बाँध की तुलना में छोटे तालाब और झील अधिक कारगर साबित होंगे। शहरों में पेयजल की भारी बरबादी को भी रोकना होगा। इसके लिए आवश्यकता है पानी के उपयोग को नियंत्रित करने की न कि जल की कीमत लगाने की। जहाँ तक प्रश्न है कृषि क्षेत्रों का वहाँ अंधाधुंध नलकूप लगाने की प्रक्रिया को थामना होगा। साथ ही पानी की खपत बढ़ाने वाले रासायनिक खादों और कीटनाशकों से धीरे-धीरे मुक्ति पानी होगी। सिंचाई के लिए परम्परागत जल स्रोतों को सजीव बनाना होगा जो बारिश के पानी के संग्रह को तो बढ़ाते ही हैं और भू-जल स्तर को भी बनाए रखते हैं।
विकास का प्रतिमान बनी औद्योगिक इकाईयों के द्वारा भू-जल की बरबादी पर रोक लगानी होगी। इन इकाईयों में जल के पुनः उपयोग की व्यवस्था करनी चाहिए। साथ ही इन इकाईयों के प्रदूषित कचरे से नदियों को मुक्त करना होगा। शहरों में अभिजात्य वर्ग का खरीदकर पानी पीना भी अच्छा संकेत नहीं। यह पानी के व्यवसाय को ही बढ़ावा देता है। पानी की बिक्री को रोकने के लिए अभिजात्य वर्ग को भी पानी खरीद से बचना चाहिए।
समाज में प्रचलित कुछ स्वस्थ रीतियों को बढ़ावा देते हुए जगह-जगह प्याऊ लगाने चाहिए। यह पुण्य कार्य है जिसे स्थानीय स्तर पर किया जाना चाहिए। गर्मियों में विभिन्न स्टेशनों पर प्याऊ की व्यवस्था की जानी चाहिए। पानी की बिक्री के पीछे सबसे बड़ा कारण स्वच्छता बताया जाता है। अतः पानी की बिक्री को रोकने के लिए जल की स्वच्छता के संदर्भ में लोगों में जागरण की भी आवश्यकता है। पानी की बरबादी रोकने के लिए विद्यालयों के माध्यम से शिक्षण और जन-जागरण का अभियान चलाना चाहिए। जल को स्वच्छ रखने के परम्परागत साधनों का भी ज्ञान उपयोगी हो सकता है।
अगर हम भारत की जल संग्रह परंपरा की तुलना दुनिया के अन्य पेयजल विहीन प्रदेशों से करें तो स्वावलंबन और स्वाभिमान की एक अनूठी गौरवशाली सांस्कृतिक अनुभूति के दर्शन होते है। दूनिया के मरू देशों बोत्सवाना, इथोपिया, तंजानियाँ,मलावी, केन्या, स्वाजीलैण्ड और सहेल देशों में विदेशी संस्थाओं और विकसित देशों के अरबों रूपये से मामूली पेयजल व्यवस्था बन पायी हैं जबकि राजस्थान की मरूभूमि, जहाँ पर अन्य देशों की अपेक्षा कई गुना अधिक पेयजल की समस्या है, अपने स्वयं के साधनों पर पानी की कमी नहीं होने दी है। यहाँ प्रश्न उठता है कि कब तक ये देश पानी का सारा काम बाहरी शक्तियों तक ही सीमित रखेंगे? यदि ऐसा रहा तो यह व्यवस्था कुछ समय तक के लिए ही रहेगी और अपर्याप्त ही रहेगी।
स्पष्ट है कि विदेशी शक्तियों या कम्पनियों के बजाय जल प्रबंधन सरकारी सहयोग से स्थानीय समुदाय के हाथ में हो। वस्तुतः पानी का प्रबन्ध, उसकी चिन्ता हमारे समाज के कर्तव्यबोध के विशाल सागर की बूँद थी। सागर और बूँद एक-दूसरे से जुड़े थे। सात समुद्र पार से आए अंग्रेजों को समाज के कर्तव्यबोध का सागर नहीं दिखा। उन्होंने मान लिया कि सारी व्यवस्था उन्हें ही करनी है और परम्परागत जल संग्रह की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। आज भी सात समुन्दर पार बैठी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ मान रही हैं कि जल प्रबन्धन उन्हीं के हाथ में है। पानी पर कब्जा करना उनका कर्तव्य है जबकि यह कार्य मूलतः समाज का है। समाज के विभिन्न समुदायों को ही आगे आना होगा। हमारे सामने भागीरथ का उदाहरण मौजूद है। किस तरह पानी की कमी से जूझ रहे मैदानी क्षेत्र के लिए भागीरथ और उनके कुनबों ने पहाड़ों को काटकर गंगानदी को मैदानी क्षेत्र में उतारा। आज भी पानी को बचाने के लिए विभिन्न समुदायों द्वारा ‘भागीरथ प्रयास’ किए जाने की आवश्यकता है।
भारत में समाज की प्रतिभा, कौशल अपना तन-मन-धन सब लगाकर लोगों ने पानी के संकटों से मुकाबला किया है। राजस्थान के समाज ने सैकड़ों वर्षों से पानी की रजत बूँदों को जगह-जगह समेट कर सहेज कर रखने की एक परंपरा बनाई है और इस परंपरा ने कुछ लाख कुंडियाँ, कुछ लाख टाँके,कुछ हजार कुंइयाँ और कुछ हजार छोटे-मोटे तालाब बनाए है। यह सारा काम समाज ने अपने दम से किया है इसके लिए किसी के आगे हाथ नही फैलाया है।
स्पष्ट है कि भारत जैसे विवेकवान, स्वावलंबी समाज को कोई जरूरत नहीं है कि वह आज जल व्यवस्था के लिए विदेशी कंपनियों और निजी हाथों की ओर मुंह ताके। भारत के समाज ने जब थार के रेगिस्तान को अपने मेहनत कौशल से जिन्दा रखा है तो उन प्रदेशों की बात ही क्या, जो राजस्थान की अपेक्षा काफी हरे भरे हैं। यह दावा निराधार नहीं है कि भारत के प्रदेशों में जल के उपयोग की दूरदर्शी गौरवशाली परंपराएँ हैं। आवश्यकता है उनकी पहचान की और समसामयिकता के अनुरूप ढालने की, न कि देशी-विदेशी हाथों में बेंचने की । इतना ही नहीं भारत का कर्तव्य है कि पानी को बाजार के कुचक्र से मुक्त कराने में वह अन्य देशों की अगुवाई करे। भारत की गौरवशाली परंपरा की मजबूत नींव है जिसके ऊपर खड़ा होकर देश-दुनिया को संदेश दे सकता है कि “पानी बिकाऊ नहीं है, हम इसे बिकने नहीं देंगे।”
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