भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय के जल संसाधनों के कार्यकारी समूह की रिपोर्ट में भी ऐसा ही अभिमत है-‘‘2002 की राष्ट्रीय जल नीति निजी क्षेत्र की भागीदारी अर्थात जन-निजी भागीदारी (पीपीपी) की सिफारिश करती है’’।
अनेक अनुभवों और प्रमाणों से सिद्ध हुआ है कि निजीकरण या निजी क्षेत्र की सार्वजनिक सेवाओं में भागीदारी में कई मुद्दे और समस्याएँ अंतर्निहित हैं। इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है कि निजीकरण और जन-निजी भागीदारी के अंतर को समझा जाए। यह समझना भी बहुत महत्त्वपूर्ण है कि यह अंतर सिर्फ शाब्दिक या अलंकारिक है अथवा दोनों मॉडलों में संचालन और संरचना की दृष्टि से कोई व्यावहारिक अंतर भी है। 1990 के दशक के शुरूआती वर्षों में निजीकरण की लहर के दौरान सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों ने बुनियादी ढाँचे के विकास और सेवाप्रदाय के लिए निजीकरण के मॉडल को लागू करने के प्रयास किए थे।इस मॉडल को विकासशील देशों में शहरी बुनियादी ढाँचे संबंधी सेवाप्रदाय में गुणवत्ता, कम शुल्क, नए निवेश आकर्षित करने और अन्य लाभों को बढ़ाने वाले ‘समाधान’ के रूप में पेश किया गया था। इस मॉडल में सार्वजनिक क्षेत्र को सामान्य रूप से अक्षम, भ्रष्ट तथा कम निवेश क्षमता के साथ ही कुप्रबंधन और तकनीकी रूप से अकुशल माना जाता है।
इसके फलस्वरूप विश्वभर में अनेक स्थानों पर पानी के निजीकरण के विरोध में जन प्रदर्शन, सामाजिक अशान्ति और विरोध अभियानों की घटनाएँ बढ़ती देखी गई। अर्जेंटीना में निजी कंपनियों को भारी नुकसान, मेट्रो मनीला जलप्रदाय परियोजना से निजी कंपनी द्वारा हाथ खींच लेना, अटलान्टा में पानी के अनुबंध पर संकट, कोलम्बिया, जकार्ता और अल आल्टो जैसी जगहों पर तीव्र सामाजिक प्रतिक्रियाएँ और दंगे आदि हुए। इस प्रकार की घटनाओं ने यह सिद्ध करना प्रारंभ कर दिया कि पानी के क्षेत्र में कई विकसित और विकासशील देशों में निजी क्षेत्र की सहभागिता का मॉडल सफल नहीं है। जहाँ निजी कंपनियों ने अनुबंध की शर्तों को पूरा नहीं किया था वहाँ उन्हें अनेक राजनैतिक और सामाजिक विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा। इसका यह अर्थ भी हुआ कि निजी क्षेत्र विकास (प्रायवेट सेक्टर डेवलपमेंट, पीएसडी) रणनीति जो सार्वजनिक जल सेवाओं में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित कर रही थी, वह असफल हो गई थी। ज्यादा उदाहरणों के लिए www.manthan-india.org में असफल निजीकरण परियोजनाओं की जानकारी प्राप्त करें।
तालिका- निजी क्षेत्र की असफलताओं के कुछ उदाहरण
क्र. | असफल परियोजनाएँ | कारण |
1 | ब्यूनसआयर्स (अर्जेंटीना) | बारम्बार बढ़ती कीमतें सेवा की निम्न गुणवत्ता अनुबंध की शर्तों के पालन में असफलता आर्थिक समस्याएँ |
2 | पश्चिमी मनीला (फिलिपीन्स) | कीमतों में बढ़ोत्तरी गरीब बस्तियों में नल कनेक्शन न देना निवेष नहीं करना शुल्क वृद्धि अनुबंध की अन्य शर्तों को पूरा न कर पाना |
3 | अटलान्टा (संयुक्त राज्य अमेरिका) | पानी की ऊँची दरें घटती गुणवत्ता नए निवेष न कर पाना |
4 | अल अल्टो (बोलीविया) | शहर की गरीब बस्तियों में पेयजल प्रदाय करने से मना करना। अनुबंध की शर्तों को पूरा करने में असफलता |
5 | वेराजेस (फ्रांस) | पानी की बढ़ती दरों के विरुद्ध जन शिकायतें पानी की घटती गुणवत्ता जलप्रदाय व्यवस्था में समस्याएँ |
जैसे कि पूर्व में चर्चा की गई है, यह वह समय था जब निजी कंपनियाँ, जो मुनाफे, जोखिम दूर करने के तरीकों, लम्बी अवधि तथा कम ब्याज दर वाले कर्ज और अनुदानों की माँग कर रही थीं, ने विकासशील देशों से पलायन करना प्रारंभ कर दिया था। यह स्पष्ट हो गया था कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से मदद या फिर विकासशील देशों की सरकारों से सार्वजनिक धन प्राप्त किए बगैर पानी की सेवाओं में सुनिश्चित आय और मुनाफा कमाना आसान नहीं होगा। अतः निजी कंपनियों को सार्वजनिक क्षेत्र की सहायता की आवश्यकता हुई ताकि वे जलक्षेत्र में जोखिमों को कम कर अपना व्यापार चला सकें और सुनिश्चित लाभ अर्जित कर सकें। सार्वजनिक क्षेत्र की सहायता की आवश्यकता सामाजिक एवं राजनैतिक विरोध प्रदर्शनों के प्रभावों को टालने एवं उन्हें कम करने के लिए भी थी। इसका यह मतलब भी था कि सार्वजनिक क्षेत्र को साथ लेकर निजी कंपनियाँ यह सुनिश्चित करना चाहती थीं कि जोखिम तो सार्वजनिक क्षेत्र उठाए और लाभ निजी कंपनी कमाए। यही वह दौर था जब पूर्णतया निजी क्षेत्र की परियोजनाओं या नगरपालिका सेवाओं के निजीकरण के विकल्प के रूप में जन-निजी भागीदारी मॉडल का उभरना प्रारंभ हुआ था।
यद्यपि यह सुझाया जाता है कि निजीकरण और जन-निजी भागीदारी मॉडल में बहुत अंतर है, विस्तृत विश्लेषण और दोनों मॉडलों की समझ यह दर्शाती है कि यह अंतर बहुत सतही तौर पर है और मूलभूत रूप से दोनों समान हैं। एशियाई विकास बैंक की एक रिपोर्ट में स्वीकारा गया है कि वास्तव में इन दोनों में कोई अंतर नहीं है। उसमें कहा गया है कि ‘‘निजी क्षेत्र द्वारा सार्वजनिक सेवाओं और बुनियादी ढाँचे के विकास और संचालन के तरीके, जो शर्तों और प्रतिबंधों के अधीन सरकार और निजी क्षेत्र दोनों को मंजूर हों, को जन-निजी भागीदारी (पीपीपी) या निजी क्षेत्र भागीदारी (पीएसपी) कहा गया है’’।34
नब्बे के दशक में विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा तीसरी दुनिया के देशों में ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम शुरु किया गया। इस कार्यक्रम का एक प्रमुख उद्देश्य सार्वजनिक सेवाओं का निजीकरण करना था। निजी कंपनियों को सार्वजनिक सेवा के रास्ते मुनाफा कमाने का अवसर देने हेतु एक सुंदर शब्द पीएसपी इजाद किया गया। पीएसपी का मतलब सीधे निजीकरण से है। इसमें पूँजी निवेश से लेकर संचालन-संधारण खर्च तथा अन्य जिम्मेदारियाँ निजी क्षेत्र द्वारा वहन करनी होती थीं। सारी जोखिमें भी निजी क्षेत्र की ही होती थी और उन्हें मुनाफा कमाने की भी छूट होती थी।
भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय के जल संसाधनों के कार्यकारी समूह की रिपोर्ट में भी ऐसा ही अभिमत है-‘‘2002 की राष्ट्रीय जल नीति निजी क्षेत्र की भागीदारी अर्थात जन-निजी भागीदारी (पीपीपी) की सिफारिश करती है’’।35
एशियाई विकास बैंक की वेबसाईट पर ‘चेम्पियन प्रेजे़न्टेशन्स-पीपीपी प्रोजेक्ट्स एण्ड अरेंजमेंट्स’ पर बैंक द्वारा प्रोत्साहित पीएसपी गतिविधियों और परियोजनाओं को सूचीबद्ध किया गया है।36
डेविड हाल (पीएसआईआरयू, ग्रीनविच विश्वविद्यालय, इंग्लैण्ड) ने पीपीपी पर टिप्पणी की है-
‘‘जैसे ही इंग्लैण्ड में निजीकरण राजनैतिक दृष्टि से विवादास्पद होने लगा, नई शब्दावली गढ़ ली गई। जन-निजी भागीदारी या संक्षेप में पीपीपी, संबंधो में बड़े परिवर्तन के बजाय निजी क्षेत्र की उसी प्रकार की भागीदारी को अधिक सहयोगी, तकनीकी रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश मात्र है। इसी प्रकार का एक शब्द है प्रायवेट सेक्टर पार्टिसिपेशन (पीएसपी) या निजी क्षेत्र सहभागिता जिसका विश्व बैंक और अन्य द्वारा विकासशील देशों के संदर्भ में व्यापक रूप से प्रयोग किया गया है। दोनों ही मामलों में यह शब्द कोई ठोस कानूनी या तकनीकी शब्दावली नहीं है। वरन श्रीमती थेचर (इंग्लैण्ड की पूर्व प्रधानमंत्री) के जमाने में प्रचलित ‘निजीकरण’ का प्रतिस्थापन मात्र है। उदाहरणार्थ, ज्यादातर पीपीपी कानूनी दृष्टि से भागीदारियाँ नहीं बल्कि अनुबंधीय संबंध मात्र हैं।‘‘37
पीएसपी गतिविधियों का पीपीपी व्यवस्था में ऐसा वर्गीकरण स्पष्टतः बतलाता है कि वास्तव में पीएसपी और पीपीपी समानार्थी शब्द हैं। अलंकृत भाषा की लोकप्रिय जुगाली के द्वारा पीपीपी को ज्यादा सामुदायिक, जिम्मेदार, सार्वजनिकक्षेत्र नियंत्रित और पारदर्शी दिखाया जाता है, लेकिन इसके बावजूद निजीकरण (पीएसपी) और पीपीपी दोनों शब्दावलियाँ कानूनी, संचालन और संरचनात्मक स्तरों समान ही हैं। यहाँ तक कि सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के दस्तावेजों और प्रस्तुतियों में भी दोनों को समानार्थी रूप में प्रयुक्त किया गया है, जो यह दर्शाता है कि वास्तविक रूप से दोनों के बीच कोई अंतर नहीं है।
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