पूरे देश में वित्तीय सहयोग देने भामाशाहों की बाढ़ आई है। उनके द्वारा दो प्रकार से मदद दी जा रही हैं पहले तरीका पानी से जुड़ी सेवाओं का सीधा-सीधा निजीकरण का हैं इस तरीके में बीओटी का या इंतजाम करने का है। दूसरे तरीके में वित्तीय संस्थाएं खासकर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं, पर्याप्त कर्ज के साथ खास किस्म की शर्तें जोड़ रही हैं। कई लोगों को लगता है कि इन शर्तों के पालन के बाद, सारा वाटर सेक्टर बाजार में तब्दील हो जाएगा। सेक्टर की समस्याओं पर गौर करने के लिए, सरकार और समाज के बीच, जल नियामक आयोग बनाए जा रहे हैं।
भारत की अर्थव्यवस्था में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण जैसे बदलावों के बीज सन् 1991 में पड़े। निजीकरण का पहला प्रयोग बिजली के क्षेत्र में हुआ। बिजली के क्षेत्र में निजीकरण के बाद संकट हल हुआ हो, व्यवस्था में आमूलचूल अंतर आया हो या विद्युत मंडलों के प्रति समाज का सोच बदल गया हो, ऐसा कई लोगों को नहीं लगता पर बदलाव के बाद बिजली का बिल जरूर बढ़ गया है।बिजली के बाद, पानी के क्षेत्र के निजीकरण की शुरुआत हुई। सन 2002 में केन्द्र सरकार ने निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए जल नीति में प्रावधान बनाया। नेशनल वाटर पॉलिसी 2002 का यह प्रावधान, निजी क्षेत्र की भागीदारी की अवधारणा को मदद ही नहीं देता वरन नीतिगत ताकत और राष्ट्र की मूक सहमति भी देता है। इसलिए कहा जा सकता है कि देश-विदेश की वित्तीय एवं निजी संस्थाओं को प्रवेश और भागीदारी के लिए हरी झंडी दी जा चुकी है। पलक पांवड़े बिछाए जा चुके हैं और व्यवस्था में सुधार के लिए उतावलापन नजर आ रहा है।
उपर्युक्त पृष्ठभूमि में पानी के क्षेत्र में सुधार के लिए अध्ययन एवं सोच विचार का सिलसिला शुरू हुआ और वाटरलागिंग, मिट्टी के खारेपन और बांध विस्थापितों के पुनर्वास को मोटे तौर पर छोड़कर मुख्यतः कम राजस्व वसूली और रखरखाव के लिए घटते आवंटन को केन्द्र में रखकर सिंचाई एवं पानी तथा साफ-सफाई के सेक्टरों की परियोजनाओं या कामों में सेवा सुधार इत्यादि के लिए नोडल एजेंसियों से जुदा, बाहरी संस्थाओं की भागीदारी की वकालत शुरू हुई।
ताज्जुब है, इन सेक्टरों में सेवा सुधार की असफलता की बात जलनीति खुद मंजूर करती है। उसका तर्क है कि सेवा सुधार करने वाली संस्थाएं राजस्व वसूल सकेंगी और बेहतर रखरखाव कर सकेंगी इसलिए उनकी मदद लेनी चाहिए। सेवा सुधार की इस अवधारणा ने विश्व बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक इत्यादि संस्थाओं को आगे लाने के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
इन दिनों तो लगभग पूरे देश में वित्तीय सहयोग देने भामाशाहों की बाढ़ आई है। उनके द्वारा दो प्रकार से मदद दी जा रही हैं पहले तरीका पानी से जुड़ी सेवाओं का सीधा-सीधा निजीकरण का हैं इस तरीके में बीओटी (बनाओ, चलाओ और ट्रांसफर करो) का या इंतजाम करने का है। दूसरे तरीके में वित्तीय संस्थाएं खासकर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं, पर्याप्त कर्ज के साथ खास किस्म की शर्तें जोड़ रही हैं। कई लोगों को लगता है कि इन शर्तों के पालन के बाद, सारा वाटर सेक्टर बाजार में तब्दील हो जाएगा। सेक्टर की समस्याओं पर गौर करने के लिए, सरकार और समाज के बीच, जल नियामक आयोग बनाए जा रहे हैं। ऐसे नियामक आयोग उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में बन चुके हैं। अन्य राज्यों में बनने की प्रक्रिया में हैं।
अनेक लोगों को पानी के क्षेत्र में निजी क्षेत्र के योगदान में बिलकुल बुराई नजर नहीं आती। वे इसे अच्छा मानते हैं तो दूसरी ओर कुछ लोगों को निजी क्षेत्र के योगदान की हकीकत और योगदानों के प्रावधानों के दूरगामी परिणाम पूरी तरह समझ में नहीं आते।
यह किसी हद तक सच भी है क्योंकि हमारे पास इस तरह के अनुभवों की बेहद कमी है इसलिए सही समझ बनाने के लिए, सीमित तौर पर ही सही, योगदान के अर्थ समझने होंगे, कौन और क्यों मदद के लिए आगे आ रहा है? अपने देश में और दूसरे देशों में निजी क्षेत्र के योगदान के क्या परिणाम रहे? उस योगदान पर समाज की क्या प्रतिक्रिया रही? जानना आवश्यक होगा।
सुधार की अवधारणा
विश्व बैंक ने सन् 1999 में भारत में पानी के परिदृश्य पर एक रिपोर्ट तैयार की थी। इस रिपोर्ट का शीर्षक था “इनीशिएटिंग एंड सस्टेनिंग वाटर सेक्टर रिफार्म्स: ए सिन्थेसिस।” यह रिपोर्ट छह खंडों में थी। इस रिपोर्ट में भारत की बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण और तेजी से बढ़ते उद्योगों तथा घटते जल संसाधनों की कहानी पेश की गई थी। पेश कहानी का लब्बोलुआव था कि आने वाले दिनों में भारत, जल प्रबंध की चुनौतियों का मुकाबला नहीं कर सकेगा। इसलिए आवश्यक है कि वह पानी के क्षेत्र में जल प्रबंध की विश्व बैंक द्वारा सुझाई तकनीक का पालन करे। ऐसा करने के बाद ही भारत, आर्थिक तरक्की की राह पर आगे चल सकेगा। गौरतलब है कि विश्व बैंक की उपर्युक्त रपट से केन्द्र सरकार का सेंट्रल वाटर कमीशन (केंद्रीय जल आयोग), सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी), शहरी मामले एवं रोजगार मंत्रालय, राजीव गांधी नेशनल ड्रिंकिंग वाटर मिशन सहमत हैं। कुछ लोगों को लगता है कि भारत की राष्ट्रीय जलनीति 2002 में निजीकरण का उल्लेख भी विश्व बैंक की इसी रिपोर्ट के ही बाद आया।
पानी के क्षेत्र में काम करने वाली प्रमुख अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां
पानी के क्षेत्र में काम करने वाली बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के नाम हैं विवेंडी (फ्रांस), सुएज लियोन्नेज डेज इआक्स (फ्रांस), वायगीज (फ्रांस), एनरान (अमेरिका), आरडब्ल्यूई (जर्मनी), थेम्स वाटर (इंग्लैंड), युनाइटेड यूटिलिटीज (इंग्लैंड), सेवर्न ट्रेट (इंग्लैंड), केल्डा ग्रुप (इंग्लैंड) और एंग्लियन (इंग्लैंड)। इसके अलावा 1990 के दशक में सारी दुनिया को शुद्ध पानी उपलब्ध कराने की गरज से कुछ अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों का गठन किया गया। ये एजेंसियां हैं-
1. ग्लोबल वाटर पार्टनरशिप
2. वर्ल्ड वाटर काउंसिल
3. वर्ल्ड कमीशन ऑन वाटर
4. विश्व बैंक
5. यूरोपियन इन्वेस्टमेंट बैंक
6. यूरोपियन बैंक फॉर रीकंस्ट्रक्शन एंड डेवलपमेंट
7. इंटरनेशनल प्राइवेट वाटर एसोसिशन
8. बिजनेस पार्टनर फॉर डेवलपमेंट
9. वाटर एड
10. वाटर सप्लाई एंड सेनिटेशन कोलोबेरेटिव काउंसिल
11. विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ)
उपर्युक्त संस्थाओं का सोच उनकी मान्यताओं, अपनाई फिलासफी और गठन के उद्देश्यों से प्रकट होता है। ये संस्थाएं मोटे तौर पर वित्तीय संस्थाएं हैं। उनका नजरिया कल्याणकारी राज्य का नजरिया नहीं है - हो भी नहीं सकता क्योंकि वे पानी का व्यवसाय करना चाहती हैं। वे पानी के व्यवसाय से धन भी कमाना चाहती हैं। वे पानी को धन निवेश की वस्तु और बाजार में बिकने वाला उत्पाद मानती हैं।
इंटरनेशनल प्राइवेट वाटर एसोसिएशन का मुख्य काम पानी के इंतजाम में निजी क्षेत्र की भागीदारी के लिए विभिन्न देशों की सरकारों को तैयार करना है। वर्ल्ड वाटर काउंसिल का उद्देश्य निजी क्षेत्र की भागीदारी को दुनिया के जल संकट के एकमात्र संभव समाधान के रूप में प्रस्तुत करना है। इसी तरह, पानी का निजीकरण, विश्व बैंक के एजेंडे की प्राथमिकता पर है। गौरतलब है कि उपर्युक्त उल्लेखित संस्थाओं का नेटवर्क लगभग पूरी दुनिया में मौजूद है।
बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और कारपोरेट हाउसों के लिए पानी के सेक्टर में किया निवेश स्थायी, सुरक्षित और लंबे समय तक फायदा देने वाला निवेश लगता है। इस कारण वे सारी दुनिया को अपनी फिलासफी और मान्यताओं से प्रभावित कर रहे हैं। इसके लिए आवश्यक तर्क खोज रहे हैं और सुविधाजनक अध्ययन करा रहे हैं ताकि सकारात्मक एवं लुभावना माहौल बना सकें।
जाहिर है, ऐसे आकर्षक माहौल में गरीब देशों या विकास योजनाओं में बजट की कमी से जूझ रहे देशों को कर्ज लेकर जनता के लिए सुविधाएं जुटाना राजधर्म, सामयिक एवं सुविधाजनक समाधान लगता है। उनकी नजर में वे शंकाएं बेबुनियाद हैं जिन्हें जन संगठन उठा रहे हैं। कुछ लोगों को सुविधाओं का अंतर सामाजिक भेदभाव प्रतीत होता है और उनकी संवेदनाएं उन्हें कर्ज लेकर ही सही, समाज की आवश्यकता को पूरा करना समय की मांग प्रतीत होता है।
योगदान
देश में वाटर सेक्टर रिफार्म के लिए आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, असम, दिल्ली, गोवा, गुजरात, जम्मू कश्मीर, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मेघालय, नार्थ-ईस्ट क्षेत्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल में काम विभिन्न चरणों में है। यह स्थिति सितंबर 2007 की है, इसलिए इस सूची में परिवर्तन लाजिमी है।
वाटर सेक्टर रिफार्म से संबंधित काम के लिए मुख्यतः एशियन डेवलपमेंट बैंक, विश्व बैंक, यूएन हेबिटेट, आसऐड, डीएफआईडी इत्यादि से अनेक योजनाओं को कर्ज मिल रहा है। इसके अलावा जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन के कर्ज से देश के अनेक नगर निगमों में काम चल रहा है। इस सूची में लगातार इजाफा हो रहा है और नगरीय निकायों और पानी के सेक्टरों में योजनाएं आ रही हैं।
आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मेघालय, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, सिक्किम, उत्तराखंड, झारखंड, हिमाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल के प्रमुख नगरों में वाटर एंड सेनीटेशन सेक्टर की आधे सैकड़े से भी अधिक योजनाएं ली गई हैं। निजी क्षेत्र की भागीदारी से प्रस्तावित/संचालित ये योजनाएं विभिन्न चरणों में है। ये योजनाएं मुख्य रूप से वाटर एंड सेनीटेशन, इंडस्ट्रियल वाटर सप्लाई, घरेलू एवं व्यापारिक उपयोग, सीवेज ट्रीटमेंट, नगर निगमों के ठोस कचरे के निपटान, उपयोग में आए पानी के प्रबंध, खारे पानी के उपचार, केप्टिव पावर प्लांट, पानी की बर्बादी रोकने, संचालन प्रबंध, पानी की री-साइकिलिंग और पुनः उपयोग, जल शोधन संयंत्र, पानी की बिलिंग, ग्रामीण क्षेत्र में जल प्रदाय, वाटर सप्लाई और सीवेज व्यवस्था इत्यादि क्षेत्रों से संबंधित हैं।
वास्तविकता कुछ भी हो एक बात तो बिल्कुल साफ है कि निजीकरण के कारण पानी का बिल बढ़ता है। यह बढ़ोतरी उन्नत देशों के लोगों को भी असहनीय लगती है। इसलिए जब हमारी प्रतिक्रिया का वक्त आएगा तो हम भी शायद यही कहेंगे कि कीमतें असहनीय हैं। गरीब ही नहीं मध्यम वर्ग के लिए भी मुफीद नहीं हैं। बहुत संभव है कि कुछ समय बाद वह गरीबों, छोटे और सीमांत किसानों की पहुंच के बाहर हो जाए। इलाज तभी तक अच्छा है जब तक वह लाइलाज नहीं बने।सितंबर 2007 की स्थिति में निजी क्षेत्र के सहयोग से आंध्र प्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, सिक्किम, उत्तराखंड और हिमांचल प्रदेश में लगभग 40 पनबिजली परियोजनाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी के काम विभिन्न चरणों में हैं। इस भागीदारी के कारण ओडिशा पावर कंसोर्टियम, रिलायंस एनर्जी, एडीए ग्रुप, जेपी ग्रुप, डीएस ग्रुप, जीएमआर ग्रुप, गति ग्रुप, लेंको ग्रीन पावर, एवरेस्ट पावर कंपनी, एसएमएस विद्युत प्राइवेट लिमिटेडे, टिस्टा ऊर्जा और लार्सन टुब्रो जैसी अनेक कंपनियां काम कर रही हैं। कुल मिलाकर, देश विदेश की निजी संस्थाओं की भागीदारी से सुधार कार्य चालू हो गया है। समाज और सरकारों को काम होता दिख रहा है। चूंकि सब जगह, सब कुछ प्रारंभिक दौर में है इसलिए अभी योगदान को ही देखा जा सकता है। अभी परिणामों के बारे में अभी केवल अनुमान लगाए जा सकते हैं। पर इस दौर में दूसरी जगहों के परिणामों की समीक्षा की जा सकती है और उनसे सबक सीखे जा सकते हैं।
योगदान के परिणामों पर समाज की प्रतिक्रिया
देश में चल रहा वर्तमान दौर निजी क्षेत्र के योगदान का दौर है। अभी इस योगदान के वास्तविक असर और उस पर समाज की प्रतिक्रिया का सही वक्त नहीं आया है। इसलिए इस बिंदु पर सीमित टिप्पणी ही दी जा सकती है या उन चंद उदाहरणों को पेश किया जा सकता है जहां समाज ने अपनी तकलीफें पूरी शिद्दत से सरकार के सामने रखी, विरोध दर्ज कराया और आंदोलन भी किए या कानूनी लड़ाई लड़ी। इसी अनुक्रम में शिवनाथ नदी (छत्तीसगढ़) के पानी को सरकार द्वारा रेडियस वाटर लिमिटेड (निजी कंपनी) को लीज पर देने के कारण समाज पर पड़े परिणामों की संक्षिप्त चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। उन सारी बातों को बिना दुहराए, समाज पर पड़े प्रभावों को पाठकों के ध्यान में लाया जा रहा है। ये प्रभाव निम्नानुसार हैं-
1. रेडियस वाटर लिमिटेड द्वारा बनाए गए बांध के पास स्थित रसमरा और मोहलई गांव के लोग शिवनाथ नदी की रेत में सब्जी उगाने से महरूम कर दिए गए। कंपनी कहती है कि उन्हें शिवनाथ के पानी के उपयोग का कोई अधिकार नहीं है।
2. शिवनाथ नदी पर पंप लगाकर खेतों की सिंचाई करने वाले किसानों को सिंचाई से महरूम कर दिया गया कुछ मामलों में उनके पंप छीन लिए गए।
3. नदी तट से एक किलोमीटर की दूरी तक नलकूप लगाने पर रोक लगा दी गई।
4. कंपनी ने शिवनाथ नदी से मछली पकड़ने पर रोक लगा दी जिसके कारण मछुआरों की आजीविका पर विपरीत असर पड़ा।
5. कंपनी ने नदी की रेत पर अधिकार जमा लिया जिसके कारण नदी की रेत के ठेके से पंचायतों को होने वाली आय समाप्त हो गई।उपर्युक्त प्रभावों के कारण समाज और पंचायतें तकलीफ में आईं, गरीबों की आय के साधन छिने, जन आंदोलन हुए। सामाजिक दबाव के चलते और तकनीकी नुक्ते की पृष्ठभूमि में छत्तीसगढ़ सरकार को लीज निरस्त करनी पड़ी।
दूसरा उदाहरण प्लाचीमाड़ा (केरल) में कोकाकोला द्वारा जल दोहन की अनुमति प्राप्त कर पानी के बेतहाशा दोहन के समाज पर पड़े परिणामों का है। इन परिणामों के कारण गांव के जल स्रोत सूखे, प्रदूषण फैला और खेती करना दुष्कर हुआ। गांव के लोग गरीब हुए और कंपनी ने मुनाफा कमाया। इस प्रकरण में समाज की प्रतिक्रिया की गंभीरता को इस बात से आसानी से समझा जा सकता है कि लोगों ने कंपनी की प्रताड़ना को लंबे समय तक झेला तथा उसके प्रलोभन, मजदूरी और नौकरियों को तिलांजलि दी।
इस प्रकरण में पंचायत ने समाज का साथ दिया और समाज के हित की लड़ाई उच्चतम न्यायालय तक लड़ी। चूंकि इस उदाहरण की चर्चा पूर्व में की जा चुकी है इसलिए यहां बस इतना ही, अब आगे कुछ अन्य मामलों को जानेंगे।
दिल्ली में पानी का इंतजाम (जलापूर्ति, सीवेज का निपटारा और सेवा शुल्क वसूली) दिल्ली जल बोर्ड करता है। दिल्ली की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए फैसला हुआ जिसके अंतर्गत अपर गंगा नहर से पानी उठाकर दिल्ली के सोनिया विहार जल संयंत्र में लाया जाएगा।
इस संयंत्र के निर्माण के लिए दिल्ली जलबोर्ड और फ्रांस की कंपनी आनडियो डेग्रीमोंट के बीच बीओटी (बनाओ, चलाओ और ट्रांसफर करो) के आधार पर समझौता हुआ। सोनिया विहार संयंत्र की दैनिक क्षमता 63.5 करोड़ लीटर तय की गई। उसे दस साल में 1.8 अरब रुपयों से पूरी करने का लक्ष्य रखा गया। बताया गया कि इस योजना के पूरा होने से दिल्ली के 30 लाख लोगों को पीने का पानी मिलेगा।
इस योजना का दूसरा पक्ष भी है जिसे सरकार ने नहीं उठाया। इस दूसरे पक्ष को समाज और उनके बीच काम करने वाले लोगों ने उठाया। उन्होंने बताया कि इस योजना के पूरा होने के बाद अपर गंगा केनाल में पानी घट जाएगा जिसके कारण मुरादाबाद इलाके के किसानों का सिंचाई साधन समाप्त हो जाएगा। किसानों को बदहाली की ओर ले जाने वाल निजीकरण जनित एक और गंभीर पक्ष है- वह है, कुओं की खुदाई पर रोक।
पानी के सारे स्रोत खत्म करने से किसानों की आजीविका का आधार समाप्त होगा। इस योजना का चारों ओर विरोध प्रारंभ हुआ और आशंकाएं व्यक्त की गई कि-
1. योजना का प्रबंधन शुल्क 270 करोड़ प्रतिवर्ष या दिल्ली जलबोर्ड के राजस्व का लगभग 40 प्रतिशत होगा। महानगर परिषद को कर्ज और ब्याज चुकाना कठिन होगा।
2. योजना के विभिन्न पक्षों पर दिल्ली जल बोर्ड का नियंत्रण नहीं होगा।
3. दिल्ली में पानी का कई गुना शुल्क बढ़ेगा और शुल्क नहीं चुकाने वालों को कठिनाइयां झेलनी पड़ेंगी। पानी नहीं पाने वाले इलाकों में अशांति फैलेगी।
अंत में दिल्ली सरकार ने 23 नवंबर 2005 को विश्व बैंक से कर्ज नहीं लेने का फैसला किया और फैसले से भारत सरकार को अवगत कराया।
महाराष्ट्र के पुणे शहर में 24 घंटे अबाध जल आपूर्ति, सीवर निपटान और साफ सफाई की बेहतर व्यवस्था बनाने के लिए सन 1996 में विकसित देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने मिलकर 25 वर्षीय योजना तैयार की। इस योजना को राज्य सरकार के द्वारा आधारभूत संरचनाओं के निजीकरण के लिए गठित उच्चस्तरीय समिति ने सन 1997 में मंजूरी दी थी पर जन आंदोलनों और आंतरिक विरोध के कारण इसे स्थगित करना पड़ा। अब, फिर माहौल बदल गया है।
राज्य के अनेक नगरों में 24 घंटे पानी देने वाली योजनाओं पर काम विभिन्न चरणों में है। खास बात यह है कि सरकार निजीकरण को बढ़ावा दे रही है और जन संगठन उनका विरोध कर रहे हैं। देश में और भी अनेक उदाहरण हैं पर अब कुछ विदेशी उदाहरणों की बात करें।सबसे पहले बात लैटिन अमेरिका के देश बोलिविया की। इस देश में निजीकरण के बाद पानी की कीमत में दस गुना इजाफा हुआ।
किसानों को कुएं बनाने, बरसात का पानी इकट्ठा करने के लिए अमेरिकी कंपनी बेशटेल से अनुमति लेना और परमिट खरीदना आवश्यक हो गया। परिणामस्वरूप बोलिविया की लगभग 90 प्रतिशत आबादी को पानी मिलने में मुश्किल होने लगी। पानी का मोल भोजन से भी अधिक हो गया। न्यूनतम वेतन पाने वाले गरीबों का बजट बिगड़ गया। उनका आधे से अधिक वेतन पानी का बिल चुकाने पर खर्च होने लगा। परिस्थिति बिगड़ने लगी और तब लोगों ने निजीकरण का विरोध किया और देशव्यापी आंदोलन शुरू हुए।
सरकार ने इमरजेंसी लगाई। दो माह तक देश में हड़ताल रही और संघर्ष में 11 लोगों की जान गई। इन गंभीर होती विपरीत परिस्थितियों में अमेरिकी कंपनी को पीछे हटना पड़ा।
चेकोस्लोवाकिया में पानी के निजीकरण के बाद 1994 से 1997 के बीच पानी का शुल्क दुगुना हो गया। सन 1999 में पानी के बिल में 50 प्रतिशत की फिर बढ़ोतरी की गई। इस देश में पानी का अनुबंध इंग्लैंड की पानी की बहुराष्ट्रीय कंपनी एंगलियन वाटर और उसकी सहयोगी चेक कंपनी वाकजिज्नी के बीच था। फिलीपींस में पानी का निजीकरण हुआ और पानी के बिल में लगभग 400 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। इस बढ़ोतरी का चारों ओर विरोध हुआ और वहां के अनेक औद्योगिक घरानों ने भी मूल्य वृद्धि का विरोध किया। ताईवान में भी ऐसा ही हुआ। सन् 1992 में जर्मनी के रास्टक शहर में पानी का निजीकरण हुआ और अनुबंध के तहत व्यवस्था लियोन्नेज डेज नामक कंपनी को सौंप दी गई। मात्र दो साल में जल संकट बढ़ गया और पानी के बिल में 30 से 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई।
इंग्लैंड में निजीकरण ने बवेला खड़ा कर दिया। पानी की कीमतों में इजाफा हुआ। पानी की गुणवत्ता से जुड़े कई मामले सामने आए। इंग्लैंड के स्वास्थ्य विभाग ने कंपनी द्वारा प्रदाय किए जा रहे पानी को स्वास्थ्य के लिए घातक बताया। अंत में इंग्लैंड की सरकार को अनेक अनुबंध खत्म करने पड़े।
फ्रांस में सन 1990 में निजीकरण की बयार चली। सन 1992 के बाद उस देश में पानी का बिल हर साल 10 प्रतिशत की दर से बढ़ा। जिन क्षेत्रों में पानी का निजीकरण हुआ था उन क्षेत्रों में पानी के बिल में हर साल लगभग 20 प्रतिशत की वृद्धि हुई। अगले आठ सालों में सकल वृद्धि 300 प्रतिशत पर जा पहुंची है।
गौरतलब है कि यूरोप के लगभग सभी देशों में जहां-जहां निजीकरण हुआ, पानी की दर बढ़ी हैं। आस्ट्रेलिया में भी यही हुआ। अब उस देश की सरकार पानी के सारे इंतजाम अपने पास रखने की बात कर रही है। अर्जेंटिना, मेक्सिको और ब्राजील में निजीकरण के चलते पानी की दरों में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। केनेडा में लोग निजीकरण के विरुद्ध आंदोलन करने को बाध्य हुए हैं और अब धीरे-धीरे सड़क पर उतरने लगे हैं। ये उदाहरण पानी के निजीकरण के उन उदाहरणों पर लागू हैं जिन्हें विभिन्न देशों की सरकारों ने 1990 के दशक में शुरू किया था। इसलिए कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि संभव है इन उदाहरणों से वित्तीय संस्थाओं ने भी सबक लिए हों।
वास्तविकता कुछ भी हो एक बात तो बिल्कुल साफ है कि निजीकरण के कारण पानी का बिल बढ़ता है। यह बढ़ोतरी उन्नत देशों के लोगों को भी असहनीय लगती है। इसलिए जब हमारी प्रतिक्रिया का वक्त आएगा तो हम भी शायद यही कहेंगे कि कीमतें असहनीय हैं। गरीब ही नहीं मध्यम वर्ग के लिए भी मुफीद नहीं हैं। बहुत संभव है कि कुछ समय बाद वह गरीबों, छोटे और सीमांत किसानों की पहुंच के बाहर हो जाए।
बहुत सारे लोग इस बात को सही मानते हैं और सहमत भी हैं कि साफ पानी, अच्छी सेहत, बुनियादी जरूरतों और संतोषप्रद जीवनशैली की मांगों को पूरा करना हर व्यवस्था का दायित्व है। इस दायित्व को निभाने के लिए धन और सही समय पर सही फैसलों को लेने की आवश्यकता भी होती है। यह आवश्यकता आगे भी रहेगी। यह भी सच है कि कल्याणकारी राज्य और जिम्मेदार शासन व्यवस्था द्वारा समाज को मूलभूत अधिकारों और सेवाओं से लंबे समय तक वंचित नहीं रखा जा सकता। अर्थात बहस जरूरत के औचित्य पर नहीं की जा सकती।
बहस केवल विकल्पों पर ही संभव है - इसलिए कुछ लोगों को वे विकल्प सही लगते हैं जिनसे समाज सहमत है। वे चाहते हैं कि समाज द्वारा मान्यता प्राप्त विकल्प ही अपनाए जाना चाहिए।
कल्याणकारी राज्य और उत्तरदायी व्यवस्था को चाहिए कि वह समाज द्वारा मान्य विकल्प की समय-समय पर समीक्षा कराए और समीक्षा के निष्कर्षों को समाज का संकेतक मानकर ही राजधर्म और अपने दायित्वों का पालन करे।
गौरतलब है कि पानी और उससे जुड़ी समस्याओं का निराकरण तात्कालिक राहत या तदर्थ सेवा में नहीं है। कई लोगों का मानना है कि हल समाज की भुगतान क्षमता, समाज की संतुष्टि और निरापद सेवा में है। वहीं, बेहतर विकल्प और बेहतर रणनीति है, क्योंकि इलाज तभी तक अच्छा है जब तक वह लाइलाज नहीं बने।
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