निजामुद्दीन की बावड़ी का हुआ जीर्णोद्धार


एक जमाना था जब दिल्ली बावड़ियों का शहर था। हालाँकि अब चारों ओर उगे कंक्रीट के जगलों को देखकर इस बात का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। ऐतिहासिक महत्व की इन बावड़ियों में महाराजा अग्रसेन की बावड़ी, हजरत निजामुद्दीन द्वारा बनाई गई बावड़ी, महरौली स्थित बावड़ी शामिल हैं।

इसमें से हजरत निजामुद्दीन द्वारा बनाई गई 700 साल पुरानी बावड़ी का हाल ही में आगा खाँ ट्रस्ट द्वारा जीर्णोद्धार किया गया है जिसके बाद इसके सातों प्रमुख सोते फिर से पुरानी रंगत में लौट आए हैं।

जिस जमाने में यह बावड़ी बन रही थी, उसी समय तुगलक सुल्तानों द्वारा तुगलकाबाद का किला बनाया जा रहा था। जो मजदूर दिन में तुगलकाबाद किले के निर्माण में काम करते थे, वही मजदूर रात को बावड़ी की खुदाई का काम करते थे। सुल्तान को इस बात का अंदेशा हुआ कि मजदूर पूरे मन से किले का काम नहीं कर रहे हैं। वे दिन में काम करते वक्त ऊँघते रहते थे। सुल्तान को जब इसकी वजह मालूम हुई तो वे बेहद नाराज हुए।
लोगों को विश्वास है कि इस बावड़ी के पानी में रोगों को दूर करने की क्षमता है इसलिए लोग दूर-दूर से इसके पानी से नहाने के लिए पहुँचते हैं। इसके सोतों से पानी का लगातार प्रवाह इस कदर चलता रहता है कि अगर इसे नहीं हटाया जाए तो जल स्तर बहुत बढ़ जाता है।
उन्हें पता चला कि मजदूर बावड़ी की खुदाई रात को जागकर मशालों की रोशनी में करते हैं। इस बात को जानने के बाद बादशाह ने नाराज होकर तेल की आपूर्ति बंद कर दी, ताकि रात को मशालें न जलाई जा सकें। इस बात की जानकारी जब सूफी संत हजरत निजामुद्दीन को दी गई तो उन्होंने कहा कि चश्मे के पानी को ही दीयों में भरकर जलाओ अल्लाह के फजल से उसी से रोशनी होगी।

बावड़ी का काम सफलतापूर्वक कराने के ऐवज में हजरत निजामुद्दीन ने नसीद्दीन को चिराग-ए-दिल्ली की उपाधि दी। साथ ही बादशाह द्वारा बावड़ी के काम में बाधा पहुँचाने के लिए यह बद्दुआ दी कि तुगलकाबाद किले में पानी नहीं मिलेगा।

700 सालों के बाद भी गाद या अन्य अवरोधों की वजह से यहाँ पानी के सोते बंद नहीं हुए हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रमुख के.एन. श्रीवास्तव के अनुसार इस बावड़ी की अनोखी बात यह है कि आज भी यहाँ लकड़ी की वो तख्ती साबुत है जिसके ऊपर यह बावड़ी बनी थी। श्रीवास्तव जी के अनुसार उत्तर भारत के अधिकतर कुँओं व बावड़ियों की तली में जामुन की लकड़ी का इस्तेमाल आधार के रूप में किया जाता था।

इस बावड़ी में भी जामुन की लकड़ी इस्तेमाल की गई थी जो 700 साल बाद भी नहीं गली है। बावड़ी की सफाई करते समय बारीक से बारीक बातों का भी खयाल रखा गया। यहाँ तक कि सफाई के लिए पानी निकालते समय इस बात का खास खयाल रखा गया कि इसकी एक भी मछली न मरे। इस बावड़ी में 10 किलो से अधिक वजनी मछलियाँ भी मौजूद हैं।

इन सोतों का पानी अब भी काफी मीठा और शुद्ध है। इतना कि इसके संरक्षण के कार्य से जुड़े रतीश नंदा का कहना है कि इन सोतों का पानी आज भी इतना शुद्ध है कि इसे आप सीधे पी सकते हैं। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि पेट के कई रोगों में यह पानी फायदा करता है।

लोगों को विश्वास है कि इस बावड़ी के पानी में रोगों को दूर करने की क्षमता है इसलिए लोग दूर-दूर से इसके पानी से नहाने के लिए पहुँचते हैं। प्राचीन समय से ही यहाँ लोगों के नहाने के लिए कमरे भी बनाए गए थे। इसके सोतों से पानी का लगातार प्रवाह इस कदर चलता रहता है कि अगर इसे नहीं हटाया जाए तो एक दिन में जल स्तर चार-पाँच फुट तक बढ़ जाता है।
 
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