नई तकनीक से बंजर भूमि में बढ़ता कृषि उत्पादन

केन्द्र सरकार की ओर से बंजर भूमि में फसल पैदा करने की लागतार कोशिश की जा रही है। साथ ही बंजर एवं ऊसर हो चुकी मिट्टी को खेती योग्य बनाने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। यह सच है कि पिछले एक दशक में खेती योग्य जमीनें कम हुई हैं। कल-कारखाने से लेकर स्कूल, स्वास्थ्य केन्द्र सभी खुल रहे हैं। खेती योग्य जमीन का रकबा लगातार कम हो रहा है। लेकिन दूसरी सच्चाई यह है कि बंजर एवं ऊसर जमीनों को खेती योग्य बनाने की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ है। वैज्ञानिकों की ओर से दी गई विभिन्न सिफारिशों में मृदा संरक्षण की नीति अपनाई जा रही है। डूब एवं सूखे से प्रभावित इलाकों में नई-नई तकनीक के जरिए खेती की जा रही है। एसआरआई श्री तकनीक के जरिए देश में कम लागत में अधिक धान का उत्पादन किया जा रहा है।

विकासशील भारत विकसित बनने की तैयारी में है। गाँवों में शहरों जैसी सुविधाओं का विकास हो रहा है तो गाँव में शहर जैसे संसाधन भी विकसित हो रहे हैं। ऐसे में विकास में सबसे ज्यादा कमी जमीन की हुई है। कल-कारखाने लगे या बिजली के उपकेन्द्र खुले, सभी में जमीन की जरूरत पड़ती है। औसत रूप में कृषि योग्य उपजाऊ मिट्टी की गहराई 30 सेन्टीमीटर तक मानी जाती है। मृदा की चार परतें होती हैं। पहली अथवा सबसे ऊपरी सतह छोटे-छोटे मिट्टी के कणों और गले हुए पौधों और जीवों के अवशेष से बनी होती है। यह परत फसलों की पैदावार के लिए महत्त्वपूर्ण होती है। दूसरी परत महीन कणों जैसे चिकनी मिट्टी की होती है और तीसरी परत मूल विखंडित चट्टानी सामग्री और मिट्टी का मिश्रण होती है तथा चौथी परत में अविखंडित सख्त चट्टानें होती हैं।

भारत में कुल भूमि क्षेत्रफल करीब 329 मिलियन हेक्टेयर है। इसमें खेती करीब 144 मिलियन हेक्टेयर में होती है, जबकि लगभग 178 मिलियन हेक्टेयर भूमि बंजर है। इसे सुधारने के लिए लगातार प्रयास किया जा रहा है। वहीं असिंचित एवं डूब से प्रभावित जमीन को भी खेती योग्य बनाया जा रहा है। देश में करीब 71 लाख हेक्टेयर भूमि मृदा ऊसर से प्रभावित है। जबकि पूरे विश्व में यह आँकड़ा लगभग 9520 हेक्टेयर के करीब बताया जाता है। जो मृदा ऊसर से प्रभावित है, इसे भी खेती योग्य बनाने की कवायद चल रही है। आँकड़े बताते हैं कि भारत में वर्ष 1951 में मनुष्य भूमि अनुपात 0.48 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है, जो दुनिया के न्यूनतम अनुपातों में से एक है। वर्ष 2025 में घटकर यह आंकड़ा 0.23 हेक्टेयर होने का अनुमान है। ऐसे में खेती की मृदा संरक्षण के जरिए एक बड़ी चुनौती से निबटा जा सकता है। ऐसे में उपजाऊ मिट्टी की सुरक्षा के साथ ही अनुपजाऊ मिट्टी को भी कृषि योग्य बनाया जा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रति वर्ष 27 अरब टन मिट्टी जलभराव, क्षारीकरण के कारण नष्ट हो रही है। मिट्टी की यह मात्रा एक करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि के बराबर है। खेती योग्य जमीन के बीच काफी भू-भाग ऐसा है, जो लवणीय एवं क्षारीय है। इसका कुल क्षेत्रफल करीब सात मिलियन हेक्टेयर बताया जाता है। मिट्टी में सल्फेट एवं क्लोराइड के घुलनशील लवणों की अधिकता के कारण मिट्टी के उर्वरता खत्म हो जाती है। कृषि में पानी के अधिक प्रयोग एवं जल-जमाव के कारण मिट्टी उपजाऊ होने के बजाय लवणीय मिट्टी में परिवर्तित हो जाती है। वास्तव में मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों को बचाना बेहद जरूरी है क्योंकि मृदा की उर्वराशक्ति के क्षीण होने का नुकसान किसी न किसी रूप में समूचे राष्ट्र को चुकाना पड़ता है। यदि फसलों की वृद्धि के लिए आवश्यक नाइट्रोजन, फास्फोरस, मैग्नीशियम, कैल्शियम, गंधक, पोटाश सहित अन्य तत्वों को बचाकर उनका समुचित उपयोग पौधे को ताकतवर बनाने में किया जाए तो एक तरफ हमारी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा और दूसरी तरफ मृदा संरक्षण की दिशा में भी एक महत्त्वपूर्ण पहल होगी। अधिक उत्पादन के लिए खेत में उचित फसल चक्र अपनाया जाना जरूरी है। क्योंकि कई बार खेत में जिस खाद का प्रयोग किया जाता है वह सम्बन्धित फसल के तहत पौधा ग्रहण नहीं कर पाता है। किसी एक खेत में अलग-अलग वर्षों में अलग-अलग फसलों को हेर-फेर करके उगाया जाए तो मृदा की उर्वरता बरकरार रहती है। इससे किसी एक प्रकार के खरपतवार, बीमारी और कीड़ों को बढ़ावा भी नहीं मिलता है। मृदा कार्बन बढ़ाने के मामले में भी फसल चक्र लाभकारी साबित होता है। हालाँकि मृदा कार्बन बढ़ाने में सबसे ज्यादा प्रभावकारी अरहर, कपास आदि गहरी जड़ों वाली फसलें मानी जाती हैं। फसल चक्र में जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाली दलहनी फसलों के समावेश से रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग भी कम करना पड़ता है। कृषि वैज्ञानिक डाॅ. एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में प्रतिवर्ष क्षरण के कारण करीब 25 लाख टन नाइट्रोजन, 33 लाख टन फास्फेट और 25 लाख टन पोटाश की क्षति होती है। यदि इस प्रभाव को बचा लिया जाए तो हर साल करीब छह हजार मिलियन टन मिट्टी की ऊपरी परत बचेगी और इससे हर साल करीब 5.53 मिलियन टन नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा भी बचेगी।

मिट्टी की जाँच पर सरकार का जोर


भारत सरकार की ओर से इन दिनों मिट्टी की जाँच पर विशेष जोर दिया जा रहा है। जिला-स्तर पर स्थापित प्रयोगशालाओं में गाँवों की मिट्टी पहुँचाने के लिए किसान मित्रों का भी चयन किया गया है। ये किसान मित्र अपने-अपने गाँव के किसानों की मिट्टी को लेकर प्रयोगशाला तक पहुँचा रहे हैं और प्रयोगशाला की रिपोर्ट के आधार पर किसानों को रासायनिक खाद एवं अन्य पोषक तत्वों का प्रयोग करने की सलाह दी जा रही है। जाँच के बाद उर्वरता मैप तैयार किया जाता है जिसमें उपलब्ध नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम का कितना प्रयोग किया जाना चाहिए, इसका विस्तृत ब्यौरा तैयार किया जाता है। इसका बड़ा फायदा यह होता है कि मिट्टी की ताकत घटने के बजाय बढ़ती जाती है। भारत में कर्नाटक, असम, केरल, तमिलनाडु, हरियाणा और उड़ीसा में केन्द्रीय प्रयोगशाला की स्थापना की गई है। इसके अलावा विभिन्न राज्यों में अलग से प्रयोगशालाएँ चल रही हैं। मिट्टी उर्वरता में खनिजों जैसे नाइट्रोजन, पोटेशियम और फास्फोरस की उपस्थिति को विचार में लिया जाता है। यह सही उर्वरकों के प्रापण तथा बीज के उपयुक्त प्रकार को चुनने में सहायता देती है, ताकि अधिकतम सम्भव फसल प्राप्त की जा सके। पौधे के मूलभूत पोषण के लिए इसमें पोषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा होना अनिवार्य है। इसमें नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस और पोटेशियम शामिल हैं। इसके अलावा खनिज तत्वों जैसे बोराॅन, क्लोरीन, कोबाल्ट, ताम्बा, लौह, मैग्नीज, मैग्नीशियम, मोल्बिडिनम, सल्फर और जस्ता का होना भी जरूरी है क्योंकि ये खनिज पौधों का पोषण बढ़ाते हैं। इसी तरह इसमें कार्बनिक पदार्थ होते हैं जो मिट्टी की संरचना में सुधार लाते हैं। इससे मिट्टी को और अधिक नमी धारण करने की क्षमता मिलती है। इसका पीएच 6.0 से 6.8 होना चाहिए।

मृदा का नमूना लेने की अवधि


i. जिस जमीन का नमूना लेना हो उस क्षेत्र पर 10-15 जगहों पर निशान लगा लें।
ii. चुनी गई जगह की ऊपरी सतह पर यदि कूड़ा-करकट या घास इत्यादि हो तो उसे हटा दें।
iii. अब पूरी मृदा को अच्छी तरह हाथ से मिला लें तथा साफ कपड़े या टब में डालकर ढेर बना लें। अंगुली से इस ढेर को चार बराबर भागों में बाँट दें। आमने-सामने के दो बराबर भागों को वापिस अच्छी तरह से मिला लें। यह प्रक्रिया तब तक दोहराएँ जब तक लगभग आधा किलो मृदा न रह जाए। इस प्रकार से एकत्र किया गया नमूना पूरे क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करेगा।
iv. नमूने को साफ प्लास्टिक की थैली में डाल दें। अगर मृदा गीली हो तो इसे छाया में सुखा लें। इस नमूने के साथ नमूना सूचना पत्रक जिसमें किसान का नाम व पूरा पता, खेत की पहचान, नमूना लेने की तिथि, जमीन की ढलान, सिंचाई का उपलब्ध स्रोत, पानी निकास, अगली ली जाने वाली फसल का नाम, पिछले तीन सालों की फसलों का ब्यौरा व कोई अन्य समस्या आदि का विवरण लिख दें।
v. इस नमूने को कपड़े की थैली में रखकर इसका मुँह बाँधकर कृषि विकास प्रयोगशला में परीक्षण हेतु भेज दें।

जल प्रबन्धन से बढ़ता कृषि उत्पादन


देश में बड़ी संख्या में कृषि योग्य भूमि बाढ़ एवं जलभराव से प्रभावित है। करीब 60 फीसदी कृषि भूमि वर्षा पर आधारित है। मानसून की सक्रियता कहीं कम तो कहीं ज्यादा होने से बाढ़ व सूखे के हालात रहते हैं। बाढ़ के कारण कृषि योग्य भूमि प्रभावित होती है। इस भूमि को भी खेती योग्य बनाने के लिए सरकार की ओर से तमाम कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। भारत में सिंचाई कुप्रबंधन के कारण करीब छह-सात मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता से प्रभावित है। यह स्थिति पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश में ज्यादा है। इसी तरह करीब छह मिलियन हेक्टेयर भूमि जल-जमाव से प्रभावित है। देश में पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा एवं उत्तर-पूर्वी राज्यों में जलजमाव की समस्या है। असमतल भू-क्षेत्र वर्षा जल से काफी समय तक भरा रहता है। इसी तरह गर्मी के दिन में यह अधिक कठोर हो जाती है। ऐसे में इसकी अम्लता बढ़ जाती है और इसमें खेती नहीं हो पाती है। केन्द्र सरकार की ओर से प्रयास किया जा रहा है कि इस भूमि को खेती योग्य बनाए रखा जाए क्योंकि भारत में हर साल करीब छह हजार टन उपजाऊ ऊपरी मिट्टी का कटाव होता है। पानी के साथ बहने वाली इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, कैल्शियम, मैगनिशियम के साथ ही अन्य सूक्ष्म तत्व भी बह जाते हैं।

कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि पौधे का प्रथम भोजन पानी माना गया है। पौधे को तैयार होने में करीब 90 फीसदी जल की आवश्यकता होती है। यह मिट्टी में उपस्थित तत्वों को भोजन के रूप में पौधे तक पहुँचाता है। मिट्टी में समुचित आर्द्रता होना भी जरूरी होता है। मिट्टी में पानी का कम होना और अधिक होना दोनों ही बात पौधे को किसी न किसी रूप में प्रभावित करती हैं। इसलिए जल प्रबन्धन बेहद जरूरी है।

नैनो तकनीक का प्रयोग


तमिलनाडु विश्वविद्यालय की ओर से अतिसूक्ष्म शाकनाशी विकास परियोजनाएँ चलाई जा रही हैं। उम्मीद है कि भविष्य में खरपतवारनाशी के लिए रासायनिक छिड़काव के बजाय नैनो हर्बीसाइड्स अति सूक्ष्म मात्रा में प्रयोग किए जाएँगे। इसके जरिए कीड़ों के नियन्त्रण में कम से कम रसायन का प्रयोग होगा और फसल उत्पादन प्राप्त किया जा सकेगा। इसके अलावा कृषि विविधिकरण एवं फसल विविधिकरण की तकनीक भी अपनाए जाने की जरूरत है। एक ही तरह की फसलों को बार-बार लेने से भी मिट्टी की स्थिति प्रभावित होती है। ऐसे में यदि हम अलग-अलग फसल चक्र अपनाएँ तो मृदा संरक्षण के साथ ही उत्पादन भी अधिक प्राप्त कर सकते हैं।

जलग्रहण क्षेत्र संरक्षण में झूम खेती का योगदान


जलग्रहण क्षेत्र में भूमि संरक्षण के लिए केन्द्र प्रायोजित योजना तीसरी पंचवर्षीय योजना में शुरू की गई थी। इसके पश्चात 1978 में बाढ़ की विभीषिका को ध्यान में रखते हुए छठी पंचवर्षीय योजना में बाढ़ सम्भावित नदी योजना की शुरुआत की गयी थी। इन दोनों योजनाओं का नौवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान व्यय वित्त समिति की सिफारिश पर विलय कर दिया गया था और नवम्बर 2000 के बाद से वृहद प्रबन्धन विधि के अन्तर्गत सम्मिलित कर लिए गए थे। कैचमेंट मैनेजमेंट आॅफ रीवर वैली प्रोजेक्ट एंड फ्लड प्रोन रिवर्स के कार्यक्रम के अन्तर्गत 27 राज्यों में 53 कैचमेंट्स को शामिल किया गया है। उस समय कुल जलग्रहण क्षेत्र 141 मिलियन हेक्टेयर था, जिसमें प्राथमिकता के आधार पर 2.8 करोड़ हेक्टेयर भूमि को तत्काल बचाए जाने की जरूरत बताई गई। वर्ष 2004-05 के दौरान 1894 करोड़ रुपये की लागत से इसमें से 60.8 हेक्टेयर भूमि का निदान किया गया। इसके बाद हर साल करीब 0.17 मिलियन हेक्टेयर भूमि को लक्ष्य बनाया गया। अब स्थिति काफी सकारात्मक दिख रही है। विभिन्न राज्यों में इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ। जलग्रहण क्षेत्र विकास परियोजना को आठवी योजना के तहत 1994-95 से पूर्वोत्तर के सात राज्यों के झूम खेती वाले भागों में शुरू किया गया। शत-प्रतिशत केन्द्रीय सहायता से चलने वाली इस योजना का लक्ष्य जलग्रहण क्षेत्र के आधार पर झूम इलाकों का पूर्ण विकास करना है। आठवीं योजना के दौरान पूर्वोत्तर के राज्यों द्वारा 31.51 करोड़ रुपये की लागत से 0.67 लाख हेक्टेयर भूमि का उपचार किया गया। वहीं नौवीं योजना के दौरान 82 करोड़ रुपये की लागत से 1.7 लाख हेक्टेयर भूमि का निदान किया गया है।

निक्षालय क्रिया से सुधरती है लवणीयता व क्षारीयता


देश में खेती योग्य जमीन में कुछ हिस्सा लवणीयता एवं क्षारीयता से प्रभावित है। लवणीय मिट्टी में सोडियम और पोटेशियम कार्बोनेट की मात्रा अधिक होने के कारण पौधों की वृद्धि नहीं हो पाती है। ऐसे में पौधे या तो अविकिसित ही रहते हैं अथवा वे सूख कर नष्ट हो जाते हैं। इसी तरह क्षारीय मिट्टी में पानी भरने पर काफी दिनों तक रुका रहता है और जब पानी सूखता है तो मिट्टी एकदम सख्त हो जाती है और बीच-बीच में दरारें दिखाई पड़ती हैं। ऐसी मिट्टी में बोया जाने वाला बीज अंकुरित बहुत मुश्किल से होता है। क्षारीय भूमि को भी लवणीय भूमि की तरह निक्षालय क्रिया से शोधित किया जा सकता है। इसके अलावा जिप्सम का प्रयोग करके हानिकारक सोडियम तत्वों को नष्ट किया जा सकता है। इसके अलावा गोबर खाद, हरी खाद, वर्मी कम्पोस्ट, नील हरित शैवाल आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है। क्षारीय मृदा सुधार योजना सातवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में चलाई गई थी। नौवीं योजना में क्षारीय मृदा सुधार योजना के दायरे को बढ़ाया गया। वैज्ञानिक मानदंडों के अनुसार क्षारीय भूमि की श्रेणी में आने वाले देश के सभी अन्य राज्यों की जमीनों को भी इसके अन्तर्गत लाया गया। अधिकतम फसल उत्पादन के लिए योजना के अन्तर्गत क्षारीय भूमि की भौतिक संरचना और उत्पादकता को बढ़ाया जाता है। भूमि विकास कार्यों जैसे भूमि समतलीकरण के समय सिंचाई के पानी की व्यवस्था करना, मेड़ निर्माण, जुताई, कृषि, सामुदायिक जल निकासी, भूमि सुधार के लिए जैविक खाद का उपयोग आदि क्षारीय भूमि को सामान्य बनाने की प्रक्रिया के प्रमुख कार्य होते हैं।

चावल उत्पादन में एसआरआई (श्री) तकनीक


भारत में धान महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है। राष्ट्रीय-स्तर पर धान की खेती करीब 4.5 करोड़ हेक्टेयर में की जाती है। कृषि वैज्ञानिकों की ओर से चावल उत्पादन में चावल गहनीकरण पद्धति यानी एसआरआई (श्री) अपनाई जा रही है। श्री खेती के अन्तर्गत जलभराव होने पर धान जलमग्न नहीं होता है लेकिन वानस्पतिक अवस्था के दौरान मिट्टी को आर्द्र बनाए रखता है, बाद में सिर्फ एक इंच जल गहनता पर्याप्त होती है। जबकि एसआरआई तकनीक में सामान्य की तुलना में सिर्फ आधे जल की आवश्यकता होती है। श्री खेती की उपयोगिता को देखते हुए वर्तमान में विश्वभर में लगभग एक लाख से ज्यादा किसान इस कृषि पद्धति से लाभ उठा रहे हैं। एसआरआई में धान की खेती के लिए बहुत कम पानी तथा कम खर्च की आवश्यकता होती है और उपज भी अच्छी होती है। छोटे और सीमान्त किसानों के लिए ये अधिक लाभकारी है। एसआरआई तकनीक (श्री) के इतिहास पर गौर करें तो वर्ष 1980 के दशक के दौरान मेडागास्कर में पहली बार इस तकनीक को विकसित किया गया। इसका क्षमता परीक्षण चीन, इंडोनेशिया, कम्बोडिया, थाइलैंड, बांग्लादेश, श्रीलंका एवं भारत में किया गया। आंध्र प्रदेश में वर्ष 2003 में एसआरआई की खरीफ फसल के दौरान राज्य के 22 जिलों में परीक्षण किया गया। इस पद्धति से धान की खेती को लेकर औपचारिक प्रयोग वर्ष 2002-03 में प्रारम्भ हुआ। अब तक इस पद्धति को आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ एवं गुजरात में प्रारंभ किया गया है। इस विधि की खासियत यह है कि इसमें मात्र दो किलोग्राम धान बीज एक एकड़ खेत के लिए पर्याप्त होता है। इतना ही नहीं इसकी रोपाई के लिए नर्सरी की उम्र सिर्फ 8 से 10 दिन रखी जाती है। इससे बीज की मात्रा कम लगती है तो दूसरी तरफ नर्सरी तैयार होने में लगने वाला समय बचता है। इतना ही नहीं आमतौर पर परम्परागत तकनीक से होने वाली धान की खेती की अपेक्षा इस तकनीक में पैदावार भी अधिक होती है। एसआरआई तकनीक से धान की खेती में 2 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर बीज की और प्रति यूनिट 25-25 सेन्टीमीटर क्षेत्रफल की दर से कुछ पौधों की आवश्यकता होती है। जबकि धान की पारम्परिक सघन कृषि में प्रति एकड़ 20 किलो की दर से बीज की आवश्यकता होती है। इस तकनीक से धान की पौध में 8 से 12 दिन बाद जब दो छोटी पत्तियाँ दिखने लगें तभी रोपाई कर देनी चाहिए। रोपाई में अभिघात को कम करें। धान के छोटे पौधे को नर्सरी से बीज, मिट्टी और जड़सहित सावधानीपूर्वक उखाड़कर कम गहराई पर उसकी रोपाई करनी चाहिए।

धान का पौधा समूह के बजाय अकेले में अधिक बढ़ता है। इसलिए इसे वर्गाकार रूप में 25 गुना 255 सेमी की दूरी पर रोपा जाना चाहिए। इससे अधिक जड़ वृद्धि की सम्भावना होती है। निराई और हवा की व्यवस्था का ध्यान रखना चाहिए। इसके लिए धान की फसल के लिए निराई और हवा अत्यन्त आवश्यक होती है। धान के फूटने या पुष्पित होने तक कम से कम दो निराई अवश्य करानी चाहिए, लेकिन 4 बार की निराई को उत्तम माना जाता है। पहली निराई रोपाई के 10 दिन बाद होनी चाहिए। घास की सफाई से धान के पौधों के जड़ों का अधिक विकास होता है। और पौधे को पर्याप्त मात्रा में आॅक्सीजन एवं नाइट्रोजन भी प्राप्त हो पाता है। दो निराई के बाद प्रत्येक अतिरिक्त निराई से 2 टन प्रति हेक्टेयर की दर उत्पादन में वृद्धि सम्भव है। मिट्टी को आर्द्र बनाये रखने के लिये नियमित जल प्रयोग आवश्यक है। लेकिन कभी-कभी पानी को सूखने भी दिया जाना चाहिए ताकि पौधों की जड़ में आसानी से हवा की आवाजाही हो सके। खेत में रासायनिक खाद के स्थान पर या उसके अलावा खाद का उपयोग 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से किया जाना चाहिए। बेहतर उर्वराशक्ति एवं सन्तुलित पोषक तत्व से अधिक उपज सम्भव है। झारखंड में धान की खेती वर्ष 2007 में लगभग 16 लाख हेक्टेयर में की गई थी तथा इसकी औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर थी। झारखंड में संकर धान की खेती चावल उत्पादन में वृद्धि के लिए अत्यन्त आवश्यक है। संकर धान की विभिन्न किस्मों की उत्पादन क्षमता लगभग 80 से 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है जबकि धान की अधिक उपज देने वाली सर्वोत्तम किस्मों की उत्पादन क्षमता 50 से 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। संकर धान की 110 से 140 दिनों में तैयार होने वाली कई किस्में विकसित की गई हैं एवं देश के विभिन्न क्षेत्रों में लगाने के लिए अनुशंसा की गई है।

(लेखक कृषि विभाग से जुड़े रहे हैं। अब स्वतंत्र पत्रकार के रूप में खेती-किसानी से जुड़े मुद्दों पर समाचार-पत्रों एवं मासिक पत्रिकाओं में लेखन कार्य कर रहे हैं।) ई-मेल: manojshrivastav591@yahoo.in
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