साधो ये मुरदों का गांव
पीर मरे, पैगम्बर मरिहैं
मरिहैं जिन्दा जोगी
राजा मरिहैं परजा मरिहै
मरिहैं बैद और रोगी...
-कबीर
2 दिसम्बर,1984 की रात यूनियन कार्बाइड से रिसी जहरीली गैस ने हजारों को मौत की नींद सुला दिया था। जो लोग बचे हैं वे फेफड़े, आँख, दिल, गुर्दे, पेट और चमड़ी की बीमारी झेल रहे हैं। सवा पाँच लाख ऐसे गैस पीड़ित हैं, जिन्हें किसी तरह की राहत नहीं दी गई है। साथ ही 1997 के बाद से गैस पीड़ितों की मौत दर्ज नहीं की जा रही है।
सरकार भी यह मान चुकी है कि कारखाने में और उसके चारों तरफ तकरीबन 10 हजार मीट्रिक टन से अधिक कचरा ज़मीन में दबा हुआ है। अभी तक सरकारी स्तर पर इसे हटाने को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई है। खुले आसमान के नीचे जमा यह कचरा बीते कई सालों से बरसात के पानी के साथ घुलकर अब तक 14 बस्तियों की 40 हजार आबादी के भूजल को जहरीला बना चुका है।
भोपाल के यूनियन कार्बाइड परिसर में दबाए गए जहरीले कचरे ने आस-पास के भूजल को मानक स्तर से 561 गुना ज्यादा प्रदूषित कर दिया है। संगठनों का आरोप है कि सरकार सिर्फ कारखाने के बन्द गोदाम में रखे कचरे का निपटान करके अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ना चाह रही है, जबकि यूनियन कार्बाइड प्रबन्धन ने कारखाने परिसर में मौजूद जहरीले कचरे को कारखाने के भीतर व बाहर और खुले तौर पर 14 से अधिक स्थानों में दबाया था।
कारखाने के बाहर बने तीन तालाबों में तकरीबन 10 हजार मीट्रिक टन जहरीला कचरा दबा हुआ है। फिलहाल तालाबों की ज़मीन खेल के मैदानों और बस्तियों में तब्दील हो गई हैं और यहाँ दबा कचरा अब सफेद परतों के रूप में ज़मीन से बाहर दिखाई देने लगा है।
भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के अब्दुल जब्बार का कहना है, ‘खुले में पड़ा हजारों मीट्रिक टन कचरा समस्या की असली जड़ है और इसे निपटाए बिना गैस पीड़ित बस्तियों के भूजल प्रदूषण को कम नहीं किया जा सकता।’
यूनियन कार्बाइड कारखाने में कारबारील, एल्डिकार्ब और सेबिडॉल जैसे खतरनाक कीटनाशकों का उत्पादन होता था। संयंत्र में पारे और क्रोमियम जैसी दीर्घस्थायी और जहरीली धातुएँ भी इस्तेमाल होती थीं। कई सरकारी और गैरसरकारी एजेंसियों के मुताबिक कारखाने के अन्दर और बाहर पड़े कचरे के लगातार ज़मीन में रिसने से एक बड़े भूभाग का जल प्रदूषित हो चुका है।
1991 और 1996 में मध्य प्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने पाया था कि इलाके के 11 नलकूपों से लिये गए भूजल के नमूनों में जहरीले रसायन हैं। 1998 से 2006 के बीच मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने हर तीन महीने में पड़ताल करके यहाँ जहरीले रसायनों की पुष्टि की है। अन्तरराष्ट्रीय संस्था ग्रीनपीस ने भी अपने अध्ययन में पाया कि यहाँ पारे की मात्रा सुरक्षित स्तर से 60 लाख गुना तक अधिक है।
सबसे ताजा 2009 में दिल्ली के सीएसई यानी सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट का अध्ययन है जिसमें कारखाना परिसर से तीन किलोमीटर दूर और 30 मीटर गहराई तक जहरीले रसायन पाये गए। सीएसई के मुताबिक कारखाने के आस-पास सतही पानी के नमूनों में कीटनाशकों का सम्मिश्रण 0.2805 पीपीएम पाया गया जो भारतीय मानक से 561 गुना अधिक है।
सीएसई की निदेशक सुनीता नारायण बताती हैं, ‘भोपाल में कारखाना क्षेत्र भीषण विषाक्तता को जन्म दे रहा है जिसका स्वास्थ्य पर भयंकर असर पड़ेगा। क्लोरिनेटिड बेंजीन मिश्रण जिगर और रक्त कोशिकाओं को नष्ट कर सकता है। वहीं ऑर्गेनोक्लोरीन कीटनाशक कैंसर और हड्डियों की विकृतियों के जनक हो सकते हैं। यूसीआईएल के दो प्रमुख उत्पाद कारबारील और एल्डिकार्ब दिमाग और तंत्रिका प्रणाली को नुकसान पहुँचाने के अलावा गुणसूत्रों में गड़बड़ी ला सकते हैं।’
भोपाल गैस त्रासदी के 30 साल पूरे हो गए। दावा किया जा रहा है कि भारत एक आर्थिक महाशक्ति बन गया है। देश में विदेशी पूँजी निवेश में काफी बढ़ोत्तरी हुई और वह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का पसंदीदा भी बन गया है। मगर भोपाल में यूनियन कार्बाइड से रिसी गैस से पीड़ित समुदाय के लिये तो 3 दशक का यह समय जैसे ठहरा ही हुआ है।
भोपाल की ट्रायल कोर्ट से आये फैसले के बाद लगा था कि केन्द्र और राज्य सरकारें चेतेंगी और कुछ सकारात्मक पहल करेंगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। केन्द्र सरकार ने कुछ आधा-अधूरा सा उत्तरदायित्व निभाया और मंत्रियों के समूह ने खैरात बाँटने के अन्दाज में कुछ घोषणाएँ कर दीं। लेकिन पीड़ितों का शारीरिक, मानसिक या कानूनी किसी भी तरह की कोई राहत नहीं मिली।
दूसरे अर्थ में भारत में हो रहे विदेशी पूँजी निवेश के पीछे भी सम्भवतः यही भावना कार्य कर रही है कि यदि किसी देश में विश्व की अब तक की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना के लिये 26 वर्ष पश्चात भी किसी को पूर्णतः उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सका है तो निवेश का उससे बेहतर स्थान और क्या हो सकता है?
3 दिसम्बर को प्रतिवर्ष सभी धर्मों और राजनीतिक दलों द्वारा आयोजित प्रार्थना सभाएँ महज रस्मी होकर रह गई हैं। आज कई राष्ट्र दूसरे महायुद्ध के बीत जाने के 60 वर्षों बाद भी अपने द्वारा किसी अन्य राष्ट्र के प्रति की गई अमानवीयता के लिये क्षमा माँगते नजर आते हैं। लेकिन दुनिया के इस भीषण हादसे की ज़िम्मेदारी कोई नहीं लेता।
भारतीय न्याय व्यवस्था भी एक गोल घेरे में रहकर लगातार दोहराव से ग्रसित हो गई है। ट्रायल कोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक सब अपनी-अपनी भूमिका की समीक्षा की बात अवश्य करते नजर आते हैं लेकिन धरातल पर कुछ भी नजर नहीं आ रहा है। गैस पीड़ितों के साथ संघर्ष कर रहे संगठन और व्यक्ति लगातार सरकार की विरोधाभासी प्रवृत्तियों को उजागर कर रहे हैं।
प्रशासन तंत्र भी मामले और निपटारे को लगातार लम्बित करता जा रहा है। गैस पीड़ितों के लिये बना अस्पताल श्रेष्ठी वर्ग के सुपर स्पेशलिटी अस्पताल में बदल गया। गैस पीड़ितों के स्वास्थ्य पर बड़े प्रभावों के आकलन व उपचार के लिये गठित शोध समूह को कार्य करने से रोक दिया गया। आज तक इस बात को सार्वजनिक नहीं किया गया कि अन्ततः भोपाल कितने प्रकार के जहर का शिकार हुआ था।
भोपाल गैस पीड़ितों को भी लगातार भुलावे में रखकर रोज नई-नई घोषणाएँ करना अर्थहीन है। भोपाल गैस त्रासदी को लेकर बरती जा रही लापरवाही अनजाने में नहीं हो रही है। यह एक घृणित प्रवृत्ति है जो कि उद्योगपतियों को यह दर्शा रही है कि उन्हें इस देश में कुछ भी करने की छूट है।
पीर मरे, पैगम्बर मरिहैं
मरिहैं जिन्दा जोगी
राजा मरिहैं परजा मरिहै
मरिहैं बैद और रोगी...
-कबीर
2 दिसम्बर,1984 की रात यूनियन कार्बाइड से रिसी जहरीली गैस ने हजारों को मौत की नींद सुला दिया था। जो लोग बचे हैं वे फेफड़े, आँख, दिल, गुर्दे, पेट और चमड़ी की बीमारी झेल रहे हैं। सवा पाँच लाख ऐसे गैस पीड़ित हैं, जिन्हें किसी तरह की राहत नहीं दी गई है। साथ ही 1997 के बाद से गैस पीड़ितों की मौत दर्ज नहीं की जा रही है।
सरकार भी यह मान चुकी है कि कारखाने में और उसके चारों तरफ तकरीबन 10 हजार मीट्रिक टन से अधिक कचरा ज़मीन में दबा हुआ है। अभी तक सरकारी स्तर पर इसे हटाने को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई है। खुले आसमान के नीचे जमा यह कचरा बीते कई सालों से बरसात के पानी के साथ घुलकर अब तक 14 बस्तियों की 40 हजार आबादी के भूजल को जहरीला बना चुका है।
भोपाल के यूनियन कार्बाइड परिसर में दबाए गए जहरीले कचरे ने आस-पास के भूजल को मानक स्तर से 561 गुना ज्यादा प्रदूषित कर दिया है। संगठनों का आरोप है कि सरकार सिर्फ कारखाने के बन्द गोदाम में रखे कचरे का निपटान करके अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ना चाह रही है, जबकि यूनियन कार्बाइड प्रबन्धन ने कारखाने परिसर में मौजूद जहरीले कचरे को कारखाने के भीतर व बाहर और खुले तौर पर 14 से अधिक स्थानों में दबाया था।
कारखाने के बाहर बने तीन तालाबों में तकरीबन 10 हजार मीट्रिक टन जहरीला कचरा दबा हुआ है। फिलहाल तालाबों की ज़मीन खेल के मैदानों और बस्तियों में तब्दील हो गई हैं और यहाँ दबा कचरा अब सफेद परतों के रूप में ज़मीन से बाहर दिखाई देने लगा है।
भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के अब्दुल जब्बार का कहना है, ‘खुले में पड़ा हजारों मीट्रिक टन कचरा समस्या की असली जड़ है और इसे निपटाए बिना गैस पीड़ित बस्तियों के भूजल प्रदूषण को कम नहीं किया जा सकता।’
यूनियन कार्बाइड कारखाने में कारबारील, एल्डिकार्ब और सेबिडॉल जैसे खतरनाक कीटनाशकों का उत्पादन होता था। संयंत्र में पारे और क्रोमियम जैसी दीर्घस्थायी और जहरीली धातुएँ भी इस्तेमाल होती थीं। कई सरकारी और गैरसरकारी एजेंसियों के मुताबिक कारखाने के अन्दर और बाहर पड़े कचरे के लगातार ज़मीन में रिसने से एक बड़े भूभाग का जल प्रदूषित हो चुका है।
1991 और 1996 में मध्य प्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने पाया था कि इलाके के 11 नलकूपों से लिये गए भूजल के नमूनों में जहरीले रसायन हैं। 1998 से 2006 के बीच मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने हर तीन महीने में पड़ताल करके यहाँ जहरीले रसायनों की पुष्टि की है। अन्तरराष्ट्रीय संस्था ग्रीनपीस ने भी अपने अध्ययन में पाया कि यहाँ पारे की मात्रा सुरक्षित स्तर से 60 लाख गुना तक अधिक है।
सबसे ताजा 2009 में दिल्ली के सीएसई यानी सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट का अध्ययन है जिसमें कारखाना परिसर से तीन किलोमीटर दूर और 30 मीटर गहराई तक जहरीले रसायन पाये गए। सीएसई के मुताबिक कारखाने के आस-पास सतही पानी के नमूनों में कीटनाशकों का सम्मिश्रण 0.2805 पीपीएम पाया गया जो भारतीय मानक से 561 गुना अधिक है।
सीएसई की निदेशक सुनीता नारायण बताती हैं, ‘भोपाल में कारखाना क्षेत्र भीषण विषाक्तता को जन्म दे रहा है जिसका स्वास्थ्य पर भयंकर असर पड़ेगा। क्लोरिनेटिड बेंजीन मिश्रण जिगर और रक्त कोशिकाओं को नष्ट कर सकता है। वहीं ऑर्गेनोक्लोरीन कीटनाशक कैंसर और हड्डियों की विकृतियों के जनक हो सकते हैं। यूसीआईएल के दो प्रमुख उत्पाद कारबारील और एल्डिकार्ब दिमाग और तंत्रिका प्रणाली को नुकसान पहुँचाने के अलावा गुणसूत्रों में गड़बड़ी ला सकते हैं।’
भोपाल गैस त्रासदी के 30 साल पूरे हो गए। दावा किया जा रहा है कि भारत एक आर्थिक महाशक्ति बन गया है। देश में विदेशी पूँजी निवेश में काफी बढ़ोत्तरी हुई और वह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का पसंदीदा भी बन गया है। मगर भोपाल में यूनियन कार्बाइड से रिसी गैस से पीड़ित समुदाय के लिये तो 3 दशक का यह समय जैसे ठहरा ही हुआ है।
भोपाल की ट्रायल कोर्ट से आये फैसले के बाद लगा था कि केन्द्र और राज्य सरकारें चेतेंगी और कुछ सकारात्मक पहल करेंगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। केन्द्र सरकार ने कुछ आधा-अधूरा सा उत्तरदायित्व निभाया और मंत्रियों के समूह ने खैरात बाँटने के अन्दाज में कुछ घोषणाएँ कर दीं। लेकिन पीड़ितों का शारीरिक, मानसिक या कानूनी किसी भी तरह की कोई राहत नहीं मिली।
दूसरे अर्थ में भारत में हो रहे विदेशी पूँजी निवेश के पीछे भी सम्भवतः यही भावना कार्य कर रही है कि यदि किसी देश में विश्व की अब तक की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना के लिये 26 वर्ष पश्चात भी किसी को पूर्णतः उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सका है तो निवेश का उससे बेहतर स्थान और क्या हो सकता है?
3 दिसम्बर को प्रतिवर्ष सभी धर्मों और राजनीतिक दलों द्वारा आयोजित प्रार्थना सभाएँ महज रस्मी होकर रह गई हैं। आज कई राष्ट्र दूसरे महायुद्ध के बीत जाने के 60 वर्षों बाद भी अपने द्वारा किसी अन्य राष्ट्र के प्रति की गई अमानवीयता के लिये क्षमा माँगते नजर आते हैं। लेकिन दुनिया के इस भीषण हादसे की ज़िम्मेदारी कोई नहीं लेता।
भारतीय न्याय व्यवस्था भी एक गोल घेरे में रहकर लगातार दोहराव से ग्रसित हो गई है। ट्रायल कोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक सब अपनी-अपनी भूमिका की समीक्षा की बात अवश्य करते नजर आते हैं लेकिन धरातल पर कुछ भी नजर नहीं आ रहा है। गैस पीड़ितों के साथ संघर्ष कर रहे संगठन और व्यक्ति लगातार सरकार की विरोधाभासी प्रवृत्तियों को उजागर कर रहे हैं।
प्रशासन तंत्र भी मामले और निपटारे को लगातार लम्बित करता जा रहा है। गैस पीड़ितों के लिये बना अस्पताल श्रेष्ठी वर्ग के सुपर स्पेशलिटी अस्पताल में बदल गया। गैस पीड़ितों के स्वास्थ्य पर बड़े प्रभावों के आकलन व उपचार के लिये गठित शोध समूह को कार्य करने से रोक दिया गया। आज तक इस बात को सार्वजनिक नहीं किया गया कि अन्ततः भोपाल कितने प्रकार के जहर का शिकार हुआ था।
भोपाल गैस पीड़ितों को भी लगातार भुलावे में रखकर रोज नई-नई घोषणाएँ करना अर्थहीन है। भोपाल गैस त्रासदी को लेकर बरती जा रही लापरवाही अनजाने में नहीं हो रही है। यह एक घृणित प्रवृत्ति है जो कि उद्योगपतियों को यह दर्शा रही है कि उन्हें इस देश में कुछ भी करने की छूट है।
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Post By: RuralWater