बताया जाता है कि देश के प्रथम श्रेणी के 423 शहर और द्वितीय श्रेणी के 449 शहर, प्रतिदिन 33000 लाख लीटर तरल अपशिष्ट उत्सर्जित करते हैं। जबकि देश में तरल अपशिष्ट शोधन की क्षमता महज 7000 लाख लीटर प्रतिदिन है। अपशिष्ट पदार्थों के शोधन का काम नगर निगमों का होता है।
जब तक अपशिष्टों के शोधन की समस्या का समाधान पूरी तरह नहीं हो जाता तब तक बायोकेमिकल ऑक्सीजन की समस्या पर काबू नहीं पाया जा सकता। साल 2000 में सरकार की अनुषंगी इकाइयों अर्थात केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board, CPCB) और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों (State Pollution Control Board, SPCB) द्वारा 282 नदियों पर 1365 प्रदूषित खण्डों का चिन्हीकरण किया गया था।
पानी की गुणवत्ता को इन खण्डों के विभाजन का आधार बनाया गया था। इसी तरह 86 प्रदूषित जलाशयों-खंडों की पहचान की गई थी और 71 नदियों, 15 झीलों और तालाबों से सम्बन्धित आँकड़े जुटाए गए थे। 2006 आते-आते सरकारी स्तर पर यह पाया गया कि 178 जलाशय, 139 नदियाँ, 33 झील-तालाब, शहरी व औद्योगिक कचरे से भयंकर रूप से प्रदूषित हो चुकी थी। आज 12 वर्ष बाद यानि 2018 में इन नदियों और जलाशयों में प्रदूषण का स्तर बढ़कर दोगुना हो गया है।
उल्लेखनीय है कि नदियों के संरक्षण के लिये केन्द्र और राज्य सरकारें लगातार सामूहिक प्रयास कर रही हैं। राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (National River Conservation Plan- NRCP) के तहत नदियों के पानी की गुणवत्ता में सुधार के लिये सरकारी स्तर पर लगातार प्रयास किये जा रहे हैं। एनआरसीपी के तहत गंगा, यमुना, दामोदर और स्वर्णरेखा सहित 37 नदियों के प्रदूषित खण्डों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।
जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (Jawaharlal nehru national urban renewal mission), नमामी गंगे (Namami gange), स्वच्छ भारत मिशन (Swachh bharat mission) जैसी अन्य केन्द्रीय योजनाओं तथा राज्यों द्वारा संचालित शहरी विकास योजनाओं के तहत भी नदियों के संरक्षण के भी कार्य किये जा रहे हैं। बताया जा रहा है कि सरकारी लालफीताशाही के कारण नदी संरक्षण कार्यक्रम के क्रियान्वयन में भूमि अधिग्रहण, सृजित परिसम्पत्तियों के कुप्रबन्धन जैसे अनियमित बिजली आपूर्ति, सीवेज शोधन संयंत्रों का समुचित ढंग से इस्तेमाल नहीं होना जैसी समस्याएँ आड़े आ रही हैं।
क्या है प्रदूषित खण्ड
प्रदूषित खण्ड वह क्षेत्र है जहाँ पानी की गुणवत्ता का वांछित स्तर बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (Biological Oxygen Demand, BOD) के अनुकूल नहीं होता। जिन जलाशयों का बीओडी 6 मिलीग्राम से ज्यादा होता है उन्हें प्रदूषित जलाशय कहा जाता है। नदी के किसी भी हिस्से में पानी की उच्च गुणवत्ता की माँग को उसका सर्वश्रेष्ठ उपयोग समझा जाता है।
इस सर्वश्रेष्ठ उपयोग के लिये पानी की गुणवत्ता सम्बन्धी शर्त सीपीसीबी द्वारा तय किये जाते हैं। इसके तहत प्रदूषण को श्रेणियों में विभाजित किया गया है। श्रेणी ए के तहत आने वाले जलस्रोतों में कीटाणुशोधन के बाद, घुल्य ऑक्सीजन 6 मिलीग्राम, बीओडी 2 मिलीग्राम, या कुल कॉलिफॉर्म 50 एमपीएन होना चाहिए। श्रेणी बी का पानी केवल नहाने योग्य होता है। इस पानी में घुल्य ऑक्सीजन 5 मिलीग्राम या उससे अधिक होना चाहिए और बीओडी-3 मिग्रा होना चाहिए। कॉलीफार्म 500 एमपीएन होना चाहिए।
श्रेणी सी का पानी पारम्परिक शोधन और कीटाणुशोधन के बाद पेयजल स्रोत है। घुल्य ऑक्सीजन 4 मिलीग्राम या उससे अधिक होना चाहिए तथा बीओडी 3 मिलीग्राम या उससे कम होना चाहिए तथा कॉलीफार्म 5000 एमपीएन होना चाहिए। श्रेणी डी और ई का पानी वन्यजीवों के लिये तथा सिंचाई के लिये होता है। इसमें घुल्य ऑक्सीजन 4 मिलीग्राम या उससे अधिक होना चाहिए। इस तरह के पानी से मुक्त होने वाला अमोनिया जंगली जीवों के प्रजनन एवं मात्स्यिकी के लिये अच्छा माना जाता है। (स्रोत - केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड)
नदी स्वच्छता
पहले राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना, नमामी गंगे जैसी योजनाएँ नदियों के संरक्षण व संवर्धन के लिये काम कर रही हैं। इन योजनाओं का उद्देश्य नदियों में पानी की गुणवत्ता में सुधार और प्रदूषण का निम्नीकरण करना है ताकि पानी स्नान के लायक हो। अपशिष्टों को नदी में बहने से रोकना और उसे शोधन के लिये भेजना, नदी तट पर खुले में शौच पर रोक लगाने के लिये सस्ते शौचालय की व्यवस्था करना, शवों की अन्त्येष्टि के लिये बिजली शवदाह गृह या उन्नत किस्म के जलावन वाले शवदाह गृह की व्यवस्था करना, स्नान के लिये घाटों में सुधार जैसे सौन्दर्यीकरण का कार्य करना तथा लोगों के बीच प्रदूषण के प्रति जागरुकता फैलाना आदि भी इसी के अन्तर्गत आते हैं।
नदी संरक्षण का बजट
नदी संरक्षण, संवर्धन व स्वच्छता कार्यक्रम के लिये धन जुटाने की व्यवस्था में सरकार ने विगत वर्षों में कई बदलाव किये हैं। गंगा कार्य योजना (Ganga Action Plan, GAP), जो 1985 में शुरू हुई थी, शत-प्रतिशत केन्द्र पोषित योजना थी। जीएपी के दूसरे चरण में 1993 में आधी राशि केन्द्र सरकार और आधी राशि सम्बन्धित राज्य सरकारों द्वारा जुटाए जाने की व्यवस्था की गई थी।
एक अप्रैल, 1997 में यह व्यवस्था फिर बदल दी गई और शत-प्रतिशत धन केन्द्र ही मुहैया कराने लगा। एक अप्रैल, 2001 से केन्द्र द्वारा 70 प्रतिशत राशि और राज्य द्वारा 30 प्रतिशत राशि जुटाने की व्यवस्था लागू हो गई। इस 30 प्रतिशत राशि का एक तिहाई पब्लिक या स्थानीय निकाय के शेयर से जुटाया जाना था।
ग्यारहवीं योजना में एनआरसीपी के तहत कार्यों के लिये 2100 करोड़ रुपए दिये गए जबकि अनुमानित आवश्यकता 8303 करोड़ रुपए की थी। इस अनुमानित राशि की चर्चा योजना आयोग द्वारा नदियों के मुद्दे पर गठित कार्यबल की रिपोर्ट में है। एनआरसीपी के तहत 2007-08 में 251.83 करोड़ रूपए, 2008-09 के दौरान 276 करोड़ रुपए व्यय किये गए। मौजूदा सरकार ने भी वर्ष 2015 में सिर्फ गंगा संरक्षण यानि नमामी गंगे के लिये 21,000 करोड़ की धनराशि स्वीकृत की है। (स्रोत- नीति आयोग की एक रिपोर्ट)
समस्या
आमतौर पर यह देखा गया कि सीवरेज शोधन संयंत्रों जैसी परिसम्पत्तियों के निर्माण के बाद राज्य सरकारों अथवा स्थानीय शहरी निकायों ने उनके प्रबन्धन एवं रख-रखाव पर ध्यान नहीं दिया। पर्याप्त बिजली की आपूर्ति नहीं होने, प्रबन्धन एवं रख-रखाव के लिये उपयुक्त कौशल एवं क्षमता के अभाव जैसे कई मामले सामने आ चुके हैं। नदी तटों पर लगातार बढ़ती जनसंख्या, औद्योगिकीकरण और बढ़ी हुई जनसंख्या के हिसाब से प्रदूषण निम्नीकरण कार्य शुरू करने के लिये वित्तीय संसाधनों की कमी हमेशा आड़े आती है।
चुनौतियाँ
सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (Sewage Treatment Plant, STP) के माध्यम से नदियों के प्रदूषण रोकने की सीमित पहल सामने आई है। बताया यह जाता है कि कई एसटीपी में बीओडी और एसएस के अलावा कॉलीफार्म के नियंत्रण के लिये सीवरेज प्रबन्धन में ढेर सारी समस्याएँ सामने आती हैं जिससे सीवरेज का बार-बार ट्रीटमेंट किया जाता है। सीवरेज ट्रीटमेंट हेतु जो कार्य हो रहा है वही सन्तुलन का काम कर रहे हैं।
सिंचाई, पीने के लिये, तथा बिजली के लिये भी राज्यों द्वारा पानी का दोहन नियंत्रित ढंग से नहीं किया जा रहा है। पानी के दोहन जैसे मुद्दों पर अन्तर-मंत्रालयीय समन्वय का भी अभाव है। अब तक नदियों का संरक्षण कार्य घरेलू तरल अपशिष्ट की वजह से होने वाले प्रदूषण के रोकथाम तक ही सीमित है। जलीय जीवन की देखभाल, मृदा अपरदन के रोकथाम आदि के माध्यम से नदियों की पारिस्थितिकी में सुधार आदि कार्यों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।
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