अनुमान है कि सन 2050 तक भारत की नगरीय आबादी लगभग 80 करोड़ हो जावेगी। इस जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव वैसे तो प्रत्येक सेक्टर पर पड़ेगा लेकिन जो प्रभाव पीने के साफ पानी की मांग, उपलब्धता और वितरण पर पड़ेगा, वह, आज की तुलना में बहुत अधिक गंभीर और चुनौतीपूर्ण होगा। पेयजल की इस चुनौती को अनेक घटक तय करते हैं पर जो घटक सबसे अधिक असर डालेंगे, वे हैं - साफ पानी की 365 दिन उपलब्धता, उपलब्ध पानी का संग्रह, उसका प्रबंधन और वितरण।
अनुभव बताता है कि नगरीय जल प्रदाय की गंभीर होती चुनौती का स्थान विशेष की औसत बरसात से बहुत सीधा सम्बन्ध नहीं है। उदाहरण के लिए अच्छी-खासी बरसात के बावजूद चेरापूंजी प्यासा है। इसी क्रम में कहा जा सकता है कि गाद जमाव के कारण, नगर को पानी की आपूर्ति करने वाले जलाशयों की लगातार घटती जल क्षमता भी, अस्त होते सूरज की रोशनी की तरह बहुत भरोसेमंद नहीं रहेगी। नदियों के नान-मानसूनी प्रवाह पर निर्भर जलापूर्ति भी भविष्य में, गंभीर प्रश्नचिन्ह खडे कर सकती है। यही संभावना रुफ-वाटर हार्वेस्टिंग (छत के पानी को जमीन में उतारने) को लेकर हो सकती है क्योंकि लगभग 20 साल पहले रूफ वाटर हार्वेस्टिंग का शानदार रिकॉर्ड बनाने वाला चैन्नई भी, अब, गर्मियों में सुरक्षित या आत्मनिर्भर नहीं है। भारत का आईटी हब कहा जाने वाला बेंगलुरु भी शुद्ध पानी की बढ़ती कमी से रुबरु है। हालिया अध्ययन इंगित कर रहे हैं कि यह चुनौती हिमालय के दार्जिलिंग जैसे नगरों में जहां, अच्छी - खासी बारिश होती है, इलाका बारहमासी नदियों तथा झरनों का मायका रहा है, के लिए भी कम त्रासद नहीं होगी।
इस अध्ययन का एक पक्ष यह भी है कि भारत का दक्षिणी भूभाग और पश्चिमी राजस्थान, जहाँ बारिश अपेक्षाकृत कम होती है और जहाँ नदियों का नान-मानसून प्रवाह भरोसेमन्द नही रहा है, में हालात, और अधिक त्रासद हो जावें। उल्लेखनीय है कि अत्याधिक दोहन के कारण, नगरीय भूजल भंडार भी गर्मी के मौसम में बौने सिद्ध हो रहे हैं। उपर्युक्त मुख्य बिन्दुओं की रोशनी में गहराते नगरीय पेय जल संकट को हल करने के लिए बेहतर तरीके से प्रयासों और उनके परिणामों को समझने की आवश्यकता है लेकिन एक बात जो आईने की तरह साफ है - वह है, केवल धन और मौजूदा रणनीति के आधार पर नगरीय जलसंकट का हल खोजना बेहद कठिन होगा।
गौरतलब है कि नगरीय इलाकों में जल प्रदाय, मुख्यतः बाहरी स्रोत (नदी और एक या एक से अधिक जलाशयों) पर निर्भर होता है। शहरी आबादी का एक हिस्सा नगरीय जल प्रदाय व्यवस्था के साथ-साथ अपने निजी बोरवेल से पानी लेकर अपनी अतिरिक्त या आकस्मिक आवश्यकता पूरी करता है। बोरवेल मात्र पूरक व्यवस्था है।
भूजल दोहन तथा आबादी के प्रति वर्ग किलोमीटर घनत्व के लगातार बढ़ने के कारण, धरती के नीचे के पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता लगातार कम हो रही है। इस कारण, अनेक बोरवेल, समयपूर्व सूखने लगे हैं। यह हकीकत, अनेक नगरों में नजर आने लगी है। इसके अलावा, अनेक जगह पानी में हानिकारक रसायन मिलने लगे हैं। इस कारण, जलशोधन व्यय बढ़ रहा है लेकिन एक बात साफ है कि बिना पर्याप्त पानी, बिना उचित प्रबन्ध तथा बिना टिकाऊ उपलब्धता के किसी भी शहर या महानगर का जल संकट दूर नही हो सकता। पानी की उपलब्धता के आंकड़े इंगित करते हैं कि भारत के जल संकट का सम्बन्ध बरसात पानी के संचय के आप्रासंगिक माडल और सूखे दिनों में उसकी कमी को दूर नहीं कर पाने की रणनीति के कारण है।
अनेक जानकारों द्वारा कहा जा रहा है कि आने वाले दिनों में, नगरों में, पानी की मांग में बेतहाशा वृद्धि होगी। प्रदूषण के बढ़ने के कारण, शुद्ध पानी मिलना और कठिन हो जावेगा। इस कष्ट से मुक्ति के लिये पानी की अतिरिक्त समानुपातिक क्षमता निर्मित करने की आवश्यकता होगी लेकिन क्षमता निर्मित करना और अन्तिम ठौर तक पानी उपलब्ध कराना, दो अलग बातें हैं। यही यक्ष प्रश्न है।
अब कुछ बात समय की कसौटी पर मौजूदा विकल्पों की विश्वसनीयता की। उनके सतत परिमार्जन की। बिन्दु और भी हो सकते हैं लेकिन हम अपनी बात उल्लिखित बिन्दुओं तक सीमित रखेंगे। उसके बाद कुछ विचारों की पैरवी करेंगे।
सभी जानते हैं कि महानगरों में पक्के निर्माण कार्यों तथा सडकों के नेटवर्क के कारण खुली जगह की कमी होती है। इस कमी के कारण बरसात के मौसम में कुदरती भूजल रीचार्ज के लिए खुली जगह की उपलब्धता कम हो जाती है। इस अनुक्रम में, कुछ लोगों का मानना है कि यदि महानगरों में बरसात के दिनों में रूफ-वाटर हार्वेस्टिंग को अपना लिया जाए तो पानी का संकट हल हो सकता है। लेकिन नगरों की बेतहाशा बढ़ती आबादी और जमीन में रिसे पानी के डायनेमिक चरित्र तथा कालान्तर में एक्वीफरों के अपारगम्य हो जाने के कारण यह विकल्प कारगर नहीं होगा। चेन्नई का उदाहरण सिद्ध करता है कि समय की कसौटी पर यह विकल्प विश्वसनीय नहीं है।
यह सही है कि कुदरती ताकतों से लड़ना संभव नहीं है। उनसे समन्वय संभव है। एक बात हमें याद रखना होगा कि नगरों में जल प्रदाय की चुनौती, ग्रामीण इलाकों की तुलना में बहुत अधिक कठिन और जटिल है। एक प्रयास संभव है। वह प्रयास है बरसात के दिनों में छत के पानी को धरती में उतारने के स्थान पर हर पक्के घर पर भूमिगत टांकों में पानी संचित करना। उसे निरापद बनाए रखने के लिए आवश्यक सावधानियों का पालन करना। जिस प्रकार राजस्थान के कम बरसात वाले इलाकों में समाज ने पीने का पानी जमा किया था और आत्मनिर्भरता हासिल की थी, लगता है उसे अपनाने का समय आ गया है।
महानगरों को रूफ-वाटर हार्वेस्टिंग के स्थान पर प्रत्येक घर में पक्के टांके के विकल्प के साथ-साथ अन्य टिकाऊ तथा निरापद विकल्पों को अपनाना होगा। अन्य विकल्पों में नगर के सभी उद्यानों तथा अन्य खुले स्थानों का कुछ हिस्सा तालाब के लिए आरक्षित करना उचित होगा। संचित पानी को प्रदूषण से मुक्त रखना होगा।
अनेक नगरों में नगरपालिकाओं द्वारा एक या एक से अधिक जलाशयों से जल प्रदाय किया जाता है। कुछ नगरों में जलाशयों के अलावा, नदियों से पानी उठाकर जलप्रदाय व्यवस्था को बेहतर बनाया जाता है। इस व्यवस्था को विश्वसनीय माना जाता है इसलिए सबसे पहले बात उनकी विश्वसनीयता की। जलवायु परिवर्तन के कारण बरसात का चरित्र बदलेगा। बरसात की तीव्रता बढ़ेगी, लेकिन उसकी सकल मात्रा का बदलाव लक्ष्मण रेखा के अन्दर रह सकता है पर बरसात की तीव्रता बढ़ने के कारण गाद की समस्या बढ़ेगी। उसके उचित निपटान पर यदि समय रहते ध्यान नहीं दिया तो जलाशय में जल संचय घटेगा। उसके बाद अगला विचारणीय बिन्दु है - गर्मी के महिनों का नदियों में बहने वाला प्रवाह। सभी जानते हैं कि यह प्रवाह लगातार घट रहा है और पानी में प्रदूषण बढ़ रहा है। यह अच्छा संकेत नहीं है। इसे सुलझाने की आवश्यकता है। अर्थात नदियों के नान-मानसूनी प्रवाह को बहाल करने की आवश्यकता है।
अन्त में, नगरीय जल संकट का हल निजी क्षेत्र की भागीदारी से संभव नही है, क्योंकि यह स्पष्ट होने लगा है कि कीमतों पर बाजार अधिक प्रभावी ढ़ंग से नियंत्रण रखता है। अनेक बार, नियम कायदे, रेगुलेटरी अथारिटी और अपीलें भी बाजार के गठजोड़ का पूरी तरह प्रतिकार नहीं कर पाते हैं, इसलिए, नगरीय प्रदाय व्यवस्था के लिए जनोन्मुखी मानवीय ढांचा ही आवश्यक है। उसे अपनाना होगा।
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