नेपाल में पुनर्वास की चुनौती

घोर मानव पूंजी का नाश देखना हो तो हिमालय में बसे नेपाल को इन दिनों निहारा जा सकता है। बीते 25 अप्रैल को नेपाल सहित उत्तर भारत की भूमि भूकम्प से थर्रा गई। नेपाल इस एक सप्ताह में आपदा के कई अनचाहे पहलुओं से भी कहीं न कहीं वाकिफ हुआ होगा। पौने तीन करोड़ की जनसंख्या वाला नेपाल इन दिनों जिस वेदना से गुजर रहा है, उसके दर्द को भारत से बेहतर शायद ही किसी और ने समझा हो। नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में हुई तबाही से जीवन पूंजी के साथ-साथ सैकड़ों वर्ष पुरानी धरोहरें भी जमीन्दोज हो गईं। नेपाल में इन दिनों पार्क, मैदान और खाली स्थान सभ्यता के शरणगाह बने हुए हैं।

सवाल है कि भूकम्प के चलते जिस तबाही से नेपाल गुजरा है, उसे बचाने की जद्दोजहद तो चल रही है पर जो मंजर भूकम्प के बाद का विकसित हो रहा है, उससे कैसे निजात पाई जाए? अब चित्र कहीं और अधिक खौफनाक दिशा की ओर है। दरअसल आपदा के बाद सबसे बड़ा खतरा महामारी फैलने का रहता है। इन दिनों नेपाल का बीमारियों की जद में आना देखा जा सकता है। इसके अलावा बारिश के चलते जहाँ राहत कार्य में अड़चन आ रही है, वहीं लाशों के सड़ने का डर भी बना हुआ है...आँकड़े पर गौर किया जाए तो नेपाल की 25 फीसदी आबादी 50 सेंट से भी कम आय पर गुजारा करती है। नेपाली पुरुष की सालाना कमाई औसतन 5600 रुपए से थोड़ी ही ज्यादा है। मानव विकास सूचकांक के मामले में तो यह 187 देशों के मुकाबले 145वें स्थान पर है। रही बात जीवन निर्वाह की आवश्यकताओं की तो यह अधिकतम मैदानी इलाकों पर निर्भर है। भूकम्प के काले साये से नेपाल इन दिनों जकड़ लिया गया है। यहाँ की सभ्यता और मानवशास्त्र दोनों घोर मुसीबत में चले गए हैं। दरअसल, इस प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं को रोकने के मामले में कितनी भी ताकतवर सरकार हो या सत्ता उसके वश में नहीं होता। इस विनाश लीला से मानव मौत की लम्बी कतार विकसित हो गई है, जबकि बचा हुआ जीवन खाद्य आपूर्ति के अभाव में एक नए संकट से जूझ रहा है।

भारत ने पड़ोसी होने के नाते नेपाल को बचाने के लिए जो फुर्ती दिखाई, उसकी सराहना निष्पक्ष रूप से करनी चाहिए। भारतीय सेना, वायुसेना तथा एनडीआरएफ बचाव कार्य को लेकर नेपाल को जिस तरह सम्भालने की कोशिश कर रहे हैं, वह काबिल-ए-तारीफ है। एनडीआरएफ लगभग छह वर्ष पुराना संगठन है। उत्तराखंड की आपदा में इसकी भूमिका भी सराहनीय रही है। इसका आदर्श वाक्य राहत और बचाव है, जिसमें इंजीनियर, तकनीशियन, इलेक्ट्रीशियन, खोजी दस्ता तथा मेडिकल एवं पैरामेडिकल कर्मी होते हैं। यह अपने-आप में एक रैस्क्यू किट की तरह है।

कुदरती आपदाएँ इंसान को उसकी हदों का एहसास करा देती हैं। भूकम्प की भविष्यवाणी भी नहीं की जा सकती है, न ही ऐसी कोई तकनीक इजाद हुई है, जिसके चलते इन त्रासदियों के बाद की चुनौतियों का कहीं बेहतरी से मुकाबला किया जा सके। नेपाल में बचाव कार्य को लेकर भारत की प्रशंसा की जा रही है, पर जिस तरह वहाँ मानवशास्त्र तबाह हुआ है, उस मुकाबले में बचाव कार्य में अधिक गति की आवश्यकता है।

इतिहास के झरोखे से देखें तो भारत एवं नेपाल का सम्बन्ध सिर्फ राजनयिक नहीं है, यह काफी हद तक धार्मिक और भावनात्मक भी है। प्रधानमन्त्री मोदी दो बार काठमाण्डू दौरा कर चुके हैं। नवम्बर 2014 में सार्क बैठक उनका दूसरा दौरा था। कहना सही है कि जिस मित्रता के तहत मोदी ने नेपाल को जोड़ा था, इस आपदा की घड़ी में उसके साथ मैत्री निभाने में भी वे पीछे नहीं हैं। नेपाल के इस दुख की घड़ी में भारत शिद्दत से अपनी दोस्ती निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। इतिहास को खंगाले तो भारत पड़ोसियों के मामले में कुछ इसी प्रकार की भावना को हमेशा से समेटे रहा है।

एनडीआरएफ लगभग छह वर्ष पुराना संगठन है। उत्तराखंड की आपदा में इसकी भूमिका भी सराहनीय रही है। इसका आदर्श वाक्य राहत और बचाव है, जिसमें इंजीनियर, तकनीशियन, इलेक्ट्रीशियन, खोजी दस्ता तथा मेडिकल एवं पैरामेडिकल कर्मी होते हैं। यह अपने-आप में एक रैस्क्यू किट की तरह है।सवाल है कि भूकम्प के चलते जिस तबाही से नेपाल गुजरा है, उसे बचाने की जद्दोजहद तो चल रही है पर जो मंजर भूकम्प के बाद का विकसित हो रहा है, उससे कैसे निजात पाई जाए? अब चित्र कहीं और अधिक खौफनाक दिशा की ओर है। दरअसल आपदा के बाद सबसे बड़ा खतरा महामारी फैलने का रहता है। इन दिनों नेपाल का बीमारियों की जद में आना देखा जा सकता है, जहाँ डायरिया, सांस सम्बन्धी संक्रमण, आँख और त्वचा सम्बन्धी कई बीमारियाँ पैर पसारने लगी हैं। कूड़ा-कचरा, गन्दे पानी और धूल के चलते खासकर बच्चे इसके शिकार होने लगे हैं। जो लोग व्यापक पैमाने पर चोटिल हैं, जिन्हें फ्रैक्चर है या भयावह स्थिति के साथ अनुकूलन नहीं बिठा पाने की समस्या है, वे मानसिक बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं।

अक्सर ऐसा देखा गया है कि शुरुआती दिनों में राहत और बचाव को लेकर तेजी दिखाई जाती है, पर जैसे-जैसे समय बीतता जाता है बचाव कार्य के धीमा पड़ने के आसार पनपने लगते हैं। सवाल है कि अब भूकम्प के बाद की पनपी समस्या से कौन बचाएगा? ऐसे मामलों में देखा गया है कि स्थानीय नागरिकों की भूमिका कहीं अधिक मायने रखती है।

आपदा के चलते जहाँ एक ओर मानव सभ्यता कराह रही होती है, वहीं दूसरी तरफ मलबे में दबे लोगों की लाशें सड़ने लगती हैं। ऐसे में एक ओर चोटिल लोगों का इलाज तो दूसरी ओर महामारी से बचने का तोड़ खोजना पड़ता है। जो रसद सामग्री पीड़ितों के लिए भेजी जाती है, अक्सर नियोजन के अभाव में उसका निपटान भी समुचित नहीं हो पाता है। असल में आपदा के दिनों में प्राथमिकता नियोजन की नहीं क्रियान्वयन की होती है और क्रियान्वयन पूरी तरह समुचित हो पाना मुश्किल होता है, क्योंकि तात्कालिक परिस्थितियाँ पूर्वानुमान से बाहर होती है।

जिस तरह नेपाल की राजधानी काठमाण्डू सहित नौ जिले भूकम्प की ऊँची दर में शामिल हैं और तबाही वाले सूचकांक में अव्वल हैं, उसे देखते हुए नेपाली प्रधानमन्त्री सुशील कोइराला ने भी मरने वालों का आँकड़ा दस हजार के पार पहुँचने की बात कही है। हालांकि वर्तमान में आँकड़ा आधे से थोड़ा ज्यादा है।

25 लाख की आबादी वाले काठमाण्डू का दर्द सबसे अधिक है। इस शहर को एक लाख से ज्यादा लोग छोड़ चुके हैं। बूढ़े, महिलाएँ और बच्चे अपनों से बिछड़ कर दर-दर भटक रहे हैं। धूप और बारिश के बीच सामानों के लिए दो-दो किलोमीटर तक लम्बी कतारें लगी हैं। चमत्कार भी देखने को मिल रहे हैं। कई भाग्यशाली मौत को हराकर मलबे से जिन्दा निकाले गए। बावजूद इसके मौतों की संख्या इतनी है कि दाह संस्कार की भी समस्या पनपी है। इसके अलावा बारिश के चलते जहाँ राहत कार्य में अड़चन आ रही है, वहीं लाशों के सड़ने का डर भी बना हुआ है।

आसमान के तले जीने को लोग मजबूर हैं। बच्चों के लिए दूध का इन्तजाम कैसे किया जाए, घर में अनाज है पर घर टूट चुका है। इसी प्रकार की अनगिनत पीड़ाओं से नेपाल जूझ रहा है। नेपाल के मानवशास्त्र को बचाने के लिए जो जिस तरीके से मदद कर सकता है, कर रहा है। सरकारी मदद के अलावा कई गैर-सरकारी संस्थाएँ और अन्य पड़ोसी देश इसके लिए हर सम्भव प्रयास कर रहे हैं। फौरी राहत पहुँचाने के मामले में भारत तो सबसे आगे है ही।

कुदरत की यह विडम्बना ही कही जाएगी कि धरती के किसी कोने में अच्छा जीवन और अच्छी सुविधा का पूरा ताना-बाना है तो उसी के किसी दूसरे कोने में तबाही की इतनी तपिश है कि मानव सीधे निगल लिया जा रहा है। अभी भी नेपाल में तबाही को लेकर प्रत्येक स्थानों पर नहीं झांका गया है, न ही मलबे के अन्दर से इंसानों को बाहर निकाला जा सका है। भूकम्प से जमीन्दोज कुछ इमारतों, घरों, होटलों, स्कूलों, कॉलेजों और अस्पतालों को अभी भी खंगालना बाकी है। इस सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसमें कुछ जिन्दगी जमीन्दोज हुई होंगी और कुछ की सांसें जिन्दगी की चाह में अटकी होंगी।

लेखक का ई-मेल : sushilksingh589@gmail.com

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