नए हथियार से घात की कोशिश

चीन ने अपने औद्योगिक विकास के कारण प्रकृति को काफी क्षति पहुंचाई, जिससे उसकी कई नदियां जलविहीन हो गईं। यांग्त्ज नदी, जो कि एशिया की सबसे बड़ी नदी है, भी पचास वर्षों में सूखेपन की शिकार हुई है। इसका मूल कारण है प्यासे उत्तरी चीनी पठार को साउथ-नार्थ ट्रांसफर प्रोजेक्ट के जरिए पर्याप्त पानी मुहैया कराना। उसकी नीतियों से तिब्बत के 46 हजार ग्लेशियर संकट में आ गए और बीस प्रतिशत हिमनद पीछे सरक गए।

काफी लंबे समय से चीन द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी (तिब्बत में यारलंग-शांगपो) पर बांध बनाए जाने की अटकलें थीं, लेकिन कुछ समय पहले यह स्पष्ट हो गया कि चीन इस नदी पर बांध बना रहा है। विशेष बात तो यह है कि चीन की सरकार अभी कुछ समय पहले तक भारत की कपालेकल्पित अफवाह, गैरजरूरी, असम्भव तथा अवैज्ञानिक परियोजना बताकर इसके होने की बात को अस्वीकार करती रही और अब जब उसने इसे स्वीकार कर लिया है तो वह इसे महज आर्थिक प्रयोजन तक सीमित होने की बात कहकर भारत सरकार को आश्वस्त करने में भी सफल हो रही है। क्या यह सच है कि इससे ब्रह्मपुत्र नदी की धारा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा? क्या चीन कभी भी इसका प्रयोग भू-राजनीतिक या भू-सामरिक उद्देश्य के लिए नहीं करेगा? भारत की सरकार को इस संदर्भ में सबसे पहले तो इस बात का ही पुख्ता प्रमाण देना चाहिए कि आखिर वह कौन सी वजह थी कि चीन इस परियोजना को अभी तक गुप्त रखने के लिए विवश था? दरअसल भारत सरकार की तरफ से इसका जवाब नहीं दिया जा सकता, क्योंकि उसके पास इसके पुख्ता सबूत हैं ही नहीं।

दरअसल ब्रह्मपुत्र (सांगपो-ब्रह्मपुत्र) ‘ट्रांस-बाउंड्री नदी’ है इसलिए इस पर बनने वाला बांध या इसकी धारा में किसी तरह का अवरोध अथवा परिवर्तन नीचे के क्षेत्रों पर प्रभाव अवश्य डालेगा। भारत की सरकार शायद बीजिंग के उस तर्क पर गौर करना नहीं चाहती जिसमें उसके राष्ट्रीय हित सर्वोपरि हैं और इसके लिए कुछ भी करने को प्रतिबद्ध हैं। बीजिंग का तर्क यह है कि यदि राष्ट्रीय हित यारलंग-शांगपो/ब्रह्मपु़त्र नदी पर प्रमुख जलधारा परिवर्तन परियोजनाओं की मांग करेगा तो चीन इस प्रकार की परियोजनाओं को भी अपने अधीन पूरा करने के लिए तैयार है। भारत को इस चीनी कृत्य में कुछ भी अलार्मिंग नहीं लग रहा है तो फिर अफसोस प्रकट करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। चीन भारत की सीमा के निकट तिब्बत के नामचा बारवा में लगभग 1.3 बिलियन डॉलर का निवेश कर झांग्मू बांध का निर्माण कर रहा है जो दुनिया की सबसे बड़ी चीन हाइड्रो-इलेक्ट्रिक परियोजना का पहला चरण है।

वर्ष 2020 तक पूरी होने वाली यह परियोजना दुनिया की सबसे तकनीकी आश्चर्य मानी जाने वाली चीनी परियोजना ‘थ्री गार्जिस डैम’ की बिजली क्षमता (18 गीगावॉट) की दोगुनी से भी अधिक क्षमता (38 गीगावॉट) वाली होगी। इसमें थ्री गार्जिस जैसे दो या तीन बांध होंगे। इसके पहले चरण में लगभग 2,300 मीटर की ऊंचाई से पानी की गिरावट के दोहन के लिए 16 किलोमीटर लंबी भूमिगत सुरंगों का कार्य लगभग पूर्ण हो चुका है। इसके तहत तिब्बत में सबसे पहला बड़ा हाइड्रोपॉवर स्टेशन निर्मित होगा। चीन का कहना है कि इसका मुख्य कार्य ऊर्जा सृजन का होगा लेकिन इसका प्रयोग बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई में भी किया जा सकता है। यह भी तर्क दे रहा है कि यह विशुद्ध आर्थिक पक्ष है, इसमें सामरिक पक्ष शामिल नहीं है। जहां आर्थिक पक्ष का सवाल है तो इसमें कोई संशय नहीं है लेकिन दूसरे पक्ष पर चीन के चरित्र को जानने के बाद विश्वास नहीं किया जा सकता।

चीन ने अपने औद्योगिक विकास के कारण प्रकृति को काफी क्षति पहुंचाई, जिससे उसकी कई नदियां जलविहीन हो गईं। यांग्त्ज नदी, जो कि एशिया की सबसे बड़ी नदी है, भी पचास वर्षों में सूखेपन की शिकार हुई है। इसका मूल कारण है प्यासे उत्तरी चीनी पठार को साउथ-नार्थ ट्रांसफर प्रोजेक्ट के जरिए पर्याप्त पानी मुहैया कराना। उसकी नीतियों से तिब्बत के 46 हजार ग्लेशियर संकट में आ गए और बीस प्रतिशत हिमनद पीछे सरक गए। इसलिए वांग गुआंगकियान के नेतृत्व में चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंस वैज्ञानिकों ने प्रस्ताव रखा था कि यांग्त्ज की सहायक नदियों से परे जाने की जरूरत है यानी यांग्त्ज की बजाय और यारलंग-शांगपो (ब्रह्मपुत्र) की धारा को परिवर्तित किए जाने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में भी तर्क रखा गया था कि यारलंग-शांगपो/ब्रह्मपुत्र को ‘ग्रेट बैंड’ के पास से परिवर्तित न करके पुराने चीनी पठार से परिवर्तित किया जाए जिसे लाल राष्ट्रवादी ली लिंग ने अपनी पुस्तक ‘तिब्बत्स वॉटर विल सेव चाइना’ में चिन्हित किया था।

इसका कारण यह था कि यह क्षेत्र समुद्र तल से 3600 मीटर की ऊंचाई पर है, जहां से इस नदी के पानी को पंप करना आसान होगा। लेकिन न्यूयॉर्क आधारित एशिया स्टडीज की निदेशक एलिजाबेथ का तर्क है कि यह पर्यावरण के लिए बम का कार्य करेगा। चीन के नेता यह भलीभांति जानते हैं कि उनके ‘थ्री गाजिर्स डैम’ भूगर्भिक, मानवीय और पारिस्थितिक समस्याओं का सामना कर रहे हैं, तो फिर भारत की सीमा पर बनने वाला 38 गीगावॉट क्षमता का यह बांध कितना खतरनाक होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। यही नहीं इसके साथ ही चीन म्यांमार की सीमा पर इरावदी नदी के साथ मीत्सोन में 3,600 मेगावॉट का हाइड्रोपॉवर प्लांट निर्मित कर रहा है। इसका प्रभाव भी भारत पर पडऩा तय है।

लेखक विदेश मामलों के जानकार हैं।
raheessingh@gmail.com


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