नदियां और हम (भाग-2)

नदियां और हम,फोटो क्रेडिट ; विकिपीडिया    
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पवित्रता: एक सामाजिक आदर्श

अतः जो लोग इस भ्रम में पड़कर दुःखी रहते हैं कि किसी पुण्य पर्व में पवित्र स्नान मात्र को कोई परम्परानिष्ठ हिन्दू सचमुच मुक्ति का अंतिम आश्वासन मानता है, वे भारतीयता से अपरिचित ऐसे लोग हैं, जिन्हें या तो अज्ञानी कहा  जा सकता है या फिर फासिस्ट, क्योंकि वे जानबूझकर दूसरों के मत का अर्थक्षय करते हुए उन्हें इसी आड़ में दबाना- अनुशासित करना चाहते हैं, खुद उनसे किसी तरह अनुशासित होने को तैयार नहीं। पवित्रता की कोई ऐसी व्याख्या किसी भी हिन्दू के मन में संभव ही नहीं, जिसमें जीवन के शेष कर्म पवित्रता अपवित्रता से निरपेक्ष यानी 'सेकुलर' हों और कोई एक या कुछेक कर्म ही पवित्र हों। इसी प्रकार गंगा-गोदावरी की चाहे जितनी महिमा गाई जाए, वह महिमा उस विश्व- दृष्टि का ही सहज अंग है, जिसके अनुसार ईश्वर या परम सत्ता कण-कण में सर्वत्र व्याप्त है । कोई भी परम्परानिष्ठ हिन्दू, वह साक्षर हो या निरक्षर, इस तथ्य से अपरिचित नहीं । अतः राजनैतिक कारणों अथवा अन्य विवशताओं से जब समाज का बहुलांश सदाचार के मार्ग पर न चल पा रहा हो, तब उसका कारण किसी परम्परागत हिन्दू मान्यता में खोजते फिरना भारत के शत्रुओं का साधन बनना भर है।

पवित्रता के प्रति भी भारतीय दृष्टि सुस्पष्ट है। नदियों और तीर्थों की पवित्रता सामाजिक पवित्रता का अंग है। उसके पीछे कोई भौतिक रहस्य नहीं है। जब तक हम नदियों और तीर्थों के प्रति पवित्रता की दृष्टि रखते हैं, वहां पूजा- उपासना, धर्म- चर्चा, यज्ञ-अनुष्ठान, विद्या-विवेचन, धर्म-विमर्श, सदाचार-निरूपण एवं व्यवस्था करते हैं, तभी तक वे तीर्थ हैं। यदि उन्हें सैरगाह, ऐशगाह, मदिरा- लम, जघन्य कर्म आदि के केन्द्र बनाते हैं, तो उसी क्षण से वे तीर्थं नहीं रह जाएँगे । उनकी पवित्रता विनष्ट है विभिन्न धर्मग्रंथों में यह स्पष्टतः विवेचित है कि विद्या एवं सदाचार को बढ़ाने वाले कार्य न होने पर तीर्थसार समाप्त हो जाता है और फिर ऐसी जगहें पवित्र नहीं रह जातीं। नदियों का प्रवाह तभी तक पवित्र है, जब तक उनके प्रति लोगों में श्रद्धा और पवित्रता के भाव तथा व्यवहार जीवंत हैं, वे उन्हें स्वच्छ रखते हैं, उनके तट पर संस्कृति और सभ्यता का ऐसा विचार-विमर्श  चलता है जो आदर्शों को लोक जीवन में गतिशील रखे, अन्याय के निवारण और न्याय की प्रतिष्ठा का प्रयास होता रहे। समाज के लिए जो अशुभ है, अन्यायकारक है, उसे विनष्ट करने की व्यवस्था के केन्द्र जब तक नदी तटों में हों, ऐसी व्यवस्था करने में समर्थ वीर साधु नारी नर, पुण्यात्माएं जब तक इन नदियों में अपनी श्रद्धापूर्ण बुद्धि से प्रेरित हो नहाती हैं, अर्थात जब तक ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, ज्ञानयज्ञ और जपयज्ञ से ये नदियां पवित्र हैं, तभी तक वे समाज का कलुष और कल्मष, मल और दूषण भी धो पाने में समर्थ हैं।

गंगा तभी तक पवित्र है, जब तक भारतीय समाज और राज्य पवित्रता को एक व्यावहारिक आदर्श मानता है, एक असंभव वस्तु नहीं। जिसके जीवन में पवित्रता की सतत इच्छा और प्रयास है और जिससे प्रमाद, भूल या वासना- ज्वर में कोई पाप हो गया है, उसे ही गंगा पवित्र करती है।

जिन ऋषियों-मनीषियों ने पवित्रता एवं सदाचार का विस्तृत विवेचन किया है, उनके प्रति अनादर रखते हुए, उनकी बातों को गुजरे जमाने की पिछड़ी चीजें बताते हुए तथा उनके आदर्शों को त्याज्य अर्थों में धार्मिक और अपने आचरण को वरेण्य अर्थ में धर्म-निरपेक्ष कहते हुए, फिर इन नदियों को पवित्र बताना-मानना मिथ्याचार है। गंगा तभी तक पवित्र है, जब तक भारतीय समाज और राज्य, पवित्रता को एक व्यावहारिक आदर्श मानता है, एक असंभव वस्तु नहीं। जिसके जीवन में पवित्रता की सतत इच्छा और प्रयास है और जिससे प्रमाद, भूल या वासना-ज्वर में कोई पाप हो गया है, उसे ही गंगा पवित्र करती है। जो गंगा के प्रति, गांगेय संस्कृति के प्रति मिथ्याचारी है, उसे गंगा दंडित कर सके, तभी वह शक्ति प्रवाह है। गंगा की संस्कृति को नष्ट करने या करना चाहने वालों को गंगा पवित्र नहीं बनाती। उन्हें अशक्त बनाते जाने में ही गंगा की शक्ति है। जो गंगा के प्रति मातृ-भाव रखता है, वह यदि तट पर मल-मूत्र का विसर्जन भी करता है अन्य गलतियां भी करता है, तो गंगा उसे क्षमा कर सकती है, सद्बुद्धि देकर सन्मार्ग पर लगा सकती हैं। पर जो गंगा या अन्य नदियों के प्रवाह में जान- बूझकर औद्योगिक प्रदूषण, विषाक्त द्रव्य घोलता है या घोलने में सहायक बनता हैवह गंगा का शत्रु है, गंगा-पुत्रों व गंगा-पुत्रियों का शत्रु है। ऐसा गंगाद्रोही यदिगंगा के प्रति आदर प्रदर्शित करे, तो यह मिथ्याचार है। मिथ्याचार दंडनीय है। यहां गंगा पवित्र नदी की प्रतिनिधि है। यानी सभी नदियों के लिए यही तथ्य है ।

किसी समाज की एक सम्पूर्ण एवं बहुआयामी धर्म- बुद्धि के कुछेक चुने हुए पक्षों को ही उसका संपूर्ण बताना उस समाज के शत्रुओं की स्वाभाविक रणनीति होती है । फलतः साम्राज्यवादी अंग्रेजों ने भारतीय धर्मबुद्धि की ऐसी ही विवेचना शुरू की और अपने विद्याकेन्द्रों का यही लक्ष्य बनाया। पराजित और क्षयग्रस्त समाज में बुराइयां तो बीमारियों की तरह फैलती ही हैं। ऐसे में एकांगी विवेच- नाओं को आधार मिल गया। फिर हर समूह अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के द्वारा ही दृश्य जगत को देखता है। अतः चर्चा से ही परिचित औपनिवेशिक बुद्धि, लोगों को स्वभावतः लगा कि नदियों के प्रति भारतीयों की पवित्रता की भावना भी कुछ वैसी ही होगी - कि अपने पापों का 'कन्फेशन' कर लो, 

परम्परा से जल-क्षेत्रों का स्वामित्व क्षेत्रीय जनों को प्राप्त था। केवटों-मल्लाहों को जल क्षेत्रों पर विशिष्ट अधिकार प्राप्त थे। गांवों को अपने-अपने क्षेत्र के जल स्रोतों सरित-सरोवरों पर सामान्य अधिकार थे ही।

कर्मकांड करो और पवित्र ।

जैसे-जैसे अंग्रेजी शिक्षा बढ़ी और वह एक विशेषाधिकार बनी, वैसे-वैसे उस विशेषाधिकार से सम्पन्न लोगों की यह राजनैतिक आवश्यकता बन गयी कि अधिकारविहीन कर दिये गये समाज, परम्परागत समाज को हीन कोटि का बताएं । उन्नीसवीं शताब्दी के अनेक तथाकथित समाज-सुधार आन्दोलनों में यही प्रवृत्ति प्रबल रही। वे ब्रिटेन से भारतीयों की पराजय में भारतीयों की शक्ति में आयी कमी को कारण नहीं मान पाते थे, अपितु उनकी भारतीयता को ही उसका कारण मानने लगे। यह ऐसा ही है, जैसे शरीर के रोगों का कारण खुद शरीर के ही होने को मान लिया जाये और शरीर को ही समाप्त कर देने की बात कही जाए। फलतः मध्यवर्ग में अपना स्वधर्म न निभा पाने के कारण जो विकृतियां आयीं, उन्हें पूरे भारतीय समाज की मुख्य कमजोरी मान लिया गया और भारतीयों की जो शक्ति साम्राज्यवादी अंग्रेज लगातार छीन रहे थे, उसकी तरफ बहुत कम ध्यान दिया गया।

परम्परा से जल-क्षेत्रों का स्वामित्व क्षेत्रीय जनों को प्राप्त था । केवटों-मल्लाहों को जल-क्षेत्रों पर विशिष्ट अधिकार प्राप्त थे। गांवों को अपने-अपने क्षेत्र के जल-स्रोतों, सरित-सरोवरों पर सामान्य अधिकार थे ही। वन्य जल स्रोतों पर वनवासियों को अधिकार प्राप्त था। वे सब ही इनके प्रति कर्तव्य के लिए भी जिम्मेदार थे। यह सब अधिकार राज्य ने ले लिये। समाज धार्मिक उत्सवों के जरिए इन जल स्रोतों के प्रति अपना ममत्व मात्र दिखा पाता था। अधिकारों से वह वंचित किया जा चुका था। इस मूल हेतु को न समझने वाले औपनिवेशिक सुधारवादियों ने उस ममता की ही खिल्ली उड़ाने में अपने को तृप्त किया। यह ऐसा ही है, जैसे लोगों के साधन स्रोत छीनकर पहले तुम्हें झुग्गी-झोंपड़ी में रहने को मजबूर कर दिया जाए और फिर वही उनका स्वभाव बताया जाए और उसे छोड़ने का उन्हें उपदेश पिलाने का संगठित धंधा चलाया जाए।

अधिकार न होने पर भी लोग अपने जल स्रोतों को स्वच्छ रखने का कर्तव्य यथाशक्ति निभा रहे हैं। आज भी पवित्र गोदावरी तथा दक्षिण की अन्य पवित्र नदियों के तटवासी जब कोई 'मानता' (अभिलाषा) मानते हैं, और वह गोदावरी या अन्य पवित्र नदी मैया की कृपा से पूरी हो जाती है, तो वे अपने पास के घाट की पूरी सफाई का उस अवधि का जिम्मा ले लेते हैं। समस्त सीढ़ियां धोई जाती हैं, गोबर से लीपी जाती हैं, उनमें अपना रची जाती है और फिर दीप सजाये- जलाये जाते हैं ।

नदी तटवासियों में अपनी नदियों के प्रति श्रद्धा आज भी भरपूर है। लेकिन एक तो देश के समस्त साधन-स्रोतों के स्वामित्व का केन्द्रीकरण हो गया है, दूसरे, भारत की अपनी विद्याधाराएं भी सूख गयी हैं। ऐसी परिस्थिति में सचमुच करना क्या है, यह बहुत सूझता नहीं। इस पर संगठित विचार-विमर्श भी नहीं होता। कोई व्यक्ति जब अपनी निजी सूझ से पहल कर बैठता है, तो व्यापक जन- सहयोग सुलभ हो जाता है। नर्मदा जयंती का होशंगाबाद में विगत 5-6 वर्षों से हो रहा विराट आयोजन इसका साक्ष्य है। गंगा दशहरा तो गंगा तट पर सर्वत्र मनाया ही जाता है। यमुना जयंती का भी वार्षिक आयोजन गोस्वामी तुलसीदास के जन्मस्थान राजापुर से प्रारम्भ हो गया है। विद्या केन्द्रों के अभाव में इन प्रयासों का संगठित विचार एवं योजना निरूपण नहीं हो पाता। पर शायद ऐसे ही प्रयासों से स्वदेशी विद्या-केन्द्र भी पुनः उभरें-बनें।
हर नदी में घाटों की सफाई का स्वैच्छिक कार्य परम्परा से होता रहा है। लोगों के अधिकार छिन जाने के बाद से इन कामों में शिथिलता और बिखराव आया है। पर पूरी तरह ये समाप्त नहीं हैं। इन्हीं कार्यों को सरकारी- अर्द्ध- सरकारी शैक्षणिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों - राष्ट्रीय सेवा योजना इत्यादि का नाम दे दिया जाने लगा है। ये नाम और काम बाजे-गाजे के साथ प्रचार बखान करते हुए होते हैं। इनमें समाज की सड़न दूर करने का मुक्तिदूत वाला भाव प्रबल होता है। परम्परा से ऐसे काम स्वधर्म बुद्धि से कर्तव्य समझ कर होते रहे हैं। किसी भी इलाके में अभी भी नदी तट को गंदी करने वाली कोई आबादी नहीं है। आबादी के कुछेक लोग ऐसा करते हैं। ये लोग पहले स्थानीय प्रतिष्ठित जनों का नैतिक अनुशासन मानते थे, तो गंदगी का साहस नहीं कर पाते थे । अब स्थानीय प्रतिष्ठित जन शक्तिविहीन हैं, मात्र अनैतिक कार्य करने वाले ही अब राज्यतंत्र की छत्रछाया में प्रतिष्ठित होते हैं। सो,न तो वे नैतिक इच्छा रखते है, न बल ।

हर नदी में घाटों की सफाई का स्वैच्छिक कार्य परंपरा से होता रहा है। लोगों के अधिकार छिन जाने के बाद से इन कामों में शिथिलता और बिखराव आया है। पर पूरी तरह से समाप्त नहीं है।

प्रदूषणकर्ता ही उपदेशक बने

गंगा और अन्य सभी नदियां आज प्रदूषित हो रही हैं, यह सत्य है। इस प्रदूषण का यथार्थ स्वरूप भी सभी जानते हैं। दुर्भाग्यवश, शासक समूह यह जानते हुए भी आश्चर्यजनक दुस्साहस से नदियों की स्वच्छता के भाषणों से जनता पर अस्वस्थ कर तनाव दबाव डालते रहते हैं। इससे एक अत्यन्त विकृत जुगुप्सित वातावरण बनता है, जिसमें नेताओं-अफसरों के इर्द-गिर्द ऐसे लोगों का जाल छाने लगता है जो या तो क्षुद्र चाटुकारिता के लिए या फिर अपनी कातर विपन्नता से उपजी निरीहता में किसी छोटी-सी मदद के लिए नेताओं-अफसरों के इन दुस्साहसी भाषणों बकवासों की प्रशंसा करते रहते हैं। मन से वे भी जानते हैं कि नदियां प्रदूषित तो इन्हीं के कारण हो रही हैं।
ऐसी स्थिति समाज के एक अंश को लगातार खोखला बनाती जाती है। ऐसा राष्ट्र जिसके अधिकांश शासक नेता, अफसर, निरर्थक बातें बोलने, धोखाधड़ी वाले नारे उछालने या विज्ञापन प्रचारित-प्रसारित करवाने तथा निरन्तर अपने सामाजिक-सांस्कृतिक अपराधों को छिपाने की चिन्ता में तिकड़में रचने हेतु राष्ट्रीय समय, साधन स्रोत और शक्ति को फूंकने में लग जाएं, वह अरक्षित और क्षीण होने लगता है । इसलिए भी भारतीय समाज का कर्तव्य है कि वह इन शक्तिशाली लोगों को आश्वासन दे; यानी भारतीय राज्य को भारतीय राष्ट्र अभय दे और अब तक की गयी गलतियों के लिए न्यूनतम दंड और प्रायश्चित का आश्वासन देकर उन्हें राष्ट्रीय समय, साधन-स्रोत और शक्ति का जारी अपव्यय बन्द करने को कहे तथा इनके सदुपयोग सुझाए ।

गंगा और अन्य सभी नदियां आज प्रदूषित हो रही हैं, यह सत्य है। इस प्रदूषण का यथार्थ स्वरूप भी सभी जानते हैं। दुर्भाग्यवश, शासक समूह यह जानते हुए भी आश्चर्यजनक दुस्साहस से नदियों की स्वच्छता के भाषणों से जनता पर अस्वस्थकर तनाव-दबाव डालते रहते हैं।

राज्य का अपराध

गंगा को ही लें, वीरभद्र में आई० डी० पी० एल० की रासायनिक जहरीली गंदगी, हरिद्वार शहर और 'भेल' का मलबा, फिर नरौरा, कानपुर जगह-जगह का शहरी कचरा, मल-मूत्र, तरह-तरह के रासायनिक कारखाने, कृत्रिम खाद के कारखाने, कृत्रिम वस्त्रों के कारखाने, रंगाई-छपाई की आधुनिक फैक्टरियां, तथा- कथित कीटाणु नाशक कारखाने आदि के तीखे विषाक्त अम्ल, क्षार एवं अन्य अवशेष जोकि सरकारी व्यवस्था अथवा स्वीकृति से ही चलने वाले उपक्रमों के अवशेष हैं, इस पवित्र नदी में एक बदबूदार जहरीली, जुगुप्सित अंतर्धारा लगातार चौड़ी करते जाने के अपराधी हैं।

यमुना का भी हाल यही है। आधुनिक राज्य की राजधानी, यमुना को क्या से क्या बना देती है, इस लज्जास्पद तथ्य को छिपाने का दुस्साहस विस्मयप्रद है । दिल्ली, कानपुर, पटना, कलकत्ता और वृंदावन जैसे शहरों में गंदगी की प्रचंडता का गहरा सांस्कृतिक अध्ययन-मनन आवश्यक है। यह गंदगी मात्र नदियों के प्रति दृष्टि का फल नहीं है, अपितु एक विशेष जीवन-दृष्टि के उभार का परिणाम है । यह उभार उस विद्या-दृष्टि का उत्पादन है, जो ब्रिटिश काल की विरासत विदेशी बुद्धि तंत्र को ही भारत की उपयोगी विद्या मानती है। उस विद्या की भी पूरी नहीं, छिछली जानकारी से भी ये मगन रहते हैं।

आधुनिक विद्या-केन्द्रों के पास कोई भी व्यवस्थित विचार तक नहीं है, जिसके अनुसार भारतीय शहरों में गंदगी के उत्पादन को घटाने और उत्पादित गंदगी के व्यवस्थित और बेहतर उपयोग का कोई राष्ट्रीय कार्यक्रम हो ।

सचाई तो यह है कि नदियों के बारे में आज के भारतीय शासक वर्ग और शक्तिशाली वर्ग की कोई स्पष्ट या सामान्य दृष्टि है ही नहीं। नदी की गंदगी सर्वत्र शहर-कस्बों की गंदगी का फल है। शहरों की यह गंदगी अनिवार्य नहीं है । यह बिना दूर तक  सोच विचार के आपाधापी में शहर बनाते बढ़ाते जाने का नतीजा है । आधुनिक विद्या-केन्द्रों के पास कोई भी व्यवस्थित विचार तक नहीं है, जिसके अनुसार भारतीय शहरों में गंदगी के उत्पादन को घटाने और उत्पादित गंदगी के व्यवस्थित और बेहतर उपयोग का कोई राष्ट्रीय कार्यक्रम हो । फिर, जो छिटपुट विचार हैं भी, उन पर समाज में बहस चलाने की कोई कोशिश नहीं है। माना जाता है कि गंदगी के बारे में विशेषज्ञों के ये विचार पवित्र निगूढ़ विचार हैं। सर्व-साधारण को इनका पता चला कि वे इन्हें प्रदूषित कर देंगे ! इन विचारों को तो बस कानून बनाकर अचानक लागू कर देना है। लोगों का कर्तव्य इन पवित्र निगूढ़ विचारों के अमल की योजना में 'पार्टीसिपेट' करना है। इनके आधारों पर सवाल उठाने, बहस करने, विविध निष्कर्षों और परिकल्पनाओं के द्वारा उनके पहलुओं को जानने और इस प्रक्रिया में सही निर्णय पर पहुंचने का इन लोगों का अधिकार नहीं माना जाता।

ऐसे में किसी भी तरह की समाज भावना का जीवित रह पाना असंभव है । हमारे पास प्रदूषण को रोकने के एक-से-एक कानून हैं, नियंत्रण एक्ट हैं, बोर्ड हैं, प्लानिंग हैं, प्रोग्राम हैं, पर ये सब मुट्ठी भर लोगों की शक्ति बढ़ाने या दिखाने तथा व्यापक समाज में असहायता और परायापन फैलाने के ही उपकरण बनकर रह जाते हैं। सरकारें लोगों को जागरूक होने  के साथ वगैरह-वगैरह का उपदेश देती हैं जबकि असलियत यह है कि जागरूकता की पहली पहचान होगी खुद सरकार के स्वरूप के प्रति सजगता । आखिर क्यों, कानून बनाने में मुस्तैद ये सरकारें, उनके पालन में असमर्थ रहती हैं। खुद कानून बनाने की प्रक्रिया का समाज से ऐसा कौन-सा रिश्ता है कि समाज उसके प्रति अपनत्व और आत्माभिमान नहीं रखता, उसके पालन को स्वधर्म नहीं मानता ?

समाज में जागरूकता का अर्थ है उसमें अपनी विविध इकाइयों के प्रति जाग-रूकता। विकास की रूपरेखा तय करने वाली इकाई, कानून बनाने वाली इकाई, उद्योगों के लिए समाज के साधन-स्रोत सुलभ कराने वाली, रियायतें और सहायता देने वाली इकाई, उन पर अंकुश रखने के लिए बनी पर अंकुश रखने में असमर्थ इकाई और ये सारी इकाइयां जिस समाज के हित की दावेदार हैं, उसकी अन्य सांस्कृतिक-धार्मिक-सामाजिक इकाइयां - इनका परस्पर क्या रिश्ता है ? क्या वह रिश्ता स्वस्थ और स्वच्छ है ? या वह रिश्ता ही प्रदूषित और मलयुक्त, सड़ा और दुर्गंधित है ? इन मुद्दों पर जागरूकता के बिना नदियों के प्रति जागरूकता की बातें अपने आपको और दूसरों को धोखा देने का स्वांग भर होंगी।

सरकारें लोगों को जागरूक होने वगैरह का उपदेश देती हैं जबकि असलियत यह है कि जागरूकता की पहली पहचान होगी खुद सरकार के स्वरूप के प्रति सजगता ।

थोड़ा पीछे लौटें। विजयनगर साम्राज्य भारतीय सांस्कृतिक चेतना "सीमा तक निर्देशित अंतिम बड़ा राज्य था। इसके बाद से, भारतीय राज्य- तंत्र का भारतीय संस्कृति से रिश्ता छितराने-बिखराने लगा। इसके बीज स्वयं विजयनगर के भी राज्यतंत्र में विद्यमान थे। सोलहवीं शताब्दी ईस्वी के बाद से भारतीय समाज और भारतीय शासक वर्ग में अंतराल बढ़ता गया। किंतु भारतीय विद्या की क्षीण धारा किसी तरह गतिशील रही। ईस्वी सन् की अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में आक्रामक अंग्रेजों ने भारतीय विद्याधारा के समूल विध्वंस की योजना रची। तब से भारत में वे ही लोग शक्तिशाली रहने दिये गये, जिन्होंने अपनी सांस्कृतिक बुद्धि का अंग्रेजी योजनानुसार रूपांतरण कर लिया और समाज से परायापन पाल लिया ।

नदियों तथा अन्य जल स्रोतों से सिंचाई का काम भारत में कम-से-कम चार हजार से अधिक वर्षों से होता रहा है। पर यह सिंचाई व्यवस्था समाज-नियंत्रित थी। नदियों-तालाबों के रख-रखाव की भी जिम्मेदारी इसीलिए समाज की थी, क्योंकि इन साधन-स्रोतों पर. अधिकार उसी का था ।

रूपांतरित नया वर्ग

नये शक्तिशाली वर्ग की भारत के प्रति, भारत की नदियों के प्रति दृष्टि रूपांतरित हो गयी। नदियो तथा अन्य जल स्रोतों से सिंचाई का काम भारत में कम-से-कम चार हजार से अधिक वर्षों से होता रहा है। पर यह सिंचाई व्यवस्था समाज-नियंत्रित थी। नदियों-तालाबों के रख-रखाव की भी जिम्मेदारी इसीलिए समाज की थी, क्योंकि इन साधन स्रोतों पर अधिकार उसी का था । उन्नीसवीं सदी  से यह अधिकार पूरी तरह राज्य के अधीन है। फलतः गहरी कर्तव्य भावना के बाद भी भारतीय समाज नदियों-तालाबों के प्रति अपने कर्तव्य पूरा कर पाने में सर्वथा अक्षम है। अब शासक वर्ग का नया संदेश यह है कि अधिकार सब हमारे हैं, पर तुम कर्तव्य अवश्य करो। उसके एवज में हम अपनी योजनानुसार तुम्हें कुछ साधन-स्रोत सौंपते रहेंगे। यह परम्परागत भारतीय राज्यबुद्धि विपरीत बुद्धि है । धर्मशास्त्रों में देश भर की सभी नदियों एवं जल स्रोतों के प्रति पवित्रता की दृष्टि परम्परागत राजनैतिक बुद्धि का अंश है। इसीलिए धर्मशास्त्रों में इन नदियों-जल स्रोतों के प्रति अधिकार एवं कर्तव्य, दोनों ही समाज के, और सभी लोगों के, माने गए हैं, मात्र राज्यकर्ताओं के नहीं !

मौजूदा शक्तिशाली वर्ग की नदियों के प्रति दृष्टि और भाषा समाज से भिन्न है। नदियों के नाम तक बिगाड़कर बोले जाते हैं। गंगाजी इनके लिए 'द गेन्जेस'. है, मां गोदावरी 'गोडॉरी' है, देवी तमसा 'टोन्स' है ! दूसरे, इसके लिए नदियां उत्पादन के साधन भर हैं। वह भी शायद अपना साधन नहीं। क्योंकि अपने साधनों को आदमी पुश्त-दर- पुश्त सम्हाल कर रखना चाहता है। ये इन उत्पादन- साधनों का अधिकतम व्यय यथाशीघ्र करना चाहते हैं। ऐसा व्यय और कुछ खास तरह के उत्पादन रूपों की व्यापक एकरूपता ही इनकी दृष्टि में एकमात्र विकासरूप है। इस क्रम में साधनों में जो विकार आएं, उन पर थोड़ा ध्यान तो दिये रहना है, पर इस विकार के जिम्मेदार ये नहीं हैं। इस मामले में अपनी आगामी पीढ़ी के प्रति इनके भीतर रहस्यमय श्रद्धा है कि वह समाधान ढूंढ लेगी। लेकिन साधनों के व्यय ये अभी कर डालेंगे ।

इस दृष्टि से परिणाम भयंकर हैं। गंगा, यमुना, व्यास, सतलुज, शोण, नर्मदा और कृष्णा आदि नदियों पर बने, बन रहे और बनने वाले बांधों से जो जमीन डूब रही है, उसकी कृषि उपज क्षमता, वन सम्पदा, वनोपज क्षमता का कोई भी हिसाब नहीं लगाया जाता, न रखा जाता। गंगा पर टिहरी बांध से 70 हजार, सतलुज पर भाखड़ा बांध से 36 हजार, रिहंद पर रिहंद बांध से 52 हजार, नर्मदा सागर और सरदार सरोवर नामक नर्मदा-बांधों से एक लाख 32 हजार, व्यास पर पौंग बांध से 20 हजार, कोयना पर कोयना बांध से 20 हजार, महा- नदी पर हीराकुड बांध से 72 हजार, तुंगभद्रा पर नागार्जुन सागर से 19 हजार, कृष्णा पर श्रीशैलम् बांध से एक लाख, पेरियार पर इदुकी बांध से 20 हजार, चेरुतोनी पर चेरुतोनी बांध से 30 हजार, ताप्ती पर उकाई बांध योजना से 50 हजार, इस तरह कुल मिलाकर 6 लाख 21 हजार लोग इस नदी -दृष्टि से विस्था- पित हुए हैं। इसी तरह 1500 अन्य बड़े बांधों से विस्थापित होने वाले कम-से- कम 1 करोड़ 50 लाख और होंगे। जो उपजाऊ भूमि व वन सम्पदा डूबी है, वह बेहिसाब ही है । इन बांधों से मिलने वाली बिजली, सिंचाई और आजीविका का लाभ भी लगभग डेढ़ करोड़ लोगों को ही मिलेगा।

इस तरह यह सब साधन-स्रोतों का कुछ खास लोगों के पक्ष में और कुछ खास लोगों के विरोध में पुनर्वितरण का एक सिलसिला बन जाता है। ताप बिजलीघरों से होने वाले प्रदूषण, बड़े बांधों से फैलने वाले दलदली क्षेत्र तथा खार की समस्या, नयी-नयी बीमारियों का फैलाव, मलेरिया, फाइलेरिया और मस्तिष्क ज्वर काविस्तार, वनों का विनाश, वनस्पतियों और प्राणियों का विनाश, बांधों में पानी रुकने से नदियों में आने वाली निर्जीविता, बांधों के टूटने से होने वाला जलप्रलय, उनके कारण भूकम्पों से होने वाला जल-नाश एवं प्राणि नाश - इनका तो हिसाब करना तक कुफ समझा जाता है, जबकि लाभों में मामूली से मामूली चीज तक गिनाई जाती है। प्रदूषण से भी बड़ी समस्या लोगों के प्राकृतिक पर्यावरण, परि- दृश्य और परिवेश के बलात् रूपांतरण की है। यह रूपांतरण मुट्ठी भर लोगों की इच्छानुसार और समाज को बहुत कुछ अंधेरे में रखकर किया जाता है । बाद में, अपने लहलहाते खेतों, खलिहानों, बस्तियों, जल-स्रोतों, वनों, पेड़-पौधों, चरागाहों, पूजास्थलों, श्रद्धा केंद्रों में दूसरे लोगों के कार्य केंद्र और आवास- केंद्र बने देखकर किसानों श्रमिकों शिल्पियों का जी इसीलिए और ज्यादा कचोटता है कि यह सब उनसे पूछकर सामाजिक पंचायतों के माध्यम से नहीं होता। बड़े बांधों-बिजली- घरों से उजड़े छोटे किसान - देशी शिल्पी, खेतिहर मजदूर जब शहरों में फुटपाथों, झुग्गी-झोंपड़ियों में घिसटते तड़पते जीने को विवश होते हैं और एक पुश्त पहले तक अपने ही जैसी जिन्दगी जीने वाले कुछ लोगों को इस कीमत पर उपभोग करते देखते हैं, तो साधन- स्रोतों के इस पुनर्वितरण में न तो उन्हें राष्ट्रीय दृष्टि दिखती है, न सामाजिक न्याय ही नदियों और जल स्रोतों का रूपांतरण उससे जुड़े सब लोगों की राय, बहस, स्वीकृति और सलाह से हो, तब अलग बात हो।

यह एक बुद्धि-छल है कि आज विकास के नाम पर होने वाले विनाश के विरोध को राष्ट्रीय गतिशीलता के विरुद्ध बताया जाये विकास का स्वरूप क्या हो, विकास के लिए जो कीमत अपरिहार्य हो, उसमें कौन कितना अंश दे, यह निर्णय राष्ट्रीय न्याय- बुद्धि से निश्चित होना चाहिए।

राष्ट्रीय प्राकृतिक जल की कमी एक सुविदित तथ्य है। फिर भी शहरों में शौच की ऐसी व्यवस्था जारी है, जो इस जल का भीषणतम दुरुपयोग करती है।


आज की स्थिति में तो न्याय और विवेक का सर्वथा अभाव बना रखा गया है । राष्ट्रीय प्राकृतिक जल की कमी एक सुविदित तथ्य है। फिर भी शहरों में शौच की ऐसी व्यवस्था जारी है, जो इस जल का भीषणतम दुरुपयोग करती है । ऊपर से इस व्यवस्था के कारण शहरों में भूमितल से कुछ ही नीचे मल-मूत्र भरी विशाल गंदी झीलें अंतःप्रवाहित हैं। यह गंदगी भी नदियों को बरबाद करती है।

आधुनिक किस्म की सिंचाई की विचित्र आपाधापी का उन्माद अब रंग ला रहा है। परंपरागत सिचाई भारत में बहुत काल से व्यापक है। पर वह विवेक- पूर्वक थी । तथाकथित आधुनिक सिंचाई ने तथाकथित हरितक्रांति के गौरव क्षेत्रों पंजाब-हरियाणा में आजादी के बाद सन् 1985 तक भूमिगत जल स्तर 15-20 मीटर नीचे धकेल दिया। अब वहां आधे से अधिक पंजाब में ट्यूबवेल लगाना निषिद्ध घोषित कर दिया गया है। हरियाणा भी उसी दिशा में बढ़ रहा है। उत्पादन क्षमता तो स्थिर होकर नीचे झुकने ही लगी है। खुद सरकारी आंकड़ों का यह कहना है। लगभग सात लाख हेक्टेयर जमीन पंजाब में इसी सिंचाई तंत्र के कारण ऊसर हो गयी है, जोकि कुल कृषि भूमि का छठा अंश है। हरियाणा में भी उम्दा कृषि भूमि ऊसर हो चली है। यह गलत सिंचाई विधियों और हाय-हाय करते हुए भूमिगत सारा पानी तेजी से हड़पने के परिणाम हैं।
मूलत: मौजूदा सिंचाई -नीति और जल-नीति, जो मौजूदा विकास नीति का अंग है- सांप्रदायिक है। हमारे यहां समाज की स्वाभाविक वैचारिक इकाई संप्रदाय माना गया है। जब ऐसी नीति बनती है, जो सभी वैचारिक समूहों का ध्यान रखे तब वह सामाजिक नीति है। जब किसी एक या कुछेक वैचारिक समूहों के हित प्रमुख और शेष के हित गौण रखे जाएं, तो वह सांप्रदायिक नीति है । भारतीय दृष्टि से यही आधारभूत सांप्रदायिकता है। हिंदू-मुसलमान या हिंदू- ईसाई जैसे विभाजनों भर को सांप्रदायिक कहना बुद्धिभ्रम है।

मूलत: मौजूदा सिचाई -नीति और जल- नीति, जो मौजूदा विकास नीति का अंग है— - सांप्रदायिक है।

गतिहीन व्यापक समाज

नदियों एवं जल स्रोतों के बारे में मौजूदा नीति सांप्रदायिक है, क्योंकि वह एक खास वैचारिक समूह को ही राष्ट्र भर की नदियों और जल स्रोतों के बारे में विचार-विमर्श एवं निर्णय तथा नियोजन का अधिकार देती है। फलतः व्यापक राष्ट्रीय समाज इस स्तर पर गतिहीन बना दिया गया है। खुद नदियां इसका प्रबल साक्ष्य हैं। उदाहरण के लिए प्रतिनिधि प्रतीक गंगा नदी को ही लें। कानपुर से बनारस तक जगह-जगह गंगा में दो तरह के प्रदूषण दिखते हैं। एक तो लाशें हैं, जो जगह-जगह ठहरी हुई हैं। ये व्यापक भारतीय समाज के भीतर की लाशें हैं । उस समाज को लकड़ियों से वंचित कर दिया गया है। साथ ही उसकी गंगा का प्रवाह भी बाधित कर दिया गया है। यह सब इस व्यापक भारतीय समाज की बुद्धि से नहीं हुआ है। अपितु उस बुद्धि को गतिहीन रहने के लिए विवश करके यह स्थिति लायी गयी है। ठहरी हुई अटकी हुई लाशें व्यापक राष्ट्रीय बुद्धि के ठहराव का साक्ष्य हैं। प्रदूषण का दूसरा रूप है- शहरी मल-मूत्र, रासायनिक- औद्योगिक अपशेष की फैलती भीतरी धारा का और गंगाजल में उसके विषाक्त मिश्रण का ये मल-मूत्र, ये औद्योगिक अपशेष निरंतर तीव्र गति से जगह-जगह गंगा में गिरते हैं। ये सांप्रदायिक गतिशीलता का फल है। यह गतिशीलता व्यापक समाज से बिना पूछे बिना राय के हो रही है। इसीलिए यह सांप्रदायिक है । समाज की बुद्धि लगने दी जाय तो दोनों प्रदूषण साथ-साथ समाप्त हों। सांप्र दायिक गतिशीलता और राष्ट्रीय ठहराव में सीधा आंतरिक रिश्ता है।

बांध-योजनाओं और ताप बिजली योजनाओं के माध्यम मे साधन स्रोत रहित किये गये लोगों को आर्थिक मुआवजे तो कम दिये ही जाते हैं, ये मुआवजे बाहरी एजेंसी द्वारा दिये जाने से भ्रष्टाचार और मनमानी भी भरपूर होती है। यदि ग्राम-समूहों की संपूर्ण प्रतिनिधित्व वाली संस्थाओं के जरिए परंपरागत ढंग से ये सब काम होते तो इनकी शक्ल ही भिन्न होती। अभी तो जो अफसरों से मिल सके, सौदेबाजी कर सके, सिर्फ वही कुछ उल्लेखनीय पा सकता है। न्याय की मांग करने वालों को मारने मरवाने, पीटने पिटवाने, थाना-कचहरी में फंसाने, सामान लुटवाने, उजाड़ देने, मुआवजा अत्यल्प देने या उनके अधिकार को गैर-कानूनी करार देने की घटनाएं व्यापक हैं।

उद्योगों को बाहरी हस्तक्षेप की तरह बलात् सामाजिक रूपांतरणों के माध्यम के तौर पर फैलाने की नीति के कारण ये उद्योग जिन क्षेत्रों में कुछ लोगों द्वारा लगाये जाते हैं, उस क्षेत्र की नदियों को रोगाणुमय, विषाणुमय और मारक बना डालते हैं। पानी का एक पुराना नाम 'जीवन' है। अब इस मनमाने औद्योगीकरण के कारण कहीं-कहीं उसका नया नाम 'मृत्यु' रखने की विवशता पैदा हो गयी है। उस क्षेत्र के बाकी लोगों के प्रति ये कथित उद्योगकर्मी कतई जवाबदेह नहीं होते । उनकी जिम्मेदारी तो सीधे उस आधुनिक सरकार के प्रति है, जो अपनी जिम्मेदारी के बोझों से सदा धंसी रहती है। फलतः कश्मीर से कन्याकुमारी और अमृतसर से जगन्नाथ धाम तथा पश्चिम बंगाल की घुर पूर्वी सीमा तक सभी जगह लगभग प्रत्येक प्रमुख नदी और छोटी नदी भी एग्रो केमिकल्स, पेपर मिल्स, रेयान्स, अन्य वस्त्रोद्योग, रंगाई - छपाई के उद्योग तथा विभिन्न उद्योगों, रासायनिक निर्माणों के औद्योगिक कचरे एवं अपशेष से विषाक्त होती जा रही है।

राष्ट्रीय विकास यदि सचमुच राष्ट्रीय दृष्टि से हो, तो वह विवेकपूर्ण होगा। अभी विकास के नाम पर जो हो रहा है, वह तो बदहवास लूट है। कुछ लोग जाने किस हड़बड़ी में राष्ट्र को लूटना, बरबाद करना, बिगाड़ना, क्षत-विक्षत कर देना चाहते हैं।

यह कहना कि यह सब विकास के लिए अपरिहार्य है, असत्य है। राष्ट्रीय विकास यदि सचमुच राष्ट्रीय दृष्टि से हो, तो वह विवेकपूर्ण होगा। अभी विकास के नाम पर जो हो रहा है, वह तो बदहवास लूट है। लगता है, कुछ लोग जाने किस हड़बड़ी में राष्ट्र को लूटना, बरबाद करना, बिगाड़ना, और जल्दी से जल्दी ये सब काम निपटाना, क्षत-विक्षत कर देना चाहते हैं। एक विचित्र भय, लिप्सा और उन्माद है उनमें । आखिर उन्हें भी तो यहीं रहना है- पुश्त-दर- पुश्त । आज नहीं तो कल, इस सब पर सवाल और तीखे उभरेंगे। तब ये लोग क्या करेंगे ? क्या जागृत राष्ट्र के विरुद्ध ये विकास करने वाले लोग युद्ध घोषित कर देंगे ? या भाग जायेंगे ? कहां जायेंगे भाग कर अपने देश से ? यह उनका भी देश है। उन्हें यहीं रहना है। अतः बेहतर तो यही है कि नदियों और जलाशयों, पर्यावरण और परिवेश के प्रति वे भी पवित्रता, श्रद्धा और विनय का भाव अपना लें। देश के साथ घुलें मिलें। जो कुछ करना है, सबकी राय से करना है। बुद्धि सबके है- प्रधानमंत्री के भी, सचिव के भी गांव पंचायत और वनवासियों के मुखियों के भी और साधारण नारी-नर, किसान-मजदूर के भी। सभी की बुद्धि से नदियों के प्रति नीति बने, क्योंकि सभी की श्रद्धा से वे हजारों साल से प्रवहमान हैं। रूपांतरण भी सबकी इच्छा और योजना से ही होने पर राष्ट्रीय कहलाता है। अराष्ट्रीय रूपांतरण का स्थान राष्ट्रीय रूपांतरण को लेना चाहिए।

आज नहीं तो कल, इस सब पर सवाल और तीखे उभरेंगे। तब ये लोग क्या करेंगे ? क्या जागृत राष्ट्र के विरुद्ध ये विकास करने वाले लोग युद्ध घोषित कर देंगे ? या भाग जायेंगे ? कहां जायेंगे भागकर अपने देश से ? यह उनका भी देश है। उन्हें यहीं रहना है। अतः बेहतर तो यही है कि नदियों और जलाशयों, पर्यावरण और परिवेश के प्रति वे भी पवित्रता, श्रद्धा और विनय का भाव अपना लें। देश के साथ घुलें- मिलें। जो कुछ करना है, सबकी राय से करना है।

तो क्या हम अपनी नदी दृष्टि को और जिस विश्व दृष्टि का यह नदी दृष्टि अंग है, उस विश्व दृष्टि को पुनः प्रतिष्ठित कर पाएंगे ? क्या पवित्रता हमारे जीवन का नियामक तत्व फिर बनेगी ? या हमारे शक्तिशाली लोग धरती माता, नदी माता और वनदेवी को, खेती, जल और वनोपजों को इसी तरह कुछ लोगों के हक में और बाकी लोगों के विरोध में बलात् रूपांतरित किये रहेंगे ? क्या हम सांस्कृतिक बौद्धिक स्तर पर फिर से एक राष्ट्र बनने की पहल नहीं कर पाएंगे ?

लेखक - रामेश्वर मिश्र 'पंकज' 

प्रकाशक - नदियां और हम,  आलेख - रामेश्वर मिश्र 'पंकज', आवरण चित्र यमुना देवी। तीसरा संस्करण मार्च 1994, प्रकाशक मंत्री, गांधी शांति प्रतिष्ठान, 221, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली-2 

LINK;- नदियां और हम भाग-1 
 

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Post By: Shivendra
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