अनादिकाल से मनुष्य के जीवन में नदियों का महत्व रहा है। विश्व की प्रमुख संस्कृतियाँ नदियों के किनारे विकसित हुई हैं। भारत में सिन्धु घाटी की सभ्यता इसका प्रमाण है। इसके अलावा भारत का प्राचीन सांस्कृतिक इतिहास भी गंगा, यमुना, सरस्वती और नर्मदा तट का इतिहास है। ऐसा माना जाता है कि सरस्वती नदी के तट पर वेदों की ऋचायें रची गईं, तमसा नदी के तट पर क्रौंच-वध की घटना ने रामायण संस्कृति को जन्म दिया। उसी तरह वन और भूजल भी मानव जाति के विकास में बड़ा योगदान किया।
सागर से हिमालय तक, जहां सारे पानी को पहाड़ी तराइयों में बरसा कर बादल रीते हो जाते हैं। ऐसे भी बरस होते हैं जब ये मेघ से भरी हवाएं नहीं लौटतीं। तब हाहाकार मच जाता है। धरती प्यासी की प्यासी रह जाती है, पौधे झुलस जाते हैं, पशु प्यासे मर जाते हैं और किसान घर-बार छोड़कर नगरों की शरण में चले जाते हैं। इसीलिए भारत की कृषि को मानसून का जुआ कहते हैं, पांसा सही पड़ा तो ठीक नहीं पड़ा तो विनाश। बादल हवाओं के पंखों पर उड़कर आते हैं। कभी हवाएं अपने निर्धारित मार्ग से भटक जाती हैं और बहुत से क्षेत्रों को बरसात से वंचित करती हैं, भले ही कुछ अन्य क्षेत्रों को जलमग्न कर डालती हों। अंत तक आते-आते अपना सारा जलभंडार मार्ग में ही समाप्त कर चुकी होती हैं। आजादी के छह दशक बाद भी हम प्रकृति के इस खेल का कोई कारगर उपाय नहीं खोज पाए। उपाय रहा भी हो तो हमने गंभीरता से उसे कभी लिया ही नहीं।
प्रकृति की यह आंखमिचौली कोई नई बात नहीं है, हजारों वर्ष से ऐसा ही होता आया है इस देश में। तब मनुष्य विकसित नहीं था। अपनी आदिम जानकारी के आधार पर उसने छोटे-मोटे उपाय कर लिए थे, वह नदियों के किनारे ही रहता था। वहीं बस्तियां बनती थीं, पानी के निकट ही। इसीलिए विश्व की सबसे उत्कृष्ट सभ्यताएं नदियों के किनारे ही पनपी हैं, जिनमें भारतीय, चीनी, मिस्री, ईरानी सभी प्राचीन सभ्यताएं शामिल हैं। आबादी कम थी और घर हल्के-फुल्के। फिर भी उफनती नदियां बहुतों को बहा तो ले ही जाती थीं। वैदिक ऋषि ऐसे ही अवसर पर प्राचीन सरस्वती नदी से प्रार्थना करने पर विवश होते थे, 'हे माता मेरी कुटिया को नहीं बहाना।' आज भी बहुत से नगर नदियों के किनारे ही बसे हैं, लेकिन नगरों को बचाने की धुन में हमने केवल बांध का मुंह ही मोड़ दिया है, गांवों की ओर।
बांध बनाकर हमने नदियों के प्राकृतिक मार्ग अवरुद्ध कर दिए और उनके लिए खुले मैदानों के बीच अपनी विनाशलीला करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं बचा। हमने इस प्राकृतिक योजना को बेकार कर दिया। जंगलों और बरसात का गहरा रिश्ता है। वन पहले बरसते पानी के वेग को धीमा करते हैं ताकि वह भूमि पर धीरे से गिरे। फिर रिस कर पेड़ों की जड़ों के रास्ते भूमि के अंदर चला जाता है, जहां वह भूगर्भ में संग्रहित होता है। यही पानी कभी-कभी सोतों, झीलों ओर तालों के रूप में धरती पर वापस लौट कर आता है, लेकिन अधिकांश वहीं रुका रहता है या जलधाराओं के रूप में आगे निकल जाता है। आधुनिकता की आंधी में वनों का विनाश तो हो ही गया, धरती पर फूटने वाले जलस्रोत भी सूखने लगे और नगरों में या आधुनिक खेती के लिए पंपों से हमने उन जल भंडारों को भी लगभग पूरी तरह उलीच लिया, जो अब तक भूमिगत थे। ऐसे में जब मानसून रुख बदल देता है या हवाएं पानी से भरे बादलों को वहन नहीं करतीं तो सूखे के कारण संकट केवल किसी एक क्षेत्र में नहीं आता, पूरे देश में आता है।
समाचार है कि केरल तट पर मानसून का आगमन हो गया है। कहते हैं कि इस बार यह सही समय पर आया है। लेकिन वैज्ञानिक अभी भी डरे हुए हैं, क्योंकि हवाओं का जैसा दबाव होना चाहिए वैसा नहीं है। इसी दबाव के कारण एक लहर बनती है, जो तट की ओर आकर दूर तक जाती है। केरल पर पानी अच्छा बरसे तो यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि पानी से भरी हवाएं उत्तर भारत तक पहुंच पाएंगी। अक्सर बीच रास्त ही मानसून क्षीण पड़ जाता है। दरअसल मानसून की हवाओं की एक सतत धारा बननी चाहिए, जो बीच में टूटे नहीं तो समुद्र का जल लगातार उसके माध्यम से आता रहेगा, अन्यथा वह सुदूर उत्तर तक नहीं आ पाता। अभी कहना सही नहीं है कि इस बार बरसात कम होगी, लेकिन अगर पूरी बरसात भी हुई तो भी यह समझना आवश्यक है कि जब तक हम पानी के इस प्राकृतिक चक्र को उसी रूप में चलने नहीं दें, जिस रूप में प्रकृति ने उसे रचा है, तब तक हम इस जुए में हारते ही रहेंगे।
आवश्यक है कि हम बरसात, नदियों, वनों और भूजल के रिश्तों को समझें और उसे पनपने में सहायता करें। आखिर ये रिश्ते इतने जटिल तो हैं नहीं, प्राकृतिक रिश्ते प्रकृति की ही तरह सरल होते हैं, उन्हें मानने की आवश्यकता होती है, समझ तो अपने आप बढ़ती है अन्यथा जुए में हम बहुत कुछ हार जाएंगे, केवल खेती और पीने का पानी ही नहीं, नदियां भी, जो लगातार कृशकाय होती जा रही हैं, जंगल भी और अंत में पानी के अभाव में नगर भी। कुछ अर्थशास्त्री चेतावनी देते हैं कि अगले पंद्रह-बीस वर्षों में पानी के लिए गृहयुद्ध आरंभ हो जाएंगे, जिनमें भारत भी होगा। बरसात आने की खुशी में विवेक भी जाग जाए तो अच्छा। मेघ तो आते ही रहेंगे, लेकिन संदेश भी तो कोई सुने।
विश्व की सबसे उत्कृष्ट सभ्यताएं नदियों के किनारे ही पनपी हैं, जिनमें भारतीय, चीनी, मिस्री, ईरानी सभी प्राचीन सभ्यताएं शामिल हैं। आज भी बहुत से नगर नदियों के किनारे ही बसे हैं, लेकिन नगरों को बचाने की धुन में हमने केवल बांध का मुंह ही मोड़ दिया है, गांवों की ओर। बांध बनाकर हमने नदियों के प्राकृतिक मार्ग अवरुद्ध कर दिए और उनके लिए खुले मैदानों के बीच अपनी विनाशलीला करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं बचा। हमने इस प्राकृतिक योजना को बेकार कर दिया।
बरसात में प्रकृति जैसे गहरी नींद से जागती है। तपी हुई भूमि पर पानी की बौछार से मिट्टी के कण जीवित हो उठते हैं। शायर इकबाल के शब्दों में 'निकल आए गोया कि मिट्टी के पर।' हमारे देश में बरसात की जननी महासागर हैं। हिंद महासागर के दोनों छोरों, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से उठने वाले बादलों की प्रतीक्षा होती है जन-जन को। इन समुद्री बादलों से ही मौसम बदलता है। विदेशी जहाजरानी अपने बड़े-बड़े जलपोतों में भारतीय तट के नाविकों और मछुआरों से यह शब्द सुनते थे - मौसम, और अपने लहजे में उन्होंने ही इन बादलयुक्त हवाओं को मौसम कहना आरंभ किया, जो कालांतर में मानसून या मानसून बन गया। मानसून हमारे लिए प्रकृति का एक वरदान है, जो सर्वसाधारण को ही नहीं, कवियों-कलाकारों को भी प्रेरित करता रहा है। कालिदास ने तो इसी मेघ को प्रेम संदेश ले जाने वाला दूत बना डाला। कवि ने उसे मार्ग बताने के बहाने इस वायु पर सवार इन मेघों के यात्रा पथ का ही चित्र खींचा है।सागर से हिमालय तक, जहां सारे पानी को पहाड़ी तराइयों में बरसा कर बादल रीते हो जाते हैं। ऐसे भी बरस होते हैं जब ये मेघ से भरी हवाएं नहीं लौटतीं। तब हाहाकार मच जाता है। धरती प्यासी की प्यासी रह जाती है, पौधे झुलस जाते हैं, पशु प्यासे मर जाते हैं और किसान घर-बार छोड़कर नगरों की शरण में चले जाते हैं। इसीलिए भारत की कृषि को मानसून का जुआ कहते हैं, पांसा सही पड़ा तो ठीक नहीं पड़ा तो विनाश। बादल हवाओं के पंखों पर उड़कर आते हैं। कभी हवाएं अपने निर्धारित मार्ग से भटक जाती हैं और बहुत से क्षेत्रों को बरसात से वंचित करती हैं, भले ही कुछ अन्य क्षेत्रों को जलमग्न कर डालती हों। अंत तक आते-आते अपना सारा जलभंडार मार्ग में ही समाप्त कर चुकी होती हैं। आजादी के छह दशक बाद भी हम प्रकृति के इस खेल का कोई कारगर उपाय नहीं खोज पाए। उपाय रहा भी हो तो हमने गंभीरता से उसे कभी लिया ही नहीं।
प्रकृति की यह आंखमिचौली कोई नई बात नहीं है, हजारों वर्ष से ऐसा ही होता आया है इस देश में। तब मनुष्य विकसित नहीं था। अपनी आदिम जानकारी के आधार पर उसने छोटे-मोटे उपाय कर लिए थे, वह नदियों के किनारे ही रहता था। वहीं बस्तियां बनती थीं, पानी के निकट ही। इसीलिए विश्व की सबसे उत्कृष्ट सभ्यताएं नदियों के किनारे ही पनपी हैं, जिनमें भारतीय, चीनी, मिस्री, ईरानी सभी प्राचीन सभ्यताएं शामिल हैं। आबादी कम थी और घर हल्के-फुल्के। फिर भी उफनती नदियां बहुतों को बहा तो ले ही जाती थीं। वैदिक ऋषि ऐसे ही अवसर पर प्राचीन सरस्वती नदी से प्रार्थना करने पर विवश होते थे, 'हे माता मेरी कुटिया को नहीं बहाना।' आज भी बहुत से नगर नदियों के किनारे ही बसे हैं, लेकिन नगरों को बचाने की धुन में हमने केवल बांध का मुंह ही मोड़ दिया है, गांवों की ओर।
बांध बनाकर हमने नदियों के प्राकृतिक मार्ग अवरुद्ध कर दिए और उनके लिए खुले मैदानों के बीच अपनी विनाशलीला करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं बचा। हमने इस प्राकृतिक योजना को बेकार कर दिया। जंगलों और बरसात का गहरा रिश्ता है। वन पहले बरसते पानी के वेग को धीमा करते हैं ताकि वह भूमि पर धीरे से गिरे। फिर रिस कर पेड़ों की जड़ों के रास्ते भूमि के अंदर चला जाता है, जहां वह भूगर्भ में संग्रहित होता है। यही पानी कभी-कभी सोतों, झीलों ओर तालों के रूप में धरती पर वापस लौट कर आता है, लेकिन अधिकांश वहीं रुका रहता है या जलधाराओं के रूप में आगे निकल जाता है। आधुनिकता की आंधी में वनों का विनाश तो हो ही गया, धरती पर फूटने वाले जलस्रोत भी सूखने लगे और नगरों में या आधुनिक खेती के लिए पंपों से हमने उन जल भंडारों को भी लगभग पूरी तरह उलीच लिया, जो अब तक भूमिगत थे। ऐसे में जब मानसून रुख बदल देता है या हवाएं पानी से भरे बादलों को वहन नहीं करतीं तो सूखे के कारण संकट केवल किसी एक क्षेत्र में नहीं आता, पूरे देश में आता है।
समाचार है कि केरल तट पर मानसून का आगमन हो गया है। कहते हैं कि इस बार यह सही समय पर आया है। लेकिन वैज्ञानिक अभी भी डरे हुए हैं, क्योंकि हवाओं का जैसा दबाव होना चाहिए वैसा नहीं है। इसी दबाव के कारण एक लहर बनती है, जो तट की ओर आकर दूर तक जाती है। केरल पर पानी अच्छा बरसे तो यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि पानी से भरी हवाएं उत्तर भारत तक पहुंच पाएंगी। अक्सर बीच रास्त ही मानसून क्षीण पड़ जाता है। दरअसल मानसून की हवाओं की एक सतत धारा बननी चाहिए, जो बीच में टूटे नहीं तो समुद्र का जल लगातार उसके माध्यम से आता रहेगा, अन्यथा वह सुदूर उत्तर तक नहीं आ पाता। अभी कहना सही नहीं है कि इस बार बरसात कम होगी, लेकिन अगर पूरी बरसात भी हुई तो भी यह समझना आवश्यक है कि जब तक हम पानी के इस प्राकृतिक चक्र को उसी रूप में चलने नहीं दें, जिस रूप में प्रकृति ने उसे रचा है, तब तक हम इस जुए में हारते ही रहेंगे।
आवश्यक है कि हम बरसात, नदियों, वनों और भूजल के रिश्तों को समझें और उसे पनपने में सहायता करें। आखिर ये रिश्ते इतने जटिल तो हैं नहीं, प्राकृतिक रिश्ते प्रकृति की ही तरह सरल होते हैं, उन्हें मानने की आवश्यकता होती है, समझ तो अपने आप बढ़ती है अन्यथा जुए में हम बहुत कुछ हार जाएंगे, केवल खेती और पीने का पानी ही नहीं, नदियां भी, जो लगातार कृशकाय होती जा रही हैं, जंगल भी और अंत में पानी के अभाव में नगर भी। कुछ अर्थशास्त्री चेतावनी देते हैं कि अगले पंद्रह-बीस वर्षों में पानी के लिए गृहयुद्ध आरंभ हो जाएंगे, जिनमें भारत भी होगा। बरसात आने की खुशी में विवेक भी जाग जाए तो अच्छा। मेघ तो आते ही रहेंगे, लेकिन संदेश भी तो कोई सुने।
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