नदियों को सुरंगों में डालकर उत्तराखण्ड को सूखा प्रदेश बनाने की तैयारी

प्रो. जी. पी. अग्रवाल द्वारा उत्तरकाशी में किये गये उपवास के बाद लोहारीनाग पाला योजना पर भी काम बंद कर दिया गया था। लेकिन लोहारीनाग पाला पर चुपके से फिर काम चालू कर दिया गया है। 2.5 किलोमीटर लंबी सुरंग भी बना दी गई है। एन.टी.पी़.सी. का कहना है कि लोहारीनाग पाला पर उसने 600 करोड़ रुपए खर्च कर दिए हैं, इसलिए उसे पूरा कर ही देना चाहिए।

राजा भगीरथ की तपस्या से अवतरित भागीरथी अपनी पहाड़ी घाटी से विलीन हो रही है। अपने उद्गम स्थान गंगोत्री से किंचित दूरी तक बह कर वह अब आगे हरिद्वार तक अदृश्य हो रही है। कारण है उस पर बन रही 16 छोटी-बड़ी जलविद्युत परियोजनायें। इनके लिए उसे धरती के अंदर सुरंगों में डाला जा रहा है। गंगोत्री से 130 किलोमीटर धरासू तक जगह-जगह बनी सुरंगों में डाले जाने के बाद उसके जल को अब 130 किलोमीटर दूरी तक की घाटी में देखना संभव नहीं रहा। उसके आगे भी, हरिद्वार तक बनी या बन रही विद्युत परियोजनाओं के कारण उसका जल सतह पर नहीं दिखाई देगा। उत्तराखंड में नदियों के पानी से जल विद्युत के लिए बनती सुरंगों की लंबाई 15,000 किलोमीटर होगी और अधिकतर नदियाँ इन सुरंगों में ही बहेंगी।

मनेरी भाली एक परियोजना के लिए भागीरथी को सुरंग में डाले जाने के कारण जल उसकी घाटी की सतह से पूरी तरह लुप्त हो गया है। घाटी अब केवल कंकड़ों से भरी है। यही स्थिति गंगा की दूसरी मुख्य धारा, अलकनंदा की भी हो रही है। उसका पानी लामबगड़ की सुरंग में डाल दिये जाने के बाद दिखाई नहीं देता और घाटी में अब केवल पत्थर ही पत्थर मिलते हैं। आगे गोविंदघाट में पुष्पगंगा के मिलने से उसमें कुछ पानी दिखाई देने लगता है।

भागीरथी तथा अलकनंदा की धाराओं को बन रही सुरंगें लील रही हैं। उनके कारण उत्तराखंड के पहाड़ों का जीवन शुष्क तथा निष्प्राण होता जा रहा है। जितनी परियोजनाएँ बन रही हैं, उन सब के लिए गंगा की दोनों धाराओं तथा अन्य नदियों का पानी पर्याप्त नहीं है। योजनाएँ बनाने के लिए पानी की उपलब्धता का पता अटकलों द्वारा लगाया गया किस जगह, कितना पानी कौन सी नदी में बह रहा है, उसका सही आँकड़ा मालूम नहीं था। जो कुछ पानी की माप पहले की गई थी, अंदाजिया थी।

गंगोत्री हिमनद, जहाँ से भागीरथी निकलती है, ग्लोबल वार्मिंग से प्रति वर्ष कितना घट रहा है, इस बात की जाँच किए बिना 600 मेगावाट की लोहारीनाग पाला विद्युत परियोजना को उसके उद्गम से 50 किलोमीटर नीचे बनाने के लिये 2005 में पर्यावरण मंत्रालय ने स्वीकृति दे दी थी। सरकारी नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन (एन.टी.पी.सी.) द्वारा इसे बनाया जाना था। एक सूचना याचिका दायर करने पर इस कंपनी ने 2007 में बताया था कि उसने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी (रुड़की) को यह जानने का काम दे दिया था कि गंगोत्री हिमनद से लोहारीनाग पाला योजना को बिजली बनाने के लिये कितना पानी मिल पाएगा। यह उपलब्धता जानना पर्यावरण मंत्रालय से योजना की स्वीकृति मिलने के लिए अनिवार्य था। लेकिन बाद को पता लगा कि स्वीकृति पाने के लिये कंपनी ने 2005 में यह शर्त हटा दी। उसके अनुसार ऐसा ऊर्जा मंत्रालय के कहने पर किया गया। बगैर यह जाने कि गंगोत्री हिमनद से कितना पानी उपलब्ध है, योजना की स्वीकृति दे दी गई।

आम धारणा है कि 100 साल में हिमालय के हिमनद समाप्त हो जायेंगे। दिल्ली की टेरी संस्था के अध्यक्ष, राजेन्द्र पचौरी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि ये हिमनद 2035 तक समाप्त हो जाएँगे। इस समयावधि पर हुए विवाद के बाद पचौरी को अपना दावा वापस लेना पड़ा, मगर इस बात पर सभी सहमत हैं कि हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं। यह भी सभी जानते हैं कि पिछली शताब्दी में गंगोत्री हिमनद 17 किमी. पीछे खिसक गया था और अभी और पीछे जा रहा है। रुड़की की संस्था ने यदि इस हिमनद से मिलने वाले पानी की समीक्षा की होती तो हिमालयी हिमनदों की समाप्ति की अवधि के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त होती। पता नहीं क्यों यह शोध नहीं करने दिया गया। यह भी सही है कि हिमालयी हिमनदों से पानी का रिसाव लगातार कम होता जा रहा है। इसके कारण टिहरी तथा मनेरी भाली प्रथम और द्वितीय योजनाएं अपनी क्षमता का केवल 30 से 35 प्रतिशत विद्युत का ही उत्पादन कर पा रही हैं। उनकी सभी टर्बाइनों को चलाने के लिए पानी पर्याप्त नहीं होता।

भागीरथी पर उद्गम से केवल 14 किमी. नीचे, दो विद्युत योजनाओं, भैंरोघाटी-1 तथा 2 पर पिछले साल काम बंद कर दिया गया था। प्रो. जी. पी. अग्रवाल द्वारा उत्तरकाशी में किये गये उपवास के बाद लोहारीनाग पाला योजना पर भी काम बंद कर दिया गया था। लेकिन लोहारीनाग पाला पर चुपके से फिर काम चालू कर दिया गया है। 2.5 किलोमीटर लंबी सुरंग भी बना दी गई है। इन परियोजनाओं को पूरा करने के लिए ठेकेदार तथा अधिकारी बहुत जोर जगा रहे हैं। एन.टी.पी़.सी. का कहना है कि लोहारीनाग पाला पर उसने 600 करोड़ रुपए खर्च कर दिए हैं, इसलिए उसे पूरा कर ही देना चाहिए। परियोजना की पूरी लागत 2,200 करोड़ रुपए बताई गई है।

नदियों को सुरंगों में डालने के कारण पहाड़ का वातावरण शुष्क हो रहा है। जो पानी खुले में बहता था, उसकी नमी से वन, खेती, पशु, मनुष्य सभी लाभान्वित होते थे। नमी के समाप्त होने से वन तथा खेती कालांतर में सूख जाएँगे। सुरंगों के खोदे जाने से सतह का पानी छीज कर नीचे चला जा रहा है और गाँवों के सोते सूख रहे हैं। धरती कई जगहों पर बैठ गयी है और गाँव-घरों में दरारें पड़ गई हैं। 400 मेगावाट की विष्णुप्रयाग विद्युत योजना के ऊपर का चाँईं गाँव मकानों के टूटने तथा दरारें पड़ने के कारण रहने लायक नहीं रह गया है। लोग डर से खेतों में तंबू लगा कर रह रहे हैं। कई जगह भूस्खलन हो रहे हैं। जिन किसानों की भूमि, सड़क, बाँध, बिजलीघर इत्यादि बनाने के लिये ली गई थी, वे बेकार हो गए हैं। जमीन के बिक जाने से उनके पास खेती नहीं रही और अब अन्य कुछ जीवन-साधन नहीं बचा है।

नदियों को सुरंगों में डालने से उनके ऊपर बसे सभी गाँव खतरे में आ गए हैं। भूमि धँसाव, स्खलन, पानी के सोतों के सूखने की खबरें लगभग सभी जगहों से आ रही हैं। हिमालय दुनिया का अपेक्षाकृत एक नया पहाड़ है और कच्चा है। उसकी चट्टानें मज़बूत शिलाओं की नहीं हैं। उनमें जगह-जगह दरारें हैं। अभी तक सुरंग बनाने का काम बारूदी विस्फोट के द्वारा किया गया है, जिससे यह नए, कमजोर पहाड़ हिल गए हैं और उनके ऊपर बनी बस्तियाँ खतरे में आ गई हैं। सबसे बड़ा खतरा 10,000 आबादी के कस्बे, जोशीमठ को हो गया है। भूगर्भ विज्ञानियों के अनुसार वह बर्फ से लाए मलबे के ऊपर बसा है, चट्टान पर नहीं। उसके ठीक नीचे से 520 मेगावाट की विष्णुगाड़-धौली परियोजना की सुरंग बन रही है। उसके बनने पर यह महत्वपूर्ण तीर्थ कठिनाई में आ जाएगा। उसकी सुरंग, जो अभी बननी शुरू हुई है, में गर्म पानी का एक बड़ा सोता फूट निकल आया है। इसके कारण उसको खोदनेवाली भीमकाय मशीन बीच में फँस गई।

नदियों को सुरंगों में डालने से लगता है कि यह नया राज्य विनाश की दिशा में बढ़ रहा है। एक तरफ केंद्र सरकार करोड़ों रुपए खर्च कर गंगा को बचाने क प्रयास कर रही है, वहीं दूसरी ओर उससे भी अधिक धन व्यय कर पहाड़ी वन के विनाश का सृजन भी कर रही है।
 

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