नदियों को साफ करने के लिये संकल्प नहीं, समाधान चाहिए

प्रदूषित नदी
प्रदूषित नदी
प्रदूषित नदी (फोटो साभार - विकिपीडिया)गंगा की सफाई के मुद्दे पर एनजीटी के सख्त रवैए से स्पष्ट हो गया है कि इस पवित्र नदी को साफ करने के नाम पर अब तक जो कुछ भी किया गया था, वह सब महज दिखावा था। बात सिर्फ एक नदी की नहीं है बल्कि इस देश की लगभग सभी नदियाँ विशेषकर उत्तर भारत से होकर गुजरने वाली नदियाँ, इतनी प्रदूषित हो चुकी हैं कि उन्हें किसी भी सूरत में जीवनदायिनी नहीं कहा जा सकता है।

विकास के नाम पर इन नदियों के किनारे बसाये गए शहरों से निकलने वाले कचरे और कारखानों से बहाए गए हानिकारक रासायनिक अपशिष्टों ने नदियों को इतना प्रदूषित कर दिया है कि कुछ नदियाँ तो पूरी तरह से गन्दे नालों में तब्दील हो चुकी हैं। जिसका खामियाजा न केवल मानव सभ्यता बल्कि धरती पर निवास करने वाली समस्त जीव-जन्तुओं को भुगतना पड़ रहा है। इंसान जहाँ नित नई जानलेवा बीमारियों से ग्रसित होता जा रहा है तो वहीं कई जलीय जीवों के लुप्त होने का खतरा मँडराने लगा है। जिससे समूचा इको सिस्टम प्रभावित हो रहा है।

वास्तव में, आधुनिक मानव पोषित विकास के दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं के साथ चलता है। एक, अन्धाधुन्ध संसाधनों का दोहन कर धन कमाने की मानसिकता से ग्रसित है, तो दूसरी विचारधारा सन्तुलित व सम्पोषित विकास की बात करती है। दोनों एक दूसरे की परस्पर विरोधी विचारधाराएँ हैं।

वर्तमान में विकास पहली विचारधारा के साथ आगे बढ़ रहा है जिसमें सीमित लोगों द्वारा धरती के सभी संसाधनों को समेटने और मुनाफा कमाने की अंधकामना से प्रेरित है। इसके चलते आज न केवल पर्यावरणीय समस्याएँ उभरी हैं बल्कि उत्पादन को बाजार में उतारने की प्रक्रिया से पैदा होने वाले ठोस व तरल अपशिष्ट पदार्थों का निपटान भी गम्भीर संकट के रूप में उभर रहा है। इसके कुछ उदाहरण हैं जिनको सामने रखते हुए चर्चा को आगे बढ़ाना जरूरी लगता है-

केस 1. राजस्थान की बरसाती लूणी नदी जिसे राजस्थान की मरुगंगा भी कहा जाता है आज उद्योगों, बाजार और नगरीय समाज तथा नगरनिकायों के लिये बड़ी सार्वजनिक कचरा-पात्र बन गई है। अजमेर जिले की अरावली नाग पहाड़ियों से निकलने वाली यह नदी 330 किलोमीटर थार रेगिस्तान के पाली, नागौर, जोधपुर, बाड़मेर व जालोर से बहती हुई अन्ततः कच्छ के रण में मिलती थी।

कभी इस नदी से अपने बहाव क्षेत्र में आने वाले शहर, गाँवों का भूजल रिचार्ज होता था तथा आस-पास के गाँव में खेती होती थी। विकास की अज्ञानी धारा ने इस नदी के आँचल को आज कचरे से पाट दिया है।

बड़े शहरों में पानी की आपूर्ति के लिये नदी पर बनाए गए बाँधों से नदी सूख गई तथा इसके बहाव क्षेत्र पर बसे शहरों के उद्योग धन्धे नदी के किनारों पर लगे ताकि उद्योगों से निकलने वाले तरल व ठोस कचरे को नदी में प्रवाहित किया जा सके। पाली और बालोतरा की रंगाई-छपाई के अधिकांश उद्योग नदी के किनारे लगे हुए हैं तथा प्रतिदिन लाखों लीटर केमिकलयुक्त पानी नदी में छोड़ देते हैं। जिससे नदी के किनारे पर कई किलोमीटर तक भूजल पूरी तरह से प्रदूषित हो चुका है।

केस 2. रेलवे के रिकॉर्ड में किसी ट्रेन का नाम कैंसर ट्रेन नहीं है। यह हरित क्रान्ति के नाम पर कृषि उत्पादों को बढ़ाने के लिये अपनाई गई तकनीकों का दुष्परिणाम झेल रहे लोगों की तरफ से दिया गया नाम है, जिसे रेल विभाग चाह कर भी नहीं बदल सकता। पंजाब से राजस्थान के बीकानेर जिले की कैंसर हॉस्पिटल में इलाज के लिये प्रतिदिन सैकड़ों कैंसर रोगी इस ट्रेन से आवागमन करते हैं, इसी कारण इसका नाम कैंसर ट्रेन पड़ गया है।

कृषि उत्पादों को बढ़ाने, उद्योगों के लिये नकदी फसलेें पैदा कर कच्चा माल उपलब्ध कराने, कृषि उत्पादों का निर्यात कर विदेशी मुद्रा कमाने और खाद्यान्न आपूर्ति के नाम पर मिट्टी की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिये रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के उपयोग ने इन सारी परिस्थितियों को जन्म दिया है। इससे तैयार उत्पादों से खाद्यान्न भण्डारण अवश्य भरे तथा उद्योगों को कच्चा माल भी मिलने लगा, लेकिन केमिकल फर्टिलाइजर और पेस्टिसाइड से प्रदूषित मिट्टी, पानी और हवा ने इंसानों की जिन्दगी में कैंसर रूपी जहर घोल दिया।

केस 3. दो व तीन दिसम्बर 1984 का भोपाल गैस कांड को आज भी जब याद करते हैं तो हृदय दहल जाता है। यूनियन कार्बाइड नामक फैक्टरी से रिसी मिथाइल आइसोसायनाइड गैस ने हजारों लोगों को न केवल मौत की नींद सुला दिया था, बल्कि जिन्दा रहे लोगों के जीवन में भी जहर घोल दिया था। पीड़ितों को मिलने वाले न्याय और मुआवजे का घाव आज भी सरकारी फाइलों से रिस रहे हैं।

यह तीन कहानियाँ मात्र उदाहरण हैं जो बताती हैं कि देश के विकास को जब केवल आर्थिक ग्रोथ, औद्योगिक उत्पादन, बाजार की खरीद-फरोख्त, आयात निर्यात के आँकड़ों से नापा जाता है, तब उत्पादन और वितरण से जुड़ी कुछ ताकतों का चेहरा सामने आता है जो बाजार के माध्यम से लोगों की जिन्दगी को नियंत्रित करते हैं।

यही उत्पादक और बाजार की शक्तियाँ पर्यावरण सुरक्षा और लोगों के जीवन की सुरक्षा से जुड़े राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय नियम, कायदे, कानूनों की अवहेलना कर बेपरवाही का परिचय देते हैं। आज स्थिति यह बनी है कि तमाम नदियाँ, सागर, धरती, आकाश, हवा और पानी विकास के साथ निकलने वाले विनाशक कचरे के पात्र बन गए हैं।

सरकारी तंत्र विकास की इन शक्तियों को सन्तुलित और नियंत्रित करने में प्रयासरत है लेकिन अपेक्षित सफलता मिलती नजर नहीं आ रही है। बीच-बीच में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले सम्मेलनों, सेमिनारों और घोषणाओं में उत्पादन और बाजार की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग और उनके हित साधने वाली सरकारें नियम कानून को अमल में लाने का संकल्प जरूर दोहराती रहती हैं।

ऐसा ही एक अन्तरराष्ट्रीय संकल्प है, सतत विकास लक्ष्य -12, जिसमें ठोस व तरल अपशिष्टों के निपटान को प्रोत्साहित करने की बात कही गई है। सतत विकास लक्ष्य का मूल उद्देश्य कहता है कि संसाधनों की बर्बादी को कम करना, पर्यावरण की दुर्दशा एवं प्रदूषण को 2030 तक घटाना है।

संकल्प में सभी उद्देश्यों उप उद्देश्यों में 2030 तक संसाधनों का नियंत्रित दोहन, अपशिष्टों जिसमें रासायनिक, तरल, ठोस, ई-वेस्ट, प्लास्टिक आदि का पुनर्चक्रण के निपटान को प्रोत्साहित और पर्यावरणीय दुर्दशा को रोकने की बात कही गई है, लेकिन कानूनन रोका जाएगा, ऐसा नहीं कहा गया है। उदाहरणस्वरूप उपर्युक्त तीनों केस कहीं-न-कहीं विकास के गर्भ से निकलने वाले अपशिष्टों के उचित प्रबन्धन नहीं होने का प्रतिनिधित्व करती है।


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