हिन्दी फिल्मों में पानी का रूपक कई तरह से इस्तेमाल हुआ है। नदी किनारे इसके चाक्षुष बिम्ब फिल्मी रोमांस को भी एक गहराई देते हैं और उससे जुड़े गीतों के बोल तो प्रेम और प्रकृति को एकसार कर देते हैं। यह पानी के प्रति भारतीय समाज की दीवानगी ही है कि फिल्मों में भी ज्यादातर नदियों को जीवनदायिनी माँ ही पुकारा गया है। मेरे सिनेमाई सफर में खास बात यह रही है कि मेरी फिल्म का कोई-न-कोई दृश्य या गीत नदी के पास फिल्माया गया है। निर्माता-निर्देशक विजय भट्ट साहब की फिल्म- ‘हिमालय की गोद में’ का मुकेश का गाया ये गीत- ‘चाँद-सी महबूबा हो मेरी तुम कब मैंने ऐसा सोचा था, हाँ तुम बिल्कुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था...।’ यह मनाली में नदी के पास ही शूट हुआ है। कल-कल बहती नदी और नदी किनारे एक बड़े-से पत्थर पर अपनी महबूबा की छवि उकेरता फिल्म का नायक दर्शकों की स्मृतियों में आज भी उसी रूप में बना हुआ है। अगर आप इस गीत की सुन्दरता और ताकत के स्रोत तलाशेंगे तो उसमें नदी-पहाड़ और इसके खूबसूरत बोल सब मिलकर इसे एक नया अर्थ देते हैं।
मेरी फिल्म ‘पूरब और पश्चिम’ में एक बहुत ही लोकप्रिय देशभक्ति गीत है- ‘भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात सुनाता हूँ...।’ इस गीत के इस टुकड़े में- ‘इतनी ममता है कि नदियों को भी माता कहके बुलाते हैं...।’ तो गंगा मैया सिर्फ फिल्म में ही नहीं है। वह तो जीवनदायिनी हैं। इस नदी के किनारे हमारी सभ्यता फली-फूली है। यह तो हिन्दुस्तान की गौरवशाली परम्परा का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रतीक बन गई है।
वैसे भी नदियों का फलक बहुत बड़ा है। उसे सिर्फ सिनेमा से बाँधकर नहीं देखा जा सकता। यह कह सकते हैं कि हमारी नदियों ने हिन्दी सिनेमा को समृद्ध किया है। उसने हिन्दी सिनेमा को ऐसे चाक्षुष सन्दर्भ दिये हैं कि सिनेमा दर्शनीय हो गया है। उसकी ताकत बढ़ गई है। हिन्दुस्तान के सारे महानगर और गाँव नदियों के किनारे बसे हैं। ऐसा इसलिये है कि जीवन के लिये पानी मिल सके।
हमारे यहाँ गंगा-यमुना को पूजा जाता है। इलाहाबाद के संगम पर हजारों की भीड़ जुटती है। अलोप हो गई सरस्वती नदी को भी लोग संगम पर ही खोजते हैं। मैंने ‘पूरब-पश्चिम’ में गंगा नदी दिखाई। इलाहाबाद का प्रयागराज का संगम दिखाया। ‘उपकार’ में भी नदी दिखाई और यहाँ तक कि ‘शहीद’ में भी कई दृश्यों में नदी दिखाई है।
हमारे यहाँ हर घर में गंगाजल होता है। जीवन के आखिरी क्षणों में जब मृत्यु की बेला करीब हो तो स्त्री-पुरुष के मुँह में गंगाजल दिया जाता है। गंगा हिमालय से उतरती है, तो बड़ी नदी बन जाती है। वह सतत प्रवहमान है, जबकि यही पानी इकट्ठा होने लगता है तो वह सरोवर बन जाता है। उसमें सड़ांध आ जाती है। सोचता हूँ कि इंसान तो खुद ही नदी का प्रतिरूप है। इंसान के शरीर में 80 फीसदी पानी है। तो वह हो गया न नदी का प्रतिरूप!
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।
शं योरभिस्रवन्तु नः…-ऋग्वेद : 10/9/4
जल ज्योतिर्मय वह आँचल है
जहाँ खिला-
यह सृष्टि कमल है
जल ही जीवन का सम्बल है।
‘आपोमयं’ जगत यह सारा
यही प्राणमय अन्तर्धारा
पृथ्वी का,
सुस्वादु सुअमृत
औषधियों में नित्य निर्झरित
अग्नि सोम मय-
रस उज्जवल है।
हरीतिमा से नित्य ऊर्मिला
हो वसुन्धरा सुजला सुफला
देवि, दृष्टि दो-
सुषम सुमंगल
दूर करो तुम अ-सुख-अमंगल
परस तुम्हारा-
गंगाजल है।
‘जल के बिना सभी कुछ सूना
मोती, मानुष, चंदन, चूना
देवितमे,
मा जलधाराओ
‘गगन गुहा’ से रस बरसाओ
वह रस शिवतम
ऊर्जस्वल है
ऋतच्छंद का बिम्ब विमल है
जल ही जीवन का सम्बल है।
(अनुवाद : छविनाथ मिश्र)
(लेखक प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता हैं)
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Post By: RuralWater