नदियों को बचाने में सरकार की विफलता पर सवाल

नई दिल्ली। यमुना के संरक्षण और स्वच्छता की मांग को लेकर जंतर-मंतर पर धरना दे रहे किसान और साधु-संत सरकार के रवैये से काफी क्षुब्ध नजर आ रहे हैं। उनका सीधा सवाल है कि आखिर सरकार किसके दबाव में आकर अब तक इस निर्णय को क्रियान्वित नहीं कर पा रही है। उनकी मांग है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को सरकार जल्द से जल्द माने और यमुना में पानी छोड़े। इसके साथ ही उन्होंने यह भी साफ कर दिया है कि सरकार इस भ्रम में न रहे कि यह आंदोलन बिना नतीजे के ही समाप्त हो जाएगा।

यमुना बचाओ आन्दोलन को लेकर मैगसेसे पुरस्कार विजेता राजेंद्र सिंह ने कहा कि सरकार का यह व्यवहार वाकई उसके असंवेदनशील रवैये दर्शा रहा है। यदि सरकार इस विषय पर अब तक गंभीर नहीं हुई है तो उसको जान लेना चाहिए कि नदियों की यह दशा सरकारी नीतियों के वहज से ही हुई है और इसका खामियाजा सरकार को भुगतना पड़ेगा। उन्होने कहा कि यह अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन साबित होगा जिसमें किसानों और संतों के साथ सामान्य जनता भी जुड़ने को तैयार है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को पूरा करना सरकार का कर्तव्य है, लेकिन दुर्भाग्य है कि इस आदेश को पूरा करने के लिए देश के किसानों और संतों को सामने आना पड़ रहा है।

इसी तरह, सुप्रीम कोर्ट के जाने माने एडवोकेट संजय पारीख ने कहा कि भ्रष्टाचार के मुद्दे से पहले किसानों की जमीन और जीवनदायिनी नदियों के संरक्षण का मुद्दा है, क्योंकि इनके अभाव से सबसे ज्यादा प्रभावित गरीब होते हैं। यमुना की वास्तविक दशा पर अंतर्राष्ट्रीय कथा वाचक रामजी लाल शास्त्री ने कहा कि मानवता के नाते प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को घोषणा कर देनी चाहिए कि इस पानी को पीने के लिए न प्रयोग किया जाए। सरकार को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि पानी की इस दशा की जिम्मेदारी सरकार की है। भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भानू प्रताप सिंह ने कहा कि यह देश किसानों का नहीं, पूंजीपतियों का है।

देश के किसान सरकार से जवाब मांग रहे हैं कि आखिर सर्वोच्च न्यायालय की बात को सरकार किसके दबाव में नहीं मान रही है। उन्होंने कहा कि हमने लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत अपनी बात सरकार के सामने रखी है, लेकिन सरकार का व्यवहार अब हमें निराश कर रहा है।

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