नदियों की सफाई में जुनून जरूरी


गंगा सफाई परियोजना पर करोड़ों रुपये खर्च हुए और कई बरस लग गए, लेकिन गंगा अभी तक साफ नहीं हुई, बल्कि और मैली होती चली गई। पर्यावरणविद इसके लिये संघर्ष भी कर रहे हैं, मगर अब एक बड़ा वर्ग यह कहने लगा है कि गंगा की सफाई संभव नहीं है…

गंगा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को आश्वासन दिया है कि गंगा नदी की सफाई सरकार के इसी कार्यकाल में पूरी हो जाएगी। केंद्र सरकार 2018 तक यह महत्वाकांक्षी परियोजना पूरी कर लेगी। केंद्र सरकार का जवाब सुप्रीम कोर्ट में तब आया, जब अदालत की बेंच ने पर्यावरणविद एमसी मेहता की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार को आड़े हाथ लेते हुये पूछा था कि उसके शासन काल में गंगा की सफाई का काम पूरा हो जाएगा, कि नहीं। इस पर सॉलीसिटर जनरल रणजीत कुमार ने न्यायालय के समक्ष सरकार का पक्ष रखते हुए कहा था कि गंगा को साफ करने का काम 2018 तक पूरा कर लिया जाएगा। अदालत ने इस बात पर रोष जताया कि पिछले 30 सालों में गंगा की सफाई के लिये काई काम नहीं हुआ है।

हालांकि सॉलीसिटर जनरल ने कोर्ट को बताया कि सरकार की गंगा नदी के किनारे बसे 30 शहरों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने की योजना है, ताकि गंदे पानी को नदी में जाने से रोका जा सके। इस समय 24 प्लांट काम कर रहे हैं, जबकि 31 का निर्माण किया जा रहा है। लेकिन, कोर्ट इससे संतुष्ट नहीं हुआ और केंद्र सरकार को आदेश दिया कि वह गंगा बेसिन वाले पांच राज्यों में दूषित पानी को साफ करने वाले संयंत्रों के निर्माण के मामले में हुई प्रगति का राज्यवार हलफनामा दाखिल करे। दरअसल, सरकार का दावा है कि 2500 किमी लंबी गंगा की सफाई के लिये नदी के तट पर बसे 118 नगरपालिकाओं की शिनाख्त कर ली गई है, जहाँ वेस्ट वॉटर ट्रीटमेंट और सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट सहित पूरी साफ-सफाई का लक्ष्य हासिल किया जाएगा। यह तो सरकार और कोर्ट के बीच का मामला है, लेकिन असलियत यह है कि नदियों की प्रदूषण-मुक्ति के नाम पर खर्च लगातार बढ़ता जा रहा है, जबकि सरकारी प्रयास अब भी नतीजा लाते नहीं दिख रहे हैं। आखिर क्यों? क्योंकि नदी को धन नहीं, धुन चाहिए, क्योंकि नदी को ढाँचे नहीं, ढाँचों से मुक्ति चाहिये। क्योंकि नदी को शासन नहीं अनुशासन चाहिये। नदी को मलिन करने वालों को रोकने के बजाय निर्मलीकरण के नाम पर कर्ज, खर्च, मशीनें और ढाँचे किसी भी तौर पर प्रदूषण मुक्ति के काम नहीं आते हैं।

ये प्रदूषण मुक्ति की आवाजों को पैसे में बदल लेने के काम हैं, जोकि शासन, प्रशासन और बाजार तीनों ने अच्छी तरह सीख लिये हैं। ऐसे में नदी निर्मल हो तो कैसे? दरअसल कोई नदी एक अलग टुकड़ा नहीं होती। नदी सिर्फ पानी भी नहीं होती। नदी एक समग्र एवं जीवंत प्रणाली होती है। अत: इसकी निर्मलता लौटाने का संकल्प करने वालों की सोच में समग्रता और हृदय में जीवंतता और निर्मलता का होना जरूरी है। नदियों को उनका मूल प्रवाह और गुणवत्ता लौटाना बरस दो बरस का काम नहीं हो सकता, पर संकल्प निर्मल हो, सोच समग्र हो, कार्ययोजना ईमानदार और सुस्पष्ट हो, सातत्य सुनिश्चित हो, तो कई भी पीढ़ी अपने जीवनकाल में किसी एक नदी को मृत्यु शय्या से उठाकर उसके पैरों पर चला सकती है। एक बात और धन की कमी इसमें कभी बाधा नहीं बनती। चाहे किसी मैली नदी को साफ करना हो या सूखी नदी को ‘नीले सोने’ सो भर देना हो सिर्फ धन ये यह संभव नहीं होता । ऐसे प्रयासों को धन से पहले धुन की जरूरत होती है।

भारत में गंगा सफाई परियोजना पर करोड़ों रुपये खर्च हुए और कई बरस लग गए, लेकिन गंगा अभी तक साफ नहीं हुई, बल्कि और मैली होती चली गई। पर्यावरण के जानकार इसके लिये संघर्ष भी कर रहे हैं, मगर अब एक बड़ा वर्ग यह कहने लगा है कि गंगा की सफाई संभव नहीं है, लेकिन ऐसा नहीं है। जर्मनी और चीन इसकी मिसाल हैं कि किस तरह नदी या झील के पानी को साफ किया जा सकता है। जर्मनी, चीन जैसे विशाल देशों में भी नदियां हमसे कहीं ज्यादा आँसू बहाती थीं। हां, यह बात अलग है कि उन देशों में नदियों को उनके हाल पर नहीं छोड़ दिया जाता। करीब 12 साल पहले जर्मनी की एल्बे नदी विश्व की सबसे ज्यादा प्रदूषित नदी थी, लेकिन आज उसकी गिनती विश्व की सबसे साफ नदियों में की जाती है। इसकी वजह यह है कि उस देश की सरकार ने नदियों को देश की धरोहर माना है। इसी तरह टेम्स नदी कभी दुनिया का सबसे व्यस्त जलमार्ग हुआ करता था। लंदन की आबादी बढ़ने के साथ ही टेम्स नदी में भी प्रदूषण बढ़ता गया। वर्ष 1850 तक लंदन की टेम्स नदी का हाल दिल्ली की यमुना नदी से भी बदतर था। गंदगी की वजह से लंदन में हैजा फैल गया। टेम्स नदी की सफाई के लिये हालांकि समय-समय पर लंदन में कई जनअभियान शुरु किये गये।

इस खतरे को देखते हुए 1958 में संसद ने एक मार्डन सीवेज सिस्टम की योजना बनाई, जिसके तहत पूरे लंदन शहर में जमीन के अंदर 134 किमी का एक सीवेज सिस्टम बनाया गया। इसके साथ ही टेम्स नदी के साथ-साथ सड़क बनाई गई, ट्रीटमेंट प्लांट्स लगाए गये। इस सीवेज सिस्टम में टेम्स का पानी ट्रीटमेंट के बाद स्थानीय लोगों के घरों में जाता है और घरों में उपयोग किये गये जल-मल को ट्रीटमेंट के बाद टेम्स में छोड़ा जाता है।

लंदन के इस सीवेज सिस्टम को बने हुए 150 साल पूरे हो चुके हैं। लंदन शहर की जनसंख्या आज कई सौ गुना ज्यादा हो गई है, लेकिन आज भी लंदन का सीवेज सिस्टम दुरुस्त है। योजना का मतलब यही होता है कि उसे भविष्य को समझते हुये बनाया जाए। लेकिन, हमारे यहाँ सब उल्टा हो रहा है। अंग्रेजों का शासन-तंत्र मौजूद है, लेकिन दूरदर्शिता नहीं है। टेम्स नदी को लेकर वहाँ की सरकार भी कितनी ज्यादा गंभीर है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वहाँ 1950 में नया जलशोधन यंत्र लगाया गया और 1960 में नया कानून बनाकर वैसी कंपनियों को बंद कर दिया गया, जो गंदा पानी टेम्स में छोड़ रहे थे।

कह सकते हैं कि जर्मनी और ब्रिटेन ने तो अपनी नदियां बचा लीं, लेकिन दुनिया के कई देशों में, खासकर भारत में नदियां भारी प्रदूषण का शिकार हो रही हैं। ऐसे में अगर सरकार चाहे, तो यूरोपीय तरीके से देश की नदियों की सफाई की जा सकती है। दरअसल, जर्मनी में नदी साफ करने कि लिये योजना बनी है, उसके मुताबिक अलग-अलग ट्रीटमेंट प्लांट बनाकर नदी को साफ किया जा रहा है। अपने देश में भी नदियों की सफाई के लिये सीवेज सिस्टम को दुरुस्त करना होगा, क्योंकि वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट में पानी की सफाई बड़े-छोटे वाले नियम पर चलती है। पहले मेकेनिकल सफाई में बड़े आकार का कचरा अलग किया जाता है और फिर छोटे रेत को अलग किया जाता है, क्योंकि इससे पंप को नुकसान हो सकता है। सेटलिंग टैंक सुनिश्चित करता है कि पानी में घुले पदार्थों के अलावा सिर्फ बैक्टीरिया ही मौजूद हों। इस विधि के जरिये पानी को दो चरणों में साफ किया जाता है। पहले मेकेनिकल प्रक्रिया से और फिर जैविक ढंग से। पहले ठोस गंदगी निकाली जाती है और फिर पानी में घुली-मिली दूसरी चीजों का निकाला जाती है। हालांकि यह पानी को पीने लायक साफ योजना नहीं है, लेकिन इसके जरिये यह कोशिश की जाती है कि इसे दूसरे कामों के लायक जरूर बना दिया जाए। अगर वॉटर ट्रीटमेंट की योजना पर गंभीरता से काम किया जाए, तो केवल एक संयंत्र में हर रोज करीब सात लाख घनमीटर तक पानी साफ किया जा सकता है।

हालांकि यह काम बेहद जटिल है, क्योंकि इसमें पानी की सफाई कई चरणों में होती है। इस सफाई के दौरान पानी एक हौज से दूसरे हौज में जाता है और हर हौज में जाते हुए वह पहले से ज्यादा साफ होता है। खास बात यह है कि पानी साफ करने की इस योजना में पर्यावरण का खास ख्याल रखा जाता है। संयंत्र में पानी की सफाई से निकले कचरे को जमा करके उसे चार बड़े कंटेनरों में जलाया जाता है और उससे हासिल होने वाली ऊर्जा से संयंत्र की करीब 60 फीसदी बिजली खपत भी पूरी की जाती है। जबकि, संयंत्रों से निकलने के बाद साफ पानी आगे जाकर राइन नदी में मिल जाता है।

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