नदियों के मालिक बनते पानी के सौदागर

बाँध
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उत्तराखण्ड की नदियों पर तो निवेशकों की नजर है, लेकिन किसानों को पानी मुहैया कराने और उनकी आजीविका तथा उत्पादों की बिक्री में मदद के लिये कोई निवेशक सामने नहीं आता।

एक तरफ गंगा की निर्मलता के लिये गंगोत्री से गंगा सागर तक 22,000 करोड़ रुपए की 240 से अधिक परियोजनाओं पर काम चल रहा है, दूसरी तरफ उद्गम से ही गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरलता को बाधित करने वाली परियोजनाओं के निर्माण के लिये पानी के मुनाफाखोरों को आमंत्रित किया जा रहा है। आए दिन इसकी सहमति की फाइलों पर हस्ताक्षर हो रहे है। इसके दर्जनों उदाहरण हैं, लेकिन हाल ही में यमुना नदी के उद्गम के निकट प्रस्तावित लखवाड़ बहुउद्देश्यीय परियोजना पर हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और उत्तर प्रदेश ने अपना अधिकार जमा दिया है। 28 अगस्त, 2018 को इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री नितिन गडकरी और उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री की बैठक हुई, जिसमें दिल्ली और आस-पास के राज्यों की प्यास बुझाने के लिये यमुना के पानी को बाँटने पर सहमति बनी है। इसके अनुसार 3,38,780 हेक्टेयर क्षेत्रफल की सिंचाई तथा घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिये 78 एमसीएम पानी उपलब्ध किया जाना है।

इस परियोजना से पैदा होने वाली लगभग 572 मिलियन यूनिट बिजली उत्तराखण्ड को मिलेगी। इस परियोजना की कुल लागत करीब चार हजार करोड़ है, जिस पर 90 प्रतिशत केन्द्र सरकार और शेष 10 प्रतिशत लाभान्वित राज्य खर्च करेंगे। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए किसाऊ व रेणुका बहुउद्देश्यीय नदी परियोजनाओं पर सहमति बनाई जा रही है। इसी तरह लगभग चार दर्जन नदी परियोजनाओं पर भीषण आपदाओं के बाद भी नदियों के मूल सवालों को नजरअन्दाज कर सहमति के रास्ते ढूँढे जा रहे हैं।

यमुना का पानी उद्गम से ही कम हो रहा है। बिजली उत्पादन और जल बँटवारे के लिये जो आँकड़े सामने आ रहे हैं, वे वर्तमान जलवायु परिवर्तन के चलते और निरन्तर घट रही जल-राशि के अनुसार विश्वास करने योग्य नहीं है। बन्दरपूँछ ग्लेशियर से आ रही यमुना और टौंस का संगम उत्तराखण्ड के विकास नगर के पास है, जिसके सम्पूर्ण जल ग्रहण क्षेत्र में वनों का अन्धाधुन्ध विनाश देखा जा सकता है।

यहाँ कई ऐसे निर्जन स्थान हैं, जहाँ से वनों के अवैध दोहन की सूचना आसानी से नहीं मिल सकती। लेकिन लकड़ी के दर्जनों ट्रक सड़कों पर चलते रहते हैं। बन्दरपूँछ ग्लेशियर अन्य ग्लेशियरों की तुलना में अधिक सिकुड़ता जा रहा है। कालिंदी पर्वत से हो रहे भू-स्खलन से यमुना का मन्दिर खतरे में है। इसके पास ही बहुचर्चित औजरी भू-स्खलन रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है। यहाँ के वन और ग्लेशियर के बिगड़ते हालात के कारण यमुना का बहुत कम बचा हुआ पानी गन्दे नालों से प्रदूषित हो रहा है।

इस क्षेत्र के गाँव के लोगों की सब्जी की बिक्री दिल्ली के बाजारों तक में होती है। इसके अलावा पर्यटन, खेती और पशु पालन ही यहाँ का मुख्य व्यवसाय है। यमुना और टौंस नदी के आर-पार बसी हुई आबादी के सामने पानी की कमी एक बड़ा संकट है। यहाँ के गाँव के बगल से बह रही यमुना की संकरी धारा से भले ही यहाँ के लोगों की प्यास न बुझे, पर जो कुछ यमुना में जलराशि दिख रही है, वह मैदानी क्षेत्रों की प्यास अवश्य बुझाए, यह अन्याय पहाड़ के लोग वर्षों से सहन करते आ रहे हैं।

इसी महीने देहरादून में हुई इन्वेस्टर्स समिट में ऊर्जा के क्षेत्र में लगभग 32,000 करोड़ रुपए के निवेश की सम्भावनाएँ देखी गई हैं। इस राशि का इस्तेमाल अधिकतर नदियों के बहाव रोकने पर ही खर्च किया जाना है, जबकि ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों को विकसित करने का काम आगे बढ़ना चाहिए था। यह इसलिये जरूरी है कि दुनिया में तापमान वृद्धि को नियंत्रित करने के लिये प्रत्येक राज्य को अपने पानी, पेड़ और मिट्टी के संरक्षण के उपाय समाज के साथ मिलकर ढूँढने चाहिए थे। काबिले गौर है कि किसानों को पानी मुहैया कराने के साथ आजीविका और उनके उत्पादों की ब्रिकी में मदद करने के लिये निवेशक इसलिये आगे नहीं आते कि उसमें उन्हें मुनाफा नहीं दिखाई देता।

इतिहास पर गौर करें, तो स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद को, जिन्होंने गंगा के लिये अनशन कर पिछले दिनों अपने प्राण दे दिए, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत जी ने भी केन्द्र में भाजपा की सरकार आने पर गंगा के मूल सवालों पर गौर करने का आश्वासन दिया था। वर्ष 2008 के ‘गंगा बचाओ आन्दोलन’ के कारण उद्गम में तीन बड़ी जल-विद्युत परियोजनाओं को रोकने का काम भी शीर्ष भाजपा नेताओं के सहयोग से ही सम्भव हो सका था।

अब उन्हीं की सरकार है। गंगा की सफाई पर जितना खर्च किया जा रहा है, उससे तीन गुना गंगा की अविरलता को बाधित करने के लिये अकेले उत्तराखण्ड की ही नजर निवेशकों की तरफ झुकी हुई है। किसी भी क्षेत्र में जल ऊर्जा का शोषण करने से पहले यह सुनने व पढ़ने को नहीं मिलता कि वन संरक्षण, भू-स्खलन रोकने और खेती-किसानी व विस्थापन के सवालों को टटोला जाता हो और कोई जन प्रतिनिधि प्रभावित क्षेत्र में जाकर लोगों की सुध ले रहा हो। ये जिम्मेदारी अब पानी के सौदागरों की है, जिनके पास चन्द दिनों का रोजगार होता है। बदले में वे प्रभावित क्षेत्र की प्राकृतिक सम्पत्ति के मालिक बन जाते हैं। नदी इसी तरह हर रोज निगाहों से ओझल हो जाती है और लोगों को नदी का किनारा छोड़ने के लिये विवश होना पड़ता है।

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