नदी का शुद्धीकरण अपने आप में एक जटिल प्रक्रिया है। भारतीय परम्परा में तो नदियों को माता तुल्य आदर देकर स्वच्छ रखने के प्रयास हुए। ये प्रयास एक लम्बे समय तक सफल भी हुए। जब तक हमारी सभ्यता औद्योगिक रासायनिक तरल व ठोस कचरे और शहरी मलजल को वर्तमान तरीके से निपटाने वाली व्यवस्था से मुक्त थी, हमारी नदियाँ शुद्ध थीं।
नदियों के प्रति आदर भाव के चलते उत्पन्न सावधानी से ही काम चल जाता था। हालांकि वह आदर भाव किसी भावुक सनक से पैदा नहीं हुआ था, बल्कि जल की, प्राणी जगत के लिये महत्ता की गहरी समझ का परिणाम था। लोगों को अपनी ही भलाई के कर्तव्यों के प्रति सजग करने का यह एक मनोवैज्ञानिक तरीका था। वह आदर भाव तो आज भी है, किन्तु शहरीकरण, औद्योगीकरण और उसके चलते अपार मात्रा में कचरा पैदा करने की प्रक्रियाओं ने, पुरानी व्यवस्थाओं को नाकाफी और अव्यावहारिक बना दिया है।
नदी अपने-अपने क्षेत्र की सबसे नीची सतह से बहती है। इसलिये नदी के बाहर फेंका गया कचरा भी अन्ततः नदी में ही जा पहुँचता है। इसलिये नदियों की पूरे देश में दुर्दशा हो रही है। बढ़ती पानी की माँग के चलते नदियों को बाँधकर उनकी धारा को मोड़ने से उनकी कचरा बहाकर ले जाने की क्षमता भी कम हो रही है। यह कचरा समुद्र में पहुँच कर समुद्र को भी प्रदूषित ही करेगा। केन्द्रीकृत उत्पादन ने पैकिंग की जरूरत बढ़ा दी है।
उत्पादन के दौरान पैदा होने वाले प्रदूषण कारक कचरे के अलावा पैकिंग के कारण प्लास्टिक और दूसरे कचरे के अम्बार लग रहे हैं। उत्पादन के विकेन्द्रीकरण से पैकिंग की जरूरत को कम किया जा सकता है और रोजगार के अवसर भी बढ़ाए जा सकते हैं। शेष तमाम कचरे और मलजल एवं रसायनों को पूरी तरह वैज्ञानिक आधार पर संशोधित करके निपटाने की व्यवस्था खड़ी करनी चाहिए।
तभी हमारी नदियाँ बच सकती हैं। कुछ घाट बना देने या फूल लगा देने से नदियाँ शुद्ध नहीं हो सकती। इसलिये असली कामों पर ध्यान दे कर दिखावटी कामों से बचना चाहिए। तभी गंगा शुद्धीकरण और उसी समझ से सभी नदियों के शुद्धीकरण का लक्ष्य हम प्राप्त कर सकते हैं।
हिण्डन नदी के बहाने हम नदियों की बिगड़ती हालत से त्रस्त लोगों की कठिनाइयों का अन्दाजा और स्थिति की गम्भीरता को समझने का प्रयास कर सकते हैं।
हिंडन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहने वाली महत्त्वपूर्ण नदी है। यह उत्तर प्रदेश के जिला सहारनपुर के उपरी शिवालिक क्षेत्र से निकलती है और सहारनपुर, मुज्जफरनगर, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, जिलों से गुजरती हुई, दिल्ली के नीचे यमुना नदी में मिल जाती है।
हिण्डन की लम्बाई लगभग 400 किलोमीटर है। इसका जलागम क्षेत्र 7083 वर्ग किलोमीटर है। यह गंगा और यमुना के बीच के क्षेत्र में बहती है और यमुना में मिलकर गंगा के जल को प्रभावित करती है। हिण्डन की सहायक नदी काली नदी (पश्चिमी), जिला मुज्जफरनगर के गाँव अन्तवाड़ से निकलती है। अपने 300 किलो मीटर के सफर में यह मेरठ, अलीगढ़, बुलन्दशहर, गाजियाबाद, आदि शहरों से होती हुई हिण्डन नदी में मिल जाती है। इस तरह हिण्डन नदी एक बड़े जलागम क्षेत्र और घनी आबादी वाले औद्योगिक नगरों को जल निकास व्यवस्था प्रदान करती है।
सिन्धु घाटी सभ्यता से जुड़ा स्थल आलमगीरपुर दिल्ली से 25-30 किलोमीटर की दूरी पर हिण्डन के किनारे ही स्थित है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भी यह नदी सघर्षों की गवाह रही, ‘बदली की सराय’ का युद्ध इसमें मुख्य है। पिछले कुछ वर्षों से बढ़ते प्रदूषण के चलते हिण्डन नदी चर्चा में आने लगी है। गंगा शुद्धिकरण के लिये चलाये जा रहे गंगा एक्शन प्लान या वर्तमान नमामि गंगे कार्यक्रम की सफलता में भी हिण्डन शुद्धिकरण की विशेष भूमिका होना स्वाभाविक ही है। इतने बड़े पश्चिमी उत्तर प्रदेश क्षेत्र के लिये यह सिंचाई और पेय जल का भी आधार है। इस क्षेत्र के भूजल भरण में भी हिण्डन की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
हिण्डन नदी के बहाने हम स्थिति की गम्भीरता को समझ सकते हैं। गाजियाबाद के ऊपरी क्षेत्रों में लगे स्टोन क्रशरों (वैध-अवैध) के चलते हिण्डन का पानी लाल हो गया है। क्रशरों में रेत धोने के बाद पानी सीधा नदी में डाल दिया जाता है। हिण्डन और इसकी सहायक नदी, काली (पश्चिमी) के जलागम में बसे सहारनपुर, मेरठ, मुज्जफरनगर, बागपत, गाजियाबाद, नोएडा, आदि में नदी किनारे पेपर मिलें, शूगरमिलें, बूचड़ खाने, अल्कोहल बनाने की इकाइयाँ, एवं रासायनिक उद्योग स्थापित हैं।
उन सबका कचरा और शहरी मलजल ज्यादातर असंशोधित या अर्द्ध संशोधित रूप में नदी में ही जाता है। जिसके कारण नदी का जल मानव प्रयोग या पशुओं को पिलाने योग्य भी नहीं बचा है। प्रदूषित जल के भूजल के साथ मिल जाने से कई जगहों पर भूजल भी पीने योग्य नहीं है। जेएनयू के पर्यावरण विभाग के एक अध्ययन से पता चला है कि पसौन्दा, जलालपुर, भिखांपुर आदि गाँवों में भूजल भी पीने योग्य नहीं रहा है। महिलाएँ 2-3 किलोमीटर से पानी लाती हैं।
नदी में ऑक्सीजन की मात्रा इतनी कम हो गई है कि नदी में मछलियाँ नहीं बची हैं। काली नदी में लेड, केडमियम, क्रोमियम की मात्रा सुरक्षित स्तर से सैंकड़ों गुना ज्यादा पाई गई है। कीटनाशकों की भी भारी मात्रा पाई गई है। कई तरह के जैविक प्रदूषक भी पानी में विद्यमान हैं। नदी किनारे के कई गाँवों के लोग इस प्रदूषित जल का प्रयोग करने के लिये मजबूर हैं। परिणामस्वरूप कैंसर, पेट की बीमारियाँ, त्वचा रोग, स्नायु तंत्र सम्बन्धी रोग बढ़ रहे हैं। बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिये यह स्थिति विशेष रूप से घातक है। लोगों, प्रशासन, और राजनीतिज्ञों की संयुक्त इच्छाशक्ति से ही इस समस्या पर पार पाया जा सकता है। निहित स्वार्थ तो आखें बन्द करके समय काटने के आदी हो जाते हैं। उन्हें रास्ते पर लाना एक बड़ी चुनौती है।
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