आदिकाल से नदियाँ स्वच्छ जल का अमूल्य स्रोत रही हैं। उनके जल का उपयोग पेयजल आपूर्ति, निस्तार, आजीविका तथा खेती इत्यादि के लिये किया जाता रहा है। पिछले कुछ सालों से देश की अधिकांश नदियों के गैर-मानसूनी प्रवाह में कमी हो रही है, छोटी नदियाँ तेजी से सूख रही हैं और लगभग सभी नदी-तंत्रों में प्रदूषण बढ़ रहा है। यह स्थिति हिमालयीन नदियों में कम तथा भारतीय प्रायद्वीप की नदियों में अधिक गम्भीर है। यह परिवर्तन प्राकृतिक नहीं है।
नदी विज्ञानियों के अनुसार नदी, प्राकृतिक जलचक्र का अभिन्न अंग है। प्राकृतिक जलचक्र के अन्तर्गत, नदी अपने जलग्रहण क्षेत्र पर बरसे पानी को समुद्र अथवा झील में जमा करती है। वह कछार का परिमार्जन कर, भूआकृतियों का निर्माण करती है। वह जैविक विविधता से परिपूर्ण होती है। वह प्रकृति द्वारा नियंत्रित व्यवस्था की मदद से वर्षाजल, सतही जल तथा भूजल के घटकों के बीच सन्तुलन रख, अनेक सामाजिक तथा आर्थिक कर्तव्यों का पालन करती है।
वैज्ञानिकों के अनुसार नदी में प्राकृतिक भूमिका के निर्वाह तथा निर्भर समाज, जलचरों एवं वनस्पतियों के इष्टतम विकास हेतु हर हाल में न्यूनतम जल उपलब्ध होना चाहिए। यदि किसी नदी में पर्यावरणीय प्रवाह मौजूद है तो माना जा सकता है कि वह अपने दायित्व पूरा करने में सक्षम है।
मौसमी घटकों के सक्रिय रहने के कारण, नदी-घाटी में भौतिक तथा रासायनिक अपक्षय होता है। तापमान की दैनिक एवं मौसमी घट-बढ़ के कारण चट्टानों में भौतिक परिवर्तन होते हैं और वे विखंडित होती हैं।
कार्बन डाइऑक्साइड युक्त वर्षाजल, चट्टानों के घटकों से रासायनिक क्रिया करता है। कतिपय घटक या सम्पूर्ण खनिज, रासायनिक संघटन में परिवर्तन के कारण घुलित अवस्था में मूल स्थान से विस्थापित होता है। यह सतत चलने वाली प्रक्रिया है।
नदी तंत्र अपना पहला प्राकृतिक दायित्व, वर्षा ऋतु में सम्पन्न करता है। अपने कछार में मिट्टियों, उप-मिट्टियों, कार्बनिक पदार्थों तथा घुलनशील रसायनों इत्यादि को विस्थापित कर परिवहित करता है। मुक्त हुए घटक, गन्तव्य (समुद्र) की ओर अग्रसर होते हुए, हर साल, विभिन्न मात्रा तथा दूरी तक विस्थापित होते हैं। वर्षा ऋतु में सम्पन्न इस दायित्व के निर्वाह के परिणामस्वरूप नदी घाटी में भूआकृतिक परिमार्जन होता है।
वर्षा उपरान्त, नदी तंत्र अपना दूसरा प्राकृतिक दायित्व सतही तथा अधःस्थली (Base flow) जलप्रवाह द्वारा, निम्नानुसार सम्पन्न करता है-
1. सतही जल प्रवाह-
यह नदी तल के ऊपर प्रवाहित मुक्त जल प्रवाह है। इसकी गति नदी तल के ढाल जो नदी अपरदन के आधार तल (Base level of erosion) से नियंत्रित होता है, द्वारा निर्धारित होती है। मानसून उपरान्त नदी में प्रवाहित जल का मुख्य स्रोत, कछार के भूजल भंडार हैं। इस स्रोत से जलापूर्ति, वाटर टेबिल के नदी तल के ऊपर रहते तक ही सम्भव होती है। कुछ मात्रा में पानी की पूर्ति अधःस्थल से तथा शीतकालीन वर्षा से भी होती है। सतही जल प्रवाह का अस्तित्व नदी के समुद्र में मिलने तक ही रहता है। इसकी मात्रा प्रारम्भ में कम तथा बाद में क्रमशः बढ़ती जाती है।
2. अधःस्थल जल प्रवाह-
नदी तल के नीचे प्रवाहित जल प्रवाह को अधःस्थल जल प्रवाह कहते हैं। इस जल प्रवाह की गति का निर्धारण स्थानीय ढाल एवं नदी-तल के नीचे मौजूद भौमिकी संस्तर की पारगम्यता तय करती है। भौमिकी संस्तर की पारगम्यता और ढाल के कारण विकसित दाब के परिणामी प्रभाव से नदी को अधःस्थल जल प्राप्त होता है। नदी के अधिक ढाल वाले प्रारम्भिक क्षेत्रों में जहाँ अधःस्थल जल का दाब अधिक तथा पारगम्य संस्तर पाया जाता है, नदी को अधःस्थल जल की अधिकांश मात्रा प्राप्त होती है। नदी के प्रारम्भिक चरण में यह मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है। जैसे-जैसे नदी डेल्टा की ओर बढ़ती है, नदी ढ़ाल, क्रमशः घटता है तथा नदी तल के नीचे मिलने वाले कणों की साइज कम होती जाती है। छोटे होते हुए कणों की परत की पारगम्यता समानुपातिक रूप से घटती है। ढाल के क्रमशः कम होने के कारण दाब भी समानुपातिक रूप से घटता है। इनके संयुक्त प्रभाव और समुद्र के अधिक घनत्व वाले खारे पानी के कारण डेल्टा क्षेत्र में अधःस्थल जल प्रवाह, समुद्र के स्थान पर नदी में उत्सर्जित होता है।
नदी तंत्र अपना दूसरा प्राकृतिक दायित्व, वर्षा ऋतु के बाद सूखे मौसम में सम्पन्न करता है। वह, नदी तल में बरसात के मौसम के बाद बचे मिट्टी के अत्यन्त छोटे कणों तथा घुलित रसायनों को गन्तव्य की ओर ले जाता है। यह काम सतही तथा अधःस्थल जल प्रवाह द्वारा सम्पन्न किया जाता है। इसके कारण विशाल मात्रा में सिल्ट तथा घुलित रसायनों का परिवहन होता है। इसी कारण नदी तंत्र के प्रारम्भिक चरण (अधिक ढाल वाले हिस्से) में बहुत कम मात्रा में सिल्ट पाई जाती है।
नदी द्वारा उपरोक्त प्राकृतिक दायित्वों का निर्वाह बरसात में सर्वाधिक तथा बरसात बाद जलप्रवाहों की घटती मात्रा के अनुपात में किया जाता है। नदी तंत्र का उपर्युक्त उल्लेखित प्राकृतिक दायित्व, बिना सतत जल प्रवाहों के सम्पन्न नहीं होता अर्थात प्राकृतिक दायित्वों को पूरा करने के लिये प्रत्येक नदी का बारहमासी होना आवश्यक है।
मानवीय हस्तक्षेप
अ. नदी कछारों के मुख्य मानवीय हस्तक्षेप निम्नानुसार हैं-
1. नदी के जल ग्रहण क्षेत्र में भूमि उपयोग में परिवर्तन
2. नदी मार्ग में बाँधों का निर्माण
3. नदी मार्ग में रेत का खनन
4. नदी घाटी में बढ़ता भूजल दोहन
उपर्युक्त मानवीय हस्तक्षेपों के प्रमुख तात्कालिक परिणाम निम्नानुसार हैं-
नदी के जल ग्रहण क्षेत्र में भूमि उपयोग में परिवर्तन का परिणाम
खेती, अधोसंरचना विकास, उद्योग, सड़क यातायात, आवासीय आवश्यकता इत्यादि के बढ़ने के कारण नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में मौजूद जंगल कम हो रहे हैं तथा वानस्पतिक आच्छादन घट रहा है। अतिवृष्टि तथा वानस्पतिक आच्छादन घटने के कारण भूमि कटाव बढ़ रहा है। भूमि कटाव बढ़ने के कारण नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में मौजूद मिट्टी की परत की मोटाई घट रही है। मोटाई घटने के कारण उनमें बहुत कम मात्रा में भूजल संचय हो रहा है। भूजल संचय के घटने के कारण नदियों में गैर-मानसूनी जल प्रवाह घट रहा है। जल प्रवाह के घटने के कारण नदी तंत्र की प्राकृतिक भूमिका घट रही है। गैर-मानसूनी दायित्व पूरे नहीं हो रहे हैं। मानवीय गतिविधियों के कारण हो रहे जलवायु बदलाव और जल ग्रहण क्षेत्र में बदलते भूमि उपयोग के कारण नदी तंत्र का सम्पूर्ण जागृत इको-सिस्टम प्रतिकूल ढंग से प्रभावित हो रहा है। यह मानवीय हस्तक्षेप का परिणाम है।
नदी मार्ग में बाँधों के निर्माण का परिणाम
बाँधों का निर्माण नदी मार्ग पर किया जाता है। जिसके कारण नदी का प्राकृतिक सतही तथा अधःस्थली जलप्रवाह खंडित होता है। नदी के प्राकृतिक प्रवाहों के खंडित होने के कारण, जलग्रहण क्षेत्र से परिवहित अपक्षीण पदार्थ तथा पानी में घुले रसायन बाँध में जमा होने लगते हैं। परिणामस्वरूप बाँध के पानी के प्रदूषित होने तथा जलीय जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों पर पर्यावरणीय खतरों की सम्भावना बढ़ जाती है। प्राकृतिक जलचक्र तथा नदी के कछार में प्राकृतिक भूआकृतियों के विकास में व्यवधान आता है। नदी अपनी प्राकृतिक भूमिका का, सही तरीके से निर्वाह नहीं कर पाती। यह मानवीय हस्तक्षेप का परिणाम है।
बाढ़ के गाद युक्त पानी के साथ बहकर आने वाले कार्बनिक पदार्थों और बाँध के पानी में पनपने वाली वनस्पतियों के आक्सीजनविहीन वातावरण में सड़ने के कारण मीथेन गैस बनती है। यह गैस जलाशय की सतह, स्पिल-वे, हाइड्रल बाँधों के टरबाईन और डाउन-स्ट्रीम पर उत्सर्जित होती है। यह गैस जलवायु बदलाव के लिये जिम्मेदार है। यह मानवीय हस्तक्षेप का परिणाम है।
नदी मार्ग में रेत का खनन का परिणाम
प्रत्येक नदी, अपनी यात्रा के विभिन्न चरणों में प्राकृतिक घटकों के सक्रिय सहयोग से अनेक गतिविधियों को पूरा करती है। इन गतिविधियों के अन्तर्गत वह अधःस्थल जल के प्रवाह की निरन्तरता एवं नियमन के लिये अपक्षीण पदार्थों, रेत-बजरी तथा मिट्टी के संयोजन से परत का निर्माण करती है। अधःस्थल जल, जब संयोजित कणों वाली परत से प्रवाहित होता है तो वह परत के पारगम्यता गुणों का समानुपाती तथा कार्यरत दाब द्वारा नियंत्रित होता है।
निर्माण कार्यों में रेत का उपयोग अपरिहार्य है। नदी मार्ग में जगह-जगह विभिन्न गहराई तक खुदाई कर रेत निकाली जाती है। रेत निकालने के कारण गहरे गड्ढे बन जाते हैं। हर साल, बाढ़ का रेत, बजरी और सिल्ट युक्त पानी गड्ढों को पूरी तरह या आंशिक रूप से भर देता है। गड्ढों में जमा सिल्ट, रेत और बजरी के कणों की साइज और खनित रेत के कणों की साइज और उनकी जमावट में अन्तर होता है। यह अन्तर पुनःभरित स्थानों पर अधःस्थलीय परत के भूजलीय गुण बदल देता है। इस कारण, अधःस्थल जल के प्रवाह का नियमन करने वाली परत की निरन्तरता नष्ट होती है। निरन्तरता नष्ट होने के कारण अधःस्थल जल के प्रवाह का नियमन करने वाली परत की प्राकृतिक भूमिका भंग हो जाती है।
नदी मार्ग के गहरे गड्ढों में भरी नई मिट्टी तथा रेत, अधःस्थली परत के जल प्रवाह को जगह-जगह अवरुद्ध करती है। परिणामस्वरूप इन स्थानों पर अधःस्थल जल का कुछ भाग उत्सर्जित हो जाता है। परिणामस्वरूप, नदी मार्ग के अगले हिस्से को मिलने वाले जल की मात्रा घटती है। यह स्थिति बरसात के तत्काल बाद, एक ओर तो सम्पूर्ण खनन स्थलों पर अधःस्थली जल प्रवाह में व्यवधान उत्पन्न कर, सतही जल प्रवाह की मात्रा बढ़ाती है तो दूसरी ओर, नदी के अगले हिस्सों को मिलने वाले अधःस्थली जल की मात्रा को घटाती है। अधःस्थली जल के योगदान के घटने के कारण सतही जल प्रवाह कम होने लगता है तथा नदी के सूखने की स्थितियाँ पनपने लगती हैं।
नदी घाटी में बढ़ता भूजल दोहन का परिणाम
वर्षाजल का कुछ हिस्सा जमीन में रिसकर एक्वीफरों में संचित होता है। प्रत्येक नदी में बरसात में बहने वाला पानी मुख्यतः वर्षाजल तथा बरसात के बाद बहने वाला पानी भूजल होता है। वर्षाजल के धरती में रिसने से भूजल स्तर में उन्नयन होता है तथा उत्सर्जन के कारण गिरावट आती है।
पिछले कुछ दशकों में भूजल का दोहन तेजी से बढ़ा है। भूजल दोहन के बढ़ने के कारण भूजल स्तर की प्राकृतिक गिरावट में दोहन के कारण होने वाली गिरावट जुड़ गई है। इस दोनों के मिले-जुले असर से जैसे ही भूजल स्तर नदी तल के नीचे उतरता है नदी का प्रवाह समाप्त हो जाता है और वह असमय सूख जाती है। सहायक नदियों की छोटी इकाइयों के गैर-मानसूनी जल प्रवाह और उसी अवधि में भूजल दोहन एवं भूजल स्तर की औसत गिरावट के सह-सम्बन्ध को स्पष्ट करने वाली जानकारी का अभाव है।
ब. मानवीय हस्तक्षेप और जलवायु बदलाव
मानवीय हस्तक्षेपों के कारण ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। इसके कारण मौसम तथा तापमान में अप्रत्याशित बदलाव हो रहा है। अतिवृष्टि और अल्पवृष्टि की स्थितियाँ बन रही हैं। अतिवृष्टि के कारण नदियों में अचानक बाढ़ आने और बाँधों के फूटने के खतरे बढ़ रहे हैं। अल्पवर्षा के कारण नदियों में जल प्रवाह घट रहा है। जल प्रवाह घटने के कारण नदियों के सूखने की घटनाएँ बढ़ रही हैं। वनों के कम होने तथा मिट्टी के बढ़ते कटाव के कारण नदियों का गैर-मानसूनी जल प्रवाह कम हो रहा है। नदी जल में प्रदूषण बढ़ रहा है।
अतः आवश्यकता मानवीय हस्तक्षेपों तथा जलवायु के असर को कम करने की है। इसमें की गई देरी या इसकी अनदेखी समाज को महंगी पड़ेगी।
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