प्रकृति द्वारा विकसित एवं लगातार परिमार्जित मार्ग पर बहते पानी की अविरल धारा ही नदी है। बरसात उसे जन्म देती है। वह सामान्यतः ग्लेशियर, पहाड़ अथवा झरने से निकलकर सागर अथवा झील में समा जाती है। इस यात्रा में उसे अनेक सहायक नदियाँ मिलती हैं। नदी और उसकी सहायक नदियाँ मिलकर नदी तंत्र बनाती है। जिस इलाके का सारा पानी नदी तंत्र को मिलता है, वह इलाका जल निकास घाटी (वाटरशेड) कहलाता है। नदी, जल निकास घाटी पर बरसे पानी को इकट्ठा करती है। उसे प्रवाह में शामिल कर आगे बढ़ती है। वही उसके पानी की समृद्धि का आधार होता है।
नदी को अपनी यात्रा में बाढ़ के पानी के अलावा भूजल से सम्बन्धित दो प्रकार की परिस्थितियाँ मिलती हैं। पहली परिस्थिति जिसमें भूजल भण्डारों का पानी बाहर आकर नदी को मिलता है। दूसरी परिस्थिति जिसमें नदी में बहते प्रवाह का पूरा या कुछ हिस्सा, रिसकर भूजल भण्डारों को मिलता है। नदी, दोनों ही स्थितियों (Effluent– Gaining stage or influent– losing stage) का सामना करते हुए आगे बढ़ती है।
नदी का प्रवाह मिट्टी के कटाव व चट्टानों के नष्ट होने से प्राप्त मलबे तथा वनस्पतियों के अवशिष्टों को बहाकर आगे ले जाता है। उसका एक भाग सतही रन-आफ और दूसरा भाग भूजल प्रवाह कहलाता है। प्रवाह के इस विभाजन को प्रकृति नियंत्रित करती है। बरसात में सतही रन-आफ और बाकी दिनों में धरती की कोख से रिसा भूजल ही नदी में बहता है। अनुमान है कि नदी तल के ऊपर बहने वाले रन-आफ और नदी तल के नीचे बहने वाले भूजल का अनुपात 38:01 है।
उल्लेखनीय है कि भूजल प्रवाह, गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव से, लगातार निचले इलाको की ओर बहता है। उसकी इस यात्रा में कुछ पानी नदी के प्रवाह के रूप में सतह पर तथा बाकी हिस्सा नदी तल के नीचे-नीचे चलकर समुद्र में समा जाता है। नदी के सूखने के बावजूद नदी तल के नीचे पानी का प्रवाह बना रहता है। दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि नदी को भूजल का अधिकतम योगदान उथले एक्वीफरों से ही मिलता है।
नदी तंत्र में प्रवाहित बाढ़ के पानी के साथ मलबा (मिट्टी, सिल्ट, उपजाऊ तत्व इत्यादि) बहता है। उसका कुछ हिस्सा बाढ़-क्षेत्र (Floodplain) में और बाकी हिस्सा पानी के साथ आगे बढ़ जाता है और समुद्र के निकट पहुँचकर डेल्टा का निर्माण करता है। नदी तंत्र में प्रवाहित पानी का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा मलबे (ठोस) का और बाकी 30 प्रतिशत हिस्सा घुलित रसायनों का होता है। नदी तंत्र में प्रवाहित पानी का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा मुख्यतः बोल्डरों, बजरी, रेत और सिल्ट होता है। नदी मार्ग में उनका जमाव धरती का ढाल, प्रवाह की गति, जल की परिवहन क्षमता से नियंत्रित होता है। बोल्डर, बजरी जैसे बड़े कण नदी के प्रारम्भिक भाग में तथा छोटे कण अन्तिम भाग में मिलते हैं।
नदी अपने जलग्रहण क्षेत्र पर बरसे पानी को बड़ी नदी, झील अथवा समुद्र में जमा करती है पर कभी-कभी उसके मार्ग में मरुस्थल आ जाता है। उसके आने के कारण नदी का पानी रेत में रिसने लगता है। वाष्पीकरण भी बढ़ जाता है। नदी पर सूखने का खतरा बढ़ने लगता है। यदि पानी की आपूर्ति बनी रहती है तो वह मरुस्थल की रिसाव बाधा को पार कर लेती है। यदि पार नहीं कर पाती तो मरुस्थल में गुम हो जाती है।
नदी अपने जीवन काल में युवा अवस्था (Youth stage), प्रौढ़ अवस्था (Mature stage) तथा वृद्धावस्था (Old stage) से गुजरती है। इन अवस्थाओं का सम्बन्ध उसके कछार के ढाल से होता है। अपनी युवावस्था तथा प्रौढ़ावस्था में नदी अपने कछार में भूआकृतियों (Land forms) का निर्माण करती है। उनका परिमार्जन (Modify) करती है। अपनी प्राकृतिक भूमिका का निर्वाह करती है। वह जैविक विविधता से परिपूर्ण होती है। उसका अपना पारिस्थितिक तंत्र होता है जो स्थिर पानी (Lake and reservoir) के पारिस्थितिक तंत्र से पूरी तरह भिन्न होता है। वह प्राकृतिक एवं प्रकृति नियंत्रित व्यवस्था है जो वर्षाजल, सतही जल तथा भूजल को सन्तुलित रख, अनेक सामाजिक तथा आर्थिक कर्तव्यों का पालन करती है। वह जागृत इको-सिस्टम है। नदी पर निर्भर समाज के लिये वह आजीविका का आधार है। कुदरती तौर नदी का प्रवाह अविरल होता है। सूखे दिनों में उसका प्रवाह धीरे-धीरे कम होता है। नदी में रहने वाले जीव-जन्तु और वनस्पतियाँ उस बदलाव से परिचित होते हैं। इसलिये कुछ उस बदलाव के अनुसार अपने को ढाल लेते हैं तो कुछ अन्य इलाकों में पलायन कर जाते हैं।
वृद्धावस्था में नदी का कछार लगभग समतल हो जाता है। पानी फैलकर बहता है। तटों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। उस स्थिति में नदी की पहचान खत्म हो जाती है। वह विलुप्त हो जाती है पर उसके कछार पर पानी बरसना समाप्त नहीं होता।
हर स्वस्थ नदी अविरल होती है। प्रदूषण मुक्त रहती है। अविरलता उसकी पहचान है। स्वस्थ नदी के निम्न मुख्य संकेतक हैं-
1. सुरक्षित कैचमेंट (Secure catchment)
2. पर्याप्त बहाव (Adequate flow )
3. स्वच्छ पानी (Clean water)
4. अक्षत चरित्र (Intact characters)
उपरोक्त विवरणों से स्पष्ट है कि नदी मात्र बहता पानी नहीं है। वह जटिल प्रणाली है। उस जटिल प्रणाली में जल धारा के अलावा और नदी के अन्य अन्तरंग घटक यथा नदी तल (River Bed), नदी तट (River Bank), बाढ़ क्षेत्र (Flood plain), राईपेरियन जोन (Riparian zone) और कछार / बेसिन (Basin) इत्यादि होते हैं। इन घटकों को नदी से पृथक कर नहीं देखा जा सकता। वे सभी घटक नदी परिवार के सदस्य हैं। उनका संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है-
नदी तल (River Bed)
नदी तल की सतह ढालू होती है। उसका ढाल प्रवाह की दिशा में होता है। उसकी सतह पर कैचमेंट से बहाकर लाये कण, कुदरती ढंग से जमा होते हैं। इन कणों का जमाव बेहद व्यवस्थित और निश्चित क्रम (बड़े से छोटे) में होता है। इन कणों के नीचे की सतह चट्टानी, कच्चे पत्थर या बालू/मिट्टी की होती है। नदी का तल हमेशा नदी की भौतिक सीमाओं के अन्दर स्थित होता है। उसका निर्माण और परिमार्जन, बहता पानी करता है। यह लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। स्वस्थ नदी में तल के ऊपर से पानी बहता है। यदि वाटर टेबिल नदी के तल के नीचे उतर जाये तो तल पानी सोखने लगता है। नदी का प्रवाह कम होने लगता है। उस पर सूखने का खतरा मँडराने लगता है। उल्लेखनीय है कि सूखे दिनों में पानी सामान्यतः नदी तल के आंशिक हिस्से से ही बहता है। बरसात में जब रन-आफ की मात्रा बढ़ जाती है तो सबसे पहले नदी तल की रेत पानी सोखती है। संतृप्त होती उसके बाद ही पानी, नदी तल के पूरे हिस्से से या उसकी सीमाओं (नदी तट) को लाँघ कर बहता है। उल्लेखनीय है कि प्रकृति में कहीं-कहीं परित्यक्त नदी तल भी मिलते हैं।
नदी तट (River bank)
सामान्य आदमी के लिये नदी तट का अर्थ नदी तल की दाहिनी और बाँयी सीमा है। वे सामान्यतः ढालू होते हैं। उनका ढाल असमान होता है। उनकी सतह ऊबड़-खाबड़ होती है। वे नदी के तल की सीमा को निर्धारित करते हैं। नदी की बाढ़, हर साल मिट्टी काट कर उनको परिमार्जित करती है। परिमार्जन के कारण उनका विस्तार होता है। उनके बीच की दूरी बढ़ती है। उनके बीच की दूरी बढ़ने के कारण नदी की चौड़ाई बढ़ती है।
सूखे दिनों में नदी का पानी किसी एक किनारे के पास से अथवा उससे अलग-अलग दूरी से बहता है। यह स्थिति स्थायी नहीं है। साल-दर-साल उसमें बदलाव सम्भव है। मामूली बाढ़ के समय पानी उनकी सीमाओं में रहता है पर जब बाढ़ रौद्र रूप धारण कर लेती है तो वह दोनों तटों को लाँघ कर कछार में फैल जाता है। नदी के तटों को दाँया तट और बाँया तट के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। उन्हें यह पहचान, प्रवाह के दाहिनी ओर या बाँयी ओर स्थित होने के कारण मिलती है। मैदानी इलाकों में एक तट के निकट रेत और दूसरे तट के निकट घाट मिलता है।
बाढ़ क्षेत्र (Flood plain)
बरसात के मौसम में नदियों में अनेक बार बाढ़ आती है। कई बार वह नदी के दोनों तटों को लाँघ कर कछार में भी फैलती है पर बाढ़ों के दौरान, कछार में पानी का फैलाव एक जैसा नहीं होता। वह अक्सर बदलता रहता है। जल विज्ञानियों ने बाढ़ क्षेत्र को परिभाषित किया है। उनके अनुसार बाढ़ क्षेत्र, नदी कछार का वह आप्लावित इलाका है जो अधिकतम बाढ़ के दौरान डूबता है। यही वह क्षेत्र है जो पानी में अस्थायी रूप से डूबता है। जिसमें तबाही मचती है। जन-धन की हानि होती है लेकिन बाढ़ हमेशा हानिकारक नहीं होती। वह कछार में उपजाऊ मिट्टी और पोषक तत्व जमा करती है। कछार को समतल बनाने की दिशा में काम करती है। नदी मार्ग के जल प्रपातों को समाप्त करती है। उल्लेखनीय है कि बाढ़ क्षेत्र में कई बार नदियाँ अपना रास्ता बदलती हैं।
बाढ़ क्षेत्र को पहचानना बहुत सरल है। नदी मार्ग के दोनों ओर पाई जाने वाली कुदरती वनस्पतियों तथा वृक्षों में बहुत अधिक भिन्नता होती है। यह भिन्नता वृक्षों तथा वनस्पतियों की अनुकूलन क्षमता में भिन्नता के कारण होती है। उदाहरण के लिये बाढ़ क्षेत्र में नमी की अधिकता के कारण अक्सर हरी घास और फूलों की अधिकता देखी जाती है। कई परिस्थितियों में बाढ़ क्षेत्र में दलदली भूमि भी मिल सकती है। वनस्पतियों, काई या शैवाल से ढँकी होने के बावजूद यह भूमि नदी तंत्र तथा जैवविविधता का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होती है। बाढ़ क्षेत्र में वही वृक्ष पाये जाते हैं जो नमी झेलने में सक्षम होते हैं।
राईपेरियन जोन (Riparian zone)
नदी के दोनों किनारों की पट्टी में कुदरती रूप से कुछ विशेष प्रकार की वनस्पितियाँ पैदा होती हैं। उन्हें सामान्य व्यक्ति नहीं पहचान पाते पर उनको पहचानना वनस्पति विज्ञानियों और स्थानीय जानकारों के लिये सहज होता है। राईपेरियन जोन, वह सीमित इलाका है जिसमें कुछ विशेष प्रकार की वनस्पतियाँ पैदा होती हैं। उल्लेखनीय है कि नदी की सेहत के लिये वे बेहद महत्त्वपूर्ण और आवश्यक होती हैं। हर साल आने वाली बाढ़, उन्हें समृद्ध करती है। अनुसन्धानों से पता चला है कि नदी के पानी (सतही जल और भूजल) की गुणवत्ता सुधारने में राईपेरियन जोन की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। वे पानी में मौजूद नाइट्रेट की सान्द्रता को कम करती है। राईपेरियन जोन का सबसे बड़ा योगदान पौधों के रूप में नदी में मिलने वाले जलीय जीव-जन्तुओं को भोजन उपलब्ध कराना है।
उल्लेखनीय है कि राईपेरियन जोन में पनपने वाली वनस्पतियों के सूखे पत्ते झड़कर या बहकर नदी को मिलते हैं। ये पत्ते सूखे अर्थात मृत होने के कारण, भले ही ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं करा पाते पर वे जलीय जीव-जन्तुओं को सूखी वनस्पतियों और उन पर पनप रहे बैक्टीरिया या फंगस या कीड़ों का भोजन अवश्य उपलब्ध कराते हैं। इसके अलावा राईपेरियन जोन की वनस्पतियाँ नदी के घाट को स्थायित्व तथा नदी के पानी को सही अम्लीयता प्रदान करती हैं। वे भूजल रीचार्ज में सहयोग भी देती हैं। नदी जल को निर्मल बनाने में राईपेरियन जोन का विशिष्ट महत्त्व है।
घाटी (Valley)
नदी को पानी (सतही तथा भूजल) प्रदान करने वाला क्षेत्र नदी घाटी या नदी का कछार कहलाता है। यह वह क्षेत्र है जिसे नदी की शरीर कहा जा सकता है। ऐसा शरीर जिसे नुकसान पहुँचाने का मतलब नदी को नुकसान पहुँचाना भी कहा जा सकता है।
नदी का प्रवाह (River flow)
भारत जैसे देश में जिसका अधिकांश भू-भाग मानसून पर निर्भर है, में नदियों को वर्षाकाल में भारी मात्रा में बाढ़ का पानी मिलता है। अवर्षा के आठ माहों में प्रवाह का स्रोत भूजल होता है। सूखे माहों में नदी का प्रवाह एक समान नहीं होता। जैसे-जैसे एक्विफरों का पानी नदी में डिस्चार्ज होता है, वैसे-वैसे एक्विफर खाली होते हैं। भूजल स्तर में गिरावट आती है। नदी का प्रवाह घटने लगता है। यदि बरसात द्वारा नदी को पानी की पूर्ति नहीं हो तो प्रवाह समाप्त हो जाता है। नदी सूख जाती है।
उल्लेखनीय है कि कुछ दशक पहले तक, अनेक नदियाँ बारहमासी थीं। मौसमी परिवर्तनों के कारण उनके प्रवाह में घट-बढ़ देखी जाती थी। नदी तंत्र की जैवविविधता सुरक्षित थी।
पर्यावरणीय प्रवाह (Environmental flow)
सूखे मौसम में नदियों के प्रवाह का घटना स्वाभाविक है लेकिन प्रत्येक स्वस्थ नदी को अपनी पहचान बनाए रखने के लिये हर समय जीवन रक्षक न्यूनतम प्रवाह की आवश्यकता होती है। इस न्यूनतम प्रवाह को वैज्ञानिक पर्यावरणीय प्रवाह कहते हैं। पर्यावरणीय प्रवाह, नदी तंत्र में, लगातार बहने वाले पानी की वह न्यूनतम मात्रा है जो उस पर आश्रित जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों की सुरक्षा, उनके तालमेली विकास एवं जिन्दा रहने तथा प्राकृतिक जिम्मेदारियों को निभाने के लिये आवश्यक है। उस प्रवाह से समझौता सम्भव नहीं है। पर्यावरणीय प्रवाह की गिरावट से नदी की सेहत खराब होती है। जलीय जीवन असुरक्षित होता है। प्राकृतिक जिम्मेदारियों को निभाने की क्षमता कम होती है। उल्लेखनीय है कि प्रवाह के समाप्त होने के बावजूद, नदी तल के नीचे होने से प्रवाह सक्रिय रहता है। वह प्रवाह अपने साथ घुले रसायनों को गन्तव्य तक ले भी जाता है पर वह पर्यावरणी प्रवाह नहीं है। भारत की प्रत्येक नदी का न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह परिभाषित किया जाना चाहिए। उसकी अनदेखी के कारण ही नदियों की अस्मिता को ग्रहण लगा है।
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