वाटर सेक्टर की 21वीं सदी की सबसे बड़ी चुनौती जलस्रोतों की निरापद सफाई है। 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध से जलस्रोतों में इको-सिस्टम की बर्बादी, बढ़ती गन्दगी, बढ़ता अतिक्रमण और घटती क्षमता के पुख्ता संकेतों का मिलना शुरू हो गया था। वैज्ञानिकों ने उनका अध्ययन और इंजीनियरों ने बढ़ती गन्दगी को कम करने की दिशा में काम करना प्रारम्भ कर दिया था।
सबसे पहले, सन 1986 में गंगा को साफ करने का प्रयास प्रारम्भ हुआ। इस हेतु गंगा के किनारे बसे सबसे अधिक प्रदूषित 25 स्थानों पर सीवर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए गए। अगस्त 2009 में यमुना, महानदी, गोमती और दामोदर नदी की सफाई को जोड़कर गंगा एक्शन प्लान का दूसरा चरण प्रारम्भ हुआ। पर बात नहीं बनी। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मण्डल की रिपोर्ट (जुलाई 2013) बतलाती है कि गंगोत्री से लेकर डायमण्ड हार्बर तक, समूची गंगा, मैली है।
सन 2014 में गंगा की सफाई पर नए सिरे से चिन्तन हुआ। तय किया गया कि अब गंगा को मिलने वाले 144 नालों पर काम होगा। उससे लगी औद्योगिक इकाइयों के प्रदूषण को बन्द किया जाएगा। इस कदम से जाहिर है कि सफाई गंगा की नहीं, अपितु गंगा में गन्दगी परोसने वाले नालों की होगी। इसका अर्थ है, गंगा के प्रवाह और भूजल द्वारा परोसी जा रही गन्दगी लगभग यथावत रहेगी।
यह प्रयास लगभग वैसा है जैसे मन को साफ करने के लिये तन को साफ किया जाये या तन को साफ करने के लिये उपयोग में लाये कपड़ों को साफ किया जाये। असली समस्या तीनों स्रोतों (अपस्ट्रीम, नालों और भूजल) से मिलने वाली गन्दगी को पूरी तरह खत्म करने के लिये सही रणनीति अपनाने की है। उनके उन्मूलन के लिये अनेक स्तरों पर एक साथ प्रयास करना होगा। तभी बात बनेगी। सबसे पहले बात नदियों की चुनौतियों की।
भारत की लगभग सभी छोटी-बड़ी नदियों की मुख्य चुनौतियाँ हैं - जलस्रोतों में बढ़ती गन्दगी, बढ़ता अतिक्रमण, घटती क्षमता और इको-सिस्टम का बर्बाद होना। इनका मुख्य इलाज है माकूल प्रवाह। मौजूदा प्रयास, बेहद सीमित हैं। सब जानते हैं कि गंगा को हजारों नाले गन्दा कर रहे हैं। इसलिये मात्र 144 नालों की गन्दगी साफ करने से समूची गंगा साफ नहीं होगी।
यह पुराने अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि आंशिक उपचार से गंगा या किसी भी बड़ी नदी को साफ करना सम्भव नहीं होता है। आवश्यकता है, नदीतंत्र में प्रवाह बढ़ाना और गन्दगी परोसने वाले नालों की गन्दगी की साफ-सफाई तथा रासायनिक खेती के हानिकारक घटकों को न्यूनतम करना। मौजूदा प्रयासों में प्रवाह की यथोचित वृद्धि, नदी तंत्र की अविरलता और निर्मलता जो नदीतंत्र की सफाई की पहली शर्त है, अभी भी मुख्यधारा से कोसों दूर है।
सब जानते हैं कि पानी की निर्मलता को लौटाने के लिये पर्याप्त पानी, इको-सिस्टम और अविरलता की आवश्यकता होती है। फिर चाहे वह नदी हो, झील हो या तालाब।
उल्लेखनीय है कि गन्दगी हटाने और निर्मलता तथा इको-सिस्टम बहाल करने के लिये प्रकृति पानी की पर्याप्त व्यवस्था करती है। वह, बरसाती पानी की मदद से कछार की सफाई करती है। उथली परतों की गन्दगी हटाने के लिये पूरे साल भूजल का उपयोग करती है। प्रकृति ने इसीलिये नदियों को बारहमासी बनाया है। इसीलिये उन्हें अविरलता प्रदान की है। इसीलिये झीलों में पानी के आने और जाने की व्यवस्था कायम की है।
यह कुदरत का तरीका है जो दिखाता है कि प्रवाह बढ़ाकर जलस्रोतों की निर्मलता तथा इको-सिस्टम को बहाल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में यदि प्रवाह अविरल होगा तो देर-सबेर निर्मलता लौटेगी। यदि निर्मलता लौटेगी तो बायो-डायवर्सिटी बहाल होगी। इसी कारण, असली सवाल है जलस्रोत कैसे अविरल तथा निर्मल हों? क्या करें कि उनमें पर्याप्त मात्रा में साल भर उत्तम गुणवत्ता वाला पानी बहे। इस सवाल का उत्तर, नदी जो प्रमुख जलस्रोत है, में खोजने का प्रयास करें। अर्थात नदी तंत्र में अविरलता, निर्मलता और इको-सिस्टम की बहाली के लिये कारगर रणनीति को समझने का प्रयास करें।
नदी तंत्र में अविरलता, निर्मलता और इको-सिस्टम की बहाली
हम सब अच्छी तरह जानते हैं कि नदी तंत्र में पानी का स्रोत वर्षा, बर्फ पिघलने से मिला पानी और भूजल प्रदान करने वाले एक्वीफर होते हैं। पानी की सतत आपूर्ति के कारण ही नदी मार्ग पर पानी बहता है। मानसूनी जलवायु में, जहाँ लगभग चार माह पानी बरसता है और आठ माह लगभग सूखे होते हैं वहाँ, सूखे महीनों में जमीन के नीचे का पानी, नदी तल के ऊपर और नीचे बहता है।
नदीतल के ऊपर बहने वाला पानी नदियों की अविरलता को कायम रखता है। जाहिर है, जब तक भूजल स्तर नदी तल के ऊपर होता है, नदी अविरल या प्रवाहमान रहती है। जिस क्षण भूजल का स्तर नदी तल के नीचे उतरता है, नदी सूख जाती है। उसकी अविरलता, निर्मलता और इको-सिस्टम का प्रश्न बेमानी हो जाता है।
नीचे दिए चित्र-एक में अविरल नदी को दर्शाया गया है। उसे बर्फ के पिघलने और बारिश से पानी की प्राप्ति होती है। चित्र यह भी दर्शाता है कि बारिश का पानी जमीन में रिस रहा है तथा नदी को जमीन के नीचे मौजूद एक्वीफरों से भी भूजल (पानी) मिल रहा है। पानी की पर्याप्त आपूर्ति के कारण नदी प्रवाहमान है। नदी घाटी में पर्याप्त जंगल हैं। बसाहट एवं उद्योगों के नहीं होने के उसमें अनुपचारित अपषिष्ट नहीं मिल रहा है। उपर्युक्त कारणों से नदी, प्रदूषण से पूरी तरह मुक्त है।
चित्र-दो में सूखी नदी को दर्शाया गया है। यह चित्र, पूर्व में वर्णित नदी घाटी के बदले हालातों को दिखाता है। बदले हालातों के अनुसार नदी के उद्गम के निकट की बर्फ की चोटियों की बर्फ समाप्ति की ओर हैं। यद्यपि उनसे बर्फ का पिघलना जारी है पर पानी की आपूर्ति काफी हद तक घट गई है। चित्र एक की तुलना में नदी घाटी के वानस्पतिक आच्छादन में भी काफी कमी आई है। नदी घाटी में बहुत सारे नगर बस गए हैं। बहुत सारे कल-कारखाने और उद्योग लग गए हैं। उनके कारण नदी के पानी की माँग बढ़ गई है।
घाटी में बहुत सारे कुएँ और नलकूप खुद गए हैं। उनके द्वारा भूजल का दोहन हो रहा है। भूजल के दोहन के कारण एक्वीफरों में पानी कम हो गया है और वाटरटेबिल नदी तल के नीचे उतर गई है। भूजल स्तर के नदी तल के नीचे उतरने के कारण नदी सूख गई है। यदि नदी मार्ग में कहीं थोड़ा-बहुत पानी बचा है तो वाटरटेबिल के नीचे उतर जाने के कारण वह जमीन में रिस रहा है। चित्र दो, अविरल नदी के सूखने के कारणों की वास्तविकता को दर्शाता है।
चित्र-दो में पानी के बढ़ते उपयोग का, प्राकृतिक जलचक्र पर पड़ रहे प्रभाव को भी दर्शाता है। नदी के पानी के बढ़ते उपयोग के कारण नदी का प्राकृतिक प्रवाह कम हुआ है। यह प्राकृतिक जलचक्र पर पड़ा पहला प्रभाव है। दूसरा प्रभाव भूजल पर पड़ा है। एक्वीफरों में मौजूद पानी की मात्रा घट गई है।
नदी के प्राकृतिक प्रवाह और एक्वीफर के प्राकृतिक प्रवाह का अन्तर-सम्बन्ध गड़बड़ा गया है। समुद्र में पहुँचने वाले पानी की मात्रा घट गई है। रसायनों का निपटान कम हो गया है। कुछ रसायन धरती की उथली परतों में कैद होकर रह गए हैं। संक्षेप में, प्राकृतिक जलचक्र आंशिक रूप से सक्रिय है। एक्वीफरों का पानी, नदी तल के नीचे-नीचे चल, समुद्र में अपनी बाधित यात्रा पूरी कर रहा है।
नदी को पुनःप्रवाहमान बनाने के लिये समूची नदी घाटी के वाटरटेबिल के सबसे निचले जल स्तर को नदी तल के ऊपर लाना आवश्यक है। यह स्थिति, भूजल दोहन के बावजूद, अगली बरसात तक कायम रहना आवश्यक है। यही नदी की अविरलता की आवश्यक शर्त है। समूची नदी घाटी के निम्नतम वाटरटेबिल के स्तर को नदी तल के ऊपर कायम रखने के लिये निम्न चार काम करना आवश्यक है-
पहला काम
नदी घाटी में भूजल के स्तर को नदी तल के ऊपर उठाने के लिये धरती की सतह के नीचे परस्पर सम्बद्ध एक्वीफर सिस्टम का होना आवश्यक है। उन्हें पूरी तरह रीचार्ज करना आवश्यक है। उनमें इतना पानी जमा होना/करना आवश्यक है ताकि एक्वीफर अगली बरसात तक नदी को पानी उपलब्ध करा सकें तथा पानी की कमी नहीं हो। इस हेतु अतिरिक्त व्यवस्था बनाई जाना चाहिए ताकि वांछित निरन्तरता बनी रहे। यदि ये तीनों शर्तों की पूर्ति होती है तो ही नदी की अविरलता कायम रह पाती है।
विदित है कि भूजल स्तर की बहाली बरसात के कारण होती है। उसकी गिरावट का कारण भूजल दोहन, कुदरती प्रवाह और नदी तल के नीचे का सतत प्रवाह होता है। उन सबकी अलग-अलग कालखण्ड के अनुसार गणना की जा सकती है। अर्थात नदी सूखने की स्थिति में भूजल दोहन के प्रतिशत और अन्य घटकों को ज्ञात किया जा सकता है। उन्हें ज्ञात करने के बाद रीचार्ज आवश्यकता और कालखण्ड का अनुमान लगाया जा सकता है। अर्थात नदीतंत्र के मूल प्रवाह बहाल करने का रोडमैप तैयार किया जा सकता है।
यदि नदी तंत्र को स्वच्छ बनाना है तो उसे अविरल बनाना अनिवार्य है। यही असली सवाल है। उत्तर है, नदी घाटी को रीचार्ज जोन, ट्रांजीशन जोन और डिस्चार्ज जोन में विभाजित करना होगा। सबसे पहले रीचार्ज जोन में भूजल रीचार्ज के काम को पूरा करना होगा। रीचार्ज जोन में काम खत्म होने के बाद ट्रांजीशन जोन में काम खत्म करना होगा। डिस्चार्ज जोन पर बनी संरचनाओं में पानी भरने से रीचार्ज नहीं होता इसलिये उस जोन में रीचार्ज के लिये प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। संक्षेप में, भूजल रीचार्ज को नदी घाटी की सीमा से प्रारम्भ कर फ्लड प्लेन में खत्म करना होगा।
इस हेतु अधिक-से-अधिक परकोलेशन तालाबों का निर्माण किया जाएगा। उसका उद्देश्य प्रवाह के लिये आवश्यक पानी प्रदान करना होगा। उसकी निरन्तरता कायम रखना होगा। प्रवाह बढ़ने से नदी का प्रदूषण कम होगा। बायोडायवर्सिटी बहाली का मार्ग प्रशस्त होगा। नदी की स्वच्छता बहाल करने वाली नैसर्गिक क्षमता लौटेगी। इसके लिये परकोलेशन तालाबों द्वारा कम-से-कम मार्च माह तक सेवा प्रदान करना चाहिए। यह स्थिति मझौली नदियों के प्रवाह को सूखने से बचाने के लिये महत्वपूर्ण है। स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सामान्य तालाब भी पर्याप्त संख्या में बनाए जाएँगे।
दूसरा काम
नदियों के पानी को हानिकारक बनाने का काम, मुख्यतः खेती में प्रयुक्त रासायनिक खाद, कीटनाशकों और बसाहटों तथा कल-कारखानों के अनुपचारित अपशिष्टों द्वारा किया जाता है। खेती में प्रयुक्त रासायनिक खाद, कीटनाशक इत्यादि इत्यादि पानी में घुल, भूजल का हिस्सा बनते हैं तथा कालान्तर में नदी में पहुँचे जाते हैं। ये घटक आँखों से नहीं दिखाई देते। उन्हें एसटीपी द्वारा भी हटाना सम्भव नहीं होता। उन्हें कम करना आवश्यक है। उन्हें सुरक्षित स्तर पर लाने के लिये जैविक/प्राकृतिक खेती की ओर लौटना ही होगा।
नदियों के पानी में अनेक स्थानों पर नगरीय तथा औद्योगिक गन्दगी मिलती है। उस गन्दगी को शत-प्रतिशत उपचारित करने के लिये नगरीय निकायों तथा उद्योगों को एसटीपी लगाना चाहिए। उपचारित पानी को री-साईकिल करना चाहिए। नदियों से उद्योगों को उतना ही पानी दिया जाना चाहिए जितना पानी देने से नदियों के प्रवाह पर प्रतिकूल असर नहीं पड़े।
तीसरा काम
प्रवाह की निरन्तरता को बनाए रखने के लिये नदी के पानी का बुद्धिमत्तापूर्वक करना बेहद जरूरी है। इस हेतु नदीतंत्र में, सबसे पहले जीवन रक्षक प्रवाह को सुनिश्चित करना होगा। यह प्रवाह नदी की निर्मलता और इको-सिस्टम की बहाली के लिये आवश्यक है। जीवन रक्षक प्रवाह को सुनिश्चित करने के उपरान्त पेयजल, मूलभूत जरूरतों, आजीविका तथा सामान्य पानी चाहने वाली फसलों को पानी दिया जावे। उसके बाद, उद्योगों और अधिक पानी चाहने वाली फसलों के लिये पानी दिया जाना चाहिए। खेती में ड्रिप सिंचाई को अनिवार्य करने के बारे में निर्णय लेना चाहिए।
चौथा काम
हर दस साल में नदी तंत्र में पानी की उपलब्धता तथा पानी की माँग की समीक्षा की जाना चाहिए। समीक्षा के आधार पर यदि आवश्यक हो तो जल आवंटन में आवश्यक फेरबदल किया जाना चाहिए। नदीघाटी की जरूरतों की आपूर्ति के उपरान्त बचे पानी को अन्य नदी घाटियों में पेयजल संकट खत्म कराने के लिये ट्रांसफर किया जा सकता है। जल आवंटन के फैसलों में समाज को भागीदार बनाना होगा। उनकी राय को सबसे अधिक तवज्जो देना चाहिए।
यही नदीतंत्र की सफाई का सम्भावित रोडमैप है। इस पर काम होना चाहिए। परिस्थितियों के अनुसार रणनीति में सुधार होना चाहिए।
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