जिस प्रकार से हम नदियों के संसाधन को व्यापार के क्षेत्र में उतार चुके हैं उसके लिए हमें बहुत बड़ी कीमत चुकानी होगी। नदियों के जल का हम जिस प्रकार से शहर को जीवित रखने में लगा रहे हैं। यानि शहर बढ़ाते जा रहे हैं वह न तो नदियों के साथ इन्साफ है और न ही अपने लोगों के लिए। किसी भी नदी के सारे पानी को नियंत्रित करना और उसके कुदरती बहाव को रोकना कितना प्रलयकारी होगा उसे हम दो चार महीने का ही कलेण्डर पलट लें तो उत्तराखंड हम सब को याद आना ही चाहिए। देश में नदी जोड़ की सोच के मूल में ही अहंकार स्थापित है। यह सोच किस दिमाग की उपज है यह जानना भी जरूरी नहीं है। सबसे अहम प्रश्न जो हमारे सामने आता है वह है- ‘प्रभु’ जिसका मूल अर्थ है ‘प्रकृति’। प्रकृति ने अपने विकासक्रम में अरबों वर्षों की अविराम यात्रा के बाद नदियों को पृथ्वी पर अवतरित की हैं।
हम मनुष्य उस तरह से अविराम यात्रा कर ही नहीं सकते। अतः नदी जोड़ो की सोच ही मूल में गलत है। इससे एक तरफ तो हम नया कुछ जरूर कर पाएंगे। लेकिन दूसरी ओर प्रकृति को महाविनाश की ओर बढ़ने के लिए मजबूर कर देंगे।
गंगा और यमुना दोनों नदियां आसपास के ग्लेशियरों की गोद से निकलती हैं लेकिन रास्ता अगल-अलग कर लेती हैं। प्रकृति ने ही नदियों को जोड़ने का भी काम अपने हाथ में रखा है। हम लोग उसके काम को अपने हाथ में न लें तो अच्छा। कई बार हम सिर्फ अपने बारे में ही सोचते हैं। हमारे काम का क्या प्रभाव सामने वालों पर पड़ेगा यह सोचने का कष्ट ही नहीं करते।
जैसे ही हम नदियों को आपस में जोड़ना प्रारंभ करेंगे तो सबसे पहले तो आर्थिक रूप से हम कमजोर होंगे। इस आर्थिक क्षति की पूर्ति के लिए हमें इसके सफल और असफल होने पर आश्रित है। यदि सफल हुए तो पूरी नहीं तो थोड़ी बहुत आर्थिक लाभ भले ही हमें मिल जाए लेकिन हम उसके अपने रास्तों से क्या-क्या छीन रहे हैं इस पर तो विचार कर लें।
1. नदियों को जोड़ने से देश में सूखे की समस्या का स्थायी समाधान निकल आएगा और लगभग 15 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई क्षमात बढ़ाई जा सकेगी।
2. गंगा और ब्रह्मपुत्र के क्षेत्र में हर साल आने वाली बाढ़ की समस्या कम हो जाएगी।
3. राष्ट्रीय बिजली उत्पादन के क्षेत्र में 34,000 मेगावाट पनबिजली का और अधिक उत्पादन किया जा सकेगा।
इन दावों पर अनेक विद्वान पक्ष और विपक्ष में अपने तर्क और आंकड़े प्रस्तुत कर सकते हैं। इसमें आमजन की कोई भागीदारी सीधे नहीं दिखती।
कुछ समाजसेवियों और पर्यावरण के अच्छे जानकार लोगों ने इसे सिरे से खारिज तो कर दिया और इस मुद्दे को अदालत तक जाने के लिए उन्हें बाध्य भी होना पड़ा। अदालत ने अपने स्वभाव के मुताबिक फैसले सुना दिए। अब इस योजना को फिर से जोर-शोर से उठाया जा रहा है ऐसे में एक बार फिर आमजन की जिम्मेवारी बढ़ जाती है।
परियोजना को प्रारंभ करने से पहले हमें निम्न विषयों पर अध्ययन कर लेना चाहिए-
1. वित्तीय व्यावहारिकता,
2. तकनीकी क्षमता,
3. पर्यावरण संरक्षण बनाए रखना और
4. पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का विस्तृत आकलन।
इन मुद्दों को सच्चाई से समझे बिना नदी जोड़ो योजना देश के साथ बेइन्साफी होगी। हम सब जानते ही हैं कि नदियों के उद्गम स्थल धीरे-धीरे घटता जा रहा है। उसके धारा को अबाध रखने में असफल हो रहे हैं। इससे होने वाले नुकसान को भी हम भांप नहीं पा रहे। ऐसे में एक क्षेत्र से कुछ जल उठाकर दूसरे क्षेत्र में डालना अहम के सिवाय कुछ नहीं।
जिस प्रकार से हम नदियों के संसाधन को व्यापार के क्षेत्र में उतार चुके हैं उसके लिए हमें बहुत बड़ी कीमत चुकानी होगी। नदियों के जल का हम जिस प्रकार से शहर को जीवित रखने में लगा रहे हैं। यानि शहर बढ़ाते जा रहे हैं वह न तो नदियों के साथ इन्साफ है और न ही अपने लोगों के लिए।
किसी भी नदी के सारे पानी को नियंत्रित करना और उसके कुदरती बहाव को रोकना कितना प्रलयकारी होगा उसे हम दो चार महीने का ही कलेण्डर पलट लें तो उत्तराखंड हम सब को याद आना ही चाहिए। दूसरी दिशा में नदियों को मोड़ना एक तरह से उसे मारने के माफिक होगा।
जिन देशों से नदी जोड़ो की अक्लमंदी हमने सीखी है वह अपने यहां नदियों को जोड़ने का काम कब का बंद कर चुकी है। और अपने नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए अरबों डालर की योजना बनाई है। अच्छा तो यह होता कि हम उनके अनुभवों का लाभ उठाते।
1. मानस-संकोश-तिस्ता-गंगा
2. कोसी-घाघरा
3. गंडक-गंगा
4. घाघरा-यमुना
5. शारदा-यमुना
6. गंगा-दामोदर-सुवर्णरेखा
7. सुवर्णरेखा-महानदी
8. कोसी-मेची
1. महानदी (मणिभद्र)-गोदावरी (दोलइस्वरम)
2. गोदावरी (इंचमपल्ली-कृष्णा (नागार्जुनसागर)
3. गोदावरी (इंचमपल्ली)-कृष्णा (नागार्जुनसागर)
4. गोदावरी (पोलावरम-कृष्णा (विजयवाड़ा)
5. कृष्णा (अलमाटी) – पेन्नार
6. कृष्णा (श्रीसैलम) – पेन्नार
7. कृष्णा (नागार्जुनसागर)- पेन्नार (सोमशिला)
8. पेन्नार (सोमशिला)- कावेरी (ग्रांड एनीकट)
9. कावेरी (कट्टलइ)-वैगइ-गुंडर
10 केन-बेतवा
11. पार्वति-कालीसिंध-चंबल
12. पार-तापी-नर्मदा
13. नेत्रवती-हेमवती
(स्रोत : हाइड्रोलॉजी एंड वाटर रिसोर्सेज इंफोर्मेशन सिस्टम फॉर इंडिया)
हम मनुष्य उस तरह से अविराम यात्रा कर ही नहीं सकते। अतः नदी जोड़ो की सोच ही मूल में गलत है। इससे एक तरफ तो हम नया कुछ जरूर कर पाएंगे। लेकिन दूसरी ओर प्रकृति को महाविनाश की ओर बढ़ने के लिए मजबूर कर देंगे।
गंगा और यमुना दोनों नदियां आसपास के ग्लेशियरों की गोद से निकलती हैं लेकिन रास्ता अगल-अलग कर लेती हैं। प्रकृति ने ही नदियों को जोड़ने का भी काम अपने हाथ में रखा है। हम लोग उसके काम को अपने हाथ में न लें तो अच्छा। कई बार हम सिर्फ अपने बारे में ही सोचते हैं। हमारे काम का क्या प्रभाव सामने वालों पर पड़ेगा यह सोचने का कष्ट ही नहीं करते।
जैसे ही हम नदियों को आपस में जोड़ना प्रारंभ करेंगे तो सबसे पहले तो आर्थिक रूप से हम कमजोर होंगे। इस आर्थिक क्षति की पूर्ति के लिए हमें इसके सफल और असफल होने पर आश्रित है। यदि सफल हुए तो पूरी नहीं तो थोड़ी बहुत आर्थिक लाभ भले ही हमें मिल जाए लेकिन हम उसके अपने रास्तों से क्या-क्या छीन रहे हैं इस पर तो विचार कर लें।
अभी तक मुख्यतः तीन दावे किए जा रहे हैं-
1. नदियों को जोड़ने से देश में सूखे की समस्या का स्थायी समाधान निकल आएगा और लगभग 15 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई क्षमात बढ़ाई जा सकेगी।
2. गंगा और ब्रह्मपुत्र के क्षेत्र में हर साल आने वाली बाढ़ की समस्या कम हो जाएगी।
3. राष्ट्रीय बिजली उत्पादन के क्षेत्र में 34,000 मेगावाट पनबिजली का और अधिक उत्पादन किया जा सकेगा।
इन दावों पर अनेक विद्वान पक्ष और विपक्ष में अपने तर्क और आंकड़े प्रस्तुत कर सकते हैं। इसमें आमजन की कोई भागीदारी सीधे नहीं दिखती।
कुछ समाजसेवियों और पर्यावरण के अच्छे जानकार लोगों ने इसे सिरे से खारिज तो कर दिया और इस मुद्दे को अदालत तक जाने के लिए उन्हें बाध्य भी होना पड़ा। अदालत ने अपने स्वभाव के मुताबिक फैसले सुना दिए। अब इस योजना को फिर से जोर-शोर से उठाया जा रहा है ऐसे में एक बार फिर आमजन की जिम्मेवारी बढ़ जाती है।
परियोजना को प्रारंभ करने से पहले हमें निम्न विषयों पर अध्ययन कर लेना चाहिए-
1. वित्तीय व्यावहारिकता,
2. तकनीकी क्षमता,
3. पर्यावरण संरक्षण बनाए रखना और
4. पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का विस्तृत आकलन।
इन मुद्दों को सच्चाई से समझे बिना नदी जोड़ो योजना देश के साथ बेइन्साफी होगी। हम सब जानते ही हैं कि नदियों के उद्गम स्थल धीरे-धीरे घटता जा रहा है। उसके धारा को अबाध रखने में असफल हो रहे हैं। इससे होने वाले नुकसान को भी हम भांप नहीं पा रहे। ऐसे में एक क्षेत्र से कुछ जल उठाकर दूसरे क्षेत्र में डालना अहम के सिवाय कुछ नहीं।
जिस प्रकार से हम नदियों के संसाधन को व्यापार के क्षेत्र में उतार चुके हैं उसके लिए हमें बहुत बड़ी कीमत चुकानी होगी। नदियों के जल का हम जिस प्रकार से शहर को जीवित रखने में लगा रहे हैं। यानि शहर बढ़ाते जा रहे हैं वह न तो नदियों के साथ इन्साफ है और न ही अपने लोगों के लिए।
किसी भी नदी के सारे पानी को नियंत्रित करना और उसके कुदरती बहाव को रोकना कितना प्रलयकारी होगा उसे हम दो चार महीने का ही कलेण्डर पलट लें तो उत्तराखंड हम सब को याद आना ही चाहिए। दूसरी दिशा में नदियों को मोड़ना एक तरह से उसे मारने के माफिक होगा।
जिन देशों से नदी जोड़ो की अक्लमंदी हमने सीखी है वह अपने यहां नदियों को जोड़ने का काम कब का बंद कर चुकी है। और अपने नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए अरबों डालर की योजना बनाई है। अच्छा तो यह होता कि हम उनके अनुभवों का लाभ उठाते।
प्रस्तावित अंतर बेसिन जल स्थानांतरण लिंक (हिमालय क्षेत्र)
1. मानस-संकोश-तिस्ता-गंगा
2. कोसी-घाघरा
3. गंडक-गंगा
4. घाघरा-यमुना
5. शारदा-यमुना
6. गंगा-दामोदर-सुवर्णरेखा
7. सुवर्णरेखा-महानदी
8. कोसी-मेची
(प्रायद्वीपीय क्षेत्र)
1. महानदी (मणिभद्र)-गोदावरी (दोलइस्वरम)
2. गोदावरी (इंचमपल्ली-कृष्णा (नागार्जुनसागर)
3. गोदावरी (इंचमपल्ली)-कृष्णा (नागार्जुनसागर)
4. गोदावरी (पोलावरम-कृष्णा (विजयवाड़ा)
5. कृष्णा (अलमाटी) – पेन्नार
6. कृष्णा (श्रीसैलम) – पेन्नार
7. कृष्णा (नागार्जुनसागर)- पेन्नार (सोमशिला)
8. पेन्नार (सोमशिला)- कावेरी (ग्रांड एनीकट)
9. कावेरी (कट्टलइ)-वैगइ-गुंडर
10 केन-बेतवा
11. पार्वति-कालीसिंध-चंबल
12. पार-तापी-नर्मदा
13. नेत्रवती-हेमवती
(स्रोत : हाइड्रोलॉजी एंड वाटर रिसोर्सेज इंफोर्मेशन सिस्टम फॉर इंडिया)
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