बाढ़-सुखाड़ के कारण कमोबेश एक जैसे ही हैं : जलसंचयन संरचनाओं का सत्यानाश, जलबहाव के परंपरागत मार्ग में अवरोध, कब्जे, बड़े पेड़ व जमीन को पकड़कर रखने वाली छोटी वनस्पतियों का खात्मा, भूस्खलन, क्षरण और वर्षा के दिनों में आई कमी। इन मूल कारणों का समाधान किए बगैर बाढ़ और सुखाड़ से नहीं निपटा जा सकता। समस्या के मूल पर चोट करनी होगी। नदियों में जल की मात्रा और गुणवत्ता हासिल करने के लिए फिर छोटी संरचनाओं और वनस्पतियों की ओर लौटना ही होगा। नदियों को धरती के ऊपर से नहीं बल्कि धरती के भीतर से जोड़ने की जरूरत है।
नदियां निर्जीव सड़कें नहीं होती कि उन्हें जहां चाहे जोड़ दिया जाए? प्रत्येक नदी की एक भिन्न जैविकी होती है। भिन्न-भिन्न जैविकी की नदियों को आपस में जोड़ने के नतीजे वैसे ही खतरनाक हो सकते हैं, जैसे ए-ब्लड ग्रुप के खून को बी-ब्लड ग्रुप वाले को चढ़ा देना। नदी को नहर समझने की गलती भी नहीं की जानी चाहिए। नदी जोड़ में प्रस्तावित बांध व विशाल जलाशय पहले ही विवाद व विनाश से जुड़े हुए हैं। विवाद व विनाश को बढ़ाने वाले अनुभवों की बिना पर ही यह परियोजना अभी तक विलंबित रही। भारत में पहली बार 1956 में तत्कालीन मुख्य अभियंता एन के राव द्वारा नदी जोड़ का विचार रखा गया था। उत्तर भारत की गंगा से पटना के निकट 6000 क्यूसेक पानी लेकर दक्षिण की कावेरी को पानी देने का प्रस्ताव था। जो नहीं हुआ। 1971 में पायलट कैप्टन दस्तूर ने नदियों के बीच नहरों की माला बनाने की बात की। इसके लिए गठित आयोग ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया। 1980 में पुन: कोशिश हुई। राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी बनाई गई। एजेंसी ने बगैर कोई तकनीकी रिपोर्ट पेश किए.. बगैर किसी जनप्रतिनिधि से राय किए 1990 में एक परियोजना बना डाली।कहां तो बांधों के लिए पैसे नहीं तो मेल कैसे होगा?
लगभग दो दशक बाद 26 जनवरी 2002 को तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने कहा-‘अब भारत कोई बड़े बांध नहीं बनाएगा क्योंकि सरकार के पास इतना धन नहीं है। केवल पुराने बांधों को पूरा किया जाएगा और उनकी टूट-फूट पूरी की जाएगी।’ अचानक रुख बदला। इसके मात्र साढ़े छह माह बाद राष्ट्रपति पद पर आसीन एक अति प्रतिष्ठित वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम ने 15 अगस्त, 2002 को राष्ट्र के नाम जारी संदेश में नदी जोड़ को राष्ट्र के लिए लाभदायक और आवश्यक बता दिया। इस पर अमल करते हुए अक्टूबर के पहले पखवाड़े में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नदी जोड़ परियोजना लागू करने की घोषणा कर दी। 20 नदी घाटियों में 44 नदियों पर 30 जोड़, 400 बांध, अनेक जलाशय, नहरें और 56000 करोड़ रुपये। मात्र ढाई महीने बाद ही एक जनहित याचिका के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने काम में तेजी का सुझाव दे भी डाला। इस बीच कार्यदल बना। उसके अध्यक्ष सुरेश प्रभु कुछ कर पाते, उससे पहले जनता ने नदी जोड़ रिजेक्ट कर दिया। राजग को विपक्ष में बैठना पड़ा।
केन-बेतवा इस परियोजना का पहला जोड़ है। इसके क्षेत्र में आने वाले पन्ना, अजयगढ़, राजनगर, पथरिया, दमोह, छतरपुर से लेकर झांसी, बांदा, चित्रकूटधाम तक के जिला पंचायत अध्यक्ष, इंजीनियर, शासन, प्रशासन ने परियोजना को अर्थहीन, नुकसानदेह, अव्यावहारिक बताते हुए विकल्पों की बात की; बावजूद इसके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उसका उद्घाटन कर आए। राहुल गांधी ने कहा, ‘परियोजना लाभ से ज्यादा, नुकसान करेगी।’ यूपीए- एक के जल संसाधन मंत्री सैफुद्दीन सोज ने राज्यों के बीच सहमति के बगैर नहीं होने का बयान देकर परियोजना को लटका दिया। अब सुप्रीम कोर्ट ने फिर तेजी दिखाने को कहा है।
पूरा जलचक्र ही असंतुलित हो जाएगा ?
परियोजना में इसे राष्ट्रीय एकता बढ़ाने वाली, रोजगारपरक, बिजलीदाता, कुपोषण कम करने में सहायक, ईंधन की खपत में कमी वाला आदि बताया गया है। अटल जी ने इसे यह सुनिश्चित करने वाला बताया ताकि नदियों का जल बहकर समुद्र में बेकार न जाए। नदी बेसिन का पूरा उपयोग हो। वह भूल गए कि यदि नदियों का पर्याप्त जल समुद्र में न जाए तो समुद्र के खारेपन के कारण किनारे के इलाकों का जल जहर बन जाए। पूरा जलचक्र ही असंतुलित हो जाए। कालांतर में इस परियोजना को जलमार्गों के विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बताया जाने लगा किंतु इस परियोजना का मूल उद्देश्य बाढ़ और सुखाड़ ही कहा गया। कोई उन्हें बताए कि बाढ़ भी जरूरी है।
बाढ़ सिर्फ नुकसान पहुंचाती हो, ऐसा नहीं है। बाढ़ अपने साथ लाती है उपजाऊ मिट्टी, मछलियां और सोना फसल का। बाढ़ ही नदी और उसके बाढ़ क्षेत्र के जल व मिट्टी का शोधन करती है। बाढ़ के कारण ही आज गंगा का उपजाऊ मैदान है। बंगाल का माछ-भात है। बाढ़ नुकसान नहीं करती है। नुकसान करती है-बाढ़ की तीव्रता और टिकाऊपन। तटबंध व बांध इस नुकसान को रोकते नहीं बल्कि और बढ़ाते ही हैं। नदी प्रवाह मार्ग में बनने वाले जलाशय गाद बढ़ाते हैं। बढ़ती गाद नदी का मार्ग बदलकर नदी को विवश करती है कि वह हर बार नए क्षेत्र को अपना शिकार चुने। नया इलाका होने के कारण जलनिकासी में वक्त लगता है। बाढ़ टिकाऊ हो जाती है। पहले तीन दिन टिकने वाली बाढ़ अब पूरे पखवाड़े कहर बरपाती है। नदी को बांधने की कोशिश बाढ़ की तीव्रता बढ़ाने की दोषी हैं। तीव्रता से कटाव व विनाश की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। पूरा उत्तर बिहार इसका उदाहरण है। नदी जोड़ में प्रस्तावित बांध और जलाशय बाढ़ घटाएंगे या बढ़ाएंगे? कोई बताए? यों भी जिन नदियों को यह कहकर दूसरी नदियों से जोड़ा जा रहा है कि उनमें अतिरिक्त पानी है; उनके पानी में लगातार कमी आ रही है। बारिश के दिनों में जब ऊपर की नदियों में अतिरिक्त जल होता है। जब नीचे पानी की जरूरत होती है, तब ऊपर की नदियों में भी अतिरिक्त जल नहीं होता। गंगा-कावेरी के पहले प्रस्ताव में मात्र 150 दिन पानी देने की बात थी। अब तो वह भी संभव नहीं है।
भूगोल से इतनी छेड़छाड़ की भरपाई भी नहीं होगी
बड़ा खतरा यह है कि जब तक सरकार यह सब समझेगी, तब तक काफी देर हो चुकी होगी। भारत की नदियों पर इतने ढांचे बन चुके होंगे.. भूगोल से इतनी छेड़-छाड़ हो चुकी होगी कि कई पीढ़ियों तक भरपाई संभव नहीं होगी। यह परियोजना बाढ़-सुखाड़ के समाधान और विकास के तमाम मनगढंत परिणाम लाने नहीं, बल्कि भारत को कचराघर समझकर कचरा बहाने आ रहे उद्योगों के लिए पानी जुटाने, नदी में कचरा बहाना आसान बनाने तथा देश को कर्जदार बनाने आ रही है। पिछले 10 सालों से यही बात देश के हर कोने से दोहराई जा रही है। बावजूद इसके नदी जोड़ परियोजना सरकार की प्राथमिकता में क्यों हैं? क्या अब भारत की सरकार बाजार की बंधक बन चुकी है? यह पर्यावरण विज्ञान का नहीं बल्कि अर्थशास्त्र, राजनीति और विदेश नीति के जानकारों का विषय है। मेरे जैसे अध्ययनकर्ता तो इतना जानते हैं कि बाढ़ और सुखाड़ के कारण कमोबेश एक जैसे ही हैं : जलसंचयन संरचनाओं का सत्यानाश, जलबहाव के परंपरागत मार्ग में अवरोध, कब्जे, बड़े पेड़ व जमीन को पकड़कर रखने वाली छोटी वनस्पतियों का खात्मा, भूस्खलन, क्षरण और वर्षा के दिनों में आई कमी। इन मूल कारणों का समाधान किए बगैर बाढ़ और सुखाड़ से नहीं निपटा जा सकता।
समस्या के मूल पर चोट करनी होगी। नदियों में जल की मात्रा और गुणवत्ता हासिल करने के लिए लौटना फिर छोटी संरचनाओं और वनस्पतियों की ओर ही होगा। नदियों को धरती के ऊपर से नहीं बल्कि धरती के भीतर से जोड़ने की जरूरत है। वर्षा जल संचयन के छोटी-छोटी संरचनाएं नदी जोड़ के सही विकल्प हैं। यदि मनरेगा के तहत हो रहे पानी व बागवानी के काम को ही पूरी ईमानदारी व सूझबूझ से किया जाए तो न ही बाढ़ बहुत विनाशकारी साबित होगी और न ही सूखे से लोगों के हलक सूखेंगे।.. तब न नदी जोड़ की जरूरत बचेगी, न भूगोल उजड़ेगा और देश भी कर्जदार होने से बच जाएगा। उद्योगों को भी पानी होगा और नदियां भी बर्बाद होने से बच जाएंगी। तब बाढ़ विनाश नहीं, विकास का पर्याय बन जाएगी। बस! शर्त यह है कि नीति और नीयत दोनों ईमानदार हों।
Path Alias
/articles/nadai-jaoda-parakartai-taoda
Post By: Hindi