नदी जोड़ परियोजना : किसान खुशहाल होंगे

प्रतिमत


जिस तरह खेती की लागत में वृद्धि हुई, उस हिसाब से फसल उत्पादन में ब़ढोतरी नहीं हुई। नतीजतन, विदर्भ के किसानों के लिए खेती करना पूरी तरह घाटे का सौदा हो गया है। खेती के लिए लिया गया कर्ज न लौटा पाने के कारण किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। जानकारों की मानें तो जब तक इस इलाके में फसलों के दोबारा, तिबारा लेने की सुविधा उपलब्ध नहीं होगी तब तक किसान कर्ज से मुक्त नहीं होंगे और न ही आत्महत्या करने का सिलसिला थमेगा।

मानसून आने के साथ ही देश में भारी बारिश और बाढ़ की खबरें भी आने लगती हैं। ऐसा कोई मानसून अब तक खाली नहीं गया जब उस दौरान देश के किसी भाग में बाढ़ न आई हो। बाढ़ आती है तो भारी तबाही मचाती है। खेत-खलिहानों को तबाह करने के साथ ही करोड़ों रुपये की सार्वजनिक व निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाती है। हजारों लोगों को बेघर कर देती है। सैकड़ों लोगों की जान चली जाती है। इसके अलावा पर्यावरण को भी काफी नुकसान पहुंचता है और कई संक्रामक बीमारियां फैलती हैं। वहीं दूसरी तरफ बारिश न होने से देश के कुछ हिस्सों में सूखे या अकाल जैसे हालात बन जाते हैं। लोगों को पीने के लिए पानी नहीं मिलता और खेतों में फसलें सिंचाई के बिना सूख जाती हैं। इन सबके बीच अरबों घनफुट पानी बेकार चला जाता है, क्योंकि हमारे यहां पानी संग्रहण की समुचित व्यवस्था अब तक नहीं की जा सकी है। यह दृश्य महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में भी हर साल दिखाई देता है।

यदि बाढ़ के पानी को संग्रहित किया जाए तो न ही पेयजल का संकट खड़ा होगा और न ही खेतों में लगी फसलें पानी के बिना सूखेंगी। इसके अलावा तेजी से नीचे जा रहे जलस्तर के गिरावट में कमी आएगी, लेकिन यह तभी संभव है जब नदियों को आपस में जोड़ने की योजना पर गंभीरता से अमल किया जाए। अगर यह परियोजना तैयार हो जाए तो बाढ़ से होने वाली भारी तबाही पर रोक लगाई जा सकती है। इस लिहाज से देखें तो नदी जोड़ योजना मौजूदा समय की जरूरत है। खासकर महाराष्ट्र व विदर्भ क्षेत्र के लिए यह योजना काफी फायदेमंद साबित हो सकती है। महाराष्ट्र का कुल क्षेत्रफल 30,7713 किलोमीटर है। सामान्य तौर पर यहां के खोर्यों को पांच विभागों में बांटा गया है। 1. गोदावरी, 2. कृष्णा, 3. तापी, 4. नर्मदा, 5. कोंकण की पश्चिमी दिशा में बहने वाली नदियां। इन खोर्यों में कुल पानी की उपलब्धता 4,646 अरब घनफुट (1,31,562 दलघमी) है। हालांकि, कई विवादों के चलते महाराष्ट्र के उपयोग में कुल 4,463 अरब घनफुट (126377 दलघमी) आता है।

महाराष्ट्र में अमूमन मानसूनी बारिश 1300 मि.मी. है। राज्य में 555.75 लाख एकड़ कृषि योग्य क्षेत्र है। इसी तरह 158.90 लाख एकड़ वनक्षेत्र है। यह कुल भौगोलिक क्षेत्र का 20.91 प्रतिशत है। विदर्भ के लिहाज से देखें तो यहां का भौगोलिक क्षेत्रफल 97,400 चौरस किलोमीटर है। हालांकि, कई जल विवादों के बाद भी विदर्भ के हिस्से में कुल 774 अरब घनफुट (21917 दलघमी) जलसंपत्ति मौजूद है। विदर्भ में अमूमन मानसूनी बरसात 550 से 1700 मि.मी. दर्ज की जाती है। विदर्भ में 140.87 लाख एकड़ कृषि योग्य भूमि है और 93.13 लाख एकड़ वन क्षेत्र है। राज्य के कुल वन क्षेत्र में 58 फीसदी वन परिक्षेत्र विदर्भ में ही है। पूर्व व पश्चिम विदर्भ का मौसम, खेती की जमीन और वहां उगाई जाने वाली अलग-अलग फसलों के अलावा यहां की संस्कृति में भी काफी अंतर है। इसी तरह पूर्व विदर्भ में वनों का क्षेत्रफल अधिक है। यहां कृषि योग्य भूमि पश्चिम विदर्भ की अपेक्षा कम है, लेकिन इस इलाके में जलसंपदा अधिक है। इसके उलट पश्चिम विदर्भ में सिंचाई क्षेत्र कम है।

विदर्भ में जलसंपत्ति का नियोजन


विदर्भ में मौजूद जलसंपत्ति पर गौर करें तो यह क्षेत्र गोदावरी और तापी खोर्या के बीच फैला हुआ है। एक अध्ययन के अनुसार विदर्भ में 774 अरब घनफुट पानी उपलब्ध है। भूजल सर्वेक्षण व विकास संगठन के अध्ययनों के मुताबिक यहां 316.7 अरब घनफुट पानी उपलब्ध है। इस प्रकार कुल 1090.7 अरब घनफुट जलसंपत्ति विदर्भ में उपलब्ध है। यहां कई निर्मित और निर्माणाधीन बिजली परियोजनाओं के लिए 563.52 अरब घनफुट पानी का नियोजन किया गया है। इसके अलावा 167.38 अरब घनफुट पानी के नियोजन करने का काम शुरू है। भूगर्भ में मौजूद पानी का 93.11 अरब घनफुट सिंचाई व 11.30 अरब घनफुट पीने के लिए उपयोग करने के पश्चात भी 212.29 अरब घनफुट पानी का नियोजन अब तक नहीं किया गया है। इसका मतलब यह है कि विदर्भ की कुल जलसंपत्ति में से 835.31 अरब घनफुट पानी का नियोजन किया गया है, जबकि 255.39 अरब घनफुट पानी का नियोजन किया जाना बाकी है।

गोदावरी खोरे में मुख्यतः पूर्णा (जी-3), वैनगंगा (जी-7), वर्धा (जी-8), प्राणहिता (जी-9), निम्न गोदावरी (जी-10) व इंद्रावती (जी-11) उपखोरी और इसी तरह तापी खोरे में तापी व पूर्णा उपखोरे हैं, जबकि पूर्णा, पैनगंगा, वर्धा व निम्म गोदावरी उपखोरों व तापी खोरे में उपलब्ध जलसंपत्ति का नियोजन लगभग पूरा किया जा चुका है। प्राणहिता, इंद्रावती और गोदावरी के उपखोरों का नियोजन न किए जाने से इसमें उपलब्ध पानी का उपयोग होना बाकी है। 167.38 अरब घनफुट पानी के नियोजन का कार्य हाथ में लिया गया है, पर वह अभी प्राथमिक अवस्था में है। इसके अलावा निर्माणाधीन परियोजनाओं में से 122 योजनाएं वन संवर्धन अधिनियम 1980 के प्रावधानों के कारण अधर में लटकी हुई हैं। इन अधूरे प्रकल्पों की सिंचाई क्षमता करीब 16 लाख 58 हजार 254 एकड़ है। पूरे विदर्भ में जलसंपत्ति की विलुप्ता के साथ ही वनक्षेत्र भी बड़ी मात्रा में होने के कारण यहां सिंचाई करना दिवास्वप्न साबित हो रहा है।

गोंदिया, गढ़चिरोली और चंद्रपुर जिले में अधिकांश प्रकल्प वनसंवर्धन अधिनियम के कारण अटके पड़े हैं। ये सभी जिले अति पिछड़े हैं और यहां के लोगों की वार्षिक आय बहुत ही कम है। इस भाग में अच्छी बारिश होने के बावजूद खरीफ फसल के रूप में सिर्फ धान की खेती होती है। अगर चंद्ररुर को छोड़ दिया जाए तो किसी क्षेत्र में उद्योगों की स्थापना नहीं की जा सकी है। यहां के लोगों को खरीफ के चार महीनों को छोड़कर कोई काम नहीं रहता है। यानी आय के दूसरे साधन उपलब्ध नहीं हैं। इसके चलते इस क्षेत्र में नक्सलवाद पनप रहा है। वैसे देखा जाए तो इस क्षेत्र में पानी साठा निर्माण करने या बारहों माह बहने वाली वैनगंगा, प्राणहिता, वर्धा नदी पर बड़ी मात्रा में उपसा सिंचाई योजनाएं बनाने का विकल्प है। जलसाठा बनाने के लिए इस क्षेत्र के 33 प्रतिशत से अधिक हिस्से में फैले जंगल, आदिवासी जनसंख्या, आय के दूसरे साधन न होना और वन संवर्धन अधिनियम 1980 के कानून के प्रावधानों में छूट देने की जरूरत है। इतना सब करने के बाद भी विदर्भ के हिस्से की जलसंपत्ति बची रहेगी। इस बची हुई जलसंपत्ति को ध्यान में रखकर ही आंध्रप्रदेश सरकार ने प्राणहिता नदी पर चव्वेला बांध बनाने का नियोजन किया है।

सिर्फ केंद्र सरकार द्वारा नदी जोड़ प्रकल्प के अधीन रहने पर इस क्षेत्र का पानी दक्षिण की ओर ले जाने का नियोजन किया गया है। विदर्भ के हिस्से की इस जलसंपत्ति पर हक जताने की जरूरत है, ताकि उस पानी को विदर्भ के अन्य हिस्सों में ले जाकर उसका उपयोग किया जा सके। यदि पूरे विदर्भ की कुल कृषि भूमि पर गौर करें तो इस पूरे क्षेत्र की सिंचाई के लिए करीब 1419.79 अरब घनफुट पानी की जरूरत है। इसके अलावा पीने के पानी व औद्योगिक इकाइयों की जरूरत पर विचार किया जाए तो यहां करीब 400 अरब घनफुट पानी की कमी है। इससे जाहिर होता है कि यहां पानी की कमी है। दूसरी ओर पश्चिम विदर्भ पर गौर करें तो यहां कम बरसात, वनसंपदा की कम, खारा पानी के बड़े भू-भाग हैं। यहां औद्योगिक विकास का घोर अभाव है। इस इलाके में खेती योग्य जमीन काफी है, लेकिन सिंचाई परियोजनाओं की कमी है। एक आंकड़े के मुताबिक इस क्षेत्र में सिंचित खेती का जितना विकास होना चाहिए उतना नहीं हो पाया है। पूरे महाराष्ट्र की तुलना में यह क्षेत्र सिंचाई के मामले में राज्य के अन्य क्षेत्रों के मुकाबले काफी पिछड़ा हुआ है।

इस वजह से यहां की खेती पूरी तरह मानसून पर निर्भर है। यहां खरीफ की पैदावार को छोड़कर अन्य फसलें नहीं के बराबर होती हैं। हालांकि, एक समय में यह इलाका काफी संपन्न हुआ करता था, लेकिन खेती और किसानों के सामने आने वाली कई परेशानियों के चलते आज यहां के किसान बदहाल हैं। जिस तरह खेती की लागत में वृद्धि हुई, उस हिसाब से फसल उत्पादन में ब़ढोतरी नहीं हुई। नतीजतन, विदर्भ के किसानों के लिए खेती करना पूरी तरह घाटे का सौदा हो गया है। खेती के लिए लिया गया कर्ज न लौटा पाने के कारण किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। जानकारों की मानें तो जब तक इस इलाके में फसलों के दोबारा, तिबारा लेने की सुविधा उपलब्ध नहीं होगी तब तक किसान कर्ज से मुक्त नहीं होंगे और न ही आत्महत्या करने का सिलसिला थमेगा। इस इलाके में कुछ जलसंपत्ति है जिसका नियोजन पूर्ण होने के बाद भी कई प्रकल्पों के कार्य निर्माणाधीन हैं। निम्न पैनगंगा, जीगांव व उर्ध्वतापी टप्पा-1 जैसे बड़े प्रकल्प अभी बनकर तैयार नहीं हुए हैं। इनके बनने के बाद किसानों को काफी फायदा मिल सकता है। विदर्भ में पानी की कमी इन्हीं इलाकों में है। ऐसे में अगर पूर्व विदर्भ की वैनगंगा, प्राणहिता, इंद्रावती और गोदावरी के उपखोरों में उपलब्ध पानी को गोदावरी के दूसरे उपखोरों जैसे वर्धा, पैनगंगा, पूर्णा व तापी खोरा पूर्णा में लाने से इस क्षेत्र में सिंचाई की समस्या का समाधान किया जा सकता है।

विदर्भ के नदी जोड़ प्रकल्प


देश में नदियों को जोड़ने की योजना पर काफी समय से विचार किया जा रहा है। उससे विदर्भ को किसी तरह का लाभ नहीं मिलने वाला है। इसके उलट प्राणहिता नदी का पानी दक्षिण की ओर ले जाने का इरादा है।

1.गोदावरी पानी विवाद और मध्यप्रदेश से विदर्भ को मिलने वाला पानी।


अ. कन्हान प्रकल्प
वैनगंगा की उप नदी है कन्हान। यह नदी मध्यप्रदेश से महाराष्ट्र में प्रवेश करती है। महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश की सीमारेखा तक उपलब्ध जलसंपत्ति 15 अरब घनफुट पानी मानसून के जाने के बाद विदर्भ को मिलता है। इसके लिए जरूरी जलसाठे का निर्माण मध्यप्रदेश में महाराष्ट्र को कराना चाहिए। कन्हान नदी पर मध्यप्रदेश के जामघाट में जलसाठे का निर्माण कर उसके द्वारा 10 अरब घनफुट पानी नागपुर शहर और इस क्षेत्र के सिंचाई के लिए उपलब्ध हो सकता है। इसी तरह 5 अरब घनफुट पानी महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश सीमा पर निर्माणाधीन कोची प्रकल्प से उपसा पद्धति से उमरी व केलवद में संग्रहित कर सकते हैं और यह पानी कन्हान उपखोरा व वर्धा उपखोरे में पानी की अत्यंत कमी होने से इसका उपयोग काटोल-नरखेड़ भाग में किया जाना चाहिए। इसी माध्यम से कन्हान नदी पर जामघाट से वैनगंगा उपखोरे का पानी वर्धा उपखोरे होते हुए वेणा प्रकल्प तक ले जाया जा सकता है। इसके द्वारा नागपुर शहर की प्यास बुझाई जा सकती है। इसी तरह कोची प्रकल्प से वैनगंगा उपखोरे से पानी वर्धा उपखोरे में लाया जा सकता है।

ब. सोन नदी व देव नदी
सोन व देव ये दोनों नदियां बाघ वैनगंगा की उपनदियां हैं। ये दोनों नदियां मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ से आकर बाघ नदी में मिलती हैं और आगे बाघ नदी वैनगंगा नदी में आकर समाहित हो जाती है। इन दोनों नदियों पर महाराष्ट्र सरकार जलसाठा निर्माण कर मानसून के दरम्यान 15 अरब घन फुट पानी वैनगंगा से धापेवाड़ा बैराज में लाया जा सकेगा। धापेवाड़ा बैरेज से उपसा पद्धति द्वारा भंडारा व गोंदिया जिले के करीब 1,87,720 एकड़ क्षेत्र को पानी उपलब्ध कराया जा सकता है। इस योजना से संपूर्ण भंडारा व गोंदिया जिले के सभी भागों में सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराना जरूरी है।

स. उर्ध्वतापी टप्पा-1
महाराष्ट्र के अमरावती व मध्यप्रदेश के बुरहानपुर जिले की सीमा पर प्रवाहित होने वाली तापी नदी पर धारणी के पास खाटियाधुटी घाट पर जलसाठा निर्माण करने और उसमें संग्रहित होने वाले पानी का दोनों राज्यों द्वारा उपयोग किए जाने की योजना है, लेकिन इस योजना के डूबित क्षेत्र में मेलघाट बाघ प्रकल्प के आने से अब बांध स्थल को और नीचे ले जाने की योजना है। पहले के प्रस्ताव में पूरा पानी विदर्भ व मध्यप्रदेश के मध्य बंटना था, लेकिन इस योजना से विदर्भ को खास फायदा होता नहीं दिख रहा है। इस योजना से सबसे अधिक लाभ खानदेश को मिलेगा। हालांकि डूबित क्षेत्र के लोग इस योजना का विरोध कर रहे हैं। इस दौरान तापी नदी का पानी पूर्णा उपखोरे में लाने का अध्ययन किया जा रहा है। मगर इस खोरे से महाराष्ट्र के हिस्से में जरूरत से कम पानी मिलने की संभावना है।

2. वैनगंगा/इंद्रावती का पानी वर्धा, पैनगंगा और गोदावरी व पूर्णा का पानी तापी खोरा से मिलाना


अ. वैनगंगा-नलगंगा टर्निंग योजना
वैनगंगा नदी पर गोसीखुर्द प्रकल्प का निर्माण कार्य शुरू है। नहरों और पुनर्वास का काम करीब-करीब पूरा हो गया है। इस प्रकल्प से उपलब्ध होने वाली कुल जलसंपत्ति में करीब 2721 दलघमी पानी बकाया है। अगर इस पानी को सीधे नदी में छोड़ें तो उस पर महाराष्ट्र-विदर्भ का हक पूरी तरह खत्म हो जाएगा। इन हालात में यहां बचे पानी को उपसा पद्धति से लेकर गोदावरी खोरा से वर्धा उपखोरे व तापी खोरे से पूर्णा उपखोरे में पहुंचाना चाहिए। इसके मद्देनजर यह पानी वैनगंगा से लेकर 478 किमी दूर बुलढाणा जिले की नलगंगा तक पहुंचेगी। इससे करीब 10 लाख 21 हजार 962 एकड़ कृषि क्षेत्र को लाभ मिलेगा। यह प्रकल्प कार्यान्वित होने पर महाराष्ट्र में सबसे अधिक सिंचन क्षेत्र वाला प्रकल्प हो जाएगा यानी पश्चिम विदर्भ में सिंचाई का अनुशेष दूर करने में बड़ी मदद मिलेगी। यह संभव है, पर इसके लिए राजनीतिक व प्रशासकीय इच्छाशक्ति की जरूरत है।

ब. इंद्रावती टर्निंग योजना
गोदावरी खोरा व इंद्रावती उपखोरे से विदर्भ के हिस्से में 41 अरब घनफुट जलसंपदा उपलब्ध है, लेकिन इस उपखोरे के अंतरराज्यीय होने से भोपालपट्टम के साथ अन्य जलविद्युत परियोजनाओं के इस भाग (गढ़चिरोली जिला) में वनसंपदा, अभ्यारण्य आदि होने के कारण इसका कार्य हाथ में लेना मुश्किल है। जिस खोरे में ज्यादा पानी है, उसका पानी कम जलसंपदा वाले खोरे में लाकर किसानों को उपलब्ध कराया जा सकेगा।

नामंजूर प्रकल्पों की जलसंपत्ति का उपयोग


गोदावरी जल विवाद के मद्देनजर प्रस्तावित प्रकल्पों के रुके रहने तक वहां उपलब्ध पूरे पानी का उपयोग करने का अधिकार महाराष्ट्र -विदर्भ को है। इस तरह के प्रकल्पों में वैनगंगा/प्राणहिता उपखोरा में आसोलामेंढा, घोड़ाझरी व नलेश्वर ब्रिटिश काल में पूर्ण हो गए थे। इसके बाद गोसीखुर्द व निम्न चुलबंद प्रकल्प का निर्माण कार्य प्रगति पर है। इसी तरह चंद्रपुर जिले के हुमन प्रकल्प वन विभाग से मंजूरी मिलने के बाद भी एनपीवी व पर्यायी वन लगाने के लिए निधि उपलब्ध न हो पाने से आज तक अटका हुआ है। इसी तरह चंद्रपुर जिले के ही बुटीनाला व गराडी प्रकल्प का पुनः नियोजन किया जा रहा है। इसी जिले के निंबुघाट प्रकल्प डूबित क्षेत्र में वनसंपदा होने के कारण रुका हुआ है। इस प्रकल्प से लाभांवित होने वाले क्षेत्र को अब गोसीखुर्द प्रकल्प से भी लाभ होगा। ऐसे में निंबुघाट के पानी का उपयोग कहां किया जाए इस पर विचार करना होगा। चंद्रपुर जिले के अंधारी व गढ़चिरोली जिले के तुलतुली प्रकल्प के प्रस्ताव को केंद्र सरकार के वन व पर्यावरण मंत्रालय ने नामंजूर कर दिया है। इसी तरह गढ़चिरोली जिले के खोब्रागड़ी, सती, पोहार, चेन्ना, कारवाफा प्रकल्प वनसंवर्धन अधिनियम 1980 के तहत लंबे समय से अटके हुए हैं। भविष्य में इनका कार्य कब शुरू होगा, यह कहना मुश्किल है। विदर्भ में इस तरह कई कारणों से अधर में लटके प्रकल्पों की संख्या 87 है। इनसे करीब 29911 एकड़ वनक्षेत्र प्रभावित हो रहा है। दूसरी ओर विदर्भ में 92,13,100 एकड़ वन परिक्षेत्र है जिसका प्रकल्प क्षेत्र में आने वाले जंगल मात्र 0.32 प्रतिशत है। वनों के कारण रुके पड़े प्रकल्पों की सिंचाई क्षमता 5,21,920 एकड़ है। इन रुके हुए प्रकल्पों को यदि प्रभावित वन परिक्षेत्र उपलब्ध करा दिए जाने के बाद भी इस प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल की 38.27 प्रतिशत वनसंपदा बचती है, जो 33 प्रतिशत वनक्षेत्र से अधिक है। इसके अलावा 35 प्रकल्पों को केंद्रीय वन व पर्यावरण मंत्रालय से कुछ शर्तों के साथ मंजूरी मिलने से 11,36,333 एकड़ क्षेत्र को सिंचाई का लाभ होने की संभावना है। इनमें यवतमाल जिले का निम्न पैनगंगा, बुलढाणा जिले का जीगांव, वर्धा जिले का आजनसरा और चंद्रपुर जिले का हुमन प्रकल्प शामिल हैं। इन बड़े प्रकल्पों की सिंचाई क्षमता 9,84,235 एकड़ है। ऐसे हालात में यहां कार्य तत्काल शुरू किया जाना चाहिए। इसके लिए धनराशि उपलब्ध कराना राज्य व केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है।

विदर्भ में ये उपाय उपयोगी साबित हो सकते हैं


• पूर्ण हुए प्रकल्पों में मौजूद पानी का उपयोग किया जाए।
• अत्याधुनिक तकनीक का प्रयोग कर पानी का सही उपयोग किया जाए। इस तरह अधिक से अधिक भाग को सिंचिंत क्षेत्र में लाया जाए।
• भूमि के ऊपर व भूगर्भ में उपलब्ध जल का उपयोग किया जाए, ताकि जमीन पर उपलब्ध पानी की बचत हो सके।
• प्रकल्पों का निर्माण समय पर किया जाना चाहिए और उसके लिए समय-समय पर धनराशि उपलब्ध कराई जाए।
• वनसंवर्धन अधिनियम 1980 के अंतर्गत लंबित 35 प्रकल्पों को मान्यता मिले।
• वनसंवर्धन अधिनियम 1980 के तहत 87 प्रस्तावित प्रकल्पों को आगे बढ़ाना। जिन प्रकल्पों को मंजूरी नहीं मिल सकती, उनमें उपलब्ध जलसंपदा का अन्यत्र उपयोग करना।
• पूर्व विदर्भ में उपलब्ध जलसंपत्ति को पश्चिम विदर्भ की ओर मोड़ना। इसके लिए कन्हान टर्निंग योजना, गोसीखुर्द-नलगंगा टर्निंग योजना, इंद्रावती टर्निंग योजना के अध्ययन को आगे बढ़ाना।
• मध्य प्रदेश में निर्माण कराए जाने वाले जलसाठे के निर्माण का कार्य तत्काल शुरू करना होगा। विदर्भ के हिस्से में आने वाले पानी का पूरी तरह उपयोग करना चाहिए।

महाराष्ट्र व विदर्भ की तुलना

अनु क्र.

विवरण का प्रतिशत

महाराष्ट्र

विदर्भ

महाराष्ट्र से विदर्भ

1

भौगोलिक क्षेत्र लाख हेक्टेयर

307.713

97.400

31.65

2

खेती योग्य क्षेत्र लाख हेक्टेयर

225.000

57.034

25.35

3

वन क्षेत्र लाख हेक्टेयर

64.335

37.300

57.98

4

जनसंख्या (2001) करोड़

9.69

2.06

21.26

5

मानसूनी बारिश

500 से 3000

550 से 1700

6

पानी की उपलब्धता अ.ध.फू.

गोदावरी

1317.25

677.75

51.45

कृष्णा

1001.92

-

-

तापी

246.39

96.00

38.96

नर्मदा

11.12

-

-

कोंकण की पश्चिमी नदियां

2069.42

-

-

कुल पानी की उपलब्धता अ.ध.फू.

4646.10

773.75

16.65

7

जनसंख्या के प्रमाण मे हर दिन पानी की खपत घ.मी./व्यक्ति

1357.7 घ.मी.

1063.9 घ.मी.

78.36

8

निर्माण हुआ जलसाठा अ.ध.फू.

1172.85

267.79

22.83

9

निर्माण सिचाई क्षमता लाख हेक्टेयर (स्थानीय स्तर छोड़कर)

46.30

10.60

22.89

10

प्रत्यक्ष निर्माण हुआ सिंचाई (लाख हेक्टेयर) जून 2009 अखेर   

25.42

4.31

16.96

11

प्रत्यक्ष सिंचाई की निर्मित सिंचाई क्षमता प्रतिशत में

54.90

40.66

12

सभी प्रकल्प द्वारा (भविष्य में) निर्माण होने वाली सिंचाई क्षमता (लाख हेक्टर में)

126.00

36.73

29.15

13

प्रति हेक्टर पानी की उपलब्धता घ.मी./हेक्टर

4275.मी.

2250.मी.

52.64



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