नदी जोड़ पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण : के.एन. गोविन्दाचार्य

के.एन. गोविन्दाचार्य
के.एन. गोविन्दाचार्य
देश भर की नदियों को जोड़ने का विकल्प एक दिवास्वप्न है। नदी जोड़ का यह प्रकल्प अत्यधिक खर्चीला और देश को दिवालियापन के कगार पर ले जाने वाला है, इसके सस्ते, प्रभावी, अनुभूत और लाभदायी विकल्प मौजूद होने के कारण यह अव्यवहारिक और अयथार्थवादी है। नदी जोड़ का अखिल भारतीय प्रकल्प प्रकृति के साथ खिलवाड़ है और पर्यावरण के लिए खतरनाक है। नदियां केवल मनुष्य के लिए जल का साधन है। यह मान लेना अपरिपक्वता का लक्षण है। नदियां संपूर्ण प्रकृति का अभिन्न अंग है। नदी जोड़ का यह महाप्रकल्प भ्रष्ट राजनेताओं, दलाल बन चुके नौकरशाहों और लुटेरे पूंजीपतियों के लिए जरूर लाभदायी हो सकता है पर उसे देश और आम जनता के लिए लाभदायी, सर्वोच्च न्यायालय ने कैसे मान लिया है यह हमारे लिए अबुझ पहेली है। नदी जोड़ के प्रकल्प का हम विरोध करते हैं और उसके समर्थन में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण मानते हैं। देश से गरीबी, भूखमरी और कुपोषण मिटाने के लिए कृषि का सिंचित होना आवश्यक है।

सिंचाई के लिए जल की उपलब्धता की व्यवस्था करना देश की पहली प्राथमिकता है। इसी प्रकार आम जनता के आरोग्य के लिए स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना भी कर्तव्य है। इन समस्याओं का स्थानीय स्तर पर अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं और समाजसेवकों ने समाधान प्रस्तुत किए हैं। देशभर में अनेक सफल प्रकल्पों की श्रृंखला मौजूद है। भूतकाल में इस देश में जल संरक्षण और सिंचाई सुविधा का पूरा सफल तंत्र था। पहले अंग्रेजों ने उसे योजनापूर्वक तथा आजादी के बाद सत्तासीन लोगों ने उनकी नकल करके उस सस्ती, सुलभ विकेन्द्रीत लाभदायी व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। फिर भी देशभर में बहुत सारे स्थानों पर उस व्यवस्था के दर्शन हो जाते हैं। उस प्राचीन परंपरा को पुनर्जीवित कर तथा गत दशकों में हुए सफल प्रयोगों से देश भर में दोहरा कर सिंचाई और पेयजल समस्या को आसानी से हल किया जा सकता है और यह कार्य भी नदी जोड़ प्रकल्प में आने वाले खर्च के एक चौथाई से भी कम में संभव है।

हम मानते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के सामने इन तथ्यों को ठीक से प्रस्तुत नहीं किया गया गत 200 वर्षों से चली आई समाजविरोधी और प्रकृति विरोधी सोच का ही प्रतिफल है कि जमीन-जल-जंगल-जानवर और जन को प्रभुत्वशाली वर्ग अपने उपभोग की सामग्री मानता है। लाभोन्माद और भोगोन्माद से ग्रस्त होकर मनुष्य सुख की एकांगी व विकृत इच्छापूर्ति के लिए प्रकृति पारिस्थितिकी और पर्यावरण का विनाश कर रहा है। इसलिए यह सारी ही लड़ाई विगत 200 वर्षों के मानवकेन्द्रित विकास बनाम प्रकृति केन्द्रित विकास की अवधारणा के बीच लड़ी जाएगी। मानवकेन्द्रित विकास ने बाजारवाद और भोगवाद से मानव सभ्यता ही नहीं संपूर्ण जीवसृष्टि को ही खतरा पैदा कर दिया है। अतः प्रकृति के अनुकूल जीवन जीने को सही मानने वाली ताकतों को राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन लाभबंद करेगा।

सुरेन्द्र सिंह बिष्ट कार्यकारी संयोजक - राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन, मो.- 09323196743, ईमेल: samagra2020@gmail.com

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