अब हमारे पास नदियों को जोड़ने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। जहां-जहां पानी नदी नहर, तालाब, सरोवर हैं, वहां पेड़-पौधे, जीव-जंतुओं की भरमार है। अत: जब पानी ज्यादा जगह पहुंचेगा, तो पर्यावरण और ज्यादा शुद्ध होगा। अब सवाल सिर्फ राजनीतिक इच्छा शक्ति और जन समूह के दबाव का है, क्योंकि अब सरकारें बिना दबाव के कोई काम नहीं करती। अत: असंगठित ग्रामीण किसान वर्ग को इसमें पहल करनी पड़ेगी। अब तो बस एक ही नारा- 'बाकी सब छोड़ नदी जोड़, जिसका नहीं कोई तोड़।' यह एक राष्ट्रीय हित की महत्वाकांक्षी और कृषि की तकदीर बदलने वाली योजना है। इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए और सर्वसम्मति से इस परियोजना पर शीघ्रातिशीघ्र काम शुरू हो जाना चाहिए।
अभी गर्मी में सिंचाई तो दूर पेयजल के लिए त्राहि-त्राहि मची थी, अब बारिश में बाढ़ से भयंकर तबाही मचेगी। भारत में बरसात के दिनों में बाढ़ स्थायी समस्या है। वर्षा ही जल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत है। खेती को तो 90 प्रतिशत पानी बरसात से मिलता है, लेकिन सही इस्तमाल मात्र 10 प्रतिशत का ही होता है, बाकी नदियों में चला जाता है। पृथ्वी का 72 प्रतिशत हिस्सा पानी में डूबा हुआ है, लेकिन आदमी की पहुंच में एक प्रतिशत मीठा पानी ही है। असल में वर्षा जल पर्याप्त मात्रा में न तो खेत को मिल पाता है, न ही लोगों को। सही नीति और सोच के अभाव के हर साल करोड़ों लीटर मीठा पानी खारे पानी में तब्दील हो जाता है। पानी की पूरी दुनिया में कमी है। आंशका व्यक्त की जा रही है कि अब जल के लिए युद्ध होंगे। इस दृष्टि से हमारे यहां भोगौलिक स्थिति, दगाबाज मानसून और पानी का बेहद खराब प्रबंधन बड़ी समस्याएं हैं। यद्यपि भारत की तरह दुनिया के कई देशों में भी यही समस्याएं हैं, लेकिन अंतर यह है कि वहां की सरकारें अब इस ओर समुचित ध्यान दे रही हैं। हमारे मुल्क का सारा दारोमदार कृषि पर होने के बावजूद नौकरशाही ने इसे कभी प्राथमिकता में नही लिया। इसीलिए जल समस्या भी बढ़ती ही जा रही है। 2009 में 36 प्रतिशत बरसात कम हुई। देश के 77 जिलों में सूखे की स्थिति रही। भूजल रीत गया। राजस्थान का ही उदाहरण लें। कुल 237 ब्लॉकों में से 198 ब्लॉक डार्क जोन में आ गए। ऐसे में भविष्य के लिए पानी के लिए प्राथमिकता से दूरगामी योजनाएं बनाई जानी चाहिए। हमारे यहां भी कई जगह सेम, दलदल व बाढ़ की स्थायी समस्या है, तो काफी जगह सूखे की। इन दोनों समस्याओं से विनाश के साथ-साथ हर साल बड़ी मात्रा में संसाधनों का खात्मा होता है।आजादी के बाद बाढ़ और सूखे में इतने संसाधन स्वाह हो गए हैं कि उनकी गणना ही मुश्किल है। अगर इन संसाधनों का सही उपयोग होता तो बाढ़ सूखा, खाद्यान्न, पेयजल आदि समस्याएं उत्पन्न ही नहीं होती। यद्यपि भाजपा को गांव गरीब का दल नहीं माना जाता था, पर भाजपानीत राजग सरकार ने एक बड़ी लोक कल्याणकारी दूरगामी प्रभाव वाली नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना बनाई थी, लेकिन किसान कल्याणकारी कहलाने वाली कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने इस महत्वाकांक्षी योजना को रद्द कर दिया। लोकतंत्र में निजाम तो बदलते रहते हैं, लेकिन रियाआ और कल्याणकारी योजनाएं नहीं बदलतीं। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यूपीए ने यह योजना बिना किसी औचित्य व तर्कसंगत के कारण खारिज कर दी।
भारत में नदियों को जोड़ने का पहला प्रस्ताव 1972 में ही आ गया था, लेकिन अर्थाभाव का बहाना बना इसे टाल दिया गया। एक बहुत ही लचर व पोचा तर्क दिया गया कि इससे पर्यावरण को नुकसान होगा। मैं एक ऐसी जगह से हूं, जहां सदियों से सूखे की समस्या है। इसलिए रेगिस्तान के लिए यह योजना किसी भी नियामत से कम नहीं। इस संबंध में हजारों विशेषज्ञों से सलाह ली तो इससे पर्यावरण नुकसान की कोई सारभूत समस्या समझ में नहीं आई। भारत में छोटी नदियों की तो बात ही क्या, बड़ी नदियों को भी वास्तविक रूप में जोड़ना संभव व टिकाऊ है, क्योंकि आखिर में तो छोटी-बड़ी सभी नदियां एकाकार हो जाती हैं। इस योजना के विपक्ष में जो सबसे बड़ा तर्क दिया जाता है, वह यह है कि नदी का अपना अलग चरित्र और पारिस्थितिकी तंत्र होता है।
सब नदियों में अलग-अलग वनस्पति व जीव-जंतु होते हैं और पानी का पीएच लेवल भी अलग-अलग होता है। अत: एक नदी के जीव-जंतु दूसरी में जिंदा नहीं रह सकते। इन पर्यावरण के पैरोकारों के पास इस बात का कोई भी औचित्यपूर्ण उत्तर नहीं है कि जब बाढ़ का पानी मैदानों-खेतों में फैलता है और अंत में समुद्र के खारे पानी में मिलता है, तब इन जीव जंतुओं का क्या होता है। बाढ़ के पानी में जीव-जंतु भी बहकर आते हैं, जब वह पानी सूख जाता है तो वो सारे जीव-जंतु मर जाते हैं। इसकी गणना कोई नहीं करता।
समुद्र में गिरने से पहले अधिकांश नदियां आपस में मिल जाती हैं। गंगा व ब्रह्मपुत्र दोनों बड़ी नदियां आपस में मिलकर सुंदरवन डेल्टा बनाती हैं। यमुना भी गंगा में मिलती है। सतलज-व्यास-रावी-चिनाब-झेलम-गोमती आदि कई नदियां सिंधु से मिलती हैं। बहुत सी नदियां स्वत: ही मार्ग बदलती रहती हैं। ब्रह्मपुत्र अपना मार्ग बलदती रहती है, दो-तीन नदियां बहुत जगह मिलती हैं, जिसे संगम कहा जाता है। भारतीय संस्कृति में संगम को बड़ा पवित्र माना जाता है। तीन नदियां मिलती हैं, तो त्रिवेणी बन जाती है।
प्रत्येक छोटी नदी बड़ी में और बड़ी अंत में खारे पानी के सागर में समा जाती है। तब जीव-जंतु कहां जाते हैं और कैसे जिंदा रहते हैं, इसका जबाब किसी के भी पास नहीं है। जब स्वाभाविक संगम त्रिवेणी समुद्र में समाने से पर्यावरण को नुकसान नहीं होता तो विशेषज्ञों द्वारा नदियों को आपस में मिलाने से पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होगा। कितनी बड़ी विडंबना है कि एक तरफ तो हम बूंद-बूंद बचाने का संकल्प करते हैं, तो दूसरी तरफ हर साल अरबों घन लीटर मीठा पानी समुद्र में जाकर खारा हो जाता है और अरबों जीव-जंतु मर जाते हैं। साथ ही पानी के बहाव के साथ हर वर्ष करोड़ों टन उपजाऊ मिट्टी समुद्र में समा जाती है।
हम और हमारी धरती प्यासी है। भूजल का भी भारी दोहन हो चुका है। ऐसे में पानी के लिए नदियों को जोड़ने की परियोजना को प्राथमिकता देनी चाहिए। हमारे यहां एक और ढर्रा बेहद पीड़ादायक है। जिसने खेत ही नहीं देखा, वह कृषि विशेषज्ञ। जिसे पर्यावरण का पर्याय ही पता नहीं, वह पर्यावरणविद् हो जाता है। योजनाकार परियोजनाएं जनहित की बजाय नौकरशाही के हितों के हिसाब से बनाते हैं। दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह भी हो गई कि राजनेताओं में जनहित व इच्छाशक्ति का नितांत अभाव हो गया। कोई भी सही मुद्दा नहीं उठाना चाहता। यूपीए में अब इस मुद्दे को कोई भी इसलिए नहीं उठाएगा, क्योंकि राहुल गांधी ने इससे पर्यावरण को नुकसान बता दिया।
नदियों को जोड़ने से नुकसान किसी को भी नहीं होना है। यह परियोजना देश की मजबूत जीवन रेखा बन जाएगी। जहां-जहां एक नदी में दूसरी नदी को जोड़ा जाएगा तो वहां पेड़-पौधे, वनस्पति व जीव-जंतु बड़ी संख्या में बढ़ेंगे। इससे पर्यावरण को फायदा होगा। पेड़ों की संख्या व छाया बढ़ने से ऑक्सीजन बढेगी और ग्लोबल वार्मिंग को कम करने में मदद मिलेगी। एक नदी से दूसरी नदी के बीच के रास्ते में भूजल का स्तर बढेगा। जहां-जहां नहरों की संख्या अधिक है, वहां भूजल स्तर ऊंचा और मीठा हो गया। हरियाणा इसका उदाहरण है। बिहार में नदियां हैं, तो जल स्तर ऊंचा है। नदियों के जुड़ने से पेयजल समस्या के समाधान के साथ सिंचाई हेतु भी पानी मिलेगा। किसान व खेती की दशा सुधरेगी व उत्पादन बढेगा। वर्षाजल व उपजाऊ मिट्टी बहकर समुद्र में नही जाएगी। बाढ़ व सूखे की तबाही पर अंकुश लगेगा।
शुरूआती दौर में बाढ़ के पानी को ही कम पानी वाली जगह भेजा जा सकता है। अब हमारे पास नदियों को जोड़ने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। जहां-जहां पानी नदी नहर, तालाब, सरोवर हैं, वहां पेड़-पौधे, जीव-जंतुओं की भरमार है। अत: जब पानी ज्यादा जगह पहुंचेगा, तो पर्यावरण और ज्यादा शुद्ध होगा। अब सवाल सिर्फ राजनीतिक इच्छा शक्ति और जन समूह के दबाव का है, क्योंकि अब सरकारें बिना दबाव के कोई काम नहीं करती। अत: असंगठित ग्रामीण किसान वर्ग को इसमें पहल करनी पड़ेगी। अब तो बस एक ही नारा- 'बाकी सब छोड़ नदी जोड़, जिसका नहीं कोई तोड़।' यह एक राष्ट्रीय हित की महत्वाकांक्षी और कृषि की तकदीर बदलने वाली योजना है। इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए और सर्वसम्मति से इस परियोजना पर शीघ्रातिशीघ्र काम शुरू हो जाना चाहिए।
(लेखक राजस्थान किसान कामगार कल्याण समिति के अध्यक्ष हैं)
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